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सोमवार, 28 मई 2012

भाकपा राज्य कौंसिल बैठक 13-14 मई 2012 द्वारा पारित चुनाव समीक्षा (विधान सभा चुनाव 2012)

लम्बे अतंराल के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने उत्तर प्रदेश में इतनी बड़ी संख्या (51 सीटों पर) में विधान सभा का चुनाव लड़ा। 2007 के चुनाव में हम बहुत कोशिश के बाद 21 प्रत्याशी ही चुनाव मैदान में उतार पाये थे जबकि उस समय प्रगतिशील जनमोर्चा गठबंधन वजूद में था और हम उसके हिस्से के रूप में चुनाव लड़े थे। इससे पूर्व कई चुनावों में हम पूंजीवादी दलों के साथ तालमेल कर लड़ते रहे और इन तालमेलों के कारण घटते-घटते हम पांच सीटें लड़ने पर सिमट गये। अन्य तमाम कारणों के अतिरिक्त हमारे जनाधार के सिकुड़ने का एक कारण तालमेल के चलते अत्यंत कम सीटों पर चुनाव लड़ा जाना भी था। यह उल्लेख जरूरी है कि चन्द जिलों में ही चुनाव लड़ने के कारण अधिसंख्यक जिलों में पार्टी की सांगठनिक मशीनरी चुनाव लड़ने के लायक नहीं रह गयी जिसका प्रत्यक्ष अनुभव इन चुनावों में उतरने पर हम सबको हुआ। पार्टी को ठहराव की स्थिति से निकालने और इसको फिर पूर्व की स्थिति की ओर ले जाने के लिये जरूरी था कि हम समूचे प्रदेश में कुछ अधिक संख्या में चुनाव लड़ें। लोक सभा चुनावों में भी हमने यह प्रयास किया था और समय की मांग थी कि विधान सभा चुनावों में भी यह क्रम जारी रखा जाये।
51 सीटों पर चुनाव में उतरने की हिम्मत हम इसलिये भी जुटा सके कि गत वर्षों में पार्टी ने प्रदेश में एक के बाद एक अनगिनत आन्दोलन किये हैं। इस बीच पार्टी की तमाम सांगठनिक गतिविधियां बढ़ाईं गईं और पार्टी शिक्षा पर भी पर्याप्त ध्यान दिया गया। पार्टी का वाहन आदि साधन भी बढ़ाये। राज्य पार्टी कई अन्य सीटें भी लड़ना चाहती थी लेकिन पार्टी केन्द्र ने हमें इतनी ही सीटें लड़ने की अनुमति दी। ध्यान रहे कि हमारी पार्टी जनवादी केन्द्रीयता के सिद्धांत पर चलती है।
चुनावों से पहले ही यह लगने लगा था कि शासक पार्टी बसपा अपनी घोर किसान-मजदूर एवं जनविरोधी नीतियों तथा भारी भ्रष्टाचार के चलते पराजय हासिल करेगी लेकिन किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत मिल सकेगा, इसका आभास शायद ही किसी को हो। लेकिन चुनाव नतीजे बेहद चौंकाने वाले थे और समाजवादी पार्टी स्पष्ट बहुमत (224 सीटें) पाकर सरकार बनाने में कामयाब रही। 80 सीटें पाकर बसपा दूसरे नम्बर पर, 47 सीटें पाकर भाजपा तीसरे स्थान पर तथा 28 सीटें पाकर कांग्रेस चौथे नम्बर पर रही। राष्ट्रीय लोकदल जो कांग्रेस के साथ गठबंधन में लड़ा था, को 9 सीटें हासिल हुईं। शेष 15 सीटें छोटे दलों और निर्दलियों के खाते में गयीं।
सपा को स्पष्ट बहुमत मिलने का सबसे प्रमुख कारण रहा कि लोग बसपा से बेहद नाराज थे और उसको हर कीमत पर हराना चाहते थे। मुख्य विपक्षी दल सपा ही बसपा के सामने सबसे ताकतवर था, अतएव लोग सपा की तरफ झुकते चले गये। 2007 के विधान सभा चुनाव में भी यही हुआ था जब सपा को हराने के लिये मतदाताओं ने बसपा को पूर्ण बहुमत दे दिया था।
किसी दल को स्पष्ट जनादेश न मिलने की चर्चायें जोरों पर थीं। लोग चिंतित थे कि चुनाव नतीजे आने के बाद सरकार बनाने को भारी खींचतान और खरीद-फरोख्त होगी। आम मतदाता ऐसा नहीं चाहता था और उसने स्पष्ट बहुमत देकर खरीद-फरोख्त की संभावनाओं पर विराम लगा दिया और सपा को पूर्ण बहुमत दे दिया।
