सोमवार, 23 अप्रैल 2018
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पेट्रोल- डीजल की कीमतें तत्काल नीचे लायी जायें : डा. गिरीश
लखनऊ- गत
दो दिन पहले रिकार्ड तोड़ चुकी पेट्रोल और डीजल दोनों की कीमतों में कल फिर 19 पैसे
प्रति लीटर की वृध्दि कर दी गयी. गत दो दिन पहले की वृध्दि में ही पेट्रोल ने
पिछले पांच साल का रिकार्ड तोडा दिया था जबकि डीजल पहली बार अब तक की इस ऐतिहासिक
उंचाई पर पहुंचा था.
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में
कच्चे तेल के दामों में होरही वृध्दि के नाम पर प्रति दिन की जारही इस वृध्दि के
विरुध्द अब आवाज उठाना जरुरी होगया है. क्योंकि जब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में
पेट्रोलियम पदार्थों के दाम रिकार्ड नीचाई पर थे तब सरकार ने कर भार बढ़ा कर उपभोक्ताओं
को इसका लाभ मिलने से वंचित किया और अब जबकि कच्चे तेल के दाम ऊपर की ओर खिसक रहे
हैं तो बाजार व्यवस्था के नाम पर प्रतिदिन कीमतें बढ़ाई जारही हैं. आम उपभोक्ता ही
नहीं समूचा बाजार इससे से ठगा महसूस कर रहे हैं.
‘एक देश एक टैक्स’ नारे के
तहत लागू किये गये जीएसटी से पेट्रोलियम पदार्थों को बाहर रखना सरकार की बदनीयती
का परिचायक है. यह अतार्किक व्यवस्था ज्यादा दिन नहीं चलने देनी चाहिए.
पेट्रोलियम पदार्थों की
कीमतों में वृध्दि के तात्कालिक और दूरगामी प्रभाव होते हैं. इससे किराया- भाड़ा बढ़
जाता है, अतः प्रत्येक उपभोक्ता वस्तु की कीमतें बढ़ जाती हैं. सिंचाई की लागत, खाद
बीज डीजल बिजली कीटनाशकों आदि की कीमतें बढ़ने से कृषि उत्पाद महंगे होजाते हैं.
जिन उद्योगों में पेट्रोलियम पदार्थों से उत्पादन होता है वहां तो दोहरी मार पड़ती
है. मुद्रास्फीति की दर बड़ने से चहुन्तरफा महंगाई की मार झेलनी पड़ती है. विकास
ठिठक जाता है.
लेकिन आश्चर्य की बात है कि
विकास विकास का दिन रात ढिंढोरा पीटने वाली सरकार सब कुछ भूल, लूट में लगी है.
संप्रग सरकार के ज़माने में बाहर से समर्थन देरहे वामदलों ने पेट्रोल डीजल के दाम न
बढ़ने देने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई थी, और उपभोक्ताओं को लाभ पहुँचाया था. पर एनडीए
के घटक दल मौन हैं. आम जनता के हित में उन्हें सरकार पर दबाव बनाना चाहिए.
लेकिन सबसे ज्यादा
आश्चर्यजनक इस मुद्दे पर मध्यम वर्ग की चुप्पी है. जाति- धर्म की राजनीति में बंटा
और निजी स्वार्थों के लिये ही मुखर होने वाले मध्यवर्ग को अब अपने जबड़े इस बढ़ोतरी
के खिलाफ खोलने चाहिए.
मैं भाकपा कार्यकर्ताओं,
वामपंथी साथियों और जनहितैषी अन्य शक्तियों से आग्रह करता हूँ कि वे किसी न किसी
रूप में पेट्रोलियम पदार्थों की महंगाई पर प्रतिरोध दर्ज करायें और सरकार से मांग
करें कि वह इन पर कर भार तत्काल घटा कर कीमतों को नीचे लाये. इन्हें जीएसटी के
दायरे में लाने के लिये सभी को दबाव बनाने की जरूरत है.
और अंत में कुछ निजी उपाय.
मैं स्वयं सप्ताह में एक दिन पेट्रोल डीजल उपयोग न करने का उपवास करूंगा. सप्ताह
में एक दिन ऐसे किसी वाहन में यात्रा नहीं करूंगा जो पेट्रोल अथवा डीजल से चलता
हो. आप भी यह प्रयास सकते हैं.
शनिवार, 21 अप्रैल 2018
at 1:31 pm | 0 comments |
भाजपा को सत्ता से बेदखल करने को लामबंद होरही हैं देश की प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियां
देश की तीन प्रमुख कम्युनिस्ट
पार्टियां अन्य वामपंथी जनवादी दलों को साथ लेकर केंद्र की घोर जनविरोधी, छलिया,
सांप्रदायिक और फासीवादी रुझानों से परिपूर्ण भाजपा की केन्द्र सरकार को 2019 में
सत्ता सिंहासन से अपदस्थ करने की रणनीति को अंजाम देने में जुटी हैं. भारतीय कम्युनिस्ट
आन्दोलन में विभाजन के बाद यह पहला अवसर है जब देश की तीन कम्युनिस्ट पार्टियां-
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ( मार्क्सवादी ) तथा भाकपा-
माले ( लिबरेशन ) एक सामान्य राजनैतिक रणनीति बनाने के बेहद करीब हैं.
देश की सबसे पुरानी
कम्युनिस्ट पार्टी- भाकपा ने लगभग 10 माह पूर्व ही अपनी इस परिकल्पना को प्रस्तुत
कर दिया था कि भाजपा द्वारा जनता, हमारे सामाजिक ताने बाने, लोकतंत्र और संविधान
पर किये जारहे हमलों का जबाव देने के लिये एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक और वामपंथी
शक्तियों प्लेटफार्म तैयार किया जाये. 25 से 29 अप्रैल तक केरल के शहर कोल्लम में
होने जारहे भाकपा के 23 वें महाधिवेशन में इसी रणनीति को अंतिम रूप दिया जाना है.
शब्दों का हेर फेर होसकता
है लेकिन माकपा के हैदराबाद में चल रहे 22 वें महाधिवेशन में कल पारित राजनैतिक
प्रस्ताव में इस बात पर जोर दिया गया है कि हमारी मुख्य लड़ाई भाजपा/ आरएसएस से है
और इसे परास्त करने को जनता के व्यापकतम हिस्सों को लामबंद किया जाना चाहिये. गत
माह संपन्न भाकपा- माले के महाधिवेशन में पारित प्रस्ताव में भाजपा को मुख्य
चुनौती मानते हुये इसे सत्ता से हठाने को वामपंथी लोकतांत्रिक शक्तियों को बड़े
पैमाने पर गोलबंद करने की जरूरत पर बल दिया गया.
निश्चय ही देश की
लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष ताकतों को लामबंद करने में कम्युनिस्ट पार्टियों की
साझा रणनीति एक आधार का काम करेगी. वामपंथ में बन रही इस व्यापक रणनीतिक एकता के
वस्तुगत और अपरिहार्य कारण भी हैं.
देश आजादी के बाद के सबसे
जटिल संकट से गुजर रहा है. देश और अधिकतर राज्यों की सत्ता ऐसे समूह के हाथों में
केन्द्रित है जो संपूर्णतः देश के मेहनतकशों के हितों पर डाका डाल कर पूंजीपतियों
की तिजौरियां भरने को प्रतिबध्द है. देश की आबादी का लगभग 70 प्रतिशत भाग आज भी
ग्रामों में रहता है. यह ग्रामीण भारत खेती और खेती से जुड़े लघु उद्यमों पर आश्रित
है. आज यह ग्रामीण समुदाय आर्थिक रूप से सबसे अधिक असुरक्षित और विपन्न है. कारण-
खेती बेहद घाटे का सौदा बन चुकी है. पूंजीवादी अर्थतंत्र खेती के बल पर टिका हुआ
है पर खेती किसान की लागत और उसके परिश्रम को निगल रहा है. खेती बदहाल है तो उससे
जुड़े लघु और कुटीर उद्योग भी वरबाद हैं.
खेती और उसकी बदहाली के कई
कारण हैं. कृषि उत्पादों की कीमतें तय करने का अधिकार किसान के पास नहीं है. कुछेक
खाद्यान्नों की कीमतें सरकार तय करती है तो फल सब्जी और कई अन्य की कीमतें मंडी
में मांग- आपूर्ति के आधार पर तय होती हैं. यह लागत, जमीन के किराये और किसान के परिश्रम
की तुलना में काफी कम होती हैं. इसके अलाबा खेती में काम आने वाली हर वस्तु की
कीमत मुनाफे पर आधारित बाजार निर्धारित करता है. इससे खेत्ती का लागत मूल्य बढ़
जाता है. प्राकृतिक आपदाओं की मार भी किसानों के ऊपर ही पड़ती है.
इन्हीं वजहों से किसान
निरंतर घाटे के चलते कर्जदार होता जारहा है. बैंक ऋण हासिल करने में आने वाली
कठिनाइयां उसे सूदखोरों से कर्ज लेने को बाध्य करती हैं. यही वजह है कि कर्ज में
डूबे पीड़ित किसानों द्वारा आत्महत्यायें करने का दौर थमने का नाम नहीं लेरहा.
भाजपा और मोदी ने गत लोकसभा चुनावों के दौरान किसानों की आमदनी दोगुना करने का
वायदा किया था. अन्य वायदों की तरह यह भी जुमला साबित हुआ. ग्रामीण श्रमिकों की
जीवनरेखा- मनरेगा को भी सीमित कर दिया गया है.
यद्यपि गत शताब्दी के
सातवें दशक से ही मन्दी और उद्योग बन्दी शुरू होगयी थी लेकिन 1991 में शुरू हुये
आर्थिक नवउदारवाद के दौर में मंदी और उद्योग बंदी की यह रफ़्तार और तेज होगयी. मोदी
सरकार के कतिपय कदमों जिनमें नोटबन्दी और जीएसटी का लागू किया जाना प्रमुख हैं, ने
हालातों को और संगीन बना दिया है. फलतः हमारी अर्थव्यवस्था में चहुँतरफा गिरावट
स्पष्ट दिखाई दे रही है. डालर के मुकाबले रूपये की कीमत गिर कर निम्नतम स्तर पर
पहुंच गयी है. आयात बढ़ा है और निर्यात घटा है. सकल घरेलू उत्पाद ( जीएसटी ) की दर
हो या औद्योगिक उत्पादन की दर, हरएक में लगातार क्षरण होरहा है.
