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शुक्रवार, 30 जुलाई 2010
at 9:16 pm | 1 comments | राजेन्द्र बंधु
पीथमपुर ही क्यों!
पीथमपुर मध्यप्रदेश का सबसे बड़ा औद्योगिक क्षेत्र है, जहां प्रदेश की सरकार यूनियन कार्बाइड का जहरीला कचरा नष्ट करने जा रही है। प्रदेश सरकार का यह फैसला किसी एक स्थान पर किसी कारखाने के कचरे को नष्ट करने मात्र का नहीं है, बल्कि यह पर्यावरण और मानव जीवन पर एक गंभीर आघात है। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के कल्याणकारी स्वर पर प्रश्न चिह्न है यह। भोपाल गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड के परिसर में पिछले 25 सालों से जहरीला कचरा पड़ा है, जो वहां के जन-जमीन और समूचे पर्यावरण को प्रभावित कर रहा है। यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो चुकी है कि यह कचरा मानव जीवन के लिए खतरा है।
1999 में ग्रीन पीस इंटरनेशनल के विशेषज्ञों ने भी अपनी रिपोर्ट में इस कचरे को भूमि के खतरनाक स्तर तक प्रदूषित माना था। इसके पहले इस कचरे को गुजरात के अंकलेवर स्थित प्लांट में जलाने का निर्णय लिया गया था, लेकिन वहां के विरोध स्वरूप मध्य प्रदेश सरकार ने इसे इंदौर के समीप पीथमपुर के हवाले करने का निर्णय लिया। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय में हुई सुनवाई में भारत सरकार के रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के निदेशक द्वारा 13 अपै्रल 2009 को न्यायालय में प्रस्तुत किए गए शपथ पत्र में कहा गया था कि यूनियन कार्बाइड के खतरनाक कचरे को अंकलेश्वर के भस्मक में जलाए जाने की अनुमति इसलिए रद्द कर दी गई, क्योंकि वहां के नागरिक अधिकार समूह इसका तीखा विरोध कर रहे हैं।
स्पष्ट है कि यूनियन कार्बाइड का कचरा मानव जीवन के लिए खतरनाक है। तब यह सवाल उठता है कि आखिर पीथमपुर और उसके आसपास के लोगों को ही इसका शिकार क्यों बनाया जा रहा है?
सरकार द्वारा इस कारखाने में व्याप्त कचरे की मात्रा 350 टन बताई जा रही है, जबकि 1969 में कारखाना स्थापित होने के बाद से ही लगातार जहरीला कचरा भोपाल की जमीन पर फेंका जा रहा था, जिसकी कुल मात्रा 27 हजार टन है। 2007 में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में 39.6 टन ठोस कचरा पीथमपुर और 346 टन ज्वलनशील अपशिष्ट को गुजरात के अंकलेश्वर में स्थित भस्मक में जलाने के निर्देश दिए थे, जबकि गुजरात सरकार ने इस कचरे को अपने यहां जलाने से इंकार कर दिया है। दूसरी ओर जून 2008 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा 39.3 टन कचरा पीथमपुर में दफन कर दिया गया। इस कचरे के दफन करने के बाद उसके पास के मंदिर के कुएं का पानी काला पड़ गया और समीप बसे गांव तारपुर के लोगों द्वारा उस पानी का उपयोग बंद कर दिया गया। इस दशा में यह 27 हजार टन कचरा पीथमपुर में नष्ट किया जाएगा तो वहां के मानव जीवन पर पड़ने वाला असर कल्पना से परे है।