स्पष्ट बहुमत न मिलने की चर्चाओं के बीच एक संभावना यह भी जताई जा रही थी बसपा और भाजपा की मिली-जुली सरकार वजूद में आ सकती है। इससे मुस्लिम मतदाता बहुत बड़े पैमाने पर सपा की ओर लामबंद हो गये।
कांग्रेस द्वारा पिछड़ों के कोटे से ही अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने की दोतरफा प्रतिक्रिया हुई। भाजपा ने इसके विरूद्ध साम्प्रदायिक विषवमन किया और इसका उसको थोड़ा लाभ भी मिला। लेकिन पिछड़ा वर्ग अपने कोटे में कटौती से नाराज होकर सपा की ओर लामबंद हो गया।
सपा, जोकि सरकार बनाने की प्रमुख दावेदार बनती जा रही थी, द्वारा अपने घोषणा पत्र और चुनावी आम सभाओं में किसानों, नौजवानों, छात्रों, अल्पसंख्यकों तथा अन्य वर्गों के लिये किये गये लुभावने वायदों तथा भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की घोषणाओं के कारण इन तबकों ने व्यापक पैमाने पर सपा के पक्ष में मतदान किया।
यद्यपि सपा और बसपा भी आर्थिक नवउदारवाद के रास्ते पर ही चल रही हैं लेकिन कांग्रेस एवं भाजपा दोनों राष्ट्रीय पार्टियों द्वारा आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों का खुला अनुसरण करने के चलते महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी जैसे सवालों पर जनता ने इन्हें तरजीह नहीं दी। चुनाव के दौरान कांग्रेस के कई मंत्रियों के ऊट-पटांग बयान तथा भाजपा द्वारा बसपा के एक भ्रष्टतम मंत्री को पार्टी में शामिल करने और जातिवादी समीकरण के तहत उमा भारती को उत्तर प्रदेश से चुनाव लड़ाने का सन्देश इनके विरोध में गया। इन दलों की संख्या यदि और बढ़ती तो सपा, बसपा की संख्या घटती, यह स्वाभाविक ही है।
निर्वाचन आयोग के प्रयासों के चलते मतदान प्रतिशत बढ़ा और मध्यम वर्ग और युवाओं ने बड़े पैमाने पर मतदान किया। बसपा के कुशासन के विरोध में और सपा से सुशासन पाने की उम्मीद में इन तबकों ने सपा के पक्ष में मतदान किया।
जिन नकारात्मक चीजों ने इस चुनाव में भूमिका अदा की, वे हैं -
  • उत्तर प्रदेश की राजनीति आज भी जातिगत जकड़बन्दी में फंसी हुई है। सपा का जाति आधार और बसपा का जाति आधार पूरी तरह इन दलों के पीछे लामबंद रहे। अन्य छोटी पार्टियों की मुख्य शक्ति भी उन दलों का जाति आधार ही था।
  • इन चुनावों में धनबल, बाहुबल और शराब का बड़े पैमाने पर प्रयोग हुआ। निर्वाचन आयोग की सख्ती और कड़े कानूनों के चलते चुनाव संसाधनों का खुले तौर पर अतिरेक प्रयोग संभव नहीं था। पूंजीवादी और माफिया प्रत्याशियों ने उस धन को नकदी के तौर पर तथा शराब बांटने में प्रयोग किया। खेद की बात है कि मतदान से 2-3 दिन पहले निर्वाचन आयोग भी इसकी अनदेखी करने लगता है।
  • प्रचार वाहनों की सीमित संख्या का कोई अर्थ नहीं रहा जबकि राजनैतिक दलों की रैलियों में बिना अनुमति के असंख्य वाहनों से पैसे के बल पर भीड़ जुटाई गई। अनेक वाहन बिना झंड़े बैनरों के प्रचार कार्य में लगे रहे।
  • सभी दलों के कई-कई नेता हेलीकाप्टरों से चुनाव प्रचार कर रहे थे। यह धन किस खाते से खर्च हो रहा था और कहां से आ रहा था, आज तक पता नहीं।
