भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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रविवार, 26 अगस्त 2012

66वें स्वतंत्रता दिवस पर 99 प्रतिशत की बात

यह एक आमंत्रण है स्थितिप्रज्ञ एवं विज्ञ अर्थशास्त्रियों को। उन्हें झकझोरने का एक प्रयास है कि वे कुछ बोलें। देश न सही परन्तु जनता तो आर्थिक संकटों से घिरती चली जा रही है। यह आर्थिक संकट कितने गहन है, इसका आकलन होना चाहिए।
संप्रग-2 के तीन साल पूरे होने के मौके पर प्रधानमंत्री ने तो कह दिया कि अमरीकी डालर की बढ़ती कीमतें और देश के संकटग्रस्त भुगतान संतुलन से वे परेशान नहीं हैं क्योंकि करेंसी के भाव घटते-बढ़ते  रहते हैं और भूमंडलीकृत दुनियां में विचरणशील मुद्रा को विचरण करने से कौन रोक सकता है।
मनमोहन सिंह को आखिर चिन्ता हो भी तो क्यों? जब नौकरशाह थे तो सरकारी पेट्रोल जलाते थे और आज प्रधानमंत्री हैं तो फिर चिन्ता काहे की है। 2014 में अगर गद्दी से उतार दिये गये तो भी सरकारी पेट्रोल ही फूंकना है। जिस आदमी को अपनी कमाई से एक लीटर पेट्रोल भी कभी खरीदना न पड़ा हो, तो वह परेशान हो भी तो क्यों?
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में क्रूड के दाम बढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर अमरीकी डालर के दाम भी बढ़ रहे हैं। इस मौसम में वैसे भी वायरल, डेंगू, स्वाइन फ्लू आदि का कहर जनता पर ही बरपा होता है। इनके संक्रमण से जनता बुखार में थरथर कांपती है। बिना इलाज के मर जाती है। मैं जिधर देखता हूं उधर लोग पेट्रोल-डीजल की कीमतों में आठ-दस रूपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी की आशंका से कांपते हुये दिखते हैं।
आजादी के बाद एक डालर की औकात होती थी लगभग रू. 4.79 मात्र। दो-दो प्रधानमंत्रियों (नेहरू-शास्त्री) के कार्यकाल निकल गये लेकिन अमरीकी डालर तैरता रहा रू. 4.76 से रू. 4.79 के बीच। आज उसकी वैल्यू है रू. 77 के आस-पास यानी तब से लगभग 16 गुनी ज्यादा। उदारीकरण के बीस सालों में रूपया कितना गिर गया। आज अमरीकी डालर के सामने भारतीय रूपये की कोई औकात ही नहीं बची। वाह क्या परफार्मेंस दिखाई है! कितनी उछल रही है हमारी विकास दर। इस विकास-दर का कोई तो लेखा-जोखा होना चाहिये।
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किसी ने सवाल किया कि रूपये को अगर कुल परिवर्तनीय (फुल कंवरटिबल) न किया गया होता तो पेट्रोल आज कितने रूपये लीटर होता। सवाल जायज है। इसका उत्तर कौन देगा?
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एक समाचार यह है कि सन 2014 तक भारत के चालू खाते का घाटा बढ़कर इतना अधिक हो जायेगा कि विदेशी मुद्रा भंडार शून्य के करीब पहुंच जायेगा।
दूसरा समाचार यह है कि पिछले वर्ष 2011-12 में चालू खाते का कुल घाटा 78.20 बिलियन डालर था, जो सकल घरेलू उत्पाद का 4.2 प्रतिशत है। इस घाटे में 60.00 बिलियन डालर का योगदान तो केवल सोना आयात का था। यह पूरे विश्व के सोना उत्पादन का एक तिहाई है। यह बात कही हैं प्रधान मंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष सी. रंगराजन ने।
तीसरा समाचार यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी इस चिन्ता को सरकार से अवगत कराया है कि ऊंची ब्याज दरों के बावजूद नागरिकों द्वारा बचत न करने का एक मात्र कारण है - महंगाई जिसने नागरिकों के पास पैसा बचाने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी है।
सवाल उठता है कि गरीबी रेखा के नीचे वाले तो यह सोना खरीद नहीं रहे हैं। किसान अपना कर्ज अदा नहीं कर पा रहे हैं, सोना क्या खरीदेंगे। पचास हजार रूपये तक की मासिक आमदनी (मतलब नम्बर 1 की कमाई) वाले महंगाई के कारण जब छोटी-मोटी बचत नहीं कर पा रहे हैं तो 31000 रूपये प्रति दस ग्राम के हिसाब से सोना कहां से खरीदेंगे। देश के 99 प्रतिशत नागरिक सोना नहीं खरीद रहें हैं। तो फिर पूरे विश्व के उत्पादन का एक तिहाई सोना भारत में कहां इकट्ठा हो रहा है? जनता इस सवाल का जवाब चाहेगी।
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सुना है कि कांग्रेस और भाजपा में फिर गठजोड़ हो गया है। दोनों पार्टियां नई पीढ़ी के आर्थिक सुधार लागू करना चाहती हैं। दोनों को निवेशकों (विदेशी संस्थागत) की बड़ी चिन्ता है। दोनों ही उनका विश्वास हासिल करना चाहती हैं। वर्षाकालीन सत्र की शुरूआत में कोलगेट पर प्रधानमंत्री के इस्तीफे तक संसद न चलने देने का संकल्प दिखा कर भाजपा संसद के चलने में व्यवधान पैदा करेगी। उसके सांसद सदन के बाहर रहेंगे और इसी बीच मौका पाकर कांग्रेस उपस्थित बहुमत से डीजल एवं रसोई गैस की कीमतों को बाजार के सहारे खुला छोड़ने, बैंकिंग-पेंशन-पीएफ-बीमा आदि सुधारों को लागू करने, खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति, विदेशी पूंजी को भारतीय कारपोरेशनों में वोटिंग के असीमित अधिकार देने आदि का काम निपटा देगी।
राजनीति में सहयोग देकर असहयोग करना और असहयोग कर सहयोग देना कोई नई चीजें नहीं हैं।
ये नई पीढ़ी के आर्थिक सुधार जनता का कितना भला करेंगे और कितना बुरा, इसका आकलन होना चाहिए।
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चलते-चलते अंतिम बात। दूरदर्शन पर बैंक कर्मचारियों एवं अधिकारियों की हड़ताल पर परिचर्चा चल रही थी। किसी आर्थिक समाचार पत्र के सम्पादक महोदय बड़ी उत्तेजना में दाये हाथ से अपनी दाढ़ी नोचते और बाये हाथ को बड़ी तेजी से ऊपर नीचे झकझोरते हुए बोल रहे थे, ”....... भूमंडलीकरण के दौर में आयडियॉलॉजिकल (विचारधारात्मक) मुद्दों पर दो-दो दिन की हड़ताल। आखिर ये लोग चाहते क्या हैं? उदारीकरण के 22 सालों के बाद भी ये लोग पूरी दुनियां को यह संदेश क्यों दे रहे हैं कि भारतीय जनता का माइंडसेट (मानसिकता) अभी भी सोशलिस्ट है।“ सुनकर अच्छा लगा कि पूंजीवाद अभी भी कांप रहा है किसी के नाम से ....., किसी के प्रेत से ........।
- प्रदीप तिवारी

1 comments:

Unknown ने कहा…

Economists, intellectuals, journalists, writers, students are requested to comment on the issue raised in the aforesaid write-up preferably in Hindi to partyjeevan@gmail.com. Write-ups will be published here as well in our fortnightly "Party Jeevan".

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