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शनिवार, 24 जुलाई 2010
at 7:24 pm | 4 comments | प्रदीप तिवारी
महंगाई पर विषमताओं का द्वंद्व
23 जुलाई को बेहतर मानसून की संभावनाओं (बात दीगर है कि मानसून अभी तक विलम्बित ही नहीं बल्कि सामान्य से काफी कम है) का उल्लेख करते हुए प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने मार्च 2011 तक मुद्रा स्फीति में भारी गिरावट की उम्मीद जताते हुए कहा कि मार्च 2011 में यह 6.5 प्रतिशत रह जाएगी जबकि जून 2010 में यह 10.55 प्रतिशत रही है।
इसी दिन, गौर करें इसी दिन के सुबह के अखबारों में सरकार के हवाले से एक समाचार छपा कि सब्जियों के दाम घटने से 10 जुलाई को समाप्त सप्ताह में मुद्रास्फीति .घट कर, गौर करें कि घट कर 12.47 प्रतिशत हो गयी। इसके पिछले सप्ताह यानी 3 जुलाई को समाप्त सप्ताह में मुद्रास्फीति की दर 12.81 प्रतिशत थी। सरकारी हवाले से इन समाचारों में कहा गया है कि 10 जुलाई को समाप्त सप्ताह में दाल की कीमतों में 0.84 प्रतिशत, सब्जियों में 0.13 प्रतिशत और गेहूं में 0.11 प्रतिशत की कमी हुई है।
अगर इन दोनों समाचारों को देखा जाए तो समझ में नहीं आता कि आखिर इस देश में मुद्रास्फीति की कितनी दरें सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हैं और महंगाई वास्तव में किस दर से बढ़ रही है।
यह तो बात रही आंकड़ों की सरकारी बाजीगरी की। इसे दूसरी दृष्टि से देखते हैं। अरहर की दाल दो साल पहले 25-26 रूपये किलो थी। आज इसका दाम 70 रूपये से 80 रूपये की बीच चल रहा है। सरकार महंगाई या मुद्रास्फीति दर कम होने का जो ढ़िढोरा पीट रही है, उसका यह मतलब हरगिज नहीं है कि इसके दामों में कोई कमी आ जायेगी। इसका सीधा-साधा मतलब है कि इसके दामों के बढ़ने की गति कम हो जायेगी, मार्च 2011 में यही अरहर की दाल लगभग 87-88 रूपये किलो मिलेगी और अगर सरकार के दावे सही साबित हुए तो उसके एक साल बाद यानी मार्च 2012 में यह 93-94 रूपये प्रति किलो मिलेगी।
जहां तक 10 जुलाई को समाप्त सप्ताह में सब्जियों की कीमतें घटने के सरकारी दावे का सवाल है, वह अत्यन्त हास्यास्पद है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि बरसात की शुरूआत में सब्जियों की कीमतें बढ़ जाती हैं। इसके कारण हिन्दुस्तान में रहने वाले सभी लोगों को मालूम हैं। लखनऊ की सब्जी मंडियों में उस सप्ताह में सब्जियों की कीमतों में एक उभार आया था। दस रूपये किलो बिकने वाली तरोई और भिण्ड़ी बीस से चौबीस रूपये किलो हो गयी और 20 रूपये किलो बिकने वाला टमाटर 80 रूपये किलो हो गया। यही हाल अन्य सब्जियों का था सिवाय आलू और प्याज के जिनकी कीमतें स्थिर थीं। उसके बाद उनके भाव भी दो रूपये किलो बढ़ गये। सरकार दाम कहां से लेती है, यह वही जाने। जनता तो वही भाव जानती है जिस भाव उसे बाजार में चीजें मिलती हैं।
