भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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गुरुवार, 20 मई 2010

विश्व और भारत में श्रमिक दिवस: कुछ अनजाने पन्ने

मई दिवस के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है, फिर भी कुछ ऐसे पहलू हैं जो अज्ञात है। कुछ भ्रांतियों का स्पष्टीकरण और इस विषय पर भारत तथा विश्व के बारे में कम ज्ञात तथ्यों को उजागर करने की आवश्यकता है। यह जानना दिलचस्प होगा कि श्रमिक दिवस का उदय ‘मई दिवस’ के रूप में नहीं हुआ था। वास्तव में अमरीका में श्रमिक दिवस मनाने की पुरानी परम्परा रही है जो बहुत पहले से ही चली आ रही थी। अमरीका में मजदूर आंदोलन यूरोप व अमरीका में आए औद्योगिक सैलाब का हिस्सा था। परिणामस्वरूप जगह-जगह जन आंदोलन रहे थे। इनका संबंध 1770 के दशक की अमरीका की आजादी की लड़ाई तथा 1860 के दशक के गृह युद्ध से भी था।इंग्लैंड के मजदूर संगठन विश्व में सबसे पहले अस्तित्व में आए।यह 18वीं सदी की मध्य का समय था, मजदूर एवं टेªड यूनियन संगठन 19वीं सदी के अंत तक काफी मजबूत हो गए क्योंकि यूरोप के दूसरे देशों में भी इस प्रकार के संगठन अस्तित्व में आने लग गए थे।अमरीका में मजदूर आंदोलनइसी समय अमरीका में भी मजदूर संगठन बन रहे थे। वहां मजदूरों के आरम्भिक संगठन 18वीं सदी के अंत में 19वीं सदी की आरम्भ में बनने शुरू हुए। मिसाल के तौर पर फिलाडेलफिया के शूमेकर्स (जूता बनाने वालों) के संगठन, बाल्टीमोर के टेलर्स (दर्जी) के संगठन तथा न्यूयार्क के प्रिन्टर्स के संगठन 1792 में बन चुके थे। फर्नीचर बनाने वालों में 1796 में और ‘शिपराइट्स’ ने 1803 में न्यूयार्क में संगठन बने। हड़ताल तोड़ने वालों के खिलाफ पूरे अमरीका में संघर्ष चला जो उस देश में संगठित मजदूरों का अपने किस्म का अलग आंदोलन था। हड़ताल तोड़ने वालों के खिलाफ पूरे अमरीका में संघर्ष चला जो उस देश में संगठित मजदूरों का अपने किस्म का अलग आंदोलन था। हड़ताल तोड़ना घोर अपराध माना जाता था और हड़ताल तोड़ने वालों को तत्काल यूनियन से निकाल दिया जाता था।18 का दशक अमरीका में टेªड यूनियनों के शीघ्र गति से विस्तार का समय था, खास करके 1833-37 तक का काल। इस दौरान मजदूरों के जो संगठन बने उनमें शामिल थे - बुनकरों, बुक वाइन्डरों, दर्जियों, जूते बनाने वालों, फैक्ट्री में काम करने वालों तथा महिला मजदूरों के संगठन। उसी दौरान स्थानीय स्तर पर भी मजदूर संगठन बनना शुरू हो गया था; इनमें शामिल थे फिलाडेलफिया मैकेनिकों की टेªड एसोसिएशन तथा इसी प्रकार की अन्य यूनियनें जो दूसरें शहरों जैसे बोस्टन, न्यूयार्क, बाल्टीमोर आदि में बन रही थी। 1836 में 13 सिटी इंटर टेªड यूनियन ऐसासिएशन मोजूद थीं जिसमें जनरल टेªड यूनियन ऑफ न्यूयार्क (1833) भी शामिल थी जो अति सक्रिय थी। इसके पास स्थाई स्ट्राइक फन्ड था तथा एक दैनिक अखबार इसका निकलता था। इसके संबंध दूसरे शहरों में भी थे। राष्ट्रव्यापी संगठन बनाने की कोशिश भी की गयी यानी नेशनल टेªड्स यूनियन जो 1834 में बनायी गयी।