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मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

मजदूर वर्ग का अंतर्राष्ट्रीय पर्व मई दिवस

प्रपंचपूर्ण पूंजीवादी निजाम पर करारी चोट करो

वर्ष 2011 के मई दिवस के मौके पर हम अरब और उत्तर अफ्रीकी देशों में लोकतंत्र की नई लहर का स्वागत करेंगे, वहीं जापान के त्रासद भूकंप में हजारों लोगों के जान-माल के नुकसान पर शोक प्रकट करेंगे। भूकंप से क्षतिग्रस्त फुकुशिमा डायची आणविक संयंत्र से फैले विनाशक विकिरण ने द्वितीय विश्वयुद्ध में हिरोशिमा-नागासाकी पर एटम बम गिराये जाने की हृदय विदारक खौफनाक याद को फिर से ताजा कर दिया है।

इस वर्ष का मई दिवस दुनिया की पांच सबसे बड़ी उभरती अर्थव्यवस्थाओं - ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिणी अफ्रीका (ब्रिक्स) के ऐतिहासिक सान्या सम्मेलन के महत्वाकांक्षी घोषणापत्र और उसके दूरगामी संदेशों को भी याद करेगा, जो मानवता के इतिहास में पहली मर्तबा साम्राज्यवादी विश्व शक्ति संतुलन की गंभीर चुनौती को स्वर देता है और आने वाले दिनों में अंतर्राष्ट्रीय सम्बंधों को नई दिशा और गति प्रदान करने का भरोसा उत्पन्न करता है। सोवियत यूनियन के टूटने के बाद साम्राज्यवादियों ने ‘इतिहास का अंत’ कहकर उत्सव मनाया था तथा पूंजीवाद को ‘मानवता की नियति’ घोषित किया था। लेकिन दुनियां ने जल्दी ही देखा कि किस तरह तथाकथित शीतयुद्ध का अंत करने वालों ने ही झूठे बहाने बनाकर इराक में और फिर अफगानिस्तान में क्रूर वास्तविक युद्ध छेड़ दिया। इन दो देशों में युद्ध की विभीषका की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि साम्राज्यवादी सैन्य संगठन नाटो ने लीबिया पर बमबारी शुरू कर दी है। इसलिए ब्रिक्स देशों के सान्या सम्मेलन ने उचित ही लीबिया पर बल प्रयोग की आलोचना की है। ब्रिक्स घोषणापत्र में कहा गया है कि लीबिया में तटस्थ पर्यवेक्षक भेजने के बजाय नाटो फौज द्वारा की जा रही अबाध बमबारी और विद्रोही गुटों को हथियारों की आपूर्ति सुरक्षा परिषद प्रस्ताव की सीमा का अतिक्रमण करता है और यह भी कि किसी देश के घरेलू मामलों में विदेशी हस्तक्षेप अनुचित है। लोकतंत्र में देश की जनता अपनी सरकार स्वयं चुनती है। सर्वविदित है कि साम्राज्यवादी घरेलू झगड़ों का फायदा उठाकर हमेशा अपनी युद्ध पिपाशा शांत करते हैं। इराक, अफगानिस्तान और अब लीबिया के अकूत तेल भंडारों पर कब्जा करने की साम्राज्यवादी मंसूबों को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

इस साल के मई दिवस को बहुचर्चित वैश्वीकृत मुक्त बाजार व्यवस्था की विफलता, उसका प्रकट दिवालियापन और लूट-खसोट मचाने वाले पूंजीपतियों-कारपोरेटियों को मुंह तोड़ जवाब देने के लिए मजदूरों-कर्मचारियों के विश्वव्यापी अनवरत एकताबद्ध संघर्षों के लिए सर्वदा याद किया जाएगा। भारत समेत यूरोप और अमरीका में भी मजदूरों, कर्मचारियों एवं श्रमजीवियों ने लाखों की संख्या में सड़कों पर निकल कर अपने हकों की हिफाजत में आवाज बुलंद की है।

‘कोई विकल्प नहीं’ (टिना - देयर इज नो आल्टरनेटिव) के बहुप्रचारित गुब्बारे की हवा निकल गयी, जब अमेरिका और यूरोप के दैत्याकार बैंकों का विशाल वित्तीय साम्राज्य ताश के पत्ते की तरह बिखर गया। अभेद्य समझे जाने वाले उनके वित्तीय ताने-बाने बालू की दीवार साबित हुए। ‘सरकार का सरोकार व्यापार करना नहीं’ का राग अलापने वाले मगरमच्छों ने सरकारों के सामने हाथ फैलाकर याचनाएं कीं। सरकारों ने भी उन्हें उपकृत किया और अपने खजाने खोल दिए। आम जनता के कंधों पर वित्तीय संकट का समाधान किया जाने लगा। बजट घाटा कम करने और प्रशासकीय सादगी बरतने के नाम पर वेतन कटौती, छंटनी, स्वास्थ्य एवं सामाजिक सुरक्षा सुविधाओं की वापसी और कटौतियां आम हो गयीं। इसके विरोध में लाखों मजदूर, कर्मचारी, छात्र, नौजवान और आम नागरिक सड़कों पर उतर आये। विश्वव्यापी स्वतःस्फूर्त प्रतिरोध जाग उठा।

