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शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

ममता का डि-रेल बजट

रेल बजट जब भी पेश किया जाता है तो आम तौर से आम नागरिकों को इसकी चिन्ता सताती है कि कहीं रेल के किराये में तो वृद्धि नहीं की गई? यदि यह वृद्धि नहीं होती है तो नागरिकों को कुछ सन्तोष रहता है।सर्वविदित है कि संसद का बजट सत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण सत्र होता है। वास्तव में यह सत्र सरकार की आर्थिक नीतियों का आईना होता है। अगर आप किसी मेले में जायें तो मेले में कभी-कभी शामियाने लगे होते हैं जिनके अन्दर तमाशा दिखाने वाले अलग-अलग प्रकार के आईने लगा देते हैं। इन आईनों में अगर इन्सान अपनी शक्ल देखता है तो कहीं वो मोटी, कहीं पतली, कहीं लम्बी तो कहीं ठिंगनी दिखाई देती है। एक आध आईना ऐसा भी लगा होता है जहां इन्सान को अपनी जैसी शक्ल दिखाई देती है।ममता जी का रेल बजट या उसको कहा जाये डि-रेल बजट कुछ ऐसे ही तमाशों का शामियाना है, आदमी को अपने जैसा कुछ आईना बस रेल किराये न बढ़ने में ही दिखता है। कुछ रेलगाड़ियों को बढ़ा देने से, कुछ रिजर्वेशन शुल्क घटा देने से आम आदमी को मुश्किल भरी जिन्दगी में कुछ और बोझ न बढ़ने से कुछ तसल्ली तो होती है। यदि बात यहीं पर खत्म हो जाये तो सन्तोष हो, लेकिन ममता रेल में सब कुछ ऐसा सीधा-सादा नहीं जैसाकि दिखाया गया है।पश्चिम बंगाल में अगले वर्ष चुनाव होने हैं। सुश्री ममता बनर्जी वहां की सत्ता को हथियाना चाहती हैं, इसलिए उन्होंने अपने रेल बजट को उक्त हेतु को साधने का एक वाहक बनाया है। पश्चिम बंगाल के लिये तो घोषणाओं का पिटारा ही खोल दिया गया हैं। उन घोषणाओं का लागू होना उनका सरोकार नहीं है। इस कर्म में सुश्री ममता अकेली नहीं हैं, यूपीए-2 की पूरी सरकार भी इसमें पूरी तरह शरीक है।क्या वास्तव में यह रेल बजट इतना लोक-लुभावना है जैसाकि उसको एक अटपटी सी भाषा शैली में पेश किया गया था? बजट सत्र का उद्घोष राष्ट्रपति महोदया द्वारा अपने अभिभाषण से किया गया। अभिभाषण में ”आम आदमी“ का जिक्र बराबर आया परन्तु पूरे भाषण का सार तत्व नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को जारी रखना ही है। उसी की पैरोकारी है, और उसी दृष्टि के अनुरूप यह रेल बजट प्रस्तुत किया गया है।पिछले रेल बजट की घोषणाओं पर यदि दृष्टिपात किया जाये तो पता लगता है कि वो पूरी नहीं की गयीं। जो कुछ कार्य सम्पन्न हुए उसमें भी सरकारी धन प्रस्तावित लक्ष्यों से कम व्यय किया गया और अपेक्षित प्राप्तियाँ बजटिये अनुमानों के प्रतिकूल रहीं। वर्ष 2009-10 की सकल शुल्क प्राप्तियाँ बजट अनुमानों से 65 करोड़ रूपये कम रहीं हैं तथा योजना निवेश में भी 2009-10 के बजटीय लक्ष्यों से 497 रूपये कम पड़े हैं। रेलवे का आपरेटिंग अनुपात भी 2009-10 में 2008-09 की अपेक्षा 90.5 प्रतिशत से बढ़कर 94.7 हो गया। विभिन्न सूचना माध्यमों में छपे यह तथ्य पूंजीपति वर्ग की लोक लुभावन नारों के अन्तर्गत छिपी चालाकी को अच्छी तरह से बयान करते हैं।