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गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शताब्दी

पूरे विश्व में निर्धनता, बेकारी, लैंगिक भेदभाव के खिलाफ तथा सामाजिक न्याय एवम् समानता के लिए आवाज उठाने वाली महिलाओं द्वारा हर साल 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पूरे जोश एवम् खरोश के साथ मनाया जाता है। पिछले कुछ दशकों में समाचार एवम् संचार माध्यमों में इसकी चर्चा शुरू हो गयी है। इस पर विशेष लेख, परिचर्चा एवम् फीचर आदि प्रस्तुत किए जाने लगे हैं।
    इस साल 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 100वीं बार मनाया जायेगा। इस अवसर पर एक उत्सुकता स्वाभाविक है कि आखिर इसकी शुरूआत क्यों और कैसे हुई? कौन-सी ऐसी बात है कि पूरे विश्व की जागरूक एवं संघर्षशील महिलायें हर शहर में 8 मार्च को कहीं न कहीं एकत्रित होती हैं और कुछ चर्चा करती हैं खुद के बारे में, अपने बेहतर भविष्य के लिए संघर्षों की शपथ लेती हैं और कुछ नारे बुलन्द करती हैं।
    अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के इतिहास पर नजर डालने के लिए हमें अंतर्राष्ट्रीय महिला आन्दोलन की पुरोधा क्लारा जे़टकिन से शुरू करना होगा। सर्वविदित तथ्य है कि आधुनिक उद्योगों का सफर यूरोप से शुरू हुआ और स्वाभाविक रूप से यूरोप की महिलाओं ने ही सबसे पहले आधुनिक उद्योगों के संसार में प्रवेश किया।
    सन 1857 में क्लारा जे़टकिन का जन्म बर्लिन में एक जर्मन मजदूर परिवार में हुआ था और 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने पोशाक (होजरी) बनाने वाली एक फैक्ट्री में मजदूरी करना शुरू किया। काम के दौरान उन्होंने देखा कि पुरूषों की अपेक्षा महिला मजदूरों को वेतन तो कम दिया जाता था परन्तु काम अधिक लिया जाता था। भूमंडलीकरण के दौर में ऐसा फिर होने लगा है। महिला मजदूरों को मजदूरी करने के बाद घर पहुंच कर बच्चों की भी देखभाल करनी पड़ती थी। उन्हें ही बर्तन मांजने होने थे, खाना बनाना होता था और कपड़े भी साफ करने होते हैं। ऐसा अभी भी होता है। इस दोहरे शोषण की टीस क्लारा जे़टकिन कहीं बहुत गहराई से महसूस करती रहीं और इस टीस ने उन्हें अपने काम के स्थान पर मजदूर औरतों को उनके अधिकार व काम की सुविधाओं के लिए संगठन बनाने की प्रेरणा के रूप में सामने आया।
    क्लारा जे़टकिन ने फैक्ट्री के अन्दर महिलाओं और पुरूषों के मध्य समानता का मुद्दा उठाया। उन्होंने अपनी सभी महिला संगिनियों को ट्रेड यूनियन की सदस्यता लेने के लिए उकसाया और प्रेरित किया। एक हड़ताल में भाग लेने के लिए क्लारा जे़टकिन को उनके पति ओसिप सहित देश निकाला दे दिया गया। वे सपरिवार पेरिस आ गयीं परन्तु फ्रांस की पुलिस उनके पीछे पड़ी थी। भूख से क्लारा जे़टकिन के पति ओसिप और उनके बच्चें काल कवलित हो गये। अकेली पड़ चुकी क्लारा जे़टकिन बर्लिन वापस चली आयीं। वापस आकर सन् 1890 में क्लारा ने लिब्नेख्त के साथ जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया।
    स्टटगार्ड में सन् 1907 में क्लारा जे़टकिन ने समाजवादी महिलाओं का पहला अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया। स्वाभाविक रूप से क्लारा जे़टकिन इस सम्मेलन में महासचिव निर्वाचित हुईं। वे उस समय के महिला आन्दोलन की जानी-मानी नेत्री बन चुकी थीं।