भारतीय शासकों ने जनता से वायदा किया कि उदारीकरण और निजीकरण की नई आर्थिक नीतियों के अवलंबन से रोजगार बढ़ेगा और लोगों की आमदनी भी बढ़ेगी, लेकिन व्यवहार में उल्टा हुआ। रोजगार घट गया और लोगों की आय भी घट गयी। मजदूरों के काम के घंटे बढ़ा दिये गये और उनका पारिश्रमिक घटा दिया गया। सार्वजनिक क्षेत्र कमजोर हुआ और देश की निर्भरता विदेशों पर बढ़ गयी, यह सब उद्योग की प्रतियोगिता क्षमता बढ़ाने के नाम पर किया गया। फलतः पूंजीपतियों का मुनाफा बेशुमार बढ़ गया। देश में करोड़पतियों की संख्या बढ़ने लगी, किंतु दूसरी तरफ बेरोजगारी, भूख, गरीबी, बीमारी, कुपोषण और विपन्नता बढ़ गयी। जीवनोपयोगी चीजों के दाम आकाश छूने लगे, रोजगारविहीन विकास के पूंजीवादी पथ का यही लाजिमी नतीजा है। नयी वैज्ञानिक तकनीकी की उपलब्धियों को पूंजीपतियों ने हथिया लिया।

स्वाभाविक ही इसके विरोध में आपसी मतभेदों को भुलाकर श्रमिक वर्ग इकट्ठा हुए। ट्रेड यूनियनों की एकता बनी, लगातार एक के बाद एक राष्ट्रव्यापी अभियान चलाये गये। 7 सितम्बर 2009 की राष्ट्रव्यापी आम हड़ताल और 23 फरवरी 2011 की दिल्ली महारैली को मजदूर आंदोलन के इतिहास में हमेशा याद किया जाएगा।

सत्तासीन शासक वर्ग मदांध है। वह जन भावनाओं की उपेक्षा करता है। राजनेता और नौकरशाही अपराधकर्मियों की सांठगांठ से सरकारी खजाने को लूट रहे हैं। भ्रष्टाचार का नंगा नाच हो रहा है। सरकार लोकतांत्रिक आंदोलनों के प्रति संवेदनाविहीन है। देश में हताशा और निराशा व्याप्त है।

फिर भी सब कुछ खो नहीं गया है। जनता जाग रही है। मेहनतकश आवाम हथियार नहीं डालने वाले हैं। वे फिर से कमर कस रहे हैं। नयी चेतना और उमंग के साथ श्रमिक वर्ग और उनकी ट्रेड यूनियनें शासक-शोषकों पर करारी चोट के लिए लामबंद हो रहे हैं। शासक वर्ग को उनके कुकर्मों का खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा।

मजदूर वर्ग के इस अंतर्राष्ट्रीय पर्व के मौके पर हम दुनियां में सुख, समृद्धि और शांति के निरंतर संघर्ष का संकल्प लें। यह मौका है, हम संगठित होकर मानवता के दुश्मन शासक-शोषकों के प्रपंचपूर्ण पूंजीवादी निजाम को शिकस्त देने के लिए करारी चोट करें।

लड़ने के दिन हैं, जीतने के दिन हैं,

आने वाले दिन, हमारे ही दिन हैं!!
- सत्य नारायण ठाकुर
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हरियाणा - जनता के हर तबके में व्यापक असंतोष