पश्चिम बंगाल में अपने राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये रेलवे मंत्री ने अभिनव प्रयोग किये हैं। रेलवे मंत्रालय तो दिल्ली में है परन्तु सियालदह रेलवे स्टेशन पर रेल मंत्री का एक कार्यालय एवं सचिवालय भी खुल गया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पूरी जानकारी में भारतीय संविधान की आत्मा के विरूद्ध रेल मंत्री का अधिकतर समय वहीं व्यतीत होता है। विचित्र हाल है।रेल मंत्री की दिल्ली से निरन्तर गैरहाजिरी भी एक कारण है जिसकी वजह से रेलवे में चालू वित्त वर्ष में दुर्घटनायें बहुत अधिक बढ़ी हैं। अभी तक रेल दुर्घटनाओं की संख्या 120 से अधिक के आंकड़े को पार कर चुकी है। उनमें हुई जान-माल की हानि का अन्दाजा पाठकगण स्वयं लगा सकते हैं। एक वह भी आदर्श था जब दुर्घटनाओं के कारण रेल मंत्री पद से इस्तीफा तक दे देते थे। परन्तु नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों की संस्कृति में ये आदर्श तो विलुप्त हो गये हैं। सम्भवतः वो पोंगापंथी अथवा पिछड़ी हुई विचारधारा की श्रेणी में आ चुके हैं। नव-उदारवादी आर्थिक नीतियां मानवीय मूल्यों और सरोकारों के विपरीत एक नई स्वार्थवादी संस्कृति को गढ़ रही है।बजट प्रस्तुत करने के पूर्व सुश्री ममता बनर्जी ने ‘विजन 2020’ के नाम से रेल विकास की योजना भी पेश की जिसमें कहा गया कि सन् 2020 तक 25 हजार लम्बी नई रेल लाइनें बिछाई जायेंगी। परन्तु इसके लिए धन कहां से आयेगा, इसका कोई ठोस ब्यौरा नहीं था क्योंकि केन्द्र सरकार के वित्त मंत्रालय ने तो स्वीकृति दी नहीं।आगामी चालू वित्त वर्ष की अनकों घोषणायें योजना आयोग की बिना स्वीकृति के ही की गई हैं। 2010-11 में रेलवे निवेश को मामूली सा कुल 1142 करोड़ रूपये बढ़ाया गया है। अनेकों नई ट्रेनों को चलाने का एलान है परन्तु अच्छी एवं सुविधाजनक यात्रा के सन्दर्भ में समस्त विचार एवं उपाय गायब हैं। यदि यात्री किसी भी एक रात की यात्रा के लिए जाये और उसके पास रिजर्वेशन का टिकट नहीं है तो उसको साधारण डिब्बों में भेड़-बकरियों के बाड़े की तरह बैठकर ही जाना पड़ेगा। डिब्बे में शौचालय तक जाने के लिए लाले पड़ जायेंगे। इन डिब्बों में रेलवे पुलिस के सिपाही यात्रियों को बैठाने हेतु जो वसूली करेंगे उसकी तो मार और सितम ऊपर से है। क्यों नहीं लम्बी दूरी की ट्रेनों में साधारण डिब्बे बढ़ाये जा सकते हैं? जिससे आम आदमी यात्रा कर सके। क्यों नहीं रेलवे के साधारण कोचों में शौचालय, लाईट, पंखों, सीटों एवं सफाई की अच्छी व्यवस्था हो सकती? साधारण डिब्बों की कमी के कारण जब यात्री स्लीपर कोच में बैठ जाते हैं तो वहां टीटी और जेब काटने को तैयार रहते हैं। अगर साधारण कोच बढ़ जायें तो लोगों को इस जेबमारी से मुक्ति मिल जाये। परन्तु इसके सुधार हेतु भी कोई उपाय नहीं किया गया