    इस सम्मेलन के बाद सन् 1908 में 8 मार्च को अमरीका की सूती मिलों की महिला मजदूरों ने वेतन में बढ़ोतरी और काम के घंटे तय करने के लिए हड़ताल कर दी। आन्दोलनरत महिला मजदूरों में फूट डालने और उनके मनोबल को तोड़कर आन्दोलन को असफल बनाने के लिए क्रूर दमन का रास्ता अख्तियार किया गया। 8 महिला मजदूर तो शहीद हो गयीं, अनगिनत घायल हुयीं और तमाम को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।
    क्लारा जे़टकिन के अथक प्रयासों और दूरदृष्टि से सन 1910 में समाजवादी महिलाओं का दूसरा अंतराष्ट्रीय सम्मेलन कोपेनहाॅगन में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन की अध्यक्षता का प्रस्ताव उन्हें ही मिला। उन्होंने इस सम्मेलन में एक प्रस्ताव रखा कि दुनिया भर की महिलाओं का भी अपना एक ऐसा दिन होना चाहिए जिस दिन वैश्विक स्तर पर वे एकत्रित होकर असमानता के खिलाफ और अधिकारों की मांग को लेकर संयुक्त रूप से संघर्ष करते रहने का प्रण करें। क्लारा जे़टकिन के दिमाग में अमरीका में महिलाओं के आन्दोलन के इस रक्तरंजित दिवस के अलावा उस समय कोई और तिथि नहीं थी और उन्होंने इसका उल्लेख करते हुए सम्मेलन में प्रस्ताव रखा कि इसी महिला शहीद दिवस को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस घोषित किया जाये। उनके प्रस्ताव को एक स्वर और भारी जोश के साथ स्वीकार कर लिया गया।
    यहां एक अन्य उल्लेख जरूरी है कि सम्मेलन द्वारा पारित प्रस्ताव के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर आयोजित होने वाले सम्मेलनों में -
    पूरे संसार की महिलाओं के साथ एकजुटता प्रदर्शित की जाती है;
    संसार में शान्ति की स्थापना और युद्ध के अन्त की मांग की जाती है;
    लैंगिक समानता की मांग करते हुए अनवरत संघर्ष का प्रण किया जाता है;             और
    तीन ‘के’ के अंत की मांग की जाती है।

    जर्मन भाषा में चर्च, शिशु और रसोई के शब्द ‘के’ अक्षर से शुरू होते हैं। चर्च की अगुवाई में जर्मनी के सामन्ती समाज में कहा जाता था कि महिलायें केवल खाना बनाने वाले के रूप में, मां के रूप में और पादरियों की सेविका के रूप में अच्छी दिखाई देती हैं। सम्मेलन ने पूरे विश्व की महिलाओं का इन्हीं तीन ‘के’ खिलाफ विद्रोह का आह्वान किया।
    सन 1911 में सर्वप्रथम 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस जर्मनी, आस्ट्रिया, डेनमार्क एवं स्वीटज़रलैण्ड में मनाया गया तथा सन 1913 से रूस एवं अन्य यूरोपीय देशों में बड़े जोश-खरोश एवं संघर्ष के नए संकल्पों के साथ मनाया जाने लगा। आज तो सम्भवतः शायद ही ऐसा कोई देश होगा जहां अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस न मनाया जाता हो।
भारत में महिला दिवस
    1947 के पूर्व भारत में राजनीति और संघर्षों में महिलाओं के योगदान को नकारा नहीं जा सकता परन्तु पश्चिमी देशों की तुलना में यह अनुपात कम अवश्य रहा। उसके दो कारण हो सकते हैं - एक तो महिलाओं को भारत में उस समय तक शिक्षा से वंचित रखा जाता था और दूसरा उन्हें घर एवं गांवों के बाहर आने-जाने नहीं दिया जाता था। उस दौर में जिन महिलाओं को शिक्षा के लिए घर से बाहर निकलने का अधिकार मिला, उसमें से तमाम ने राष्ट्रीय आन्दोलन की तमाम धाराओं में अपनी सहभागिता मजबूती के साथ दर्ज की। लेकिन जिन महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने का मौका नहीं मिला, उनमें से भी तमामों ने किसी न किसी तरह से अपनी सहभागिता को दर्ज अवश्य किया।