दैनिक काम के घंटे घटाने के कुछ पुराने संघर्षकाम के घंटों को घटाने के लिए किया गया संघर्ष अति आरम्भिक तथा प्रभावशाली संघर्षों में एक था जिसमें अमरीकी मजदूर तहरीक का योगदान था। न्यू इंग्लैंड के वर्किंग मेन्स ऐसासिएशन ने सन् 1832 में काम के घंटे घटा कर 10 घंटे प्रतिदिन के संघर्ष की शुरूआत की। आंदोलन के नेता पहले से ही राजनैतिक नारे लगा रहे थे। सेठ लूथर जैसे एसोसिएशन के नेता इग्लैंड को फैक्ट्री व्यवस्था की नकल करने की नीति का विरोध कर रहे थे। अमरीकी मजदूर वर्ग भी आजादी की घोषणा से जुड़ा हुआ था तथा मजदूर मांग कर रहे थे मजदूरो केअधिकारांे का सम्मान हो।यहां यह ऐतिहासिक तथ्य ध्यान देने योग्य है अमरीकी मजदूर वर्ग और नीग्रो के बीच गहरी एकता हो गयी और वे 1776 के अमरीकी क्रांति चाहते थे। 4 जुलाई को अमरीका की आजादी का दिवस मनाया जाता है। बड़ी संख्या में आम मजदूर इसमें भाग लेते रहे थे।बड़ी सक्रियता से मजदूरों तथा आम जनता ने आजादी के संघर्ष में हिस्सा लिया। उदाहरण के तौर पर 11वीं पेन्सिल्वनिया बटालियन के अधिकांश सैनिक मजदूर थे। नीग्रों और आजाद गुलामों को रोड्स आइलैंड, 72 मासचुसेटस शहर और पेन्सिल्वानिया की सेनाओं में भर्ती किया गया। अमरीका क्रांति सेना पीपुल्स आर्मी (जनसेना) थीं। इसने अपने नारों तथा उद्देश्यों से अमरीकी मजदूर तहरीक पर एक अमिट छाप छोड़ी।कई पीढ़ियों तक 4 जुलाई मजदूर तहरीक के दिवस की तर्ज पर मनाया जाता रहा। मजदूरों द्वारा बैठकें आयोजित की जातीं, त्योहार मनाया जाता, परेड निकाली जाती तथा दावत दी जाती थी तथा मजदूरों की मांगे उठाई जाती है।1835 तक अमरीकी मजदूरों ने काम के 10 घंटे प्रतिदिन का अधिकार देश के कुछ हिस्सों में प्राप्त कर लिया था। उस वर्ष मजदूर यूनियनों की एक आम हड़ताल फिलाडेलफिया में हुई। शहर के प्रशासकों को मजबूरन इस मांग को मानना पड़ा। परिणाम स्वरूप पूरे देश में इस मांग को मनवाने के लिए जनसैलाब उमड़ पड़ा।10 घंटे काम का पहला कानून 1847 में न्यायपालिका द्वारा पास करवाकर हेम्पशायर में लागू किया गया। इसी प्रकार के कानून मेन तथा पेन्सिल्वानिया राज्यों द्वारा 1848 में पास किए गए। 1860 के दशक के शुरूआत तक 10 घंटे काम का दिन पूरे अमरीका में लागू हो गया।राजनैतिक संगठनमजदूरों की राजनैतिक पार्टियां यूरोप से पहले अमरीका में अस्तित्व में आ चुकी थी। अमरीका मंे काल्पनिक समाजवादी आंदोलन की एक मजबूत परम्परा रही। इसका एक कारण था विशाल भौगोलिक क्षेत्रफल का होना जहां कोई भी काल्पनिक समाजवादी प्रयोग कर सकता था। थामस स्किडमोर, जार्ज रिप्ले, फ्रांसिस राइट, राबर्ट डेल ओवेन (सुप्रसिद्ध रावट ओवेन का पुत्र), होरेस ग्रीले आदि उस समय अमरीका के मजदूर वर्ग के नेता थे उनमें सेअधिकतर काल्पनिक समाजवादी थे। बहुत से काल्पनिक समाजवादी संगठन ओवेन, फूनरिये आदि के प्रभाव में आए; बाद में बहुतों ने प्रथम इंटरनेशनल से प्रभावित होगर मार्क्सवाद तथा वैज्ञानिक समाजवाद अपनाया।