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शनिवार, 26 मार्च 2011

मनमोहन सिंह ईमानदार नहीं थे, न हैं और न ही हो सकते हैं

हिटलर के अनुसार किसी भी झूठ को सत्य बनाने के लिए उसे बार-बार बोलने की जरूरत होती है। पिछले बीस सालों में मनमोहन सिंह और अटल बिहारी बाजपेई के ईमानदार होने का झूठ इसलिए लाखों बार बोला गया जिससे यह लगने लगे कि वे ईमानदार हैं। ईमानदार होने का अनवरत अलाप पूंजी नियंत्रित समाचार-माध्यम पूंजी के निजी हितों को साधने के लिए करते रहे हैं।

क्या महात्मा गांधी को कभी किसी संचार माध्यम ने ईमानदार कहा? क्या भगत सिंह और चन्द्र शेखर आजाद को किसी ने आज तक ईमानदार कहा? क्या जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और अजय घोष एवं पी.सी. जोशी को कभी किसी ने ईमानदार कहा? नहीं! क्यों? क्योंकि वे सही मायनों में ईमानदार थे। वे देश के प्रति ईमानदार थे, वे अपने सोच से ईमानदार थे, वे देश की जनता के प्रति ईमानदार थे, वे कार्य और व्यवहार में ईमानदार थे.......... ये सब सार्वभौमिक रूप से ईमानदार थे। उन्हें पूंजी नियंत्रित संचार माध्यमों से ईमानदारी के प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं थी।

यहां डा. भाभा का उल्लेख करना जरूरी होगा। राष्ट्र के प्रति निष्ठा और देश की अगली पीढ़ी की बेहतरी का ख्वाब उन्हें विदेश से वापस भारत ले आया। उन्होंने ईमानदारी से देश में विज्ञान, चिकित्सा और प्रौद्योगिकी की शिक्षा एवं अनुसंधान के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया और साम्राज्यवादी अमरीका की सीआईए द्वारा एक कथित विमान दुर्घटना में अकाल मौत को प्राप्त हुए। वैभव, धन और ख्याति वे विदेश में रह कर, विदेशी राष्ट्र की सेवा कर प्राप्त कर सकते थे लेकिन उन्होंने राष्ट्र के लिए और देश की अगली पीढ़ी के लिए अपने निजी हितों को न्यौछावर करना पसन्द किया। वे ईमानदार थे लेकिन आज तक किसी ने उन्हें ईमानदार नहीं कहा। डा. भाभा जैसे अन्यान्य उदाहरण से भारतीय इतिहास भरा हुआ है। ग्रंथ के ग्रंथ लिखे जा सकते हैं उन लोगों पर जिन्होंने देश के लिए अपना सुख, सम्पत्ति सभी कुछ न्यौछावर कर दिया लेकिन आज तक किसी ने उन्हें ईमानदार कहने की हिमाकत नहीं दिखाई क्योंकि वे सभी ईमानदार थे।

सत्ता की खरीद फरोख्त कांग्रेस भी करती रही है और प्रमुख विपक्षी दल भाजपा भी। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी प्रभृति क्षेत्रीय दल भी यही सब करते रहे हैं। जबसे नई आर्थिक नीतियां शुरू हुई हैं, तबसे पूंजी की हवस को हवा मिलना शुरू हो गयी है। भ्रष्ट होने के लिए पूंजी पैसा मुहैया कराती है। सत्ता की खरीद-फरोख्त के लिए यही पूंजी पैसा मुहैया कराती है। इसे कभी कोई शर्म नहीं रही।