जिन्हें 20 रूपये या 12 रूपये प्रतिदिन पर गुजारा करना पड़ता था, उन्हें आज भी इतने में गुजारा करना पड़ रहा है और आने वाले वक्त में भी इतने में ही गुजारा करना पड़ेगा। कितना कम मिल रहा होगा खाने को और कितना कम मिलेगा आने वाले वक्त में इसका अंदाजा मोटी पगार वाले भ्रष्टाचार में लिप्त सरकार के मंत्रियों या बाबूओं, योजना आयोग और सलाहकार परिषद के सदस्यों को नहीं हो सकता। जरा 12 से 20 रूपये में दिन गुजारने वाले लोगों के हाले दिल की कल्पना कीजिए और तथाकथित विकास दर पर उछल रही मनमोहन सरकार और उसकी आका सोनिया गांधी की खुशियां देखिए। दोनों में व्याप्त विषमता का द्वन्द्व ही आशा की एक किरण है। शायद यही नए भारत का रास्ता बनाएगा।
(लेखक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश का कोषाध्यक्ष एवं ”पार्टी जीवन“ पाक्षिक का कार्यकारी सम्पादक है।)
- प्रदीप तिवारी
इसी दिन, गौर करें इसी दिन के सुबह के अखबारों में सरकार के हवाले से एक समाचार छपा कि सब्जियों के दाम घटने से 10 जुलाई को समाप्त सप्ताह में मुद्रास्फीति .घट कर, गौर करें कि घट कर 12.47 प्रतिशत हो गयी। इसके पिछले सप्ताह यानी 3 जुलाई को समाप्त सप्ताह में मुद्रास्फीति की दर 12.81 प्रतिशत थी। सरकारी हवाले से इन समाचारों में कहा गया है कि 10 जुलाई को समाप्त सप्ताह में दाल की कीमतों में 0.84 प्रतिशत, सब्जियों में 0.13 प्रतिशत और गेहूं में 0.11 प्रतिशत की कमी हुई है।
अगर इन दोनों समाचारों को देखा जाए तो समझ में नहीं आता कि आखिर इस देश में मुद्रास्फीति की कितनी दरें सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हैं और महंगाई वास्तव में किस दर से बढ़ रही है।
यह तो बात रही आंकड़ों की सरकारी बाजीगरी की। इसे दूसरी दृष्टि से देखते हैं। अरहर की दाल दो साल पहले 25-26 रूपये किलो थी। आज इसका दाम 70 रूपये से 80 रूपये की बीच चल रहा है। सरकार महंगाई या मुद्रास्फीति दर कम होने का जो ढ़िढोरा पीट रही है, उसका यह मतलब हरगिज नहीं है कि इसके दामों में कोई कमी आ जायेगी। इसका सीधा-साधा मतलब है कि इसके दामों के बढ़ने की गति कम हो जायेगी, मार्च 2011 में यही अरहर की दाल लगभग 87-88 रूपये किलो मिलेगी और अगर सरकार के दावे सही साबित हुए तो उसके एक साल बाद यानी मार्च 2012 में यह 93-94 रूपये प्रति किलो मिलेगी।
जहां तक 10 जुलाई को समाप्त सप्ताह में सब्जियों की कीमतें घटने के सरकारी दावे का सवाल है, वह अत्यन्त हास्यास्पद है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि बरसात की शुरूआत में सब्जियों की कीमतें बढ़ जाती हैं। इसके कारण हिन्दुस्तान में रहने वाले सभी लोगों को मालूम हैं। लखनऊ की सब्जी मंडियों में उस सप्ताह में सब्जियों की कीमतों में एक उभार आया था। दस रूपये किलो बिकने वाली तरोई और भिण्ड़ी बीस से चौबीस रूपये किलो हो गयी और 20 रूपये किलो बिकने वाला टमाटर 80 रूपये किलो हो गया। यही हाल अन्य सब्जियों का था सिवाय आलू और प्याज के जिनकी कीमतें स्थिर थीं। उसके बाद उनके भाव भी दो रूपये किलो बढ़ गये। सरकार दाम कहां से लेती है, यह वही जाने। जनता तो वही भाव जानती है जिस भाव उसे बाजार में चीजें मिलती हैं।
