भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

आदमी का बच्चा

जिन्दगी सुधारने नागपुर गया था। राज्यों की राजधानियां शायद वे जगहें हैं, जहां टूटी हुई जिन्दगियां सुधारी जाती हैं। सुना है, सैक्रैटेरियेट और विष्वविद्यालयों में जिन्दगीसाज रहते हैं, जो एक कदम से टूटी-फूटी और कबाड़खाने में रखी जिन्दगी को अच्छी से अच्छी दूकान के शो-केस में रख देते हैं।
लोगों ने कहा - बी.ए. किये चार-पांच साल हो गये। एम.ए. कर डालो, तो जिन्दगी सुधर जायगी, वरना यहीं पड़े-पड़े सड़ जाओगे। सोचा, बदबू आने के पहले नागपुर जाकर एम.ए. का इम्तहान दे डालूं।
ठहरा एक कवि मित्र के यहां। वे कवि भी थे और क्वांरे भी। याने करेला नीम चढ़ा। घर क्या था? किसी गांव की गौशाला थी। मगर मित्र के प्रेम का गलीचा कुछ ऐसा बिछा था और आत्मीयता के ऐसे बेलबूटे सजे थे कि मन रम गया।
कवि मित्र दफ्तर जाने लगे, तो एक दस-बारह साल के लड़के को बुला कर कहा - देख जग्गू, ये तेरे नये काका हैं, इनका सब काम करना। कोई तकलीफ न होने देना।
लड़का बोला - नहीं काका, तुम बिलकुल जाओ। तकलीफ हो ही नहीं सकती। सब काम कर दूंगा। वह चला गया।
मित्र ने कहा - यहीं पड़ोस में रहता है, मेरा काम कर देता है। आने-दो आने दे देता हूं।
मित्र चले गये। मैं बिस्तर फैला कर लेट गया। थोड़ी देर बाद लड़का आया। बोला - काका, नहाने कू पानी ला दूं? मैंने हां कहा, तो वह फौरन दो बाल्टी पानी भर लाया।
नहाकर मैं किताब खोल पढ़ने बैठ गया। थोड़ी देर बाद वह आया और द्वार से टिक कर खड़ा हो गया। मैंने निगाह उठाकर उसकी ओर देखा, तो वह बोला - काका चाय ला दूं?
हां - मैंने कहा।
- पानी भी?
- हां।
- सिगरेट भी?
हां - कहकर मैंने एक रूपये का नोट फेंका। वह चला गया और थोड़ी देर बाद एक हाथ में केतली और प्याला तथा दूसरे में पान-सिगरेट लेकर आ गया। मैंने चाय पी ली और सिगरेट जला कर बैठ गया। वह बाकी पैसे टेबिल पर रख कर केतली लेकर चला गया।
थोड़ी देर बाद वह फिर आकर दरवाजे के पास खड़ा हो गया। मैंने निगाह उठाई, तो बड़े सकुचाते हुए बोला -
काका तुम्हारे पास एक आना है क्या?
मैंने इकन्नी उसकी ओर फेंक दी और वह उसे उठाकर इतनी जल्दी जीने से उतरा, जैसे ऊपर से एकदम कूद गया हो।
मैं पढ़ने में जुट गया था। बीच-बीच में वह लड़का आता और उसका मेरा बंधा-बंधाया वार्तालाप होता:
- काका चाय ला दूं?
- हां।
- पानी भी?
- हां।
- सिगरेट भी?
- हां।
और फिर वह वहीं दरवाजे के पास खड़े होकर अंगुली मुंह में दबाये नीचे रखते हुए सकुचा कर बोलता -
काका, तुम्हारे पास एक आना है क्या?
दस-बारह साल का लड़का था। मैला-कुचैला। एक आंख ठीक, दूसरे में मोतियाबिन्दु। बाल बेतरतीब रूखे। पेट बड़ा, हाथ-पांव पतले। जैसे बढ़ते पौधे को गरीबी के ढेर ने रौंद डाला हो। पर लड़के की एक आंख में बड़ी चमक आती।
शाम को पूछने लगा - काका, कुछ और तो नहीं चाहिए?
उसकी आंखों में बड़ी चपलता आ गयी। शरारत की रोशनी चमकने लगी। उसने कुछ ऐसे ढंग से बात कही कि उसे मैं सिगरेट, पान, चाय के सिलसिले में नहीं बांध सका। वह कुछ अलग ही चीज थी। मैंने पूछा - और क्या?
वह उसी तरह बोला - कुछ दारू-वारू, अच्छी वाली?
मैं थोड़ी देर को अचकचा गया। वह लड़का बड़ा दिलचस्प लगा। मैंने कहा - यहां तो शराबबंदी है, कहां से लायेगा?
अरे काका! वह बड़े सयानेपन से बोला - मेरे कू कोई बात मुष्किल नहीं। सब अड्डे वाले जानते हैं जग्गू को। अच्छी से अच्छी ला दूंगा। थोड़ा पैसा ऊपर लगेगा।
मैंने कहा - तू दूसरे वाले काका के लिए लाता है क्या? मेरा मतलब कवि-मित्र से था।
लड़का बोला - अरे राम-राम! वो काका तो नाम लेने से भी गुस्सा होता है। इधर मोहल्ले में एक दो लोगों को लाता हूं। तुम कू ला दूं?
मैंने कहा - नहीं रे, मैं भी नहीं पीता।
वह एकदम बुजुर्ग बन गया। जैसे मेरी पीठ ठोककर बोला - बहुत अच्छी बात है, काका! बड़ी खराब चीज है। कभी नहीं पीना चाहिए।