  • मीडिया की भूमिका बेहद नकारात्मक रही। पेड न्यूज की पाबंदियों की धज्जियां बिखेर बड़े अखबारों एवं खबरिया चैनलों ने पूंजीवादी दलों और माफिया नेताओं से बड़ी-बड़ी सौदेबाजियां कीं और उनकी खबरें दिन-रात प्रसारित कीं। यहां तक टीवी चैनलों पर इन दलों के नेताओं के लम्बे-लम्बे भाषणों का सीधा प्रसारण किया गया। स्थानीय स्तर पर भी प्रत्याशियों से नकद पैकेज लेकर खबरें बनाई और चलाई गईं।
  • वामपंथी दलों और भाकपा का चुनाव चिन्ह इस बार अखबारों के चुनावी पृष्ठों पर नहीं छापा गया जबकि हम प्रदेश के हर कोने में चुनाव लड़ रहे थे। हमने दो बार निर्वाचन आयोग से लिखित शिकायत की मगर कोई कार्यवाही सामने नहीं आई। मीडिया ने भाकपा और वामपंथ को पूरी तरह से दबाया।
इन्हीं कठिन परिस्थितियों के बीच भाकपा चुनाव मैदान में उतरी। हमने एक वर्ष पहले ही पूंजीवादी दलों से तालमेल न करने का निर्णय ले लिया था ताकि हमारी लड़ाई चन्द सीटों तक ही सीमित न रह जाये। बाद में माकपा भी हमारे साथ आ जुड़ी। फारवर्ड ब्लॉक और आरएसपी तो पहले ही साथ आ चुके थे। अंत में जनता दल (से.) भी हमारे साथ आ जुड़ा। माकपा ने परम्परागत अवसरवादी रूख अपनाते हुये उलेमा काउंसिल जैसे साम्प्रदायिक ग्रुप से भी घालमेल कर लिया जिसका संदेश अच्छा नहीं गया। हमने भाकपा (माले) से भी बातचीत की, लेकिन वे पहले तालमेल की घोषणा चाहते थे बाद में सीटों पर समझौता। पूर्व के अनुभवों से हम सावधान थे और हमारी शर्त यह थी कि पहले सीटों पर तालमेल कर लिया जाये और उसके बाद घोषणा की जाये। वे न केवल बातचीत से बचते रहे अपितु उन्होंने पूर्व की भांति इस बार भी तमाम जगहों पर हमारे सामने प्रत्याशी उतार दिये। भाकपा और माकपा यद्यपि किसी सीट पर आमने-सामने नहीं थीं पर हमारे सामने कई सीटों पर माकपा ने उलेमा काउंसिल आदि के प्रत्याशियों का समर्थन किया। कई अन्य जगहों पर भी उन्होंने हमारे प्रत्याशियों की मदद नहीं की। उनके इस अवसरवादी रूझान पर हम समय-समय पर आपत्ति दर्ज कराते रहे।
कई छोटे दलों से प्रारंभिक वार्ता की गई लेकिन वे बड़े पूंजीवादी दलों से तालमेल की फिराक में थे। नीति, सिद्धांत, कार्यक्रमों से उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं था। हमारा कमजोर जनाधार भी उनकी उदासीतनता का एक कारण था।
पार्टी की छवि, प्रतिष्ठा एवं भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुये हमने अपराधी सरगनाओं अथवा माफियाओं द्वारा संचालित पार्टियों के साथ तालमेल की संभावनाओं को निर्ममता से ठुकराना उचित समझा।
हमें जो वोट मिले, वे संतोषजनक नहीं कहे जा सकते लेकिन जो राजनैतिक एवं सांगठनिक परिस्थितियां थीं, उनमें यही नतीजे संभव थे। कारण -
  • जीत के लिये एक ठोस जनाधार की जरूरत होती है। हम जातिवादी राजनीति से कोसों दूर हैं अतएव हमारा कोई जाति आधार तो है नहीं और हो भी नहीं सकता। फिलहाल हमारे पास वर्गीय आधार भी नहीं है। मौजूदा समय में मजदूर वर्ग, किसान, मध्यम वर्ग सभी जाति के खांचों में बंटे हैं और जातिवादी पार्टियों के पीछे लामबंद हैं।
  • आम चुनावों में लोग सरकार बनाने को वोट डालते हैं। सच्चाई, ईमानदारी और संघर्ष जैसे मुद्दे गौण हो जाते हैं। 51 सीटों पर भाकपा और लगभग कुल सौ सीटों पर लड़कर वामपंथ सरकार बनाने का न तो दावा कर सकता है और न उसको सत्ता की दौड़ में माना जा सकता है। अतएव स्वतंत्र वोट उसको मिल नहीं पाता। केवल पार्टी कार्यकर्ताओं और पक्के समर्थकों का वोट ही हमें मिला।