इस सवाल पर विचार की जरूरत है कि आखिरी पीथमपुर में कार्बाइड के कचरे से किसके जीवन को नुकसान होने वाला है? यह स्पष्ट है कि इससे उद्योगपतियों, प्रबंधकों, अधिकारियों और राजनेताओं पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा। करीब 400 उद्यमों वाले पीथमपुर क्षेत्र में उद्योगपति और प्रबंधक और उनके अधिकारी निवास नहीं करते। वे इंदौर शहर या धार कस्बे में रहते हैं। पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र होने के साथ ही साढ़े पांच लाख श्रमिकों की बस्ती भी है।
दरअसल पीथमपुर के औद्योगिकरण को हम यूरोप की औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न
विचारधारा से मुक्त नहीं मान सकते। औद्योगिक क्रांति ने पूंजीवाद को जन्म दिया और इस पूंजीवाद ने श्रमिकों इंसान के बजाय श्रम करने और मुनाफा देने वाले औजार के रूप में माना। 1936 में प्रदर्शित चार्ली चैप्लिन की एक मूक फिल्म में मशीन और इंसान के संबंध को बताया गया है। वास्तव में उद्योगपति और राज्य की दृष्टि में मजदूर को मशीन का ही एक हिस्सा माना गया था, जिसका श्रम बेचकर उद्योगपति मुनाफा कमाते थे। भारतीय कृषि व्यवस्था के संदर्भ में खेती के काम में लगाए जाने वाले पशुओं का भी यही स्थान है। इसी पूंजीवाद को जिंदा रखने के लिए इंसान द्वारा इंसान का शोषण का विरोध करने वाली समाजवादी धारा को सफल नहीं होने दिया गया।
आजाद भारत में संविधान लागू होने के बाद यह उम्मीद जगी थी कि अब यहां के उद्योग कल्याणकारी विचारधारा का पोषण करेंगे। व्यावहारिक धरातल पर औद्योगिक क्रांति की शोषणकारी विचारधारा को हम भुला नहीं पाए और किसी खास मौके पर यह विचारधारा अंगद के पांव की तरह हमारे सामने अडिग हो जाती है। पीथमपुर में कार्बाइड के कचरे को इसी रूप में देखा जा सकता है।
उद्योगों को कौड़ियों के दाम पर जमीन देने वाली सरकार ने एक दशक में पीथमपुर की मजदूर बस्तियों के विकास के लिए कोई बड़ी राशि सुनिश्चित नहीं की। उद्योगपतियों और प्रबंधकों के आवागमन को सुगम बनाने वाली सरकार ने पीथमपुर के मजदूरों के बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर कोई ध्यान नहीं दिया। दूसरी ओर जब कार्बाइड के जहरीले कचरे को नष्ट करने की बात आई तो सरकार को यहां पीथमपुर दिखाई दिया, जहां साढ़े पांच लाख मजदूर अपने पेट भरने के लिए बसर करते हैं।
संविधान के अनुच्छेद 21 में देश के प्रत्येक नागरिक को प्राण और दैहिक सुरक्षा का अधिकार प्रदान किया गया है। दूसरी ओर सरकार खुद पीथमपुर के मजदूरों का यह
अधिकार छीनने की तैयारी चल रही है। तथ्यों से यह साफ कि पीथमपुर में कार्बाइड का जहरीला कचरा नष्ट किया जाएगा तो वहां बसर कर रही श्रमिक आबादी की सेहत पर प्रभाव पड़ेगा।
सरकार का एक चेहरा भारत के संविधान में निहित है, जिसमें लोक कल्याणकारी राज्य और नागरिक के मौलिक अधिकार की बात कही गई है। लेकिन औद्योगिक क्षेत्रों की मजदूर बस्तियों में यह चेहरा औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न पूंजीवादी चेहरे में तब्दील हो जाता है।
- राजेन्द्र बंधु
at 9:05 am | 3 comments | जनसत्ता
उत्तर प्रदेश में नई ताकत बन कर उभरे किसान
