भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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सोमवार, 26 अप्रैल 2010

पॉकेटमार बजट

यह बजट क्या है? एक छलावा है, ईमानदार की जेब काटकर बेईमानों के पॉकिट में पैसे डालने की कला है। इसीलिए तो उद्योग जगत ने इस कलाबाजी के लिए वाह-वाह कहा तो आम आदमी में त्राहिमाम मचा है।हरेक बजट का एक राजनीतिक दर्षन होता है। वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने उस दर्षन का संकेत अपने बजट भाषण के प्रारंभ में ही कर दिया कि बजट का फोकस सार्वजनिक क्षेत्र से हटकर निजी खिलाड़ियों (प्राइवेट एक्टर्स) की तरफ किया गया है और उसमें सरकार की भूमिका सहायक की होगी।असंगठित मजदूरों के लिए अर्जुन सेनगुप्ता कमीषन ने कम से कम 32 हजार करोड़ की सामाजिक सुरक्षा निधि की मांग की थी, किंतु इसके लिए बजट में मात्र एक हजार करोड़ के कोष का प्रावधान किया गया है। यह ऊंट के मुंह में जीरा समान है। बजट में सरकारी अस्पतालों, चिकित्सा एवं षिक्षा के पुराने बजटीय आबंटन पर भी कैंची चलायी गयी है। उपकरणों के बढ़े दामों के मद्देनजर पिछले वर्षों के बजट प्रावधानों के मुकाबले इस बजट में कम रकम आबंटित की गयी है। जीवनोपयोगी सामानों के बढ़ते दामों से जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। महंगाई कम करने का कोई ठोस उपाय नहीं किया गया है। उल्टा परोक्ष कर का भार बढ़ाकर जले पर नमक छिड़का गया है।मोटी आयवालों को टैक्स चुकाने में रियायतें दी गयी हैं, वहीं उससे कई गुना ज्यादा परोक्ष कर लगाया गया है, जिससे महंगाई बढ़ेगी ही। इससे भूखों और कुपोषणों की संख्या बढ़ना निष्चित है। कार्पोरेट सेक्टर को मंदी के नाम पर दिया गया प्रोत्साहन पैकेज बंद किया जाना चाहिए था, क्योंकि उसका दुरूपयोग मुनाफा लूटने में किया जा रहा है। प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री ने अपील की थी कि मजदूरों की छंटनी नहीं की जाय? लॉक-आउट और ले-ऑफ रोके जायें, किंतु उद्योग जगत ने इस अपील की पूरी तरह उपेक्षा कर दी। फलतः रोजगार का भारी नुकसान जारी रहा। कार्पोरेट सेक्टर पर नये टैक्स लगाने के बजाय बजट में उन्हें रियायतें दी गयी है। अगर कल्याण योजनाओं के लिए पैसों की कमी है तो उद्योगपतियों पर टैक्स क्यों नहीं लगाये गये, जिन्होंने हाल के दिनों में मोटे मुनाफे कमाये हैं?आयात-निर्यात करनेवाले उद्योगपतियों को नयी रियायतें दी गयी हैं। उनके टैक्सों में नयी छूटें दी गयी है। आयात कर में कटौती की गयी है। विदेषी सामानों के आयात पर लगने वाली कस्टम डयूटी आधी कर दी गयी। फलतः विदेषी माल हमारे घरेलू बाजार में और भी धड़ल्ले से आयेंगे। इसका हमारे कल-कारखानों के उत्पादान पर विपरीत असर अवष्यंभावी है। यह अहसास किया जाना चाहिए कि आयात कर में कटौती करना न केवल विदेषी मालों को आमंत्रण देना है, बल्कि यह देष के अंदर बेरोजगारी का सीधा आयात करना है।जीडीपी बढ़ाकर दो अंकों में करने का लक्ष्य रखा गया है, किंतु जीडीपी का संबंध रोजगार बढ़ाने से नहीं जोड़ा गया है। इस प्रकार की जीडीपी बढ़ने से देष की संपदा कुछेक व्यक्तियों के हाथों में सिमटती जा रही है। यह भारतीय संविधान के उन निदेषक सिद्धातों के विपरीत है, जिसमें धन के कुछेक व्यक्तियों के हाथों में संकेन्द्रण की मनाही की गयी है। जीडीपी को आम जनता की खुषहाली के साथ जोड़ा जाना चाहिए। पूंजीपतियों की खुषहाली और आम आदमी की बदहाली भारतीय संविधान के समाजवादी लक्ष्यों का निषेध है।