है। गर्मी आते ही रेलवे स्टेशनों पर पानी के नल सूख जाते हैं। अब आम आदमी के पास रेल नीर या अन्य नीर खरीदने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। रेलवे प्लेटफार्मों और रेलवे ट्रैक की गन्दगी की सफाई का भी कुछ असरदार उपाय नहीं किया गया है। कुछ वीआईपी ट्रेनों को छोड़ दें तो बाकी ट्रेनों में भोजन की व्यवस्था अत्यन्त खराब है। पैन्ट्री कारों में भोजन गन्दगी में बनाया जाता है और भोजन की आपूर्ति ठेकेदारों के माध्यम से होती है और यह भोजन अत्यन्त ही घटिया किस्म का होता है। नौकरी पेशा लोगों की तनख्वाहें बढ़ने के कारण अब बहुत से नागरिक ए.सी. श्रेणी में भी यात्रा करते हैं पर वहां भी रेलवे की सुविधाओं में कोई सुधार नहीं हुआ है। वास्तव में गिरावट है। यात्रियों से टिकट के मूल्य में बिछाने के कपड़ों का पैसा ले लिया जाता है परन्तु कोच में चलने वाले ठेकेदारों के कर्मचारी बिना मांगे तौलिया तक नहीं देते हैं। ओढ़ने की चादर एक ही बर्थ पर दो-दो बार दे दी जाती है। इसके सुधार के लिए कोई भी उपाय नहीं किए गये हैं। धुलाई के पैसे बचाने की नियत से ठेकेदार के कर्मी यही करते रहेंगे।वर्ष 2009 के बजट से वर्ष 2010 के बजट में अगर इन बिन्दुओं पर कुछ प्रगति हुई होती तो सबको दिखाई देती पर ऐसा नहीं हुआ। बावजूद इसके कि सुश्री ममता बनर्जी ने अपने 3 जुलाई 2009 को प्रस्तुत बजट भाषण में बड़े रौब से इन बिन्दुओं पर ‘दृष्टिगोचर सुधार करना मेरी प्राथमिकता है’ कहा था। पाठक आगे देखेेंगे कि ममता जी ने सारी समस्याओं का निदान निजीकरण एवं ठेकेदारी प्रथा के आधार पर ही करने के मंत्र का जाप किया है।नव-उदारदवादी आर्थिक नीतियों के स्वपन जाल के महामंत्र के अनुरूप सभी घोषित कार्यक्रम पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) माडल के आधार पर कार्यान्वित किये जायेंगे। रेलवे स्टेशनों का आधुनिकीकरण, नई रेल लाइनों का बिछाना, भाड़ा तथा यात्री कारीडोरों, लोकोमोटिव, वैगन एवं कन्टेनर निर्माण, रेल एक्सल फैक्ट्री, पार्किंग काम्पलेक्स एवं रेल नीर बाटलिंग कारखाने सभी निजी क्षेत्रों को सौंप दिये जायेंगे।वास्तव में पीपीपी माडल सरकारी क्षेत्र का निजीकरण करने का ही एक चाशनीयुक्त नाम है। यह सब करके सुश्री ममता और यह यूपीए-2 सरकार क्या ‘आम आदमी’ की सेवा कर रही है? या उस ‘आम आदमी’ को निजी क्षेत्र के मुनाफे की लूट का चारा बनाने के उपक्रम को ही ‘सर्वसमावेशी’ कहा जाता है?सुश्री ममता बनर्जी का चाहे बजट हो, श्वेत पत्र हो या विजन-2020 दस्तावेज सबमें आर्थिक गतिविधियों के लिए एक ही लक्ष्य है और वो लक्ष्य वही है जो यूपीए-2 सरकार का है कि पूरी अर्थव्यवस्था को पूंजीपतियों के रहमो-करम पर छोड दें और सरकार सिर्फ ‘समर्थकारी’ भूमिका तक ही सीमित रहे। यही व्यवस्था श्री प्रणव मुखर्जी ने अपने बजट में भी की है।