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शुक्रवार, 25 जून 2010

दफन हो गया इंसाफ: सर्वोच्च न्यायालय सर्वांगीण परख करे

दिसंबर 1984 भोपाल गैस त्रासदी का वह काला दिन था, जिस दिन 15 हजार से ज्यादा लोग मौत के मुंह में दफन हो गये और लाखों पीढ़ी दर पीढ़ी संतृप्त रहने के लिये अभिशप्त हो गये और उसी तरह 7 जून 2010 इंसाफ के मंदिर में न्यायिक त्रासदी का वह काला दिन साबित हुआ, जिस दिन औद्योगिक इतिहास के इस भयंकरतम नरसंहार के अपराधी यूनियन कर्बाइड कंपनी के मुख कार्यकारी पदाधिकारी वारेन एंडरसन को सजा दिये बगैर अन्य छुटभैये आरोपियों को आम सड़क दुर्घटना के प्रावधानों के अंतर्गत महज लापरवाही बताकर लाखों पीड़ितों को न्याय देने से इंकार कर दिया गया। भोपाल गैस कांड के लाखों पीड़ितों के लिये यह सचमुच दोहरी त्रासदी का दिन है। गैस त्रासदी के बाद न्यायिक त्रासदी। औद्योगिक इतिहास के इस भयंकरतम नरसंहार के अपराधियों को सजा नहीं दे पाना भारतीय न्यायपालिका की संपूर्ण विफलता है।इस मामले के तत्कालीन सीबीआई प्रभारी डी.आर. लाल के मुताबिक उन्हें केन्द्र सरकार से स्पष्ट लिखित निर्देश दिये गये थे कि वह नरसंहार के मुख्य अपराधी वारेन एंडरसन पर कोई कार्रवाई नहीं करे। यद्यपि कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने फिर से जांच कराने का नया आश्वासन किया है, किंतु विदेशी कंपनियों पर प्रधानमंत्री की कृपादृष्टि के मद्देनजर इस आश्वासन पर भरोसा करना फिर से धोखा खाने के बराबर होगा। केन्द्र सरकार द्वारा गठित मंत्री समूह भी जनमानस को भरमाने तथा गरमाये मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालने की कुटिल चाल के अलावा कुछ नहीं है।1991 के बाद सरकार की परिवर्तित नयी आर्थिक नीति के अनुकूल सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों में स्पष्ट परिवर्तन देखा जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं ही अस्सी के दशक में दिये गये अपने तमाम फैसलों को उलट दिया है। ऐसा करके सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी स्वयं की गरिमा का परित्याग किया है। भोपाल गैस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का दिया गया वह आदेश कि मामले को भारतीय दंड संहिता की धारा 304ए के मातहत ट्रायल किया जाय, ऐसा ही एक भ्रमित आदेश है जिसके चलते न्याय के मंदिर में ही न्याय की हत्या संभव हुई। सबको मालूम है कि धारा 304ए के तहत लापरवाही की सड़क दुर्घटनाओं का ट्रायल होता है। भोपाल का गैस रिसाव लापरवाही की सड़क दुर्घटना नहीं था। तथ्यों से प्रमाणित होता है कि संभावित दुर्घटना की पक्की जानकारी सभी जिम्मेदार लोगों को पहले से ही थी। इसे ‘लापरवाही’ के दायरे के तहत ट्रायल करने का आदेश देना न्यायिक अपराध ही कहा जायेगा। इसलिये न्यायपालिका में जनआस्था बनाये रखने के लिए उचित है कि सर्वोच्च न्यायालय अपने मूल अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल करते हुए इस मामले में स्वतः संज्ञान ले और पूरे मामले की सर्वांगीण परख करें। यह इसलिये भी आवश्यक है क्योंकि वैश्वीकरण के इस युग में भारत की धरती पर अपराध करके भाग जानेवालों को भारतीय धरती पर लाकर भारतीय न्यायालय के न्याय करने का सार्वभौम अधिकार प्रतिष्ठित किया जाना आजाद भारत की आजाद जनता का आत्म सम्मान सुरक्षित करने के बराबर है। यह भी जरूरी है कि इस न्यायिक गलती दुरूस्त करने के लिए संसद उचित कदम उठाये।
- सत्य नारायण ठाकुर

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