पिछले दिनों में हरियाणा में जाटो को पिछड़ा वर्ग में शामिल करने की मांग को लेकर व्यापक आंदोलन चलाया गया। राज्य में जींद, नरवाना, उकलाना, पानीपत आदि कई जगहों पर रेलवे ट्रैक पर जाट जाति के लोगांे-बच्चो, बूढ़ो, महिलाओं, युवको ने लगभग 18 दिन तक कब्जा करके रखा। रेलवे लाईन पर शामियाना लगाकर रात दिन धरना लगाया गया। परिणाम स्वरुप राज्य में रेलवे मार्ग बाकायदा अवरुद्ध हो गया। हाईकोर्ट द्वारा आंदोलनकारियों से रेलवे ट्रैक खाली करवाने के आदेश के बाद राज्य में एक पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया। सरकार के इस कदम से उत्साहित होकर राज्य में ब्राहमण, त्यागी, रोड, राजपूत, पंजाबी आदि जातियों ने भी छिट-फुट बैठकों का सिलसिला शुरु कर दिया है और आरक्षण को लेकर यें जातियां भी आंदोलन की दिशा में बढ़ने की तैयारी में हैं। दूसरी और पिछड़ी जातियों में 27 प्रतिशत आरक्षण बचाने की मुहिम शुरु हो गई है, पिछड़ा वर्ग के लोग भी किसी अन्य जाति को पिछड़ा वर्ग में शामिल नही करने की मांग को लेकर आंदोलन चलाने की चर्चा करने लगे हैं। इसके अलावा राज्य में मिर्चपुर कांड भी सुर्खियों मे रहा जहां पिछले वर्ष उच्च जाति की भीड़ ने बदले की भावना से दलित बस्ती में आग लगा दी थी जिसमें ताराचंद बाल्मिकी व उसकी विकलांग युवा लड़की की जलने से मौत हो गई थी और बाल्मिकी जाति के 50 के करीब घर जल गये थे। मिर्चपुर कांड की सुनवाई के लिये यह मुकदमा दिल्ली (रोहिणी) की अदालत में स्थानांतरित कर देने के विरोध में उच्च जाति के लोगो ने व्यापक आंदोलन चलाया जबकि अधिकतर पीड़ित दलित अभी भी हिसार के तवंर फार्म में शरण लिये हुए है और दलितों की पैरवी कर रहे एक वकील को भी पैरवी छोडने की धमकी दी जा रही है।

पिछले एक साल से राज्य के फतेहाबाद जिले में गोरखपुर गांव के पास परमाणु बिजली संयत्र लगाने के विरोध में किसान फतेहाबाद जिला मुख्यालय पर धरना लगा रहे है । गत दिनों जापान में आये भंयकर भूंकप एवं सुनामी से फुकुशिमा परमाणु संयत्र के नष्ट होने और उसके बाद फैलने वाले विकिरण से हुए नुकसान से इस आंदोलन को बल मिला है। फतेहाबाद में आंदोलनकारी किसानों के हौंसले बुलंद है। इसके साथ ही सिरसा, फरीदाबाद, सोनीपत आदि जिलों में भी उपजाऊ कृषि भूमि के अधिग्रहण के विरोध में किसान आंदोलन चला रहे है।

राज्य में कर्मचारी संगठन भी अपनी मांगों के लिये लगातार आवाज उठाते आ रहे है, वर्ष के शुरु में हरियाणा कर्मचारी महासंघ के प्रांतीय प्रधान एवं महासचिव क्रमशः रमेश शर्मा एवं बीरसिंह ने अपनी मांगों को लेकर जींद में आमरण अनशन शुरु किया था। परिणाम स्वरुप सरकार को मांगांे पर सहानुभूति पूर्वक विचार करने का आश्वासन देना पड़ा, लेकिन सरकार इन मांगों पर अमल करने बजाएं जनसेवा के विभागों में पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) लागू कर रही है, रोडवेज में नई बसें शामिल करने के बजाए निजी बसों के लिए परमिट देने का राग अलाप रही है । स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाने की दिशा में ठोस कदम नही उठाया जा रहा, अध्यापकों की भर्ती नही की जा रही। दूसरे विभागों में खाली पड़े पदो की भर्ती पर एक तरह से अघोषित प्रतिबंध लगाया हुआ है।

बीपीएल परिवारों एवं आर्थिक रुप से पिछड़े वर्ग के गरीब लोगों को रिहायशी प्लाट देने की योजना 2008 से अभी तक पूरी नही हो सकी है। अभी तक 10 प्रतिशत जरुरतमंद लोगों को भी प्लाट नही दिये जा सके हैं। इस सवाल पर ग्रामीण गरीबों में चर्चा होनी शुरु हो गई है कि क्या उन्हें 100-100 वर्ग गज के प्लाट मिल सकेंगें? देर सबेर इस सवाल पर भी लोगो को लामबंद होना होगा। इसके अलावा राज्य के बहुत सारे गांव में शामलात जमीन पर बसे दलित, पिछड़े परिवारो को उजाड़ने का काम भी पिछले अरसे में तेज हुआ है जहां उच्च जातियों के दबंग लोगों के साथ-साथ सरंपच भी स्वयं जेसीबी से बने बनाये घरों को उजाड़ रहे हैं, कई जगहो पर खेत मजदूर यूनियन के कार्यकर्ताओं, कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं के हस्तक्षेप के चलते और लगातार आंदोलन के कारण बेघर लोगो को पुनः बसाया जा सका है लेकिन कई जगहों पर संघर्ष जारी है। ग्रामीण गरीबों की अन्य योजनाओं में भ्रष्टाचार व्यापक रुप धारण कर चुका है चाहे इन्दिरा आवास योजना हो या कन्यादान योजना हो सभी जगह सुविधा शुल्क के बिना फाईल आगे नही बढ़ती। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून के तहत ग्रामिणो को सभी जगह काम की बात तो दूर सभी जरुरत मंदो का पंजीकरण तक नही हुआ है, जहां जाब कार्ड के बाद काम मिला है उन्हें महीनांे तक काम के पैसे नही मिलते।