अतएव बेरोजगारी में बेतहाशा
वृध्दि हुयी है. मोदीजी ने दो करोड़ नौजवानों को हर वर्ष रोजगार देने का वायदा किया
था पर उन्हें रोजगार देने के बजाय सिर्फ मुद्रा, स्टार्टअप, स्किल इंडिया और
डिजिटल इंडिया आदि नारों से बहलाने की कोशिश की जारही है. पूंजीपतियों जिनके कतिपय
हिस्से आज कारपोरेट घराने बन चुके हैं, को लाभ पहुंचाने को जनता की गाड़े पसीने की
कमाई से स्थापित हुये व स्वदेशी बुध्दिमत्ता और परिश्रम से विकसित हुये सार्वजनिक
उद्यमों को उनके हाथों बेचा जारहा है. बैंकों में जमा आम जनता के धन को धनिक वर्ग
को दिलाया जारहा है जिसे वे वापस करने के बजाय बट्टे खाते में डलवा रहे हैं या फिर
बैंकों से भारी रकमें लेकर विदेशों को भाग रहे हैं. बैंकों से लगातार होरही इन
अवैध निकासियों का भार सामान्य निवेशकों पर डाला जारहा है. जितने घपले घोटाले
संप्रग सरकार के दो कार्यकालों में हुये थे उससे कहीं ज्यादा राजग/ भाजपा के चार
सालों में होचुके हैं.
अब पेट्रोल और डीजल की
कीमतों ने ऐतिहासिक ऊंचाई छू ली है. जिससे पहले से आसमान छूरही महंगाई को और भी
पंख लगने वाले हैं. पेटोलियम पदार्थों के सस्ते होते हुए भी उपभोक्ताओं को महंगे दामों
पर बेचने वाली सरकार अब बढ़ती कीमतों का भार अपने सर पर लेने को तैयार है न उसको
जीएसटी के अंतर्गत लाने को तैयार है.
सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली
को वरबाद करने की प्रक्रिया दशकों से जारी थी लेकिन मोदी राज में वह और तेज हुयी
है. शिक्षा का बजट निम्नतम स्तर पर ला दिया गया है. अब चुनींदा और प्रतिष्ठित
विश्वविद्यालयों को निजीकरण की दिशा में धकेला जारहा है. नीति यह है कि इसे इतना
महंगा बना दिया जाये कि समाज के सामान्य हिस्से इससे वंचित होजायें और वे लुटेरी
और शोषक पूंजीवादी व्यवस्था की भट्टी में जलने वाले सस्ते ईंधन के तौर पर स्तेमाल
होते रहें. इस उद्देश्य से श्रम कानूनों को भी कमजोर बनाया जारहा है. शिक्षा को
धर्मान्धता, पाखण्ड, पोंगापंथ और सांप्रदायिकता फ़ैलाने का औजार बनाने को इसके
पाठ्यक्रमों में प्रतिगामी बदलाव किये जारहे हैं. इतिहास, कला और संस्कृति की
व्याख्या संघ के द्रष्टिकोण से की जारही है.
स्वास्थ्य सेवायें भी सरकार
के निशाने पर हैं और वे भी बेहद महंगी और आम आदमी की पहुंच से बाहर होती चली जारही
हैं. सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पंगु बना कर गरीबों के मुहँ का निवाला छीना जारहा
है. हर तरह की सब्सिडी को खत्म किया जारहा है.
आतंकवाद को समाप्त करने और
सीमापार के दुश्मनों का खात्मा करने के मोदी और भाजपा के दावों का खोखलापन इसीसे
से जाहिर होजाता है कि गत चार सालों में पूर्व के भारत- पाक युध्दों से भी अधिक
संख्या में हमारे सैनिक और अन्य सुरक्षा बलों के जवान शहीद होचुके हैं.
मोदी, भाजपा और आरएसएस की
तिकड़ी और कारपोरेट हितों की पोषक इस सरकार के प्रति जनता का मोहभंग तेजी से बढ़ रहा
है. हाल में कई राज्यों में हुये उपचुनावों, निकाय और अन्य चुनावों के परिणामों ने
भाजपा के पैरों तले से जमीन के खिसकने का संकेत दे दिया है. उत्तर प्रदेश के गोरखपुर
और फूलपुर की लोकसभा सीटें जिन पर प्रदेश के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री जीते थे, पर भाजपा की करारी हार ने साबित कर
दिया है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की पराजय का रास्ता तैयार होरहा है.
उनका दावा कि “मोदी का कोई विकल्प नहीं”, उत्तर प्रदेश में ही दम तोड़ रहा है.
लेकिन संपूर्ण सत्ता का
स्वाद चख चुकी भाजपा और उसका रिंग मास्टर आरएसएस इसे इतनी आसानी से छोड़ने वाला
नहीं. बेनकाबी जितनी तेजी से बढ़ रही है उसको नकाब पहनाने के प्रयास भी उतनी ही
तेजी से बढ़ रहे हैं. अतएव हर वह हथकंडा जो जनता को गुमराह और विभाजित कर सके
अपनाया जारहा है. सभी जानते हैं कि मंदिर- मस्जिद विवाद सर्वोच्च न्यायालय के
विचाराधीन है और उसका फैसला आने पर ही हल हो सकता है. फिर भी मंदिर निर्माण के लिये
लगातार तीखे बोल बोले जारहे हैं. कथित लव जिहाद, गोरक्षा और तीन तलाक जैसे मुद्दों
की आड़ में अल्पसंख्यकों और दलितों को निशाना बनाया जारहा है. दंगे कराये जारहे हैं
और दंगों तथा हत्याओं में संलिप्त संघी
अपराधियों को आरोपों से मुक्त किया जारहा है. आरक्षण के सवाल पर भी भाजपा समाज को
बांटने का काम कर रही है. विभाजनकारी यह एजेंडा दिन व दिन धारदार बनाया जाना है.
संविधान और न्यायिक प्रणाली तक को बदलने का प्रयास जारी है.
कारपोरेट हितों की पोषक और
फासिस्टी रुझानों से सराबोर इस सरकार को सत्ताच्युत करना आज हर लोकतंत्रवादी ताकत
का सबसे प्रमुख लक्ष्य बन गया है. कम्युनिस्ट पार्टियां महसूस करती हैं कि जनविरोधी,
लोकतंत्र और संविधान विरोधी इस सरकार को अपदस्थ करने को एक व्यापक और व्यावहारिक
रणनीति बनाई जाये. सभी लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और वामपंथी ताकतों का एक
प्लेटफार्म तैयार कर संघर्षों को नयी उंचाइयों तक लेजाया जाये. बरवादी की जड़
आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों का एक आर्थिक- सामजिक विकल्प पेश किया जाए.
सांप्रदायिकता, धर्मान्धता और रूढ़िवादिता के खिलाफ वैचारिक मुहीम चलाई जाये. तीनों
कम्युनिस्ट पार्टियों के राजनैतिक दस्तावेजों में इन तथ्यों को शिद्दत के साथ
रेखांकित किया गया है. भारत के वामपंथी लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष आन्दोलन के
लिये यह एक नयी शुरुआत है.
डा. गिरीश
शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018
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बलात्कार रोको, दलितों का उत्पीडन बन्द करो, अपराध रोको : वामदल
लखनऊ- कठुआ, उन्नाव, एटा, सिकंदरा राऊ ( हाथरस ), नोएडा, पीलीभीत, सूरत तथा देश और उत्तर
प्रदेश के हर कोने से महिलाओं और अबोध बालिकाओं के साथ बलात्कार, सामूहिक बलात्कार
और बलात्कार के बाद हत्याओं की दिल दहलाने वाली खबरें आरही हैं. विदेशों तक में इन
शर्मनाक वारदातों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन होरहे हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ तक ने
इन घटनाओं पर गहरी चिन्ता जतायी है. अल्पसंख्यकों के बाद अब दलित- गरीब और पिछड़े सामंती
और सरकारी उत्पीडन के शिकार होरहे हैं. फर्जी एनकाउंटरों में नौजवान मौत के घाट
उतारे जारहे हैं. अपराध थमने के बजाय बढ़ते ही जारहे हैं. पुलिस प्रशासन लूट खसोट
में मस्त है. आमजन त्राहि त्राहि कर रहा है.
इन सभी मुद्दों पर केन्द्र
और उत्तर प्रदेश की सरकार की निद्रा तोड़ने के उद्देश्य से आज वामपंथी दलों ने
समूचे उत्तर प्रदेश में जिला और तहसील मुख्यालयों पर विरोध प्रदर्शन किये.
प्रदर्शनों के बाद जिले के संबंधित अधिकारियों को राष्ट्रपति और राज्यपाल को
संबोधित ज्ञापन दिए गए. ज्ञापनों में प्रमुख रूप से बलात्कारियों के खिलाफ सख्त और
त्वरित कार्यवाही किये जाने, दलितों- कमजोरों का उत्पीडन रोके जाने, अपराधों पर
नियंत्रण करने और राजनैतिक उद्देश्य से किये जारहे एन्काउन्टरों को रोके जाने की
मांग की गयी.
वामदलों का आरोप है कि
भाजपा और उसकी सरकार दबंगों, सामंतवादी और जातिवादी तत्वों तथा शोषक वर्गों के
हितों को साधने में लगी है, शासक दल के विधायक और सांसद जो आपराधिक और आर्थिक
आपराधिक प्रष्ठभूमि के हैं, एक के बाद एक वारदातों को अंजाम देरहे हैं लेकिन
ध्रतराष्ट्रवादी सरकार उनको बचाने में लगी रहती है. 2 अप्रैल के भारत बंद के बाद
दलितों पर नए हमलों की शुरूआत होचुकी है और उन्हें जेलों में ठूँसा जारहा है.
महिलाओं की रक्षा का भरोसा दिलाने के बजाय भाजपा के अग्रणी नेता उनके प्रति कड़वे
बोल बोल रहे हैं. कठुआ में तो भाजपा के मंत्रियों और नेताओं ने बलात्कारियों के
पक्ष में जुलूस निकाले.
वामपंथी दलों ने आरोप लगाया
है कि एनकाउन्टर के नाम पर योगी सरकार राजनीति कर रही है. सुनियोजित तरीके से
दलितों अल्पसंख्यकों और अन्य गरीबों के घरों के नौजवानों की हत्या की जारही है. 14
सौ से अधिक इन हत्याओं के बावजूद अपराधों में कमी न आना इस बात का जीता जागता
प्रमाण है कि अपराधी आजाद घूम रहे हैं और निर्दोष लोग मौत के घाट उतारे जारहे हैं.
वामदलों के इस आन्दोलन में भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी, भाकपा- ( मार्क्सवादी ), भाकपा- माले, फारबर्ड ब्लाक और
एसयूसीआई- सी के कार्यकर्ताओं ने भाग लिया. भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने दाबा
किया कि फसलों की कटाई और मढ़ाई के सीजन के बावजूद वामदलों के इस आन्दोलन में बड़ी
संख्या में लोगों ने भाग लिया.