लखनऊ, 21 जुलाई। उत्तर प्रदेश में किसानों की बढ़ती ताकत के आगे मायावती सरकार लगातार पीछे हट रही है। दो दिन पहले दादरी कि किसानों के लिए जमीन का मुआवजा देने की मियाद बढ़ा दी गई। इससे पहले लखनऊ में दशहरी आम के ढाई सौ साल पुराने पेड़ के साथ कई बगीचे बचाने का फैसला किया गया। चंदौली में किसानों की दस हजार हेक्टेयर जमीन जो रेलवे कॉरिडोर के लिए ली जानी थी, वह फैसला रद्द कर दिया गया।
इससे राज्य के विभिन्न इलाकों में खेती की जमीन के अधिग्रहण को लेकर जो भी आंदोलन हुए, उससे किसानों की ताकत बढ़ी है। चंदौली, लखनऊ, ललितपुर, हाथरस, बलिया, इलाहाबाद, मिर्जापुर, दादरी, मेरठ, मुजफ्फरनगर और लखीमपुर जैसे कई इलाकों में किसानों के छोटे-बड़े आंदोलन हुए, जिसने नई जमीन तैयार की है। खास बात यह है कि इन आंदलनों में भूमिहीन मजदूर किसानों की अपेक्षा मझोले और बड़े किसानों की ज्यादा हिस्सेदारी रही है। इनकी कामयाबी की एक वजह यह भी मानी जाती है।
दादरी में जो किसान आंदोलन हुआ,उसमें भी मझोले किसानों की हिस्सेदारी ज्यादा थी। दादरी के किसानों के लिए हाई कोर्ट ने 2762 एकड़ जमीन लौटाने का आदेश दिया है। इसके लिए किसानों को मुआवजा वापस करना है। इसकी मियाद सरकार बढ़ा रही है। किसान मंच के अध्यक्ष विनोद सिंह ने कहा कि सरकार की तरफ से जानकारी मिली है कि मुआवजा वापस करने की मियाद दो महीने के लिए बढ़ाई जा रही है।
दूसरी तरफ जिन चार गांवों सदरौना, सरौसा, भरोसा और मुजफ्फराबाद की 200 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जाना था, वह अब टल गया है। यहां वामपंथी दलों की पहल पर किसान आंदोलन शुरू हुआ था। इसी तरह चंदौली में रेलवे कॉरिडोर के लिए किसानों की दस हजार हेक्टेयर जमीन का सरकार अधिग्रहण करने वाली थी पर भाकपा के नेतृत्व में किसानों ने यहां भी नंदीग्राम और सिंगुर की तरह आंदोलन छेड़ने की चेतावनी दी तो फैसला रद्द कर दिया गया। भाकपा के सचिव डा. गिरीश ने कहा कि राज्य के विभिन्न इलाकों में किसानों की बढ़ती ताकत के कारण कई जगह सरकार ने टकराव टाला और फैसला बदला है।
यमुना एक्सप्रेस हाई वे अथारिटी के लिए हाथरस, मथुरा, आगरा और अलीगढ़ के 850 गांवों की नौ लाख हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण का काम भी आंदोलन के दबाव में रूक गया है। इस मुद्दे पर एक तरफ भाकपा किसानों को गोलबंद कर रही थी तो दूसरी तरफ लोकदल ने आंदोलन छोड़ दिया था। यह इलाका चौधरी अजित सिंह के राजनैतिक प्रभाव का इलाका है जिस वजह से उन्हें खुद सड़क पर उतरना पड़ा।
इससे पहले गन्ना किसानों ने भी अपनी ताकत दिखा दी थी जिसके कारण कारकार को झुकना पड़ा। गन्ना किसानों में भी ज्यादातर मझोले और बड़े किसान है। इसी तरह ललितपुर जिले के दैलवारा सहित कुछ गांवों की जमीन एक बिजली घर के लिए ली जा रही थी पर किसानों के आंदोलन के कारण यहां भी सरकार को पीछे हटना पड़ा। दो दिन पहले ही इलाहाबाद में उस जमीन को लेकर किसानों ने आंदोलन शुरू किया जो अब जेपी समूह को दी जा चुकी है। इस तरह पूरे राज्य में कई जगह किसानों के आगे सरकार झुकी है। भाकपा की एक रपट में इस बात का जिक्र किया गया है कि राज्य में किसान एक नई ताकत बन कर उभर रहा है जो एक परिवर्तनकारी संकेत है।
(साभार: “जनसत्ता”)
- अंबरीश कुमार
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