1991 में नरसिम्हा राव के नेतृत्व में अल्पमत कांग्रेस की सरकार बनी थी। शुरू में विश्वास प्रस्ताव आया तो समूचे विपक्ष ने विकल्पहीनता के कारण उस सरकार को काम करने की छूट दे दी। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद का ध्वंस हो गया। उंगलियां उठीं थी - भाजपा और कांग्रेस के मध्य दुरभि संधि की। वित्त मंत्री मनमोहन सिंह थे। बजट सत्र में अविश्वास प्रस्ताव आया। मोहन सिंह कई बार जिक्र कर चुके हैं कि राम लखन सिंह यादव पंडित पंत मार्ग की कोठी नं. 9 में रहते थे जबकि मोहन सिंह 7 नम्बर में। वी. पी. सिंह द्वारा बनाये गये जनता दल के सदस्यों की भीड़ राम लखन सिंह यादव के आवास पर लगने लगी। मोहन सिंह ने आरोप लगाये हैं कि राम लखन सिंह यादव ने उन्हें भी प्रलोभन दिया था - एक करोड़ रूपये, एक पेट्रोल पम्प या गैस एजेंसी के साथ मंत्री पद। वी.पी. सिंह के तमाम करीबी लोगों की निष्ठा रातों-रात बदल गयी। मोहन सिंह ने लिखा है कि जनता दल तोड़ने के लिए एक सांसद कम पड़ रहा था कि उनके सामने से मुरादाबाद के सांसद हाजी गुलाम मोहम्मद को सतीश शर्मा और बलराम यादव ने बीच सड़क से कार में जबरदस्ती टांग लिया। जनता दल तोड़ने का कोटा पूरा हो गया। पूरा देश जानता है कि झारखंड मुक्ति मोर्चा के नौ आदिवासी सांसदों को थोक में खरीद लिया गया। राम लखन सिंह यादव और अजित सिंह दोनों केन्द्र सरकार में मंत्री बन गये।

उसके बाद आये अटल बिहारी बाजपेई। 21 दलों के मोर्चा के वे नेता थे। जयललिता ने अन्ना द्रुमुक का समर्थन वापस ले लिया। सरकार अल्पमत में आ गयी थी। स्वाभाविक था कि सरकार को फिर से विश्वास मत लेने की जरूरत पड़ गयी। सरकार के प्रबंधक प्रमोद महाजन और जार्ज फर्नांडीस के नेतृत्व में भाजपा सक्रिय हुई। कौन से हथकंडे़ अटल बिहारी बाजपेई ने नहीं अपनाये थे? पूर्वोत्तर के निर्दलीय सांसद उनके जाल में फंसे। यदि बसपा रात में समर्थन का ऐलान न करती तो उसके सांसदों का भी सौदा भाजपा कर चुकी थी। सुबह संसद में मायावती पलट गयीं। संसद में ही प्रमोद महाजन ने उन्हें सन्देश दिया कि कल ही कल्याण सिंह से इस्तीफा लेकर उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया जायेगा। लेकिन मायावती ने अंत में दगा कर उनकी सरकार को गिरा दिया। सरकार गिरने के बाद हुआ कारगिल युद्ध क्या चुनाव जीतने के लिए अटल बिहारी बाजपेई द्वारा देश के साथ की गयी बेईमानी नहीं थी?

मनमोहन सिंह ने विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी अमरीकी साम्राज्यवाद नियंत्रित संस्थाओं में नौकरी कर अमरीकी साम्राज्यवाद की सेवा की। क्या यह देश के प्रति उनकी ईमानदारी का सबूत है? क्या वे भारत में रह कर यहां के जनमानस की सेवा नहीं कर सकते थे? उन्होंने अमरीका के साथ परमाणु करार किया। क्या यह देश के प्रति मनमोहन सिंह की ईमानदारी थी। उन्होेंने भारत-ईरान गैस पाईप लाईन को अमरीका के कहने पर खटाई में डाल दिया और भारत के चिरमित्र रहे ईरान के साथ विश्वासघात किया। क्या यह राजनयिक ईमानदारी थी? क्या भाजपा सांसदों द्वारा विश्वास मत पर बहस के दौरान लोकसभा में लहराई गयी गड्डियों पर गठित संयुक्त संसदीय समिति की अनुशंसा पर उन्होंने इस दौरान हुए पूरे खेल की जांच किसी एजेन्सी को सौपी? यह कौन से ईमानदारी थी? मनमोहन सिंह न अपने सोच में ईमानदार हैं, न वे देश की जनता के प्रति ईमानदार हैं और न ही अपने कार्य और व्यवहार में ईमानदार हैं। न ही देश के भविष्य के लिए उन्होंने कभी कोई ख्वाब देखा था, न देख सकते हैं और न ही देख पायेंगे।

असली समस्या भारत की वह जनता है जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ तेवर नहीं हैं। उसके विकल्प सीमित हैं। उसे किसी न किसी भ्रष्ट को ही वोट देना है तो करे क्या? कोई कानून, कोई जांच, कोई बहस इस संस्थागत भ्रष्टाचार से संघर्ष में सक्षम नहीं है। हमें जनता के सामने एक राजनीतिक विकल्प प्रस्तुत करते हुए उसमें चेतना भरनी होगी, उसे भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष के लिए तैयार करना होगा और तभी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी जा सकती है।

- प्रदीप तिवारी

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