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शनिवार, 29 सितंबर 2012

राजनीतिक विरोध की वास्तविकता

संप्रग-2 सरकार एक ऐसे भंवर में फंस गयी है जिससे वह निकल नहीं पा रही है। वह इस भंवर से जितना निकलने की कोशिश करती है वह ही अधिक वह उस भंवर में फंसती चली जा रही है। लोगों को याद होगा कि सन 1991 में देश का विदेशी मुद्रा भंडार इतना कम हो गया था कि तत्कालीन केन्द्रीय सरकार को सोना गिरवी रखकर विदेशी मुद्रा का इंतजाम करना पड़ा था। लोगों ने उस समय इस बात पर ध्यान नहीं दिया था कि ऐसी दुर्गति का कारण क्या था। चूंकि कारण जानने की कोशिश नहीं की गयी तो उस कारण के निदान की भी कोई कोशिश नहीं हुई।
विदेशी मुद्रा की आवश्यकता होती है आवश्यक वस्तुओं के विदेशों से होने वाले निर्यात के लिए, विदेशों से प्राप्त ऋणों की अदायगी के लिए और विदेशी निवेश पर प्राप्त लाभांश की वापसी के लिये। विदेशी मुद्रा की आय का मुख्य जरिया होता है निर्यात से प्राप्त आय। इसके अतिरिक्त जिन श्रोतों से विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है वे हैं विदेशों से प्राप्त ऋण, अनुदान और निवेश के लिए आई राशि। इन दोनों के मध्य संतुलन को भुगतान संतुलन या ‘बैलेन्स आफ पेमेन्ट’ के नाम से जाना जाता है। किसी भी देश के लिए विदेशी मुद्रा का संतुलन बहुत जरूरी होता है। आजादी के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने वाले राजनेताओं ने शुरूआत से ही निर्यात से प्राप्त विदेशी मुद्रा की आय के अतिरिक्त अन्य श्रोतों को प्रयोग करने में कोताही बरती। उन्होंने निर्यात से अधिक आयात को हमेशा हतोत्साहित किया और इसी के फलस्वरूप वे भारतीय रूपये की कीमत को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में स्थिर रखने में सफल रहे। सन 1980 तक भुगतान संतुलन का ग्राफ एक सीध में हल्के-फुल्के उतार-चढ़ाव के साथ संतुलित रहा। आज की युवा पीढ़ी को सुनकर शायद यह आश्चर्य हो कि उस दौर में अमरीकी डालर की औकात भारतीय रूपये के सामने बहुत कम थी। केवल पौने पांच रूपये खर्च करने पर एक अमरीकी डालर मिल जाया करता था।
राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही सत्ता की राजनीति में नई पीढ़ी सामने आयी जिसने न तो आजादी की लड़ाई में भाग लिया था और न ही उसने अर्थशास्त्र को समझने की इच्छा। संचार क्रांति की ओर देश बढ़ा परन्तु अमरीका से अनाप-शनाप मूल्यों पर कम्प्यूटर एवं दूसरे यंत्रों के अंधाधुंध निर्यात से विदेशी मुद्रा का भंडार खाली होने लगा। आज जो कम्प्यूटर बीस हजार रूपये में मिल जाता है, उससे कई गुना कम क्षमता वाला कम्प्यूटर उस दौर में हिन्दुस्तान में दो-दो लाख रूपये में लाया गया। लोगों को दस साल पहले मिलने वाले मोबाईल की कीमत भी याद ही होगी और उसके फीचर्स भी। कभी यह ध्यान नहीं दिया गया कि इस निर्यात के लिए आवश्यक विदेशी मुद्रा का प्रबंध कैसे होगा। उसी का परिणाम सन 1990 में सामने आया जब विदेशी मुद्रा भंडार पूरी तरह चुक गया था और भारतीय रिजर्व बैंक को अपना सोने का भंडार गिरवी रखना पड़ा था। निश्चित रूप से देश के लिए वह शर्मनाक हालत थी। देश का हर नागरिक इस स्थिति के लिए दुखी था परन्तु अधिसंख्यक को इसका कारण ज्ञात नहीं था।
