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सोमवार, 7 मई 2012

आर्थिक संकट के मुहाने पर ......

गत 18 अप्रैल को अमरीका के एक अध्ययन संस्थान में अपने व्याख्यान के दौरान वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने यह कह कर राजनीतिक गलियारे में खलबली मचा थी कि भारत में 2014 के आम चुनाव तक आर्थिक क्षेत्र में कोई बड़ा सुधारात्मक कदम उठाये जाने की संभावना नहीं है। बसु के बयान की अखबारों में भारी आलोचना शुरू हो गयी क्योंकि पूंजी नियंत्रित समाचार माध्यमों को पूंजीवादी और विशेषकर वैश्विक पूंजी के पक्ष में किये जाने वाले सुधारों में बड़ा हित निहित रहता है। बात दीगर है कि वे सुधार आम जनता के हितों के खिलाफ होते हैं। बाद में संप्रग-2 सरकार के दवाब में कौशिक बसु अपने बयान से पलट गये और उन्होंने पहला स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि उनका मतलब 2014 के आम चुनावों से नहीं था बल्कि संकटग्रस्त यूरोपीय अर्थव्यवस्था से था। वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने भी सफाई दी। खैर हम उनके मतलबों से मतलब नहीं रख रहे हैं।
हम यहां आजादी के बाद की एक घटना को उद्घृत करना चाहते हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने टाटा घराने के मुखिया जमशेद जी टाटा को बुलाकर सौन्दर्य प्रसाधनों के निर्माण का कारखाना हिन्दुस्तान में लगाने को कहा। जिन्हें इस घटना का सन्दर्भ नहीं मालूम है, उन्हें थोड़ा आश्चर्य होगा कि नेहरू जी को सौन्दर्य प्रसाधनों में इतना लगाव आजादी के बाद क्यों पैदा हुआ था। बात यह थी कि देश के बैलेंस आफ पेमेन्ट यानी भुगतान संतुलन (विदेशी मुद्रा भंडार की स्थिति) की स्थिति ठीक नहीं थी। पं. नेहरू ने देखा कि महिलाओं द्वारा प्रयुक्त किये जाने वाले सौन्दर्य प्रसाधनों का निर्माण हिन्दुस्तान में नहीं होता है और उन्हें आयात किया जाता है जिस पर विदेशी मुद्रा का प्रवाह भारत से बाहर की ओर हो रहा है। हालांकि उस वक्त सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग बहुत ज्यादा नहीं होता था और इस मद में विदेशी मुद्रा का देश के बाहर प्रवाह बहुत ज्यादा नहीं था, लेकिन उसको भी रोकने के लिए पं. नेहरू ने देश के बड़े पूंजीपति टाटा से यह बात कही थी और इसी के बाद हिन्दुस्तान में लक्मे नाम से सौन्दर्य प्रसाधन बनने शुरू हुये थे। कहा तो यहां तक जाता है कि लक्मे ने विदेशी मुद्रा कमाना भी शुरू कर दिया था परन्तु इस बारे में हमारे पास कोई अधिकारिक जानकारी नहीं है।
इस घटना के बाद राजग सरकार में वित्तमंत्री रहे यशवंत सिन्हा के इस बयान का जिक्र - जिसमें उन्होंने देश के विदेशी मुद्रा भंडार को खाली बताते हुए दावा किया कि जल्दी ही सोना गिरवी रखा जाएगा और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से बड़ा कर्ज लिया जायेगा।
भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर सुब्बाराव थोड़े दिन पहले ही 1991 के दुर्दिनों की याद कर रहे थे। हालांकि उन्होंने 1991 की घटनाओं को दोहराये जाने से इंकार किया परन्तु भुगतान संतुलन की स्थिति को बेहद जटिल बताया।
हमारी याददाश्त इतनी भी कमजोर नहीं होनी चाहिए कि 1991 के संकट की याद न हो। जून 1991 में विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डालर से भी कम रह गया था यानी बस केवल तीन हफ्ते के आयात का जुगाड़ बचा था। भारतीय रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा देना बंद कर दिया था। तीन दिनों में भारतीय रूपये का 24 प्रतिशत अवमूल्यन हुआ। 67 टन सोना भारतीय रिजर्व बैंक ने बैंक आफ इंग्लैंड और यूनियन बैंक आफ स्विटजरलैंड के पास गिरवी रखकर 600 मिलियन डालर  का कर्ज उठाया। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से 2.2 अरब डालर का कर्ज लिया गया। यह खौफनाक अतीत जिन परिस्थितियों से निकला था, आज की स्थितियां उससे कहीं ज्यादा खराब हैं। तब कहा गया था कि भारत में विदेशी मुद्रा भंडार खाली होने का कारण खाड़ी युद्ध के कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ना था। लेकिन केवल यही एक कारण नहीं था। इस वास्तविकता को राजनीतिक स्तर पर स्वीकार किया जाना चाहिए कि हमने पं. नेहरू की जिस दृष्टि का उल्लेख ऊपर एक घटना के जरिये किया है, केन्द्र की सरकार उससे ठीक विपरीत दिशा में चलने लगी थीं और आज भी चल रही हैं। विदेशी कर्ज और विदेशी निवेश इस तरह के संकट से निकलने के स्थाई तरीके नहीं हैं। जब तक आयात के जरिये कमाई गयी विदेशी मुद्रा से कम निर्यात पर खर्च करना नहीं शुरू किया जाता, हम इस तरह के संकट से स्थाई रूप से बाहर नहीं निकल सकते। हमें याद करना होगा कि 1971 में अमरीकी डालर की कीमत भारतीय रूपयों के सापेक्ष कितनी कम थी और आज कितनी ज्यादा हो गयी है। तब संभवतः 5 रूपये में एक डालर मिल जाता था परन्तु आज एक डालर के लिए 51 रूपये की करीब खर्च करना पड़ रहा है। सोचिए - विदेशों से आने वाले सामान की हम आज कितनी ज्यादा कीमत अदा कर रहे हैं।
इस समय भारत के विदेशी मुद्रा खजाने में पैसा कम है और विदेशी मुद्रा की देनदारियां ज्यादा। 2010 का विदेशी व्यापार में घाटा 185 अरब डालर था। विदेशी मुद्रा भंडार लगातार घट रहा है जबकि विदेशी कर्ज लगातार बढ़ रहे हैं। अर्थशास्त्रियों का आकलन है कि एक साल के भीतर देश का विदेशी मुद्रा भंडार चुक जायेगा। यानी हम एक बार फिर 1991 जैसे आर्थिक संकट के मुहाने पर बैठे हुये हैं।
एक वैश्विक एजेंसी ने पूरे विश्व में खाद्यान्न महंगाई को बड़ी तेजी से बढ़ने की आशंका जताई है। आज हम वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़े हुए हैं। अमरीका और यूरोप में आर्थिक संकट कम होने का नाम नहीं ले रहा है। अभी तक अपने सार्वजनिक क्षेत्र की मजबूती के भरोसे हम इस आर्थिक संकट से बचे हुए हैं। लेकिन आने वाले दिनों में क्या हो सकता है, इसका काई अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।
सम्भव है जब 2014 में लोकसभा का चुनाव हो, तब देश एक बड़े आर्थिक संकट का सामना कर रहा हो। अगर अब भी केन्द्र की सरकार नहीं चेतती है और वह तथाकथित प्रतिगामी आर्थिक सुधारों की दिशा को नहीं पलटती, तो क्या-क्या हो सकता है, इस बारे में सोचना भी थर्रा देने वाला है।
- प्रदीप तिवारी
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