पेट्रोल-डीजल पर दाम बढ़ाना जनता की गाढ़ी कमाई पर डाका डालना है। रेलमंत्री ममता बनर्जी एक तरफ रेल भाड़ा नहीं बढ़ाने की वाहवाही लूट रही है। तो क्या डीजल का दाम बढ़ने से मालभाड़ा नहीं बढ़ेगा? पेट्रोल-डीजल पर दाम बढ़ना परोक्ष कर है, जो सीधे जनता की जेब काटता है। यह महंगाई से पीड़ित जनता के घावों पर नमक छिड़कना है।इससे सभी महसूस करते हैं कि राष्ट्रीयकृत बैंकों की भूमिका के चलते विष्वमंदी और वित्तीय संकट का असर भारत में कम देखा गया। उम्मीद की जाती थी कि राष्ट्रीयकृत बैंकों की वित्तीय प्रणाली मजबूत की जायेगी। इस उम्मीद पर पानी फिर गया। बजट के मुताबिक बैंकिंग क्षेत्र में निजी बैंकिंग प्रणाली के नये दरवाजे खोले गये हैं। यह अषुभ संकेत है। इससे हमारी वित्तीय व्यवस्था में विदेषियों का हस्तक्षेप बढ़ेगा।पूर्वी प्रदेषों में हरित कृषि क्रान्ति लाने के लिए चार हजार करोड़ रुपये के विषेष निवेष का षोर मचाया जा रहा है। देष की 65 प्रतिषत आबादी कृषि पर निर्भर है। इसके लिए यह आवंटन भी ऊंट के मुंह में जीरा का फोरन है। बिहार जैसे राज्य के लिए बाढ़ और सूखा महान आपदा है। इसके समाधान के लिए सम्यक स्थायी जल प्रबंधन की चिर जनाकांक्षा की उपेक्षा की गयी है। इसके बगैर इस क्षेत्र में हरित क्रांति की बात करना थोथा गाल बजाना है। सबसे खतरनाक खेल तो यह है कि कृषि में अमेरिकी कार्पोरेट के प्रवेष के बारे में एक समझौते के मसविदा पर पिछले महीने कैबिनेट ने हरी झंडी दी है। बजट में उन्नत तकनीकी भंडारण और वेस्टेज नियमन के लिये जो धनराषि आबंटन है, वह किसानों के लिये नहीं, प्रत्युत कार्पोरेटियों के लिये है। उसे वास्तविकता में कार्पोरेट सेक्टर ही हथियाएगा। हम आगे देखेंगे यह मसविदा क्या गुल खिलाता है।इसी तरह रेलमंत्री ममता बनर्जी ने पष्चिम बंगाल के आगामीविधानसभा चुनाव के मद्देनजर रेल बजट में चुनावी रंग फंेंट दिया है। वे अपने पिछले साल के रेलबजट का “दृष्य 2020” को भी अदृष्य कर गयीं। तेज रेलगाड़ियों के लायक ट्रैक निर्माण, समुचित सुरक्षा उपाय एवं अन्य अधिसंरचनात्मक (इंफ्राट्रक्चर) निवेष का प्रावधान नहीं किया गया है। रेल चलाने के लिए उन्होंने निजी क्षेत्र को पीपीपी (पब्लिक-प्राइवेट- पार्टनषिप) बुलावा भेजा है और रेलवेबोर्ड को पानी बोतल का कारखाना, इको-फ्रेंडली पार्क बनाने, स्कूल-कालेज और अस्पताल चलाने के काम में लगा दिया है।अब समय आ गया है कि अलग रेल बजट बनाने की औपनिवेषिक परंपरा खत्म की जाय और रेल बजट को सामान्य बजट का हिस्सा बनाया जाय। जब विभागीय रूप में दूरसंचार, डाकतार, उड्डयन, परिवहन, तेल, जहाजरानी, पोट एंड डॉक आदि चल सकते हैं तो रेल क्यों नहीं?वित्त मंत्री प्रणव मुखजी ने आम आदमी का बजट बताकर एक बड़ा झूठ परोसा है। असल में यह बजट पूंजीपतियों को रिझाने के लिए परोसा गया है। अंतर्राष्ट्रीय सट्टेबाजों का अखबार ‘वालस्ट्रीट जर्नल’ वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी के नाम पिछले हफ्ता एक खुला पत्र लिखकर सुझाव दिया था कि “अब आपकी सरकार निडर होकर तथाकथित सामाजिक समावेषिक विकास जैसे वोट बटोरू उपायों से मुक्त होकर सब्सिडी का खात्मा, निवेष को बढ़ावा और आयात-निर्यात सुगम करने के लिए कराधान की बाधा समाप्त कर सकेगी।”प्रतावित बजट प्रावधानों से प्रकट है कि अमेरिकी पूंजीपतियों का प्रतिनिधि अखबार ‘वालस्ट्रीट जनल’ के सुझावों के अनुकूल बजट में बखूबी इंतजाम किये गये हैं। इस बजट में जनता की जेब काटकर पूंजीपतियों की तिजोरी भरी गयी है। यह जनता के लिए एक पॉकेटमार बजट है।
- सत्य नारायण ठाकुर

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