डा. गिरीश
रविवार, 8 अप्रैल 2018
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९ अप्रेल जन्म दिवस पर : अद्भुत घुमक्कड़, प्रखर साहित्यकार और समाजवादी क्रांति के अग्रदूत थे महापंडित राहुल सांकृत्यायन
बहुभाषाविद, अग्रणी विचारक,
यायावर, इतिहासविद, तत्वान्वेषी, युगपरिवर्तनकारी साहित्य के रचयिता, किसान नेता,
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, साम्यवादी चिन्तक बहुमुखी प्रतिभा के धनी महापंडित
राहुल सान्क्रत्यायन की 125 वीं जन्मशती इस वर्ष सारा देश और विश्व मनाने जारहा
है. लेकिन बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी इस मनीषी के बारे में युवा पीढ़ी पूरी तरह
अनभिज्ञ है. जबकि गत शताब्दी के उत्तरार्ध्द में उनकी पुस्तक “ वोल्गा से गंगा” के
प्रति नौजवानों की दीवानगी देखते बनती थी और बुक स्टालों पर उसका स्टाक निल होते
देर नहीं लगती थी.
9 अप्रेल 1893 में उत्तर
प्रदेश के जनपद- आजमगढ़ के ग्राम- पन्दहा में अपनी ननिहाल में जन्मे राहुल
सान्क्रत्यायन का बचपन का नाम केदारनाथ पाण्डेय था. लेकिन जीवन के हर क्षेत्र में
चरैवेति चरैवेति सिध्दांत को व्यवहार में उतारने वाले राहुल जी के नाम में भी
क्रमशः परिवर्तन होता गया जो अंततः महापंडित राहुल सान्क्रत्यायन पर जाकर थमा.
बचपन में परिवारियों द्वारा रचाये विवाह की प्रतिक्रिया में घर से भागे बालक केदार
जब मठ की शरण में गये तो उनका नाम राम उदार दास होगया. जब बौध्द धर्म अपनाया तो
राहुल कहलाये और जब काशी की पंडित सभा ने उन्हें महापंडित की उपाधि दी तो वे
महापंडित राहुल बने और अपने सान्क्रत्यायन गोत्र के चलते महापंडित राहुल
सान्क्रत्यायन नाम से पुकारे जाने लगे. बाद में इसी नाम से उनकी ख्याति हुयी.
वैष्णव परिवार में जन्मे
राहुल जी की वैचारिक यायावरी भी कम रोचक नहीं है. वेदान्त अध्ययन के बाद मंदिरों
में पशु बलि दिए जाने के खिलाफ जब उन्होंने भाषण दिया तो अयोध्या के सनातनी
पुरोहितों ने उन्हें लाठियों से पीटा. तदुपरांत वे आर्य समाजी होगये. जब आर्य समाज
उनकी ज्ञान पिपासा को शांत नहीं कर सका तो उन्होंने बौध्द धर्म अपना लिया. अंततः
जीवन संघर्षों ने उन्हें मार्क्सवादी बना दिया.
हिन्दी भाषा और साहित्य को
राहुल जी ने जो कुछ दिया वह अभी तक अकेले किसी विद्वान ने नहीं दिया. लगभग दो सौ पुस्तकों
की रचना और अनुवाद का श्रेय उन्हें जाता है. यात्रा वृत्तान्त, यात्रा साहित्य,
कहानियां, उपन्यास, निबन्ध, आत्मकथा, जीवनियाँ, विश्व दर्शन आदि सभी पर उन्होंने लिखा
और अनुवाद किया. किन्नर देश की ओर, कुमाऊँ, दार्जिलिंग परिचय, यात्रा के पन्ने,
घुमक्कड़ शास्त्र तथा मध्य एशिया का इतिहास जैसी पुस्तकें उनके घुमक्कड़ी के ज्ञान
पर आधारित हैं. उन्हें भारत का ह्वेनसांग कहा जाए तो कम है. घुमक्कड़ों के लिये
उन्होंने सन्देश दिया कि “ कमर बांध लो घुमक्कड़ो संसार तुम्हारे स्वागत के लिये
बेकरार है”. वे हिंदी यात्रा साहित्य के पितामह थे. मध्य एशिया और काकेशस भ्रमण पर
भी उन्होंने ग्रन्थ लिखे. उनकी दो खण्डों में लिखी पुस्तक “मध्य एशिया का इतिहास”
तत्कालीन सोवियत संघ के विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल थी.
वोल्गा से गंगा उनकी कालजयी
रचना है. छठवीं ईसा पूर्व के बोल्गा नदी तट से लेकर 1942 के पटना के गंगाघाट तक की
मानव की ढाई हजार वर्ष की ऐतिहासिक- सांस्कृतिक यात्रा को रोचक 20 कहानियों में
निबध्द कर देना राहुल के ही वश की बात है. ज्ञान की भूख में भारत और विश्व का निरंतर
भ्रमण करने वाले राहुलजी जहाँ भी जाते वहां की भाषा बोली सीख जाते और उन पर निबंध
और टिप्पणियाँ लिखते जाते. वे 36 भाषाओं के ज्ञाता थे. भारत की संस्कृति, साहित्य
और समाज का उन्होंने गूढ़ अध्यन किया. प्राचीन और वर्त्तमान साहित्य के चिंतन को आत्मसात
कर उन्होंने उसे मौलिक द्रष्टि दी.
बौध्द धर्म की ओर झुकाव
होने के बाद उन्होंने तिब्बत और श्रीलंका की यात्रायें कीं. उनकी घुमक्कड़ी, शोध,
खोज और लेखन साथ साथ चलते थे. उन्होंने ड्राइंग रूम में बैठ कर शायद ही कुछ लिखा
हो. अपनी चार बार की तिब्बत यात्रा के दौरान उन्होंने तिब्बती भाषा में अनूदित वे
ग्रन्थ खोज निकाले जो भारत में नष्ट कर दिए गए थे. आर्थिक और तमाम कठिनाइयों का
सामना करते हुये वे इस ज्ञान- राशि को 18 खच्चरों पर लाद कर भारत ले आये जो पटना
संग्रहालय में रखी गयीं हैं और शोधार्थियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं.
जब वे दक्षिण भारत गए तो
उन्होंने संस्कृत भाषा और उसके सम्रध्द साहित्य का अध्ययन किया. तिब्बत में पाली
भाषा और पालिग्रंथों का अध्यन किया, लाहौर में उन्होंने अरबी भाषा सीखी और
इस्लामिक ग्रन्थोंका अध्ययन किया. उन्होंने “इस्लाम धर्म की रूपरेखा” नामक पुस्तक
लिखी जो मुस्लिम और गैर मुस्लिम दोनों कट्टरपंथियों को जबाव है. उनकी औपचारिक
शिक्षा मात्र प्राथमिक थी लेकिन अपनी विद्वता के बल पर वे लेनिनग्राद में संस्कृत
के अध्यापक बने. श्रीलंका के विश्वविद्यालय ने उन्हें बौध्द दर्शन का प्रोफेसर
नियुक्त किया जहां वे बहुत कम वेतन पर पढ़ाते थे. उनकी विद्वता से प्रभावित नेहरूजी
उन्हें किसी विश्विद्यालय का कुलपति बनाना चाहते थे मगर उनके शिक्षामंत्री ने
औपचारिक डिग्रियां न होने के कारण हाथ खड़े कर दिये.
राहुल जी की राजनैतिक
यात्रा कम रोचक नहीं है. 1917 की रूस की समाजवादी क्रांति ने उन्हें गहरे से
झकझोरा. 1940 नें अखिल भारतीय किसान सभा, बिहार कमेटी के अध्यक्ष के रूप में वे
जमींदारों के जुल्म के खिलाफ लड़ने को किसानों के साथ हंसिया लेकर खेतों में उतर
पड़े. उन पर लाठियों से हमला हुआ और वे गंभीर रूप से घायल हुये. उन्होंने कई
जनसंघर्षों का सक्रिय नेतृत्व किया. किसानों कामगारों की आवाज को मुखर अभिव्यक्ति
दी. इन आन्दोलनों में सक्रीय भागीदारी के चलते उन्हें एक साल की जेल हुयी. देवली कैम्प ( जेल ) में उन्होंने विश्व
प्रसिध्द पुस्तक “दर्शन- दिग्दर्शन” लिख डाली.
1942 के भारत छोडो आन्दोलन
के बाद किसान सभा के संस्थापक स्वामी सहजानंद सरस्वती के साप्ताहिक अखबार “हुंकार”
का उन्हें संपादक बनाया गया. अंग्रेजी हुकूमत ने उस समय फूट डालो और राज करो की
नीति के तहत एक विज्ञापन जारी किया जिसमें हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन के नेताओं की
विक्रत तस्वीर पेश की गयी थी. राहुल जी ने इस विज्ञापन को छापना मंजूर नहीं किया
और वह अख़बार ही छोड़ दिया.
मार्क्सवाद, अनात्मवाद,
बुध्द के जनतंत्र में विश्वास और व्यक्तिगत संपत्ति के विरोध जैसी सामान बातों के
चलते वे बौध्द दर्शन और मार्क्सवाद को साथ लेकर चले. उन्होंने मार्क्सवादी
विचारधारा को भारतीय समाज की ठोस परिस्थितियों का आकलन करके ही लागू करने पर जोर
दिया. उनकी पुस्तकों “वैज्ञानिक भौतिकवाद”
और “दर्शन दिग्दर्शन” में इस पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है. उन्होंने समाज
परिवर्तन के सिपाहियों को शिक्षित करने के उद्देश्य से “भागो नहीं दुनियां को बदलो”
और “तुम्हारी क्षय” जैसी पुस्तकें लिखीं.
राहुलजी एक राष्ट्रभाषा के
सिध्दांत के प्रबल हिमायती थे. वे कहते थे कि बिना भाषा के राष्ट्र गूंगा है. उनका
कहना था कि राष्ट्रभाषा और जनपदीय भाषाओं के विकास में कोई विरोधाभाष नहीं. अपने
भाषागत सिध्दांतों पर अटल राहुल जी ने 1947 के अखिल भारतीय साहित्य सम्मलेन के
अध्यक्ष के रूप में पहले से लिखित भाषण को पढ़ने से मना कर दिया. उन्होंने जो भाषण
दिया वह अल्पसंख्यक संस्कृति और भाषाई सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों के
विपरीत था. अतएव उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता से वंचित कर दिया गया. परन्तु
इससे न उन्होंने अपने विचार बदले और न ही तेबर. वे निरंतर संघर्षरत रहे. नए भारत
के निर्माण का उनका मधुर स्वप्न उनकी पुस्तक “बाईसवीं सदी” में देखने को मिलता है.
1953- 54 के दौरान वे पुनः भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल कर लिए गए.
आजीवन देश विदेश घूमने वाले
राहुल जी अपने पिता के गाँव कनैला अधेढ़ अवस्था में गये और अपनी विवाहिता पत्नी से
मिले जिन्हें उन्होंने पहली बार देखा था. उनके अजस्र त्याग को देख वे भावुक होगये.
अपनी भावुकता को उन्होंने अपनी पुस्तक “कनैला की कथा” में बेहद भावुक शब्दों में
लिखा है. उन्हें पद्मभूषण और पद्म विभूषण जैसे पुरुष्कारों से नवाजा गया. 1993 में
उनकी जन्मशती पर एक डाक टिकिट भी जारी किया गया.