पहली मजदूर राजनैतिक पार्टी सन् 1828 में फिलाडेल्फिया (अमरीका) में बनी। अगले 6 वर्षों में 60 से अधिक शहरों में मजदूर राजनैतिक पार्टियों का गठन हुआ। उनकी मांगों में राजनैतिक सामाजिक मुद्दे जैसे 10 घंटे का कार्य दिवस, बच्चों की शिक्षा, सेना में अनिवार्य सेवा की समाप्ति, कर्जदारों के लिए सजा की समाप्ति, मजदूरी की अदायगी मुद्रा में, आयकर का प्रावधान इत्यादि शामिल थे।मजदूर पार्टियों ने नगर पालिकाओं तथा विधासभाओं इत्यादि में चुनाव भी लड़े। सन् 1829 में 20 मजदूर प्रत्याशी फेडरेलिस्टों तथा डेमोक्रेट्स की मदद से फिलाडेलफिया में चुनाव जीत गए। 10 घंटे कार्य दिवस के संघर्ष की बदौलत न्यूयार्क में वर्किंग मैन्स पार्टी बनी। 1829 के विधानसभा चुनाव में इस पार्टी कोे 28 प्रतिशत वोट मिले तथा इसके प्रत्याशियों को विजय हासिल हुई।अमरीका में फैक्ट्री मजदूरों की पहली रेकार्ड में शामिल हड़ताल सन् 1828 में हुई। कारण यह था कि न्यू जर्सी के पेटरसन में मिल मालिकों ने भोजन अवकाश का समय 12 बजे के बजाय 1 बजे करने की कोशिश की। मजदूर अधिकतर बच्चे थे। उन्हें डर था कि मालिकों का अगला कदम भोजन अवकाश समाप्त करने का हो सकता है। हड़ताल तुड़वाने के लिए सेना को बुलाया गया। 1820 और 1830 के दशकों में महिलाएं आंदोलनों में अलग मोर्चो पर हुआ करती थीं। परिणामस्वरूप 1834 में एक फैक्ट्री गर्ल्स एसोसिएशन बनायी गयी।मजदूर दूसरी पार्टियों में भी सक्रिय थे खासकर डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन पार्टियों में। वास्तव में ये पार्टियां मजदूरों पर काफी हद तक निर्भर थीं।उन दिनों पार्टियां मजदूरों और उनकी मांगों से अधिक घनिष्ठ रिश्ता रखती थी। बाद में ऐसा नहीं रहा।मई दिवस की शुरूआतजैसा हम देख चुके हैं कि मई दिवस के अस्तित्व में आने से पहले भी अमरीका में मजदूर दिवस किसी न किसी रूप में मनाया जाता था। मजदूर दिवस मनाने के लिए सितम्बर में कोई दिन निश्चित किया जाता था, खास करके इसके पहले हफ्ते में। यह बड़े उत्सव का अवसर होता था। मजदूर और उनके परिवार जलसे और मेले के रूप में इकट्ठे होतें।मजदूर दिवस व मई दिवस का जन्म अमरीका में मजदूर आंदोलन तथा उनके टेªड यूनियन संगठनों के कार्यकलापों और घटनाओं के कारण हुआ। अमरीका में दो बड़े टेªड यूनियन संगठन थे। पहला था नाइट्स ऑफ लेबर और दूसरा अमरीकन फैडरेशन ऑफ लेबर या एएफएल। पहले यह फेडरेशन ऑफ आर्गनाइज्ड टेªडर्स एण्ड लेबर यूनियन्स (एफओटीएलयू) ऑफ दी यूएस एण्ड कनाडा के नाम से जाना जाता था। 18 मई 1882 में सेन्ट्रल लेबर यूनियन ऑफ न्यूयार्क की एक बैठक में पीटर मैग्वार ने एक प्रस्ताव रखा जिसमें एक दिन मजदूर उत्सव मनाने की बात थी। उसने इसके लिए सितम्बर के पहले सोमवार का दिन सुझाया। वह साल का वह समय था जो जुलाई और ‘धन्यवाद देने वाला दिन’ के बीच में पड़ता था।विभिन्न व्यवसायों के 30,000 से अधिक मजदूरों ने 5 दिसम्बर को न्यूयार्क की सड़कों पर परेड निकाली तथा नारा दिया: “8 घंटे काम के दिए, 8 घंटे आराम के लिए तथा 8 घंटे हमारी मर्जी पर।“ इसे 1883 में दोहराया गया। 