राज्य में औद्योगिक श्रमिको में भी बैचेनी बढ़ रही है, महंगाई एवं मंदी का बहाना बना कर प्रबंधक श्रमिकांे की छंटनी कर रहे हैं । दूसरी तरफ श्रमिकों पर काम का बोझ भी बढ़ा दिया गया है। श्रम कानूनों पर पालना नही हो रही, बहुमत में श्रमिकांे के नाम हाजरी रजिस्टर में नही लिखे जाते, राज्य में यूनियनों के पंजीकरण भी नही हो रहे।

किसानों ने बहुत मेहनत करके गेहूं का उत्पादन किया है लेकिन मंडियों में गेहूं की बेकद्री चिन्ता का विषय बना हुआ है। गेहूं का समय पर उठान ना होने के कारण किसानों को कई-कई दिन मंडियों में रहना पड़ रहा है। बेमौसमी बारिश के कारण किसानों का काफी नुकसान हुआ है यह नुकसान गेहंू के साथ-साथ सब्जियों की फसल में भी हुआ है जिसकी भरपाई करना भी सरकार के पाले में है हालांकि राज्य सरकार ने स्पेशल गिरदावरी कराने का आदेश दे दिया है लेकिन गिरदावरी ठीक हो यह सवाल मुख्य है। किसानों को गेहूँ की बुआई के समय बीज एवं डी.ए.पी. खाद के संकट का मुकाबला करना पड़ा था। अब नरमा (कपास) का बीज नदारद है। आलम यह है कि नरमे बीज का जहंा 825 रुपये प्रति पैकेट है उसे 1000 रुपये प्रति पैकेट तक बेचा जा रहा है और 1000 रुपये पैकेट वाला बीज 1500 रुपये तक बेचा जा रहा है। इसके बावजूद किसानों को बीज मिल नही रहा है। गत दिवस टोहाना मे तो थाने में पुलिस की देख रेख में किसानो को नरमा का बीज लाईन में लग कर लेना पड़ा हांलांकि बहुत सारे किसान बीज से वंचित रह गये हैं। किसानों को नहरी पानी एंव बिजली आपूर्ति की समस्या से जूझना पड़ रहा है।

हरियाणा में कानून व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई है। राज्य में एक परिवार के 7-7 सदस्यो के कत्ल हो रहे हैं। दो-दो विधवा महिलाओं को लोगो के सामने जमानत पर आया एक बलात्कारी डंडो से पीटकर मार रहा है। रेवाडी में एक युवक के अपहरण के बाद हत्या हो गई, पानीपत के एक बच्चे का दो वर्ष से सुराग नही लग रहा। चौरी, डकैती, अपहरण, महिलाओं के साथ छेड़-छाड़, यौन शोषण लगातार बढ़ रहा है। राज्य में अलग से हरियाणा गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की मांग को लेकर भी आंदोलन चल रहा है, इस आंदोलन को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी समर्थन दिया है। लेकिन चिन्ता की बात है कि 18 अप्रैल को हरियाणा गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की युवा विंग के प्रदेशाध्यक्ष कवलजीत सिंह अजराना ने कुरुक्षेत्र में एक पत्रकार सम्मेलन में जरनैल सिंह भिंडरावाला को शहीद का दर्जा देते हुए कहा कि आज सिख पंथ को अनेकों भिंडरावालों की आवश्यकता है। इस ब्यान से लगता है कि राज्य में पुनः हिन्दु-सिख रिश्तो में खटास पैदा न हो जाए। ऐसे हालात में राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी इन सवालो को नही उठा रही दूसरी पार्टी के मुखिया खेतो में जाकर गेहूं काट रहे है। कहने का तात्पर्य है कि वे समझते है कि जनता के आक्रोश का लाभ अन्ततः उन्हे ही मिलेगा जबकि पूर्व में इनके शासन के दौरान भी राज्य की जनता को इनसे किसी प्रकार की राहत नही मिली थी। इसलिये जनता के हर तबके में पनत रहे आक्रोश को हमे समझना होगा तथा अन्य वाम जनवादी ताकतो को साथ लेकर व्यापक अभियान चलाना होगा। किसान सभा, खेत मजदूर यूनियन, नोजवान सभा, एटक सहित तमाम संगठनो को सक्रिय होकर इन समस्याओं पर वर्गीय आधार पर जनता को लामबंद करने के लिए समय रहते ठोस कदम उठाने चाहिए।