स्मृति लोप होजाने पर
उन्हें इलाज के लिये मास्को लेजाया गया. पर उनकी हालत में सुधार नहीं हुआ. मास्को
से लौटने के बाद 14 अगस्त 1963 में 70 वर्ष की आयु में दार्जिलिंग में उनका निधन
होगया. आज इस बेजोड़ शख्सिय्त को युवा पीढी से रूबरू कराने की ख़ास जरूरत है.
डा. गिरीश
सोमवार, 2 अप्रैल 2018
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भारत बंद की गंभीरता को समझ नहीं पायी भाजपा: भाकपा
लखनऊ- 2 अप्रेल 2018,
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने अनुसूचित जाति/ जनजाति उत्पीडन
प्रतिरोधक क़ानून को कमजोर किये जाने के विरोध में विभिन्न दलित संगठनों द्वारा
आयोजित भारत बंद के दौरान उत्तर प्रदेश सहित देश के विभिन्न राज्यों में भड़की
हिंसा को संबन्धित राज्य सरकारों की विफलता बताया है. भाकपा ने इन हिंसक
कार्यवाहियों में हुयी धन और जन हानि पर गहरी चिंता व्यक्त की है. पार्टी ने इस
हिंसा के बहाने भाजपा सरकारों द्वारा दलित समुदाय और आन्दोलन समर्थकों पर जगह जगह
किये जारहे पुलिस दमन की निंदा की है. पार्टी ने सभी पक्षों से शान्ति बनाये रखने
की अपील की है.
यहां जारी एक प्रेस बयान
में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहाकि गत चार वर्षों में एनडीए की केन्द्र
सरकार और एक साल में उत्तर प्रदेश सरकार के कदमों से अनुसूचित जातियों, जनजातियों
और अन्य गरीबों में बेहद गुस्सा है. उनकी जमीनें छीनी जारही हैं, उनके लिये
निर्धारित सरकारी योजनाओं का लाभ उन्हें नहीं मिल पारहा, भाजपा और आरएसएस समर्थित
गुंडे उनका उत्पीडन कर रहे हैं, महिलाओं के साथ बदसलूकी की वारदातें बड़ी हैं, पुलिस
उन्हें प्रताड़ित कर रही है, जगह जगह डा. अंबेडकर, लेनिन और दलितों की अस्मिता के
प्रतीक महापुरुषों की मूर्तियाँ तोड़ी जारही है, आरक्षण समाप्त करने की बातें की
जारही हैं तथा संविधान को बदलने की धमकियां दी जारही हैं.
ऐसे में एस. सी. -एस. टी.
एक्ट को लेकर सर्वोच्च न्यायलय में दायर वाद में केंद्र सरकार और भाजपा की
षड्यंत्रकारी भूमिका और न्यायालय के निर्णय के बाद देश भर के दलितों में आक्रोश की
लहर दौड़ गयी. प्रतिरोध इतना व्यापक था कि स्वयं भाजपा के अन्दर अनुसूचित वर्ग के
लोगों ने इस निर्णय पर खुल कर अप्रशन्नता जतायी.
लेकिन अधिकतर राज्यों में भाजपा
की सरकारें इस आक्रोश के प्रति मगरूर बनी रहीं और आंदोलन की आड़ में असामाजिक
तत्वों ने हिंसा फैला दी जिसमें जान और माल का बेहद नुकसान हुआ है. भाकपा इस पर
गहरी चिंता प्रकट करती है. लेकिन इस हिंसा के बाद पुलिस ने आन्दोलनकारियों के
खिलाफ बिना सम्यक विवेचना के ही उत्पीडनात्मक कार्यवाहियां शुरू कर दी हैं जिनको
कदापि उचित नहीं ठहराया जा सकता. केवल हिंसा के लिए जिम्मेदार असामाजिक तत्वों के
खिलाफ कार्यवाही की जानी चाहिये, भाकपा मांग करती है.
डा. गिरीश
शुक्रवार, 30 मार्च 2018
at 5:04 pm | 0 comments |
रामराज्य और समाजवाद
उत्तर प्रदेश के
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा बजट भाषण पर चर्चा के दौरान विधान परिषद् में
“समाजवाद” को लेकर दिए गये वक्तव्य ने एक नई बहस को जन्म देदिया है. हो सकता है कि
बड़बोले श्री आदित्यनाथ ने यह बातें समाजवादी पार्टी के नाम में विहित समाजवाद को
लक्षित कर कही हों, लेकिन उन्होंने इसे व्यापक फलक देते हुये जो कुछ कहा वह
आश्चर्य में डालने वाला है. उन्होंने कहाकि प्रदेश की जनता अब तय कर चुकी है कि
उन्हें समाजवाद नहीं रामराज्य चाहिये. उन्होंने न केवल समाजवाद को धोखा कहा बल्कि
उसे समाप्तवाद तक कह डाला. उन्होंने समाजवाद की तुलना जर्मनी के नाजीवाद और इटली
के फासीवाद तक से कर डाली.
विपक्षी सदस्यों द्वारा यह
याद दिलाने पर कि समाजवाद शब्द संविधान की प्रस्तावना में दर्ज है, और
मुख्यमंत्रीजी उसे धोखा बता रहे हैं; वे भागते नजर आये. उन्होंने विपक्ष से
प्रतिप्रश्न किया कि संविधान में समाजवाद शब्द कब जोड़ा गया? उनका आशय इसे इंदिरा
सरकार से जोड़ कर खारिज करना था जिनके कि कार्यकाल में संसद ने इसे संविधान में
जोड़ा.
अब यह तो समय ही बतायेगा कि
प्रदेश की जनता क्या तय कर चुकी है और आगे क्या तय करेगी. लोकतंत्र में समय समय पर
सरकारों के क्रियाकलापों और कार्यप्रणाली के अनुसार जनता अपना मत और मंतव्य बदलती
रहती है, यह योगी आदित्यनाथ से ज्यादा कौन जानता है. जिस गोरखपुर की लोकसभा सीट पर
दशकों से योगीमठ का कब्ज़ा था उसे मतदाताओं ने एक पल में उनसे छीन लिया.
वस्तुतः रामराज्य एक कल्पना
है जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं. यह एक मिथक है; हमारे मनीषियों और
कवियों की सुशासन के बारे में एक सुखद परिकल्पना है. यह अभी तक के इतिहास के किसी
दौर में न तो अस्तित्व में था, और न ही इसके अस्तित्व के कहीं कोई प्रमाण ही मिलते हैं. लेकिन राम के आख्यान के लोकप्रिय
होने के बाद शासक और शासक तबके रामराज्य का नाम लेकर जन- मानस को भरमाते रहे हैं. योगी
जैसे शासकों के लिये ये पूंजीवाद की विकृतियों को ढांपने की कवायद मात्र है.
लेकिन समाजवाद गत चार
शताब्दियों के राजनैतिक चिंतकों के अब तक की शासन व्यवस्थाओं के अध्ययन के उपरांत
अधिरूपित की गयी समाज व्यवस्था है जिसको मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के विचारों ने
गढ़ा, और जो आज से सौ वर्ष पहले रूस की समाजवादी क्रांति के बाद अस्तित्व में आई.
यद्यपि अनेक बाह्य और आतंरिक कारणों से लगभग सात दशकों तक अस्तित्व में रहने के
बाद रूस की यह समाजवादी व्यवस्था ढह गयी लेकिन इसकी विशाल उपलब्धियां आज भी
पूंजीवादी व्यवस्था को मुहं चिड़ा रही हैं. क्यूबा और वियतनाम जैसे देश आज भी इस
व्यवस्था के जरिये अपने नागरिकों के जीवन को समुन्नत बना रहे हैं तो लैटिन अमेरिका
एवं अफरीकी महाद्वीप के कई देश तमाम
दबावों के बावजूद इस दिशा में बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं.
भारत में आधुनिक समाजवाद का
स्वरूप हमारी आजादी के आन्दोलन और विश्व सर्वहारा के क्रांतिकारी आन्दोलन के साथ
मजबूती से जुड़ा है. वह किसी की दया या कृपा पर निर्भर नहीं है. कार्ल मार्क्स,
एंगेल्स और लेनिन भारत की दुर्दशा और उसके भविष्य को बहुत बारीकी से देख रहे थे.
कार्ल मार्क्स ने भारत को ‘महान और दिलचस्प’ देश कहने के साथ ही “ हमारी भाषाओं और
धर्मों का उद्गम” कहा. मार्क्स और एंगेल्स ने सिध्द किया कि जैसे ही विश्व
सर्वहारा का क्रांतिकारी संघर्ष प्रबल होगा और भारत तथा अन्य पराधीन देशों की जनता
स्वाधीनता के लिये सचेत और संगठित होकर संघर्ष करने लगेगी “इस महान और दिलचस्प देश
की मुक्ति और पुनरुत्थान और समूची औपनिवेशिक प्रणाली का पतन अपरिहार्य हो जायेगा.”
मार्क्स और एंगेल्स ने सन
1853 में ही लिखा था, “ भारत के लोग उन नये तत्वों से, जिन्हें ब्रिटिश
पूंजीपतियों ने उनके बीच बिखेरा है ( रेल, तार, पानी के जहाज आदि ) तब तक कोई लाभ
नहीं उठा सकेंगे, जब तक खुद ब्रिटेन में औद्योगिक सर्वहारा आज के शासक वर्ग की जगह
न ले ले या जब तक भारतीय लोग स्वयं इतने मजबूत न होजायें कि अंग्रेजों के जुए को
पूरी तरह उतार फेंकें. कुछ भी हो, हम पूरी तरह आश्वस्त रह सकते हैं कि भविष्य में,
कुछ कम या ज्यादा लंबे अर्से के बाद इस महान और दिलचस्प देश का पुनरुत्थान होगा.”
अंग्रेजी हुकूमत द्वारा की
जारही भारत की लूट पर पर मार्क्स की पैनी नजर थी. उन्होंने 1881 में लिखा था कि
“जो माल भारतीय प्रति वर्ष मुफ्त इग्लेंड भेजने को मजबूर होते हैं, उनकी कीमत ही
भारत के छह करोड़ औद्योगिक और खेतिहर कामगारों की कुल आमदनी से अधिक है. यह
क्षोभजनक बात है. वहां एक के बाद एक भुखमरी के साल आते हैं और भुखमरी का आकार भी
इतना बड़ा होता है कि यूरोप में आज तक उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता.”
भारत के प्रथम स्वतंत्रता
संग्राम पर भी मार्क्स और एंगेल्स अपनी सतर्क नजरें गढ़ाए हुए थे और उन्होंने उसे
राष्ट्रीय विद्रोह माना था. उन्होंने लिखा कि उन्नीसवीं सदी के मध्य में भारत का
यह विद्रोह “ ब्रिटिश आधिपत्य के खिलाफ महान एशियायी राष्ट्रों के सर्वव्यापी
असंतोष की एक महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है.”