  • विगत 25 वर्षों में हम तालमेलों के चलते बहुत ही कम सीटों पर लड़े। इससे जनता के बीच हमारी पहचान खत्म हो गई। तमाम जगह लोगों ने कहा कि बहुत दिनों बाद आये हैं? अथवा क्या यह कोई नई पार्टी है? हमारे तमाम कार्यकर्ता और प्रत्याशी चुनाव लड़ने के तौर-तरीकों को भी भूल चुके हैं।
  • जहां एक ओर बेतहाशा धन और शराब बांटी जा रही थी, वहीं हमारे पास पर्याप्त प्रचार सामग्री व अन्य साधन भी नहीं थे। गिनी-चुनी सीटों को छोड़ कर हमारे अधिकतर प्रत्याशियों ने 30 हजार से 1 लाख रूपये के बीच खर्च किया।
  • धनबल, जातिवाद, बाहुबल का मुकाबला मजबूत, सक्रिय और व्यापक आधार वाले संगठन से ही किया जा सकता है। किसी भी क्षेत्र में चुनाव योग्य सांगठनिक मशीनरी हमारे पास नहीं थी। हर बूथ पर हमारा संगठन होना चाहिये लेकिन यह कुछ ही बूथों पर सिमटा था।
  • पार्टी की छवि जनता के बीच बेहद अच्छी है जिसे संगठन और साधनों के अभाव में हम भुना नहीं सके। हमारी पार्टी संसाधन भी संगठन के जरिये ही जुटा सकती है। संगठन कमजोर होने के कारण साधन भी सीमित थे। यहां तक कि हम अधिक जनसभायें भी नहीं कर पाये और यदि की भी तो उनमें अधिक लोग नहीं जुटा पाये।
  • जमीनी स्तर पर जन संगठनों का भी अभाव था। हमारी पार्टी सदस्यता का भी बड़ा भाग सक्रिय नहीं हो सका। पूंजीवादी दलों की तमाम विकृतियां इस बीच हमारे संगठन में प्रवेश कर गई हैं।
  • कई जगह स्थानीय पार्टी कमेटी एवं प्रत्याशियों के बीच तालमेल नहीं था। कहीं पार्टी प्रत्याशी के भरोसे पूरा चुनाव छोड़े बैठी रही तो कहीं प्रत्याशी अपने ढंग से चुनाव लड़ रहे थे और पार्टी को नजरंदाज कर रहे थे।
  • ऊपर से नीचे तक चुनाव से पूर्व आवश्यक चुनावी तैयारी नहीं की जा सकी थी। पहले राज्य पार्टी एआईएसएफ की प्लेटिनम जुबली समारोह में व्यस्त रही। उसके तत्काल बाद जिला सम्मेलन व राज्य सम्मेलन में जुटी रही। राज्य सम्मेलन के तत्काल बाद ही चुनाव की घोषणा हो गई और हमें तैयारी के लिये कोई मौका नहीं मिला। जिन 30 प्रत्याशियों की सूची राज्य सम्मेलन से पूर्व जारी कर दी गई थी, वे भी चुनावी तैयारी में नहीं जुटे। कईयों को तो ऐसा लग रहा था कि अंततः किसी से तालमेल हो जायेगा और उन्हें लड़ने का मौका नहीं मिलेगा। पूर्व के अनुभव कुछ ऐसे ही हैं। चुनावों से पूर्व यदि तैयारी हुई होती तो नतीजे थोड़े बेहतर होते।
हमारी पार्टी संसदीय लोकतंत्र के तहत लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेती है। चुनाव इस व्यवस्था के अनिवार्य अंग हैं। अतएव हमें चुनावों को भी इतना ही महत्व देना होगा जितना कि आन्दोलन, संगठन निर्माण तथा पार्टी की विचारधारा के फैलाव को। संघर्ष, संगठन निर्माण एवं विचारधारा के प्रसार के बिना चुनावों में सफलता पाना संभव नहीं है तो बिना चुनावों में भागीदारी के संघर्ष, संगठन और विचारधारा का प्रसार संभव नहीं है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। अतएव हमें निम्न बातों पर फोकस करना होगा:
  • हमें पार्टी का एक वोट आधार निर्मित करना होगा। जाहिर है हम जातिवादी तौर तरीकों से यह काम नहीं कर सकते। हमारा वोट आधार ग्रामीण मजदूर, किसान, शहरी गरीब व निम्न मध्य वर्ग, दलितों एवं पिछड़ों के वे तबके जो अभावग्रस्त हैं, अल्पसंख्यकों के दस्तकार तबके, गरीबी की सीमा के नीचे रहने वाले लोग, बुद्धिजीवी, आम छात्र तथा नौजवान हो सकते हैं, हमें उनको अपने साथ जोड़ना होगा। सम्पन्न और विपन्न के बीच विभाजन रेखा खींच कर हमें विपन्नों को अपने साथ लामबंद करना होगा।