फिर उसके बाद दौर शुरू हुआ एक ऐसे दौर का जिसमें सत्ता से जुड़े राजनीतिज्ञों की वह पीढ़ी आई जिसने कभी भी देश के गरीबों की हालत नहीं देखी थी, जिसे कभी बेरोजगारी के दंश का सामना नहीं करना पड़ा था और जिसने देश के लिए कभी कोई ख्वाब नहीं देखा था। उसने जिन आर्थिक नीतियों पर चलने का फैसला किया उसी का परिणाम है कि कहने को तो देश की विकास दर आसमान छू रही है परन्तु अमरीकी डालर के सामने भारतीय रूपया इतना बौना हो गया है कि 55 रूपये खर्च करने पर भी एक अमरीकी डालर नहीं खरीदा जा सकता। इसी का परिणाम है कि आज हमे पेट्रोल और डीजल की कीमतें इतनी अधिक भुगतनी पड़ रही हैं। विदेशी मुद्रा भंडार एक बार फिर शून्य की ओर बढ़ रहा है। हमने आयात को निर्यात से अधिक कर दिया। विदेशी ऋणों से फौरी हल निकालने की कोशिश की जिससे एक ओर तो भ्रष्टाचार बढ़ा तो दूसरी ओर उस ऋण की ब्याज सहित अदायगी के लिए और अधिक विदेशी मुद्रा की जरूरत हुई। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए आया धन मुनाफे के साथ वापस चला गया। जितना लेकर आया था उससे कई गुना ज्यादा विदेशी मुद्रा लेकर गया।
मनमोहन सिंह जैसे अमरीका परस्त नौकरशाह से राजनीतिज्ञ बने लोग अब भी सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं। इस संकट का हल अभी भी वे उसी तरह फौरी तौर पर निकालना चाहते हैं। अमरीका के इशारे पर विदेशी पूंजी को खुदरा व्यापार तक करने की इजाजत दे दी गयी है। वे अभी भी उसी दिवास्वप्न में जी रहे हैं, जिस दिवास्वप्न को उन्होंने 1991 में देखा था। कहते हैं कि ठोकर लगने से आदमी सीखता है परन्तु मनमोहन सिंह और उनके साथी अभी भी सीखने को तैयार नहीं हैं।
संप्रग-2 आज एक डूबता हुआ जहाज है जो अपने साथ पूरे देश को डूबो देना चाहता है। भाजपा अपने जन्मकाल से अमरीका परस्त रही है। इस देश के समाजवादी भी अमरीका परस्त रहे हैं। वे बात तो देश के गरीबों की करते हैं परन्तु आजादी के अगले दशक में ही उन्होंने देश में विचारधाराविहीनता का परचम बुलन्द करने की कोशिश की थी। वे बात अल्पसंख्यकों की करते हैं परन्तु अल्पसंख्यकों के लिए लालू और मुलायम जैसे मुख्यमंत्रियों ने क्या किया, इसे जानने की जरूरत नहीं है क्योंकि बेवकूफ बनाने के सिवा उनके भले के लिए कुछ किया ही नहीं। उल्टे ऐसे-ऐसे कदम उठाये कि क्या कहना। उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों का एक बड़ा हिस्सा बुनकरों का है, उसे बर्बाद करने के लिए हैण्डलूम कारपोरेशन से लेकर कताई मिलों को बंद करवा दिया था। बुनकर अब रिक्शा चलाते हैं या फिर अभी भी करघा लेकर भूखों मर रहे हैं। प्रदेश की बेशकीमती सम्पत्ति को औने पौने दामों पर बेच दिया। बसपा की बातें और काम भी इससे अलग नहीं रहे हैं। वास्तव में दोनों ही मौसेरे भाई-बहन हैं।
डीजल के दाम बढ़े, गैस सिलेण्डरों की संख्या अतिसीमित कर दी गयी और खुदरा व्यापार में एफडीआई को अनुमति दे दी गयी तो समाजवादी भी सड़कों पर उतरे विरोध करने के लिए। लेकिन उन्होंने तुरन्त घोषणा कर दी कि साम्प्रदायिकता के प्रेत के डर से वे संप्रग-2 सरकार को समर्थन देना जारी रखेंगे। विरोध और समर्थन की यह फितरत तो केवल हिन्दुस्तान के समाजवादियों में ही देखने को मिलती रही है। संप्रग-2 की तरह साम्प्रदायिकता की नाव पर सवार दल भी आज डूबता जहाज हैं। राजग ने भी भ्रष्टाचार के आरोप में संसद न चलने देकर किस प्रकार संप्रग-2 को वह सब करने का मौका मुहैया कराया जो अमरीका और विदेशी पूंजी चाहती है। उनकी राजनीति तो विरोध के जरिये सहयोग पर चलती रही है।
भाजपा और समाजवादियों की इस फितरत को समझना होगा। जनता के हर तबके को सोचना चाहिए कि कौन विरोध के लिए विरोध कर रहा है और कौन वास्तव में विरोध कर रहा है। केन्द्र सरकार के जन विरोधी कार्यों का विरोध करने के लिए जनता के विशाल तबके को उन वामपंथी ताकतों के इर्दगिर्द ही इकट्ठा होना चाहिए जो वास्तव में इन कदमों का विरोध कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नागरिकों को तो इस पर ज्यादा ही गौर करना चाहिए।
- प्रदीप तिवारी, 26 सितम्बर 2012

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