मार्क्स एंगेल्स की इस समझ
को आगे बढाते हुये लेनिन ने 1908 में लिखा कि “भारत में ब्रिटिश शासन पध्दति के
नाम पर जो लूटमार और हिसायें की जारही हैं उनका कोई अंत नहीं.” उन्होंने 1912 में
पुनः लिखा कि “ इग्लेंड देश ( भारत ) के उद्योग का गला घोंट रहा है.” 1913 में
लेनिन ने लिखा कि ब्रिटिश पूंजी भारत तथा अन्य उपनिवेशों को “ बहुत निर्दयता के
साथ और जमींदाराना ढंग से गुलाम बनाती और लूटती है.” आगे यह भी लिखा कि भारत की
“लगभग 30 करोड़ आबादी ब्रिटिश नौकरशाही द्वारा लूटे जाने और सताये जाने के लिये छोड़
दी गयी है.” लेनिन उस दौर के राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के उभार में जनवादी
तत्वों के उदय को भली प्रकार देख रहे थे. उन्होंने बाल गंगाधर तिलक को “भारतीय
जनवादी” कहा.
परतंत्र भारत की ब्रिटिश
शासकों द्वारा की जारही निर्मम लूट के विरुध्द संघर्ष में ही भारत में समाजवाद की वैचारिक
नींव पड़ी.
19 वीं सदी के अंतिम दशक
में स्वामी विवेकानंद ने भी भारत के जनवादी समाजवादी स्वरुप का अनुमान लगा लिया
था. उन्होंने भविष्यवाणी की कि “भावी महापरिवर्तन, जिसे एक ऐसे नये युग का
सूत्रपात करना है जिसमें सत्ता शूद्रों ( श्रम जीवियों ) के हाथ में होगी, संभवतः
रूस से ही शुरू होगा.”
बीसवीं सदी के पहले दशक में
ही भारत के प्रवासी स्वतंत्रता सेनानी अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी मंचों से सहायता
लेने का प्रयास करने लगे थे. वे दूसरे सोशलिस्ट इंटरनेशनल के अधिवेशनों में भाग
लेने लगे थे. इनमें दादाभाई नौरोजी, मैडम कामा, एस. आर. राना, बी. बी. एस. अय्यर
और श्यामजी कृष्ण वर्मा प्रमुख हैं. उन्होंने उन मंचों पर भारत की परिस्थिति पर
प्रस्ताव पेश किये और भाषण दिये. मैडम कामा ने पहली बार स्टुटगार्ड अधिवेशन में
तिरंगा झंडा फहराया और कहा कि आदर्श सामाजिक व्यवस्था का तकाजा है कि कहीं की भी
जनता गुलाम न रहे. भारत की जनता जागेगी और हमारे रूसी साथियों द्वारा दिखाये
रास्ते पर चलेगी, जिन्हें हम अपना बहुत ही बन्धुत्वपूर्ण अभिवादन भेजते हैं.
बाल गंगाधर तिलक की
गिरफ्तारी पर 1908 में बंबई के मजदूरों द्वारा की गयी पहली राजनैतिक हड़ताल पर
टिप्पणी करते हुये लेनिन ने लिखा कि “जनता का भारत अपने बुध्दिजीवियों और
राजनेताओं के रक्षार्थ खड़ा होरहा है.” उन्होंने भविष्यवाणी की कि “ भारत में भी सर्वहारा
सजग राजनीतिक जन- संघर्ष के स्तर पर जा पहुंचा है. इन परिस्थितियों में भारत में
अंग्रेजी- रूसी ढंग की शासन व्यवस्था के दिन बस गिने चुने रह गये हैं.”
1917 में भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस के अधिवेशन में एनीबीसेंट ने कहा कि “रूसी क्रांति तथा यूरोप और एशिया
में रूसी जनतंत्र के संभावित उदय ने भारत में पहले से विद्यमान परिस्थितियों को
पूर्णतया बदल दिया है.” अक्टूबर क्रांति के बाद 1918 में बाल गंगाधर तिलक ने लिखा
कि “अभिजातों की जमीनों के किसानों को बांटे जाने के परिणामस्वरूप सेना और जनता
में लेनिन का प्रभाव बढ़ गया है.” 1920 में लाला लाजपत राय ने कहा कि “पूंजीवादी और
साम्राज्यवादी सत्य की अपेक्षा समाजवादी, वोलशेविक सत्य कहीं ज्यादा श्रेष्ठ,
विश्वसनीय और मानवीय है. 1919 में बोल्शेविज्म का अर्थ स्पष्ट करते हुए तत्कालीन
विद्वान विपिनचंद पाल ने लिखा कि इसका अर्थ है कि “धनिकों और तथाकथित उच्च वर्गों
की ओर से उत्पीडन को नकारते हुये सभी लोगों को आजादी और सुख से रहने का अधिकार.”
उन्होंने यह भी कहा कि “ बोल्शेविक सभी प्रकार के आर्थिक और पूंजीवादी शोषण तथा
सट्टेबाजी के खिलाफ हैं और वे सामाजिक असमानता का विरोध करते हैं. कवीन्द्र
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 1918 में क्रांतिकारी रूस की तुलना “उस भोर के तारे” से की
जो “नवयुग के प्रभात का संदेश लेकर आता है.”
भारत की अस्थाई सरकार जो
काबुल में स्थापित हुयी थी के राष्ट्रपति राजा महेन्द्रप्रताप और प्रधानमंत्री
बरकतुल्लाह खान के नेतृत्व में प्रवासी भारतीय क्रांतिकारियों का एक प्रतिनिधिमंडल
लेनिन से मिला था जिनसे लेनिन ने कहा कि “हम मुसलमानों और गैर मुसलमानों की घनिष्ठ
एकता का स्वागत करते हैं. हमारी कामना है कि यह एकता पूरब के समस्त मेहनतकशों को
एक सूत्र में पिरोये.”
शहीदे आज़म भगत सिंह और उनके
साथियों को ‘क्रांतिकारी’ या ‘क्रांतिकारी
आतंकवादी’ कहा जाता है. लेकिन वे भारत में समाजवाद/ साम्यवाद के अधिष्ठाता कहे जा
सकते हैं. अपने मित्र सुखदेव को उन्होंने लिखा था- “तुम और मैं तो जिन्दा नहीं
रहेंगे लेकिन हमारी जनता जिन्दा रहेगी. मार्क्सवाद लेनिनवाद के ध्येय और साम्यवाद
की विजय निश्चित है.”
दिल्ली के सेशन जज के सामने
दिये वक्तव्य में उन्होंने कहा- “क्रांति से हमारा अभिप्राय यह है कि प्रत्यक्ष
अन्याय पर आधारित वर्त्तमान व्यवस्था बदलनी चाहिये. वास्तविक उत्पादनकर्ता या
मजदूर को समाज का अत्यावश्यक हिस्सा बनाने के स्थान पर, शोषक उनकी मेहनत के फल छीन
लेते हैं और उन्हें उनके सामान्य अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है. एक तरफ तो है
किसान जो सबके लिये अनाज उगाता है, अपने परिवार के साथ भूखा मरता है, बुनकर जो
विश्व बाज़ार को कपड़ा सप्लाई करता है, अपने बच्चों का तन ढकने को पर्याप्त कपड़ा
नहीं प्राप्त कर सकता, राज, लोहार, और बढई जो शानदार महल तैयार करते हैं, खुद
गन्दी बस्तियों में जीते और मरते हैं; और दूसरी तरफ हैं समाज के परजीवी, पूंजीवादी
शोषक जो अपनी सनक पर ही लाखों की रकम उड़ा देते हैं. ये भयानक असमानतायें और जबरन
थोपी गयी विकृतियां विप्लव की तरफ ले जारही हैं. ये हालात ज्यादा दिन नहीं चल सकते
और यह स्पष्ट होगया है कि वर्त्तमान समाज व्यवस्था ज्वालामुखी के किनारे खड़ी जश्न
मना रही है....... इस सभ्यता की पूरी इमारत अगर वक्त रहते बचायी नहीं गयी तो लड़खड़ा
कर ढह जायेगी. इसलिए एक मूलभूत परिवर्तन आवश्यक है. और जो इस बात को समझते हैं,
उनका कर्तव्य है कि समाजवादी आधार पर समाज का पुनर्गठन किया जाये.
डा. भीमराव अंबेडकर को
आमतौर पर जातिवाद विरोधी, आरक्षण के पुरोधा और संविधान निर्माता के रूप में जाना
जाता है, लेकिन उनके मन मस्तिष्क में भी समाजवाद की साफ़ तस्वीर थी. उन्होने
संविधान सभा में कहा था कि 26 जनवरी 1950
को हम एक विरोधाभासी स्थिति में प्रवेश करने जारहे हैं, जहां राजनीति में तो हमने
नागरिकों को समानता दे दी है. परन्तु सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में ऐतिहासिक कारणों
से हम समानता से दूर रहे हैं. अतः हमें शीघ्र- अतिशीघ्र राजनीतिक एवं सामाजिक-
आथिक जीवन में इस विरोधाभास को खत्म करना होगा. वरना जो लोग इस असमानता से
उत्पीड़ित हैं, वे इस सभा द्वारा इतने परिश्रम से बनाये हुये राजनैतिक लोकतंत्र के
भवन को ध्वस्त कर देंगे. अपने पत्र ‘मूकनायक’ में डा. अंबेडकर ने 1920 में लिखा था कि भारत की आजादी के साथ सभी
वर्गों को धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर बराबरी की गारंटी होनी
चाहिए और हर व्यक्ति को अपनी प्रगति के लिये अनुकूल स्थितियां भी हासिल हों.
संविधान के प्रारूप की
व्याख्यात्मक टिपण्णी में भी इस बात पर बल दिया गया है कि देश के तीव्र विकास के
लिये स्टेट सोशलिज्म वांछित है,........ निजी क्षेत्र कृषि में कोई सम्रध्दी नहीं
ला सकते. 6 करोड़ अछूतों को जो भूमिहीन मजदूर हैं, उनके जीवन में खुशी चकबंदी और
हदबंदी कानूनों से नहीं आ सकती, केवल सरकारी खेती इसका समाधान है.
डा. अंबेडकर प्रत्येक
नागरिक की मूल आवश्यकताओं की आपूर्ति किसी भी लोकतंत्र का प्रथम कर्तव्य मानते थे.
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में वांछित आर्थिक प्रणाली के बारे में उनके
विचार “ स्टेट एंड माइनारिटीज” नामक पुस्तिका में स्पष्टरूपेण वर्णित हैं. वे
साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के खुले विरोधी थे. उनकी सोच में कार्ल मार्क्स और गौतम
बुध्द के विचारों का अभूतपूर्व समन्वय है. उन्होंने “प्रिवीपर्स” की समाप्ति ,
बैंकों, बीमा कंपनियों और कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण की बात बहुत पहले उठाई थी.
वे समाजवाद और सार्वजनिक क्षेत्र के पक्षधर थे.