- दरियाव सिंह कश्यप
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तमिलनाडु विधानसभा चुनावों में भाकपा प्रत्याशी















1 -  शिवगंगाई                एस. गुणशेखरन

2 - पेन्नाग्राम                 एन. नानजप्पन

3 - वल्पाराई                  एम. अरूमुगम

4 - तिरूतुराईपुंडी           के. कुलगंनाथन

5 - थाल्ली                     टी. राम चन्द्रन

6 - पुडकोट्टाई                एस.पी. मुत्तुकुमारन

7 - कुनूर                      ए. बेली

8 - श्री विल्लीपुतुर       वी. पोन्नू पंाडियन

9 - भवानी सागर         पी. एल. सुन्दरम

10 - गुडियातम            के. लिंगमुतु
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आंदोलन के औचित्य, तरीकों और उसके पीछे के लोगों पर है सवाल


(जंतर-मंतर पर हुये आन्दोलन को समाप्त हुये तीन सप्ताह बीत चुके हैं। जन लोकपाल बिल पर बनी समिति में शामिल लोगों के विषय में और आन्दोलन के तमाम पहलुओं पर व्यापक बहस इस बीच छिड़ चुकी है। बहस आगे भी जारी रहेगी।


प्रस्तुत आलेख जंतर-मंतर आन्दोलन की समाप्ति के बाद तत्काल प्रतिक्रिया के रूप में लिखा गया था जिसमें कई महत्वपूर्ण बिन्दु उठाये गये हैं। जरूरी नहीं कि आलेख के हर बिन्दु से हम सहमत हैं पर व्यापक बहस चले, इस दृष्टि से इस आलेख का प्रकाशन किया जा रहा है। - कार्यकारी सम्पादक)

अन्ना हजारे का अनशन खत्म हो चुका है। आजादी की तथाकथित दूसरी लड़ाई के दावों के बीच गांधीवादी हजारे और उनके साथी अब सरकार को लोकपाल विधेयक का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए 15 अगस्त तक का अल्टिमेटम देकर जंतर मंतर से हट गए हैं और मीडिया, खासकर टीवी चैनलों के जरिए ही सही देश के उभरते मध्यमवर्ग का एक हिस्सा भ्रष्टाचार के खिलाफ इस ऐतिहासिक जीत की खुशी में होली और दीवाली एक साथ मनाने में तल्लीन है। पर भ्रष्टाचार के खिलाफ मोमबत्ती जलाने, सिर पर गांधी टोपी पहनकर चंद घंटों के लिए उपवास पर बैठ जाने के बाद क्या अब भ्रष्टाचार इस देश से खत्म हो जाएगा? या फिर लोकपाल गठित हो जाना ही भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ी जीत होगी?

एक बड़े लोकतांत्रिक देश के जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से हमें यह अवश्य देखना चाहिए कि आखिर हजारे के पीछे कौन सी ताकतें हैं? जिस आंदोलन को मीडिया ने जन आंदोलन का नाम दे डाला, यहां तक कि कुछ चैनलों के कुछ नामचीन संपादकों को दिल्ली के इंडिया गेट और जंतर मंतर पर जुटे लोग मिस्र के तहरीर चौक की याद दिलाने लगे, वो क्या सच में इस देश की जनता अथवा पूरे नागरिक समाज का वास्तविक प्रतिनिधित्व करता है?

मीडिया के जरिए ही सही हजारे और उनके साथी ऐसी पवित्र गाय सरीखे हो गए हैं, जिनकी आलोचना करना ही मानों पाप हो गया है। आंदोलन के औचित्य, तरीके, उसके पीछे के लोग और जन लोकपाल बिल के मसौदे पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। देश में एक मजबूत लोकपाल व्यवस्था की स्थापना हो, यह मांग पुरानी है। राजनेताओं और अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों की तुरंत जांच और प्रभावी कार्रवाई होना जरूरी है लेकिन क्या जन लोकपाल ही समस्याओं का जवाब है?

क्रिकेट वर्ल्ड कप के जुनून में डूबे देश और टीम इंडिया के करिश्माई प्रदर्शन के उल्लास से सराबोर आम भारतीयों के लिए चंद दिनों पहले तक न तो अन्ना हजारे कोई खबर थे और न लोकपाल व्यवस्था के होने या न होने का सवाल उन्हें झकझोर रहा था। क्रिकेट की दीवानगी के बीच बाजार देख रहे टीवी चैनलों, उनके मालिकों और संपादकों को भारत-पाकिस्तान के सेमीफाइनल मुकाबले को जंग के मैदान में बदलने से फुर्सत नहीं थी। हजारे के आंदोलन को एक नए युग की शुरुआत बता रही मीडिया की जमात के बीच भी अधिकतर को न तो अन्ना की सुध थी और न लोकपाल, जन लोकपाल की पेचीदगियों की समझ और न उसे समझने की फुर्सत।