जिन्हें 20 रूपये या 12 रूपये प्रतिदिन पर गुजारा करना पड़ता था, उन्हें आज भी इतने में गुजारा करना पड़ रहा है और आने वाले वक्त में भी इतने में ही गुजारा करना पड़ेगा। कितना कम मिल रहा होगा खाने को और कितना कम मिलेगा आने वाले वक्त में इसका अंदाजा मोटी पगार वाले भ्रष्टाचार में लिप्त सरकार के मंत्रियों या बाबूओं, योजना आयोग और सलाहकार परिषद के सदस्यों को नहीं हो सकता। जरा 12 से 20 रूपये में दिन गुजारने वाले लोगों के हाले दिल की कल्पना कीजिए और तथाकथित विकास दर पर उछल रही मनमोहन सरकार और उसकी आका सोनिया गांधी की खुशियां देखिए। दोनों में व्याप्त विषमता का द्वन्द्व ही आशा की एक किरण है। शायद यही नए भारत का रास्ता बनाएगा।
(लेखक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश का कोषाध्यक्ष एवं ”पार्टी जीवन“ पाक्षिक का कार्यकारी सम्पादक है।)
- प्रदीप तिवारी
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4 comments:
Nice
श्री शरीफ जी ने दुनिया की सबसे संकीर्ण जाति के मिथकों में से एक उपदेश ढूंढने में सफलता पाई, परंतु नजर पड़ गई हमारी और हमने उनकी सफलता पर बेरियों के कांटे बिखेर दिये।झूठी है यह कहानी। 1-अगर गांधारी को भूख लगी थी तो किसी भी मृत राजा के रथ से भोजन लेकर खा सकती थी क्योंकि जो राजा लड़ने आये होंगे वे अपने साथ भोजन पानी भी तो लाए होंगे।2-सुज्ञ जैसे लोग बताते हैं कि महाभारत का युद्ध परमाणु अस्त्रों से लड़ा गया था। सो वहां तो परमाणु विकिरण ने सारे पेड़ और लाशें ही जला डाली होंगी। फिर वहां मृतक और बेरी का पेड़ होना असंभव है।3-इसके बावजूद यह सच्ची बात है कि भूख बहुत पीड़ा और अपमान देती है।4-इस बात को आप दलितों के जीवन की, बाबा साहब के जीवन की सच्ची घटनाओं के माध्यम से भी तो कह सकते थे, क्यों ?
श्री शरीफ जी ने दुनिया की सबसे संकीर्ण जाति के मिथकों में से एक उपदेश ढूंढने में सफलता पाई, परंतु नजर पड़ गई हमारी और हमने उनकी सफलता पर बेरियों के कांटे बिखेर दिये।झूठी है यह कहानी।
1-अगर गांधारी को भूख लगी थी तो किसी भी मृत राजा के रथ से भोजन लेकर खा सकती थी क्योंकि जो राजा लड़ने आये होंगे वे अपने साथ भोजन पानी भी तो लाए होंगे।
2-सुज्ञ जैसे लोग बताते हैं कि महाभारत का युद्ध परमाणु अस्त्रों से लड़ा गया था। सो वहां तो परमाणु विकिरण ने सारे पेड़ और लाशें ही जला डाली होंगी। फिर वहां मृतक और बेरी का पेड़ होना असंभव है।
3-इसके बावजूद यह सच्ची बात है कि भूख बहुत पीड़ा और अपमान देती है।
4-इस बात को आप दलितों के जीवन की, बाबा साहब के जीवन की सच्ची घटनाओं के माध्यम से भी तो कह सकते थे, क्यों ? http://hindugranth.blogspot.com/2010/07/blog-post_24.html
Lagta hai ki Satya Gautam Ji apne blog ka prachar karne ke liye apne lekh dusroon ke blog par pratikirya ke roop mein post kar rahen hai. Bhagwan unki Aatma ko shanti de.
- Raghuraj Singh
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