आजादी के आन्दोलन की इन
तमाम धाराओं को अपना आदर्श मानते हुए हमने स्वतन्त्र भारत में मिश्रित
अर्थव्यवस्था की नीति अपनाई जिसका लक्ष्य उत्तरोत्तर सार्वजनिक उद्योग और सामूहिक
खेती की व्यवस्था को मजबूत करते हुये समाजवाद की ओर बढ़ना था. इसी क्रम में राजाओं
के प्रिवीपर्स खत्म किये गये और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया. संविधान की
प्रस्तावना में समाजवाद के उद्देश्य को समाहित किया गया. इन सारी उपलब्धियों पर
पलट वार हमें भूमंडलीकरण, आर्थिक नव उदार की व्यवस्था के रूप में देखने को मिला.
लेकिन इसके तहत असमानता- और गरीबी- अमीरी के बीच चौड़ी होती खाई ने समाजवाद की
प्रासंगिकता को पुनर्स्थापित कर दिया है, जिस पर पर्दा डालने की कोशिश में
रामराज्य का शिगूफा छोड़ा गया है.
डा. गिरीश
at 2:34 pm | 0 comments |
रामराज्य और समाजवाद
त्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा बजट भाषण पर चर्चा के दौरान विधान परिषद् में “समाजवाद” को लेकर दिए गये वक्तव्य ने एक नई बहस को जन्म देदिया है. हो सकता है कि बड़बोले श्री आदित्यनाथ ने यह बातें समाजवादी पार्टी के नाम में विहित समाजवाद को लक्षित कर कही हों, लेकिन उन्होंने इसे व्यापक फलक देते हुये जो कुछ कहा वह आश्चर्य में डालने वाला है. उन्होंने कहाकि प्रदेश की जनता अब तय कर चुकी है कि उन्हें समाजवाद नहीं रामराज्य चाहिये. उन्होंने न केवल समाजवाद को धोखा कहा बल्कि उसे समाप्तवाद तक कह डाला. उन्होंने समाजवाद की तुलना जर्मनी के नाजीवाद और इटली के फासीवाद तक से कर डाली.
विपक्षी सदस्यों द्वारा यह याद दिलाने पर कि समाजवाद शब्द संविधान की प्रस्तावना में दर्ज है, और मुख्यमंत्रीजी उसे धोखा बता रहे हैं; वे भागते नजर आये. उन्होंने विपक्ष से प्रतिप्रश्न किया कि संविधान में समाजवाद शब्द कब जोड़ा गया? उनका आशय इसे इंदिरा सरकार से जोड़ कर खारिज करना था जिनके कि कार्यकाल में संसद ने इसे संविधान में जोड़ा.
अब यह तो समय ही बतायेगा कि प्रदेश की जनता क्या तय कर चुकी है और आगे क्या तय करेगी. लोकतंत्र में समय समय पर सरकारों के क्रियाकलापों और कार्यप्रणाली के अनुसार जनता अपना मत और मंतव्य बदलती रहती है, यह योगी आदित्यनाथ से ज्यादा कौन जानता है. जिस गोरखपुर की लोकसभा सीट पर दशकों से योगीमठ का कब्ज़ा था उसे मतदाताओं ने एक पल में उनसे छीन लिया.
वस्तुतः रामराज्य एक कल्पना है जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं. यह एक मिथक है; हमारे मनीषियों और कवियों की सुशासन के बारे में एक सुखद परिकल्पना है. यह अभी तक के इतिहास के किसी दौर में न तो अस्तित्व में था, और न ही इसके अस्तित्व के कहीं कोई प्रमाण ही मिलते हैं. लेकिन राम के आख्यान के लोकप्रिय होने के बाद शासक और शासक तबके रामराज्य का नाम लेकर जन- मानस को भरमाते रहे हैं. योगी जैसे शासकों के लिये ये पूंजीवाद की विकृतियों को ढांपने की कवायद मात्र है.
लेकिन समाजवाद गत चार शताब्दियों के राजनैतिक चिंतकों के अब तक की शासन व्यवस्थाओं के अध्ययन के उपरांत अधिरूपित की गयी समाज व्यवस्था है जिसको मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के विचारों ने गढ़ा, और जो आज से सौ वर्ष पहले रूस की समाजवादी क्रांति के बाद अस्तित्व में आई. यद्यपि अनेक बाह्य और आतंरिक कारणों से लगभग सात दशकों तक अस्तित्व में रहने के बाद रूस की यह समाजवादी व्यवस्था ढह गयी लेकिन इसकी विशाल उपलब्धियां आज भी पूंजीवादी व्यवस्था को मुहं चिड़ा रही हैं. क्यूबा और वियतनाम जैसे देश आज भी इस व्यवस्था के जरिये अपने नागरिकों के जीवन को समुन्नत बना रहे हैं तो लैटिन अमेरिका एवं अफरीकी महाद्वीप के कई देश तमाम दबावों के बावजूद इस दिशा में बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं.
भारत में आधुनिक समाजवाद का स्वरूप हमारी आजादी के आन्दोलन और विश्व सर्वहारा के क्रांतिकारी आन्दोलन के साथ मजबूती से जुड़ा है. वह किसी की दया या कृपा पर निर्भर नहीं है. कार्ल मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन भारत की दुर्दशा और उसके भविष्य को बहुत बारीकी से देख रहे थे. कार्ल मार्क्स ने भारत को ‘महान और दिलचस्प’ देश कहने के साथ ही “ हमारी भाषाओं और धर्मों का उद्गम” कहा. मार्क्स और एंगेल्स ने सिध्द किया कि जैसे ही विश्व सर्वहारा का क्रांतिकारी संघर्ष प्रबल होगा और भारत तथा अन्य पराधीन देशों की जनता स्वाधीनता के लिये सचेत और संगठित होकर संघर्ष करने लगेगी “इस महान और दिलचस्प देश की मुक्ति और पुनरुत्थान और समूची औपनिवेशिक प्रणाली का पतन अपरिहार्य हो जायेगा.”
मार्क्स और एंगेल्स ने सन 1853 में ही लिखा था, “ भारत के लोग उन नये तत्वों से, जिन्हें ब्रिटिश पूंजीपतियों ने उनके बीच बिखेरा है ( रेल, तार, पानी के जहाज आदि ) तब तक कोई लाभ नहीं उठा सकेंगे, जब तक खुद ब्रिटेन में औद्योगिक सर्वहारा आज के शासक वर्ग की जगह न ले ले या जब तक भारतीय लोग स्वयं इतने मजबूत न होजायें कि अंग्रेजों के जुए को पूरी तरह उतार फेंकें. कुछ भी हो, हम पूरी तरह आश्वस्त रह सकते हैं कि भविष्य में, कुछ कम या ज्यादा लंबे अर्से के बाद इस महान और दिलचस्प देश का पुनरुत्थान होगा.”
अंग्रेजी हुकूमत द्वारा की जारही भारत की लूट पर पर मार्क्स की पैनी नजर थी. उन्होंने 1881 में लिखा था कि “जो माल भारतीय प्रति वर्ष मुफ्त इग्लेंड भेजने को मजबूर होते हैं, उनकी कीमत ही भारत के छह करोड़ औद्योगिक और खेतिहर कामगारों की कुल आमदनी से अधिक है. यह क्षोभजनक बात है. वहां एक के बाद एक भुखमरी के साल आते हैं और भुखमरी का आकार भी इतना बड़ा होता है कि यूरोप में आज तक उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता.”
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर भी मार्क्स और एंगेल्स अपनी सतर्क नजरें गढ़ाए हुए थे और उन्होंने उसे राष्ट्रीय विद्रोह माना था. उन्होंने लिखा कि उन्नीसवीं सदी के मध्य में भारत का यह विद्रोह “ ब्रिटिश आधिपत्य के खिलाफ महान एशियायी राष्ट्रों के सर्वव्यापी असंतोष की एक महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है.”
मार्क्स एंगेल्स की इस समझ को आगे बढाते हुये लेनिन ने 1908 में लिखा कि “भारत में ब्रिटिश शासन पध्दति के नाम पर जो लूटमार और हिसायें की जारही हैं उनका कोई अंत नहीं.” उन्होंने 1912 में पुनः लिखा कि “ इग्लेंड देश ( भारत ) के उद्योग का गला घोंट रहा है.” 1913 में लेनिन ने लिखा कि ब्रिटिश पूंजी भारत तथा अन्य उपनिवेशों को “ बहुत निर्दयता के साथ और जमींदाराना ढंग से गुलाम बनाती और लूटती है.” आगे यह भी लिखा कि भारत की “लगभग 30 करोड़ आबादी ब्रिटिश नौकरशाही द्वारा लूटे जाने और सताये जाने के लिये छोड़ दी गयी है.” लेनिन उस दौर के राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के उभार में जनवादी तत्वों के उदय को भली प्रकार देख रहे थे. उन्होंने बाल गंगाधर तिलक को “भारतीय जनवादी” कहा.
परतंत्र भारत की ब्रिटिश शासकों द्वारा की जारही निर्मम लूट के विरुध्द संघर्ष में ही भारत में समाजवाद की वैचारिक नींव पड़ी.
19 वीं सदी के अंतिम दशक में स्वामी विवेकानंद ने भी भारत के जनवादी समाजवादी स्वरुप का अनुमान लगा लिया था. उन्होंने भविष्यवाणी की कि “भावी महापरिवर्तन, जिसे एक ऐसे नये युग का सूत्रपात करना है जिसमें सत्ता शूद्रों ( श्रम जीवियों ) के हाथ में होगी, संभवतः रूस से ही शुरू होगा.”
बीसवीं सदी के पहले दशक में ही भारत के प्रवासी स्वतंत्रता सेनानी अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी मंचों से सहायता लेने का प्रयास करने लगे थे. वे दूसरे सोशलिस्ट इंटरनेशनल के अधिवेशनों में भाग लेने लगे थे. इनमें दादाभाई नौरोजी, मैडम कामा, एस. आर. राना, बी. बी. एस. अय्यर और श्यामजी कृष्ण वर्मा प्रमुख हैं. उन्होंने उन मंचों पर भारत की परिस्थिति पर प्रस्ताव पेश किये और भाषण दिये. मैडम कामा ने पहली बार स्टुटगार्ड अधिवेशन में तिरंगा झंडा फहराया और कहा कि आदर्श सामाजिक व्यवस्था का तकाजा है कि कहीं की भी जनता गुलाम न रहे. भारत की जनता जागेगी और हमारे रूसी साथियों द्वारा दिखाये रास्ते पर चलेगी, जिन्हें हम अपना बहुत ही बन्धुत्वपूर्ण अभिवादन भेजते हैं.
बाल गंगाधर तिलक की गिरफ्तारी पर 1908 में बंबई के मजदूरों द्वारा की गयी पहली राजनैतिक हड़ताल पर टिप्पणी करते हुये लेनिन ने लिखा कि “जनता का भारत अपने बुध्दिजीवियों और राजनेताओं के रक्षार्थ खड़ा होरहा है.” उन्होंने भविष्यवाणी की कि “ भारत में भी सर्वहारा सजग राजनीतिक जन- संघर्ष के स्तर पर जा पहुंचा है. इन परिस्थितियों में भारत में अंग्रेजी- रूसी ढंग की शासन व्यवस्था के दिन बस गिने चुने रह गये हैं.”