लेकिन अचानक ही मानों नवक्रांति का बिगुल बज उठा। 23 साल बाद भारत के क्रिकेट विश्वकप जीतने पर स्पेशल बुलेटिनों में बहस कर रहे टीवी एंकर और उनके संपादक अचानक हजारेमय हो गए। ठंडे बस्ते में धूल खा रहा लोकपाल बिल का मसला जिंदा हो गया। अन्ना हजारे के पीछे-पीछे समाचार चैनलों की ओबी वैन और उनके नामचीन चेहरे जंतर मंतर दौड़ पड़े। और शुरू हो गया मीडिया के जरिए आजादी की दूसरी लड़ाई का माहौल बनना। टीवी की व्यापक पहुंच ने दो दिन बीतते बीतते अन्ना और उनके जनलोकपाल बिल की मांग को भारत के मध्यमवर्गीय घरों तक पहुंचा दिया। बड़े ही सुनियोजित तरीके से और समाचार पत्रों और चैनलों के जरिए आम जनता से आजादी की इस दूसरी लड़ाई में कूद पड़ने का आह्वान होने लगा। अपने अराजनैतिक सरोकारों और एक सिरे से राजनीतिज्ञों को चोर करार देने वाले मध्य और उच्च मध्यवर्ग के तमाम रहनुमा सुबह से लेकर रात तक टीवी चैनलों के स्टूडियों में बैठकर अन्ना के अनशन को आजाद भारत का सबसे बड़ा जनांदोलन बताने लगे। फिल्म और कला जगत के कथित बुद्विजीवियों की एक जमात तो जंतर मंतर पहुंचकर सीधे नेताओं और राजनीतिक दलों को अलविदा बोलने के लिए कहने लगी जोकि लोकतंत्र के लिए एक निहायत अवांछित कार्यवाही के अलावा कुछ नहीं था।

और मीडिया के जरिए निहायत ही एकतरफा और गैर जिम्मेदाराना तरीके से रचे गए अन्नामय उन्माद में किसी भी सवाल-जवाब और विमर्श के लिए कोई जगह नहीं बची थी। समाचार चैनलों ने तो यह रुख अख्तियार कर लिया कि या तो आप अन्ना के साथ हैं, नहीं तो भ्रष्टाचारियों के साथ। यह नजरिया निश्चित तौर पर गलत था, क्योंकि अन्ना हजारे और उनका आंदोलन देश के संपूर्ण नागरिक समाज का प्रतिनिधित्व कतई नहीं कर रहा था। एकतरफा खबरों के जुनून में शामिल समाचार माध्यमों ने यह कभी नहीं बताया कि दरअसल अन्ना के आंदोलन के पीछे का सच क्या है? लोकपाल बिल की जायज मांग के पीछे दरअसल कौन से चेहरे हैं और उनकी अपनी छवि कैसी है।

जनता के समक्ष एक ऐसी तस्वीर पेश की गई कि हजारे मानों अकेले ही चले थे और उनके साथ कारवां जुड़ता चला गया जो सच्चाई से कोसों दूर है। असलियत यह है कि अन्ना एक चेहरा - एक पाक-साफ महात्मानुमा चेहरा भर ही हैं। खुद कभी अन्ना ने भी अपने पांच दिनों के अनशन के दौरान यह नहीं बताया कि अनाप शनाप दौलत इकट्ठा करने वाले योग गुरू तथा तमाम बड़े भ्रष्ट कारपोरेट घरानों के मालिकों के आध्यात्मिक रहनुमा उनके आंदोलन की रीढ़ की हड्डी थे, जिनके खुद का दामन पाक-साफ नहीं है।