    फिर भी उस अवधि में महिलाओं का खुद के लिए कोई आन्दोलन चला हो, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। श्रीमती सरोजनी नायडू उस समय से सबसे बड़े महिला संगठन अखिल भारतीय महिला कांफ्रेंस की अध्यक्षा रह चुकी थीं। कांग्रेस मंत्रिपरिषद बनने के दौरान उनके नेतृत्व में एशियाई देशों की महिलाओं का सम्मेलन दिल्ली में हुआ। आजादी के बाद वे पहली महिला राज्यपाल के रूप में उत्तर प्रदेश की राज्यपाल बना दी गयीं। उनसे महिलाओं की अपेक्षा बढ़ी। अंतर्राष्ट्रीय महिला फेडरेशन का एक प्रतिनिधिमंडल कामरेड सिमोन बर्टराइट के नेतृत्व में उनसे मिला और फासिज्म एवं युद्ध के खिलाफ तथा समानता एवं सामाजिक न्याय के लिए दुनियां भर की औरतों के साथ एकजुट होने का उन्हें निमंत्रण दिया। उत्तर में सरोजिनी नायडू ने कहा कि भारत अहिंसा और शान्ति का मार्ग अपना चुका है और हमें युद्ध से क्या लेना-देना? उन्होंने यह भी कहा कि स्त्री-पुरूष समानता के अधिकार भी संविधान में मूल अधिकारों के रूप में शामिल कर लिये गये हैं। हमें दुनियां भर की औरतों के साथ मिल कर संघर्ष करने की कोई जरूरत नहीं हैं। यह उदासीन और दो टूक उत्तर पाकर अंतर्राष्ट्रीय महिला फेडरेशन का प्रतिनिधिमंडल वापस लौट गया। इस घटना का उल्लेख बहुत जरूरी है क्योंकि यह दिखलाता है कि राजनीतिक रूप से महिलाओं के आन्दोलन के प्रति तमाम बुर्जुआ पार्टियों के नेताओं का शुरूआती दौर से रूख क्या था? इसका उत्तर हमें बता सकता है कि संसद और विधायिकाओं में महिला आरक्षण का बिल एक दशक से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी लम्बित क्यों पड़ा है?
    1953 में इसी अंतर्राष्ट्रीय महिला संगठन ने अपने ‘कोपनहागन विश्व महिला सम्मेलन’ में शामिल होने का निमंत्रण अरूणा आसफ अली को भेजा। 8 मार्च 1953 को निमंत्रण पर विचार करने और अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने के लिए चन्द महिलायें अरूणा आसफ अली के कमरे में एकत्रित हुईं। और इसी छोटी सी बैठक में हिन्दुस्तान में सम्भवतः पहली बार अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की शुरूआत हुई।
    इसी बैठक में कोपनहागन सम्मेलन में भाग लेने का फैसला भी किया गया। कोपनहागन से लौटकर प्रतिनिधिमंडल ने 1954 में भारतीय महिला फेडरेशन (एनएफआईडब्लू) का स्थापना सम्मेलन कलकत्ता में आयोजित किया। सम्मेलन के निर्णयों के अनुसार 1954 से 8 मार्च भारत में भी महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
    एक लम्बे इंतजार और संघर्ष के बाद 1985 में नैराबी में सम्पन्न विश्व महिला सम्मेलन के बाद तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को सरकारी स्तर पर मान्यता प्रदान कर दी। इसके बाद से 8 मार्च भारत में सरकारी तौर पर भी मनाया जाने लगा।
    तब से अब तक न केवल विश्व के दूसरे हिस्सों में बल्कि हिन्दुस्तान में भी महिला आंदोलन ने एक लम्बा सफर तय किया है।

-प्रदीप तिवारी

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