1917 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में एनीबीसेंट ने कहा कि “रूसी क्रांति तथा यूरोप और एशिया में रूसी जनतंत्र के संभावित उदय ने भारत में पहले से विद्यमान परिस्थितियों को पूर्णतया बदल दिया है.” अक्टूबर क्रांति के बाद 1918 में बाल गंगाधर तिलक ने लिखा कि “अभिजातों की जमीनों के किसानों को बांटे जाने के परिणामस्वरूप सेना और जनता में लेनिन का प्रभाव बढ़ गया है.” 1920 में लाला लाजपत राय ने कहा कि “पूंजीवादी और साम्राज्यवादी सत्य की अपेक्षा समाजवादी, वोलशेविक सत्य कहीं ज्यादा श्रेष्ठ, विश्वसनीय और मानवीय है. 1919 में बोल्शेविज्म का अर्थ स्पष्ट करते हुए तत्कालीन विद्वान विपिनचंद पाल ने लिखा कि इसका अर्थ है कि “धनिकों और तथाकथित उच्च वर्गों की ओर से उत्पीडन को नकारते हुये सभी लोगों को आजादी और सुख से रहने का अधिकार.” उन्होंने यह भी कहा कि “ बोल्शेविक सभी प्रकार के आर्थिक और पूंजीवादी शोषण तथा सट्टेबाजी के खिलाफ हैं और वे सामाजिक असमानता का विरोध करते हैं. कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 1918 में क्रांतिकारी रूस की तुलना “उस भोर के तारे” से की जो “नवयुग के प्रभात का संदेश लेकर आता है.”
भारत की अस्थाई सरकार जो काबुल में स्थापित हुयी थी के राष्ट्रपति राजा महेन्द्रप्रताप और प्रधानमंत्री बरकतुल्लाह खान के नेतृत्व में प्रवासी भारतीय क्रांतिकारियों का एक प्रतिनिधिमंडल लेनिन से मिला था जिनसे लेनिन ने कहा कि “हम मुसलमानों और गैर मुसलमानों की घनिष्ठ एकता का स्वागत करते हैं. हमारी कामना है कि यह एकता पूरब के समस्त मेहनतकशों को एक सूत्र में पिरोये.”
शहीदे आज़म भगत सिंह और उनके साथियों को ‘क्रांतिकारी’ या ‘क्रांतिकारी आतंकवादी’ कहा जाता है. लेकिन वे भारत में समाजवाद/ साम्यवाद के अधिष्ठाता कहे जा सकते हैं. अपने मित्र सुखदेव को उन्होंने लिखा था- “तुम और मैं तो जिन्दा नहीं रहेंगे लेकिन हमारी जनता जिन्दा रहेगी. मार्क्सवाद लेनिनवाद के ध्येय और साम्यवाद की विजय निश्चित है.”
दिल्ली के सेशन जज के सामने दिये वक्तव्य में उन्होंने कहा- “क्रांति से हमारा अभिप्राय यह है कि प्रत्यक्ष अन्याय पर आधारित वर्त्तमान व्यवस्था बदलनी चाहिये. वास्तविक उत्पादनकर्ता या मजदूर को समाज का अत्यावश्यक हिस्सा बनाने के स्थान पर, शोषक उनकी मेहनत के फल छीन लेते हैं और उन्हें उनके सामान्य अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है. एक तरफ तो है किसान जो सबके लिये अनाज उगाता है, अपने परिवार के साथ भूखा मरता है, बुनकर जो विश्व बाज़ार को कपड़ा सप्लाई करता है, अपने बच्चों का तन ढकने को पर्याप्त कपड़ा नहीं प्राप्त कर सकता, राज, लोहार, और बढई जो शानदार महल तैयार करते हैं, खुद गन्दी बस्तियों में जीते और मरते हैं; और दूसरी तरफ हैं समाज के परजीवी, पूंजीवादी शोषक जो अपनी सनक पर ही लाखों की रकम उड़ा देते हैं. ये भयानक असमानतायें और जबरन थोपी गयी विकृतियां विप्लव की तरफ ले जारही हैं. ये हालात ज्यादा दिन नहीं चल सकते और यह स्पष्ट होगया है कि वर्त्तमान समाज व्यवस्था ज्वालामुखी के किनारे खड़ी जश्न मना रही है....... इस सभ्यता की पूरी इमारत अगर वक्त रहते बचायी नहीं गयी तो लड़खड़ा कर ढह जायेगी. इसलिए एक मूलभूत परिवर्तन आवश्यक है. और जो इस बात को समझते हैं, उनका कर्तव्य है कि समाजवादी आधार पर समाज का पुनर्गठन किया जाये.
डा. भीमराव अंबेडकर को आमतौर पर जातिवाद विरोधी, आरक्षण के पुरोधा और संविधान निर्माता के रूप में जाना जाता है, लेकिन उनके मन मस्तिष्क में भी समाजवाद की साफ़ तस्वीर थी. उन्होने संविधान सभा में कहा था कि 26 जनवरी 1950 को हम एक विरोधाभासी स्थिति में प्रवेश करने जारहे हैं, जहां राजनीति में तो हमने नागरिकों को समानता दे दी है. परन्तु सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में ऐतिहासिक कारणों से हम समानता से दूर रहे हैं. अतः हमें शीघ्र- अतिशीघ्र राजनीतिक एवं सामाजिक- आथिक जीवन में इस विरोधाभास को खत्म करना होगा. वरना जो लोग इस असमानता से उत्पीड़ित हैं, वे इस सभा द्वारा इतने परिश्रम से बनाये हुये राजनैतिक लोकतंत्र के भवन को ध्वस्त कर देंगे. अपने पत्र ‘मूकनायक’ में डा. अंबेडकर ने 1920 में लिखा था कि भारत की आजादी के साथ सभी वर्गों को धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर बराबरी की गारंटी होनी चाहिए और हर व्यक्ति को अपनी प्रगति के लिये अनुकूल स्थितियां भी हासिल हों.
संविधान के प्रारूप की व्याख्यात्मक टिपण्णी में भी इस बात पर बल दिया गया है कि देश के तीव्र विकास के लिये स्टेट सोशलिज्म वांछित है,........ निजी क्षेत्र कृषि में कोई सम्रध्दी नहीं ला सकते. 6 करोड़ अछूतों को जो भूमिहीन मजदूर हैं, उनके जीवन में खुशी चकबंदी और हदबंदी कानूनों से नहीं आ सकती, केवल सरकारी खेती इसका समाधान है.
डा. अंबेडकर प्रत्येक नागरिक की मूल आवश्यकताओं की आपूर्ति किसी भी लोकतंत्र का प्रथम कर्तव्य मानते थे. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में वांछित आर्थिक प्रणाली के बारे में उनके विचार “ स्टेट एंड माइनारिटीज” नामक पुस्तिका में स्पष्टरूपेण वर्णित हैं. वे साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के खुले विरोधी थे. उनकी सोच में कार्ल मार्क्स और गौतम बुध्द के विचारों का अभूतपूर्व समन्वय है. उन्होंने “प्रिवीपर्स” की समाप्ति , बैंकों, बीमा कंपनियों और कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण की बात बहुत पहले उठाई थी. वे समाजवाद और सार्वजनिक क्षेत्र के पक्षधर थे.
आजादी के आन्दोलन की इन तमाम धाराओं को अपना आदर्श मानते हुए हमने स्वतन्त्र भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति अपनाई जिसका लक्ष्य उत्तरोत्तर सार्वजनिक उद्योग और सामूहिक खेती की व्यवस्था को मजबूत करते हुये समाजवाद की ओर बढ़ना था. इसी क्रम में राजाओं के प्रिवीपर्स खत्म किये गये और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया. संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद के उद्देश्य को समाहित किया गया. इन सारी उपलब्धियों पर पलट वार हमें भूमंडलीकरण, आर्थिक नव उदार की व्यवस्था के रूप में देखने को मिला. लेकिन इसके तहत असमानता- और गरीबी- अमीरी के बीच चौड़ी होती खाई ने समाजवाद की प्रासंगिकता को पुनर्स्थापित कर दिया है, जिस पर पर्दा डालने की कोशिश में रामराज्य का शिगूफा छोड़ा गया है.
डा. गिरीश
मंगलवार, 27 मार्च 2018
at 11:27 am | 0 comments |
विद्युत् व्यवस्था के निजीकरण का फैसला वापस ले उत्तर प्रदेश सरकार : भाकपा
लखनऊ- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पांच
महानगरों की विद्युत् व्यवस्था के निजीकरण को उपभोक्ता, कर्मचारियों और समाज के
हितों के विपरीत और पूंजीपतियों और ठेकेदारों के हित में बताया है. भाकपा ने इस
जनविरोधी फैसले को वापस लेने की राज्य सरकार से मांग की है.
यहां जारी एक प्रेस बयान
में पार्टी के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहाकि जहां जहां, जिस जिस व्यवस्था का भी
निजीकरण किया गया उससे आम जनता अथवा सरकार को कोई लाभ नहीं हुआ, केवल प्रायवेट
कंपनियों को लाभ पहुंचा है. पूर्व में टोरेंट कंपनी को सौंपी गयी आगरा और नोएडा की
विद्युत् व्यवस्था ने भी उपभोक्ताओं की कठिनाइयां ही बढ़ाई हैं.
भाकपा राज्य सचिव ने
निजीकरण के विरुध्द चल रहे विद्युत् कर्मचारियों और अधिकारियों के आन्दोलन का
समर्थन करते हुये भाकपा की जिला इकाइयों का आह्वान किया है कि वे जनहित में
विद्युत् कर्मचारी और अधिकारियों के आन्दोलन का समर्थन करें ताकि सरकार अपने इस
जनविरोधी फैसले को वापस लेने को बाध्य हो.
डा. गिरीश
शनिवार, 24 मार्च 2018
at 5:39 pm | 0 comments |
राज्य सभा चुनाव- यह लोकतंत्र की हार और लट्ठ तंत्र की जीत है: भाकपा
लखनऊ- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने गत दिन प्रदेश में हुए राज्य सभा के
चुनाव में भाजपा द्वारा धनबल, सत्ताबल और हर अनैतिक हथकंडा अपना कर 9 वीं सीट
हथियाने की करतूत की कड़े शब्दों में भर्त्सना की है. पार्टी ने निर्वाचन आयोग और
न्यायिक निर्णयों पर भी आश्चर्य व्यक्त किया है.
यहां जारी एक प्रेस बयान
में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहाकि गोरखपुर और फूलपुर में हुये उपचुनावों
में अपनी करारी हार से भाजपा पूरी तरह बौखला गयी थी और इस हार से अपने कार्यकर्ताओं
में पैदा हुयी हताशा को मिटाने को उसने अनैतिक रूप से नौवां प्रत्याशी उतार दिया.
