अपनी दयनीय दशा से पीड़ित बुनकरों ने डेढ़ माह पूर्व स्वतःस्फूर्त ढंग से जिलों-जिलों में आवाज उठाना शुरू किया था। भाकपा राज्य नेतृत्व ने इस सवाल को राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री के दरबार तक पहुंचाया। मीडिया में इन खबरों के प्रकाशित होते ही तमाम दलों और मौसमी नेताओं का बुनकर प्रेम छलकने लगा। कोई राज्यपाल के यहां ज्ञापन देने दौड़ा तो किसी ने बुनकर सम्मेलनों का आयोजन कर थोथी घोषणायें कीं। लेकिन भाकपा ने बुनकरों के सवाल पर सड़क पर उतरने का ऐलान कर सबको पीछे धकेल दिया। बात यहीं नहीं रूकी। जिस दिन भाकपा का धरना/प्रदर्शन था उसी दिन प्रदेश कांग्रेस ने बयान दिया कि उसने बुनकरों को राहत दिलाने को केन्द्र पर दबाव बढ़ा दिया है। इस दबाव का कोई परिणाम तो आज तक आया नहीं। पता नहीं कहां काम रहा है यह दबाव। भाकपा के धरने से दो दिन पूर्व प्रदेश के कद्दावर मंत्री ने जो अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं कुछ कथित बुनकरों को अपने आवास पर परेड कराई और वायदा किया कि प्रदेश के बजट में बुनकरों को बड़ी राहत दी जायेगी। अब बजट आ चुका है। पावर लूमों को कुछ रिआयत की घोषणा हुई है मगर हथकरघे वालों के हाथ कुछ नहीं लगा। सपा, भाजपा के शासन काल में भी बुनकर तबाह होते रहे। पर अब ये दोनों दल विपक्ष में हैं तो बुनकरों के लिये आंसू बहाने में तो कुछ हर्ज है नहीं। सो घड़ियाली आंसू बहाये जा रहे हैं। कुछ कागजी संगठन भी खड़े हो गये हैं जो बुनकरों के सच्चे प्रतिनिधि होने का दावा कर रहे हैं।
सच तो यह है कि भाकपा और उत्तर प्रदेश बुनकर फैडरेशन द्वारा इस सवाल को मजबूती से उठाने के बाद वोद के सौदागर मैदान में कूद पड़े हैं। लेकिन उनके व्यवहार ने ही यह जता दिया है कि उन्हें बुनकरों की समसयाओं से कोई मतलब नहीं मतलब तो उनके वोट से है।
- प्रदीप तिवारी