भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

About The Author

Communist Party of India, U.P. State Council

Get The Latest News

Sign up to receive latest news

फ़ॉलोअर

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

हमे जरूरत है चुनाव सुधारों की

उम्मीदवाद को अस्वीकार करने (राईट टु रिजेक्ट) का चुनाव आयोग द्वारा जो सुझााव दिया गया है उस पर विचार करते हुए उसका संदर्भ महत्वपूर्ण हो जाता है। उनका सुझाव असल में कुछ अस्पष्ट सा है। उसके निहितार्थ स्पष्ट नहीं है। किसी चुनाव क्षेत्र में निर्वाचन आयोग जनता से क्या अपेक्षा करता है- वह क,ख,ग या सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार कर दे? यदि मतदाताओं का कुछ प्रतिशत हिस्सा अस्वीकार करने के लिए कहे तो उस प्रतिशत को 50 से अधिक होना चाहिए। उसके बाद भी, मान लें यदि 49 प्रतिशत ने अस्वीकार करने के अपने विकल्प का प्रयोग नहीं किया तो यह एक मुद्दा बन जाता है जिस पर भी ध्यान देने की जरूरत है।
इसमें एक खतरा यह भी है कि चुनाव के बहिष्कार की बात भी बन सकती है। इससे लोकतंत्र को मजबूत करने के लक्ष्य के बजाय, एक विपरीत नतीजा निकल सकता है जो एक अराजकता की दिशा में ले जा सकता है। चुनाव आयोग द्वारा एक तदर्थ किस्म का सुझाव है।
इसके बजाय, समय आ गया है कि देश व्यापक चुनाव सुधारों पर विचार करे। वर्तमान “फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट” (जिसे सबसे अधिक मत पड़े उसे जीता हुआ मानने) का तरीका संतृप्ति के स्तर पर पहुंच गया है। यह हमारे जैसे लोकतंत्र में एक हद से आगे सफल नहीं हो सकता। एक संभव तरीका समानुपाती प्रतिनिधित्व की प्रणाली का हो सकता है। इस संबंध में हम अन्य देशों से भी सीख सकते हैं और सबसे बड़े लोकतंत्र में दूसरों से सीखने में कोई हानि नहीं।
“फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट” की प्रणाली अब वास्तविकता को नहीं प्रतिबिंबित करती। उदाहरणार्थ, हाल के पंजाब में विधानसभा के चुनाव को लें जहां भारी मतदान हुआ। रिर्पोट थी कि 70 प्रतिशत के लगभग मतदान हुआ। पर काफी संभावना है कि ऐसे उम्मीदवार भी जीतेंगे जिन्हें लगभग 20 प्रतिशत मत ही मिले होंगे। यह हमारी व्यवस्था में एक अंतर्निहित कमजोरी है जिसे समानुपाती प्रतिनिधित्व की प्रणाली दूर कर सकती है। सभी पार्टियों को समान अवसर मिलना चाहिए। यह तब ही संभव है जब सरकार सभी पार्टियों के चुनाव के खर्च अपने ऊपर लेने के लिए राजी हो। जब एनडीए सत्ता में थी तो इन्द्रजीत सेन गुप्ता के नेतृत्व में इस मुद्दे पर विचार करने के लिए एक समिति बनी थी, डा. मनमोहन सिंह भी उस समिति में थे। समिति ने स्टेट फंडिंग (चुनाव का खर्च सरकार करे) की सिफारिश की थी। चुनाव आयोग स्वयं इस संबंध में कोई फैसले नहीं ले सकता है। वह एक स्वतंत्र निकाय है पर उसे भी अपनी शक्तियां संविधान से मिली हैं।
भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है। चुनाव ही इसके अकेले स्रोत नहीं है। यह मौजूदा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था पर निर्भर करता है, जब तक उसे न बदला जाये, भ्रष्टाचार जारी रहेगा।
- डी. राजा

0 comments:

एक टिप्पणी भेजें

Share |

लोकप्रिय पोस्ट

कुल पेज दृश्य