इस प्रत्याशी की जीत के लिये भाजपा ने तमाम घ्रणित हथकंडे अपनाये और बसपा
प्रत्याशी को हराने के लिये सारी पूंजीवादी- सामंतवादी ताकतें एकजुट होगयीं. यह
लोकतंत्र की हार और लट्ठ तंत्र की जीत है.
भाकपा ने कहाकि गोरखपुर और
फूलपुर में जनता द्वारा कूड़ेदान में फैंक दी गयी भाजपा राज्य सभा चुनाव में इस
अनैतिक जीत को गोरखपुर और फूलपुर की हार का बदला बता कर जनता और मतदाताओं का अपमान
कर रही है और अपने इस घनघोर अनैतिक कृत्य पर पर्दा डालने की कोशिश कर रही है.
भाजपा पोषित मीडिया न केवल भाजपा के पक्ष को ही परवान चढ़ा रहा है अपितु योगी-
मोदी- शाह मंडली के इस पाप को “ मास्टर स्ट्रोक” बता रहा है. इसका जबाव आने वाले
चुनावों में जनता अवश्य देगी.
भाकपा ने कहाकि पूर्व में
भाजपा से गठबंधन करने वाले और सत्ता लोलुप, दल- बदलू और सामंती सोच के लोगों को
अपने दल से जिताने वाले दलों को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा.
डा. गिरीश
गुरुवार, 15 मार्च 2018
at 2:40 pm | 0 comments |
Three days State Conference of CPI, Uttar Pradesh from 16th to 18th march in Mau
भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी का 23 वां राज्य सम्मेलन मऊ में
लखनऊ- 15 मार्च 2019,
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश का 23 वां राज्य सम्मेलन 16, 17 एवं 18
मार्च, 2018 को मऊ में होने जारहा है. सम्मेलन में वर्तमान राष्ट्रीय परिद्रश्य
में भाकपा और वामपंथ की भूमिका खासकर भाजपा सरकार को 2019 में सत्ता से हठाने की
रणनीति पर विचार किया जायेगा. साथ ही केन्द्र और उत्तर प्रदेश सरकार के जनविरोधी
कृत्यों के खिलाफ सघन और व्यापक आन्दोलन की रणनीति तैयार की जायेगी.
सम्मेलन का शुभारंभ 16
मार्च को मऊ में रोडवेज बस अड्डे के निकट सोनीधापा मैदान में एक विशाल रैली से
होगी. अपरान्ह 12 बजे से होने वाली इस रैली को भाकपा के केन्द्रीय सचिव द्वय
कामरेड अतुल कुमार अनजान व कामरेड शमीम फैजी, भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश,
सहसचिव द्वय का. अरविन्दराज स्वरूप तथा इम्तियाज अहमद ( पूर्व विधायक, मऊ ) आदि
संबोधित करेंगे.
सम्मेलन का प्रतिनिधि सत्र
सायं 4 बजे से नगरपालिका के कम्युनिटी हाल में होगा जिसका उद्घाटन का. शमीम फैजी
करेंगे. तदुपरांत राज्य सचिव व सहसचिव द्वारा राजनैतिक और सांगठनिक रिपोर्टें
प्रस्तुत की जायेंगी. रिपोर्टों पर प्रतिनिधि साथी अपने विचार रखेंगे.
17 मार्च को होने वाले
प्रतिनिधि सत्र में सुबह 10 बजे अन्य वामपंथी दलों के नेता अपनी एकजुटता का इजहार
करेंगे. सम्मेलन का समापन 18 मार्च को दोपहर में का. अतुल अनजान द्वारा किया
जायेगा.
at 2:32 pm | 0 comments |
गरीबों की लूट और पूंजीपतियों को छूट को जनता का जबाव हैं गोरखपुर और फूलपुर के चुनाव नतीजे : भाकपा
लखनऊ- 15 मार्च 2018,
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने उत्तर प्रदेश की गोरखपुर और
फूलपुर की बहुचर्चित लोकसभा सीटों पर हुये उपचुनावों में भाजपा को कड़ी शिकस्त देने
और संयुक्त विपक्ष के सपा प्रत्याशी को भारी मतों से विजयी बनाने के लिये दोनों
संसदीय क्षेत्रों की जनता को हार्दिक बधाई दी है.
यहां जारी एक प्रेस बयान
में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहाकि पिछले चार वर्षों से केन्द्र में और
गत एक वर्ष से उत्तर प्रदेश में अंबानियों, अदानियों, मोदियों और माल्याओं जैसे
कारपोरेट लुटेरों को मालामाल करने वाली सरकारें चल रही हैं जिनकी लूट के शिकार
समाज के व्यापक हिस्से- किसान, कामगार, दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक, महिलायें, नौजवान
और छात्र आदि सभी होरहे हैं. उनकी चहुँतरफा लूट और सामाजिक उत्पीडन पर पर्दा डालने
को भाजपा और संघ परिवार धर्म की आड़ में सांप्रदायिक विद्वेष फैलाते रहे हैं. उत्तर
प्रदेश और बिहार की जनता ने इसका माकूल जबाव देदिया है.
भाजपा की यह हार कोई
सामान्य हार नहीं है. यह उस प्रदेश में हुयी है जिसे संघ, भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी ने हिदुत्व की प्रयोगशाला
बनाने को चुना है. यह दोनों सीटें भाजपा के दो कर्णधारों- मुख्यमंत्री और
उपमुख्यमंत्री की सीटें हैं जिनके कन्धों पर भाजपा ने 2019 में अपनी नैया पार
लगाने की जिम्मेदारी डाली है. उत्तर प्रदेश में वामपंथ सहित विपक्ष के व्यापकतम
हिस्सों ने अभूतपूर्व एकता का प्रदर्शन कर आगामी लोकसभा चुनावों के लिए स्पष्ट सन्देश
देदिया है और भाजपा के इस दर्प कि मोदी- योगी का कोई विकल्प नही, को चकनाचूर कर
दिया है. लोकतंत्र में विकल्प जनता बनाती है, झूठ- फरेब पर आधारित कोई गिरोह लंबे
समय तक लोगों की आँखों में धूल नहीं झोंक सकता; इन चुनाव परिणामों ने साबित कर
दिया है.
भाकपा ने प्रदेश के सभी
वामपंथी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को बधाई दी है जिन्होंने पूर्ण एकजुटता के
साथ भाजपा को हराने के लिये काम किया. भाकपा ने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज
पार्टी के नेत्रत्व को भी बधाई दी जिन्होंने फासीवाद की चुनौती को समझा और एकजुट
होकर उसका जबाव दिया.
डा. गिरीश
मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018
at 6:19 pm | 0 comments |
भाकपा नेता और पूर्व सांसद का. प्रबोध पंडा के निधन पर उत्तर प्रदेश भाकपा ने शोक जताया
लखनऊ- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश के राज्य सचिव मंडल ने पार्टी की
राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य, पार्टी की पश्चिमी बंगाल राज्य काउंसिल के सचिव,
अखिल भारतीय किसान सभा के अध्यक्ष और पूर्व सांसद कामरेड प्रबोध पंडा के निधन पर
गहरा शोक व्यक्त किया है और उन्हें क्रांतिकारी श्रध्दांजलि अर्पित की है.
72 वर्षीय मगर कल तक पूरी
तरह सक्रिय का. पंडा का निधन आज (27 फरबरी ) को अलख सुबह कलकत्ता स्थित भाकपा
राज्य कार्यालय- “भूपेश भवन” स्थिति उनके आवासीय कक्ष में एक गहरे ह्रदय आघात के
चलते होगया.
पश्चिम बंगाल के पूर्व
मेदिनीपुर जनपद में 7 फरबरी 1946 में एक किसान परिवार में जन्मे प्रबोध पंडा कम
उम्र में ही छात्र आन्दोलन के माध्यम से सार्वजनिक जीवन में आगये थे. बाद में
किसान आंदोलनों में हिस्सा लेते हुए वे गत शताब्दी के छटवें दशक में वे भाकपा में
शामिल हुये और वर्षों तक पार्टी की मिदनापुर जिला काउंसिल के सचिव रहे.
कामरेड प्रबोध पंडा पहली
बार कामरेड गीता मुखर्जी के निधन से रिक्त सीट पर 2001 में हुए उपचुनाव में 13 वीं
लोकसभा के सदस्य चुने गये. 2004 और 2009 में हुए 14वीं और 15वीं लोकसभा के लिए वे
लगातार चुने गये थे. अपने समूचे संसदीय कार्यकाल में वे गरीबों, किसानों और
मजदूरों की मुखर आवाज बने और विभाजनकारी तथा सांप्रदायिक शक्तियों के विरुध्द तीखे
संघर्ष करते रहे. संसद की जल सरंक्षण और प्रबंधन समिति के संयोजक के रूप में
उन्होंने इसकी नीति निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की.
प्रबोध पंडा लंबे समय से
भाकपा की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य रहे. 2014 में वे भाकपा की पश्चिम बंगाल राज्य
काउंसिल के सचिव चुने गये. इसके बाद वे पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य
चुने गये. हाल ही में दिसंबर 2017 में हुये पश्चिम बंगाल राज्य इकाई के सम्मेलन
में अगले तीन वर्षों के लिये पुनः सचिव चुने गये थे.
वे लगभग एक दशक से अखिल
भारतीय किसान सभा के अध्यक्ष थे.
भाकपा उत्तर प्रदेश के सचिव
डा. गिरीश ने कहाकि उनके इस आकस्मिक निधन से गरीबों, दलितों, शोषितों, अल्पसंख्यकों,
किसानों और मजदूरों के आन्दोलन को गहरा धक्का पहुंचा है. पश्चिम बंगाल ही नहीं देश
भर के कम्युनिस्ट और वामपंथी आन्दोलन को गहरी क्षति हुयी है. ऐसे समय में जब भाकपा
अप्रेल माह में अपना राष्ट्रीय महाधिवेशन आयोजित कर लुटेरी कारपोरेट व्यवस्था और
उभरते फासीवाद के खिलाफ संघर्ष की नीति निर्धारण में जुटी है, कामरेड प्रबोध पंडा के
अमूल्य सुझावों से हम वंचित होगये हैं.
भाकपा उतर प्रदेश उनके
प्रति आदरसूचक श्रध्दांजलि अर्पित करती है. उनके परिवार जिसमें उनकी पत्नी और
पुत्र शामिल हैं के गम में पूरी तरह शरीक होते हुये, इस अपार कष्ट को सहने में
सक्षम होने की कामना करती है. भाकपा उत्तर प्रदेश अपने पश्चिम बंगाल के साथियों के
साथ इस विषम स्थिति में खड़े होने और कामरेड प्रबोध पंडा के शोषणरहित समाज का
निर्माण करने के संघर्ष को आगे बढाने का संकल्प लेती है.
डा. गिरीश
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