अब मैं उससे यहां-वहां की बातें भी करने लगा। उसने बतलाया कि वह दूसरी तक पढ़ा है। उसके बाद उसकी मां मर गयी, तो उसने पढ़ना छोड़ दिया।
मैंने पूछा - पढ़ना क्यों छोड़ दिया, रे?
वह बोला - वाह काका, फिर दादा के लिए रोटी कौन बनाता? छोटे भैया को कौन खिलाता? दादा सबेरे ही सात बजे काम पर चला जाता है कारखाने में। मैं उठकर उसके लिए रोटी बना देता हूं। फिर दिन भर छोटे भैया को खिलाता हूं। मैं बड़ा हो जाऊंगा, तो मैं भी काम पर जाऊंगा, उधर बहुत से पैसे मिलते हैं काका, पर सब दारू में उड़ा देते हैं।
- तेरा दादा भी दारू में उड़ा देता है?
- पहले तो उड़ा देता था। खूब पीकर आता था और मां को मारता था। पर जबसे मां मरी, वह बिलकुल नहीं पीता। मालूम है काका, क्या बोलता है मेरा दादा? कहता है, शादी कर देगा, तब हम दोनों काम पर चलेंगे। और मेरी घरवाली हमारे लिए रोटी बना देगी।
ब्याह की बात करते वक्त उसके मुख पर जरा भी लज्जा, संकोच के भाव नहीं आये, जैसे स्त्री हर मजदूर के लिए जरूरी चीज है और उसका यह उपयोग है कि वह सबेरे रोटी बना कर, एक कपड़े में बांधकर काम पर जाने वाले पुरूड्ढ के हाथ में दे देती है।
शाम को मेरे कवि-मित्र अपने एक और मित्र को ले आये। वे बड़ी दार्शनिक शैली में बातें करते थे। खूब शिक्षा पायी थी। बढ़िया सूट पहिने थे, महक रहे थे। परिचय होते ही खुलकर बातें करने लगे। वे आत्मा, परमात्मा, मानवजीवन आदि पर बातें कर रहे थे। कहने लगे - आखिर जीवन का उद्देष्य क्या है? क्यों इंसान पैदा हुआ? यह जीवन आखिर क्या है?
मैंने सीधी बात कह दी - भाई साहब, मुझे जीने से ही फुरसत नहीं मिलती, जीवन के बारे में सोचूं कैसे? कुछ लोग जीवन जीते हैं, कुछ जीवन के बारे में सोचते हैं। आपको सोचने की सुविधा है। मुझे जीने का शौक है।
उन्हें संतोड्ढ नहीं हुआ। उठते-उठते वे आदमी के पतन पर चर्चा करने लगे। कहने लगे - भाई साहब, आजकल आदमी देखने को नहीं मिलता, याने सच्चा आदमी। सब चार पैरों वाले जानकर हैं, जिन्होंने पीछे के दो पैरों से चलना सीख लिया है और आगे के पैरों को हाथ कहने लगे हैं।
खाना खाने जा रहा था। भूख के सामने उनके दर्शन ने हाथ टेक। हम उठ दिये।
तीसरे दिन वह लड़का फिर आया।
बोला - नहाने कू पानी ला दूं?
मैंने कहा - नहीं।
वह बोला - अरे काका, नहाओगे क्यों नहीं?
- नहीं नहाने से तबीयत खराब होती है।
मैंने उसे जाने के लिए कह दिया। और पढ़ने बैठ गया।
थोड़ी देर बाद वह फिर आया।
बोला - काका, चाय ला दूं?
मैंने कहा - नहीं। मैं बाहर से चाय पीकर आया था।
- पान ला दूं?
नहीं - पाने मेरे मुंह में दबा था।
- सिगरेट?
अरे काका, आज तो न चाय, न पान, न सिगरेट?
मैं कुछ बोला नहीं, तो वह चला गया।
थोड़ी देर बाद वह फिर आया। थोड़ी देर खड़ा रहा। फिर पूछने लगा - काका चाय ला दूं?
मैं पढ़ने में मशगूल था, कह दिया - नहीं।
- पान, सिगरेट?
किताब पर आंख गड़ाये ही मैंने कह दिया - नहीं।
फिर सोचा कि वह बार-बार परेशान करेगा। चाय, पान, सिगरेट इसलिए पूछता है कि उसके बाद उसको एक-दो आने पैसे मिल जाते हैं। अगर अभी नहीं दूंगा, तो फिर परेशान करगा। इसलिए मैं उठा और जब में से दुअन्नी निकाल कर उसे पास बुलाया और उसके हाथ में रखकर बोला - ले जा, जब बुलाऊं, तब आना।
थोड़ी देर तो वह मेरी ओर देखता रहा। फिर बोला - काका बुम काम तो कराते नहीं, दुअन्नी देते हो। मैं मुफ्त की दुअन्नी थोड़े ही लेता हूं। उसने दुअन्नी वहीं टेबिल पर फेंक दी और एकदम चला गया।
मुझे तमाचा सा लगा - पर दर्द नहीं हुआ। आदमीयत कही दिखे, तो अच्छा ही लगता है।
उस दिन शाम को वे दार्शनिक मित्र फिर आये। उसी लहजे में बोले - आजकल आदमी नहीं मिलता।
मैंने तपाक से कहा - भाई साहब, आदमी तो नहीं, पर फिलहाल मेरे पास आदमी का बच्चा है।
- दिखाऊं?
मैंने उस जग्गू की ओर संकेत पर दिया।

का. हरि शंकर परसाई

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