  • हमें इन सभी के बीच जन संगठन एवं पार्टी बनाकर उनके ज्वलंत सवालों पर अलग-अलग और संयुक्त आन्दोलन खड़े करने होंगे। साथ ही साथ उन्हें पार्टी के सिद्धांतों, कार्यक्रमों और उद्देश्यों से परिचित कराना होगा।
  • 6    हमें पंचायत, नगर निकाय, सहकारी समितियों, विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में लगातार भागीदारी करनी होगी ताकि आन्दोलनों के जरिये जुड़े लोग चुनाव में भी हमारे साथ जुड़े रहें। चुनाव इस ढंग से लड़े जायें कि एक चुनाव का फायदा दूसरे में मिले।
  • 6    चुनावों से पहले और चुनावों के दरम्यान हमें सभाओं, नुक्कड़ सभाओं, मुद्दों व विचारधारापरक पर्चों का ज्यादा इस्तेमाल करना होगा। जनसम्पर्क अथवा वैयक्तिक एप्रोच से पार्टी को ज्यादा लाभ नहीं मिलता।
  • 6    गत वर्षों में राज्य केन्द्र की ओर से एक के बाद एक आन्दोलनों के कार्यक्रम दिये जाते रहे और जिला कमेटियां उन पर अमल भी करती रहीं। लेकिन स्थानीय सवालों पर बहुत कम आन्दोलन हुये हैं। स्थानीय सवालों पर अधिक आन्दोलन छेड़े जायें और उन्हें निर्णायक स्थिति तक पहुंचाया जाये।
  • भाकपा अपने ठोस जनाधार और पार्टी संगठन के बलबूते पर ही चुनावों में सफलता अर्जित कर सकती है। अतएव हमें बूथ स्तर पर पार्टी संगठन और जनसंगठनों का निर्माण करना होगा। इस तरह साथ जोड़े गये लोगों को पार्टी शिक्षा आदि के जरिये वैचारिक रूप से जोड़ना होगा। जन सम्बंधों को मजबूत बनाने के लिये सामाजिक, सांस्कृतिक एवं पारिवारिक आयोजनों में ज्यादा से ज्यादा भागीदारी करनी होगी।
  • पार्टी को आर्थिक रूप से मजबूत करना होगा। इसके लिये नियमित रूप से फण्ड/अन्न संग्रह अभियान चलाते रहने होंगे।
  • भाकपा का लक्ष्य समाजवादी व्यवस्था का निर्माण है। हमें चुनावों को इस लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन समझना चाहिये। अतएव पार्टी स्तर से चुनाव की तैयारी होनी चाहिये। प्रत्याशी के ऊपर चुनाव थोप देना घातक होगा। प्रत्याशी की हैसियत के मुताबिक उसका भी योगदान लेना चाहिये।
  • पार्टी संगठन के भीतर पनपी पूंजीवादी विजातीय विकृतियों से हमें निर्ममता से लड़ना होगा।
  • आसन्न निकाय चुनावों में हमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना चाहिये। लड़ी जाने वाली सीटों को जीतने का पूरा प्रयास करना चाहिये। चुनाव के दौरान पर्चों, पोस्टरों तथा सभाओं के जरिये पार्टी की राजनीति जनता के बीच ले जानी चाहिये। पार्टी तथा जन संगठनों के विस्तार को ध्यान में रखते हुये जनसम्पर्क बढ़ाना चाहिये।
  • आगामी लोकसभा चुनावों की तैयारी अभी से की जानी चाहिये। सीटों को चिन्हित कर वहां आन्दोलन, जनसंघर्ष, पार्टी एवं जन संगठनों का बूथ स्तर तक निर्माण शुरू कर देना होगा।
हमको पूरा भरोसा है कि अपने जनाधारों को विस्तृत करने, विकृतियों को दूर करने और विभिन्न स्तरों के चुनावों में भागीदारी करने की अपनी सतत योजना से तथा समसामयिक राजनैतिक परिस्थितियों में कारगर दखल से हम विपरीत परिस्थितियों को जरूर ही बदल पायेंगे। दृढ़ विश्वास है कि विभिन्न निकायों में अपना प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर पायेंगे।
मंजिल मुश्किल हो सकती है पर असंभव नहीं है।

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