विश्वास न हो तो इंडिया अगेंस्ट करप्शन मूवमेंट का इतिहास उठाकर देख लीजिए। जनलोकपाल बिल के समर्थन में अन्ना का अनशन भी दरअसल इसी अभियान का हिस्सा था। बाबाओं और आध्यात्मिक गुरुओं के अलावा अभियान के गठन में कुछ और नाम भी हैं। क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई, राजनेताओं की जवाबदेही सुनिश्चित करने और पारदर्शी शासन व्यवस्था के सूत्रधार इस तरह के लोग हो सकते हैं? क्या वजह थी कि योगगुरू और उनके लोग चार दिन तक परदे के पीछे से आंदोलन को हवा देने के लिए तमाम सोशल नेटवर्किंग साइटों पर सक्रिय रहने से लेकर शहर-शहर आंदोलन करवाने में जुटे रहे और मीडिया मैनेजमेंट भी करते रहे, लेकिन खुद हजारे के मंच पर आने से बचते रहे। वह चौथे दिन कुछ इस अंदाज में जंतर मंतर पहुंचे मानों हजारे की मुहिम में एक हाथ लगाने आ गए हों। दूसरे अध्यात्मिक गुरू खुद इस दौरान विदेश में रहे, लेकिन उनके संगठन ने अपनी पूरी ताकत हजारे के पक्ष में झोंक दी। विदेशों में भी अन्ना के समर्थन में जिन जुलूसों को समाचार चैनलों ने खूब दिखाया वो भी दरअसल इसी संगठन के लोग थे।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में आंदोलन करना गलत नहीं है पर योग और अध्यात्मिक गुरूओं ने परदे के पीछे से भूमिका क्यों निभाई, यह प्रश्न उठता है। यह इनकी रणनीतिक तैयारी का हिस्सा था। इन जैसे लोगों के शुरु से ही खुलकर आ जाने पर एक आम भारतीय इसे गंभीरता से न लेता। यही नहीं अराजनैतिक करार दिए गए इस आंदोलन को शायद भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी गुपचुप समर्थन मिला और आज भी मिल रहा है। हजारे के अनशन के दौरान मैं खुद ऐसे समर्थन प्रदर्शनों और अनशनों का गवाह बना जिसमें तमाम लोग संघ या भाजपा के कार्यकर्ता थे। लखनऊ में ही भाजपा युवा मोर्चे के लोगों ने अपनी राजनीतिक पहचान छुपाते हुए अन्ना के समर्थन में तिरंगा यात्रा निकाली।

फिर एक सवाल अन्ना से भी है कि एक लोकपाल बिल को भ्रष्टाचार के खिलाफ ब्रहमास्त्र की तरह प्रोजेक्ट कर रहे अन्ना की भ्रष्टाचार के कारणों की समझ क्या है? कटु सत्य है कि मौजूदा दौर में राजनीतिक भ्रष्टाचार चरम पर है। मंत्री से लेकर संतरी तक देश की लूट में लगे हैं। सरकारों के स्तर पर नेताओं और कारपोरेट जगत का एक ऐसा कार्टेल बन गया है कि पूंजीवाद की पोषक आर्थिक नीतियां कारपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फायदे यानी पूंजी के मुनाफे के हिसाब से बनती बिगड़ती हैं। 1990 के दशक से शुरू हुए आर्थिक सुधारों और नई मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था के दौर में सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार के जितने मामले सामने आए हैं, उतने पहले नहीं सुनाई पड़ते थे। राजीव गांधी के शासन काल में 64 करोड़ का बोफोर्स घोटाला इतना बड़ा था कि केंद्र की सरकार तक चली गई।

पर आर्थिक सुधारों के युग में राजनेताओं और पूंजीपतियों, कारपोरेट घरानों का ऐसा गठजोड़ बना कि भ्रष्टाचार के आंकड़े चंद करोड़ से निकलकर सैकड़ों करोड़ से होते हुए अब लाखों करोड़ तक पहुंच गए हैं। पौने दो लाख करोड़ का 2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला इस खतरनाक गठबंधन का एक बड़ा उदाहरण है। खाने और खिलाने के इस खेल में टाटा से लेकर अंबानी तक सब शामिल हैं। सवाल है कि ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ से जुड़े लोगों ने कभी भी आर्थिक नीतियों के सवाल पर आवाज उठाई? क्या कभी भी इन लोगों ने कारपोरेट जगत की लूट के खिलाफ आवाज उठाई? सिविल सोसाइटी के स्वयंभू रहनुमा बताएं कि भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली आर्थिक नीतियों पर उनका नजरिया क्या है? सवाल सिर्फ व्यक्तिगत ईमानदारी का नहीं होता। बेदी को अगर दिल्ली का पुलिस कमिश्नर बना दिया गया होता तो वह शायद आज भी सरकारी सेवा में होती और रोजगार एवं शिक्षा के सवाल पर किसी प्रदर्शन को रोकने के लिए अपने मातहतों को जंग के निर्देश भी दे रही होतीं। सवाल आंदोलन के पीछे की समझ और इरादे पर है। क्या लोकपाल के आ जाने के बाद कारपोरेट जगत के द्वारा अपने फायदे के लिए नेताओं को भ्रष्टाचार के लिए उकसाने का खेल खत्म हो जाएगा? क्या वो परिस्थितियां खत्म हो जाएंगी जिनकी बुनियाद पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है? खैर इस सवाल पर इनसे जवाब की उम्मीद न रखें। योगगुरू के सहारा इंडिया जैसे उद्योग समूहों से संबंध जगजाहिर हैं और अध्यात्मिक गुरू के बड़े पूंजीपतियों और कारपोरेट हस्तियों से। इनमें कई तो मीडिया समूहों के मालिक हैं। यहां यह भी सवाल है कि क्या कुछ मीडिया समूहों के खुद ही अन्ना के अनशन का एक्टिविस्ट बन जाने के पीछे कहीं यही अध्यात्मिक प्रेरणा तो नहीं थी? भ्रष्ट पूंजीपतियों-राजनीतिज्ञों के साथ आन्दोलन के कर्णधारों की दुरभिसंधि की आशंका को भी प्रथमदृष्टि से नकारा नहीं जा सकता क्योंकि इसके जरिये रोज खुल रहे घपलों-घोटालों के कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ आम जनता में पैदा हो रहे आक्रोश में कमी तो आयी ही है।