अपनी इस असली मंशा को छुपाने की गर्ज से ‘आम-आदमी’ एवं ‘सर्वसमावेशी’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। बजट भाषण में बंगाल के चुनावों को निगाह में रखते हुए कहा गया है कि ‘अपने रेल परिवार को विश्वास दिलाना चाहूंगी कि हम रेलों का निजीकरण नहीं करने जा रहे हैं, यह एक सरकारी संगठन बना रहेगा।’परन्तु यह घोषणा एवं अन्य शब्द निरे ढपोर शंख हैं। ‘हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और’ की कहावत को सब जानते हैं। कुल दो महीने पहले दिसम्बर 2009 को पेश किये गये ‘श्वेत पत्र’ में ममता जी ने कहा है कि ‘सरकार के साथ तटस्थ सम्बन्ध बनाने के लिए भारतीय रेल निगम का निगमीकरण किया जायेगा’ तथा ‘मेन्टीनेन्स एवं उत्पादन जैसी गतिविधियों को आउटसोर्सिंग’ में दे दिया जायेगा। क्या यह प्रक्रिया निजीकरण की ओर बढ़ने का इशारा नहीं करती है। अगर नहीं करती है तो फिर श्वेत पत्र में सुश्री ममता ने इनका उल्लेख क्यों किया है?अपने ‘विजन 2020’ दस्तावेज में बड़ी-बड़ी बातों का उल्लेख करते हुए सुश्री ममता कहती हैं ”अगले 10 वर्षों में (अर्थात 2020 तक) लगभग 14 लाख करोड़ रूपये की आवश्यकता होगी उसमें से विश्व स्तरीय स्टेशनों और उच्च गतिवाले गलियारों में निवेश सार्वजनिक निजी भागीदारी के माध्यम से जुटाया जायेगा। बंदरगाह, सम्पर्क परियोजनाओं, बिजली/डीजल रेल इंजन निर्माण यूनिटों और नये सवारी डिब्बों के निर्माण यूनिटों को स्थापित करने के लिये अपेक्षित निवेश का एक मुख्य भाग विशेष प्रयोजन योजना या संयुक्त उद्यम के जरिये से निजी क्षेत्र की भागीदारी से जुटाया जायेगा।“ अगर विचारों में कुछ भी निरन्तरता है तो वो यह कि रेलवे को निजीकरण की राह पर चलाया जायेगा।हमने ऊपर उल्लेख किया है कि ‘विजन-2020’ दस्तावेज में यह भी कहा गया है कि अगले 10 वर्षों में 25,000 कि.मी. नई लाइने बिछाई जायेगी। आगामी वित्त वर्ष का लाइन बिछाने का लक्ष्य भी 1000 कि.मी. रखा है। जबकि रेल मंत्री स्वयं अपने बजट भाषण में कहती हैं कि पिछले 5 वर्षों का नई लाइन बिछाने का औसत 219 कि.मी. मार्ग है। तो ऐसा क्या जादू हो जायेगा कि यह औसत एक वर्ष में 1000 कि.मी. हो जायेगा? सिर्फ बातों के बताशे ही बताशें हैं।वो कहती है ‘हमारा कर्म रचनात्मक तथा अभिनव है। हमारे विचार सृजनात्मक है’ वास्तव में कर्म तो अभिनव है परन्तु उसकी नवीनता विध्वंस का वाहक है।घोषणाओं को करने में किसी धन का खर्चा नहीं होता है पर हकीकत स्वयं ममता जी अपने ‘श्वेत-पत्र’ - जिसमें उन्होंने लालू प्रसाद यादव को भी राजनैतिक रूप से फटकार लगाई है - में मुद्दा उठाते हुये बयान करती है कि ‘यह महत्वपूर्ण मुद्दा है कि बड़ी संख्या में स्वीकृत योजनायें लम्बित रहती हैं तथा समयबद्ध तरीके से इन कार्यों को पूरा करने के लिये पर्याप्त वित्त व्यवस्था नहीं होती है।’रेल मंत्री और यूपीए-2 सरकार खोखली नारेबाजी तो कर सकती है पर देश के करोड़ों नर-नारियों को गुमाराह नहीं किया जा सकता।
(अरविन्द राज स्वरुप)

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