खैर इन बातों से अलग हजारे समर्थित जनलोकपाल बिल, लोकपाल के रूप में देश के सीईओ की नियुक्ति करने जैसा होगा। संसदीय व्यवस्था वाले देश में, जहां प्रधानमंत्री का पद एक संवैधानिक संस्था है और हमारी संसद देश की सबसे बड़ी नीति निर्धारक, वहां प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री और संसद के सदस्य के साथ-साथ न्यायपालिका तक के खिलाफ जनता के किसी भी व्यक्ति द्वारा शिकायत किए जाने पर लोकपाल द्वारा उसे सीधे संज्ञान में लेकर जांच करने, मुकदमा चलाने और यहां तक की सजा भी सुना सकने का अधिकार क्या संवैधानिक संस्थाओं तथा संविधान द्वारा स्थापित व्यवस्था को छिन्न-भिन्न नहीं करेगा? राजनीतिक भ्रष्टाचार से निपटने का मतलब यह कतई नहीं होना चाहिए कि लोकतंत्र की नींव को ही कमजोर कर दें। सर्वाेच्च पदों और संसद की गरिमा भी बची रहे और संसद तथा सरकार में बैठे भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई भी हो, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।

यही नहीं जनलोकपाल बिल जहां एक तरफ लोकपाल को असीमित अधिकार देने की वकालत करता है, वह लोकपाल के ही खिलाफ शिकायत होने पर जांच के तरीकों पर स्पष्ट नहीं है। या यह कहें कि जिस देश में न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच अधिकारों का बंटवारा चेक ऐंड बैलेंस की परंपरा के आधार पर है, वहां लोकपाल तीनों ही इकाइयों के वाचडाग के रूप में तो होगा पर उस संस्था के भीतर किसी संभावित भ्रष्टाचार से कैसे निपटा जाएगा?

यह साफ है कि लोकपाल बिल का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए जिस कमेटी का गठन हुआ है, वह देश की जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करती। जिन पांच लोगों को सिविल सोसाइटी के नुंमाइंदे के तौर पर कमेटी में रखा गया है, उनमें अन्ना हजारे के अलावा अन्य सभी अन्ना समर्थित हैं या यूं कहें कि अन्ना के लोग हैं, वो लोग हैं जो जनलोकपाल के पैरोकार हैं। यह इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि देश के इतिहास में पहली बार बनी सरकार और स्वयंभू नागरिक समाज के मिले जुले प्रतिनिधियों वाली ड्राफ्टिंग समिति दरअसल कहीं न कहीं एक ऐसा भाव पैदा करती है कि मानों सरकार और एक व्यक्ति के बीच समानता का भाव है। आज अन्ना हजारे हैं, कल किसी और मांग को लेकर किसी और चेहरे के पीछे वैसा ही उभार खड़ा करने की कोशिश नहीं होगी, इसकी क्या गारंटी है?

जाहिर है हमें यह समझना होगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों में बहुत गुस्सा है और होना भी चाहिए लेकिन समस्या का स्थाई हल राजनीतिक सुधारों में है। देश की राजनीति की दशा और दिशा बदले जाने की जरूरत है, जनता से जुड़े आर्थिक सवालों, जमीन और रोजगार के सवालों पर राजनीतिक संघर्ष की जरूरत है। ऐसे में जनता के प्रति राजनीतिक दलों और नेताओं की जवाबदेही बढ़ेगी। जाति और मजहब के आधार पर चुनकर आने वाली सरकारों से आप यह उम्मीद नहीं कर सकते। इसलिए खाली एक लोकपाल विधेयक आ जाने से ही कोई बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाएगा, ऐसा नहीं लगता। भ्रष्टाचार के खिलाफ अराजनैतिक नहीं राजनैतिक संघर्ष छेड़ना पड़ेगा। प्रगतिशील सोच रखने वाले राजनीतिक दलों के लिए अन्ना का यह अनशन अपने तमाम विरोधाभासों के बीच इसलिए आंख खोलने वाला होना चाहिए कि उन्हें जनता के गुस्से को समझना होगा। अगर सही राजनीतिक नेतृत्व नहीं मिलेगा तो अन्ना जैसे अराजनैतिक दिखने वाले आंदोलन फिर होंगे, और अच्छे नेतृत्व के अभाव में जनता फिर से भ्रमित होगी।

- प्रबोध




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