1884 में न्यूयार्क सेंट्रल लेबर यूनियन ने मजदूर दिवस परेड के लिए सितम्बर माह के पहले सोमवार का दिन तय किया। यह सितम्बर की पहली तारीख को पड़ रहा था। दूसरे शहरों में भी इस दिन को अंतर्राष्ट्रीय त्योहार के रूप में कई शहरों में मार्च निकाले गए। मजदूरों ने लाल झंडे, बैनरों तथा बाजूबंदों का प्रदर्शन, मीटिंगों, प्रदर्शनों तथा दूसरे मौकों पर किया।सन् 1884 में एफओटीएलयू ने हर वर्ष सितम्बर के पहले सोमवार को मजदूरों के राष्ट्रीय अवकाश मनाने का निर्णया लिया। पूरे देश में इसका आह्वान किया गया। 7 सितम्बर 1883 को पहली बार राष्ट्रीय पैमाने पर सितम्बर के पहले सोमवार को मजदूर अवकाश दिवस के रूप में मनाया गया। इसके साथ ही अधिक से अधिक राज्यों ने मजदूर दिवस के दिन छुट्टी मनाना शुरू कर दिया।इन यूनियनों तथा उनके राष्ट्रों की संस्थाओं ने अपने वर्ग की एकता, खासकर अपने 8 घंटे प्रतिदिन काम की मांग को प्रदर्शित करने हेतु पहली मई को मजदूर दिवस मनाने का फैसला किया। यह 1 मई 1886 से मानाया जायेग, उन्होंने फैसला किया। कुछ राज्यों में पहले से ही आठ घंटे काम का चलन था परन्तु इसे कानूनी मान्यता नहीं थी; इस मांग को लेकर पूरे अमरीका में 1 मई 1886 को हड़ताल हुई।मई 1886 से कुछ वर्षों पहले देशव्यापी हड़ताल तथा संघर्ष के दिन के बारे में सोचा गया। उदाहरण के तौर पर सितम्बर में राष्ट्रव्यापी संघर्ष राष्ट्रीय टेªड यूनियनों द्वारा 1885 और 1886 में तय किए गए।वास्तव में मजदूर दिवस तथा कार्य दिवस संबंधी आंदोलन राष्ट्रीय यूनियनों द्वारा 1885 और 1886 में सितम्बर के लिए सोचा गया था, लेकिन बहुत से कारणों की वजह से, जिसमें व्यापारिक चक्र भी शामिल था, उन्हें मई के लिए परिवर्तित कर दिया। इस समय तक काम के घंटे 10 प्रतिदिन का संघर्ष बदल कर 8 घंटे प्रतिदिन का बन गया।मई दिवस का बाकी इतिहास सबको अच्छी तरह मालूम है; उसे बताने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन यहां एक बात का स्पष्टीकरण देना आवश्यक है। यह कहना कि लाल झंडे का जन्म मई 1886 में शिकागो में हुआ था, गलत है। वास्तव में अमरीका में लाल झंडे का चलन 1886 से बहुत पहले ही था।इसके अलावा, 1830 के दशक में यूरोप में लाल झंडा मजदूर वर्ग की पहचान बन चुका था। मजदूरों ने अपनी राजनैतिक पहचान का प्रतीक लाल झंडा जून 1832 में पेरिस में फहराया था।भारत में मई दिवसयह ध्यान देने की बात है कि भारत में मजदूरों की होने वाली पहली हड़तालों में अप्रैल-मई 1862 की हड़ताल थी जब 1200 मजदूरों ने हावड़ा रेलवे स्टेशन पर कई दिनों के लिए काम बन्द कर दिया था। इस घटना की खासियत यह है कि मजदूरों की मांग काम के घंटों का घटाकर 8 घंटे प्रतिदिन करने की थी क्योंकि लोकोमोटिव विभाग में काम करने वाले मजदूर 8 घंटे ही काम करते थे। अतः इन मजदूरों ने भी यही मांग उठाई। यह घटना अमरीका में ऐतिहासिक मई दिवस मनाए जाने से करीब 24 वर्ष पहले की थी।अब हम भारत में मई दिवस मनाए जाने के कुछ प्रारंभिक उदाहरणों का संक्षेप में वर्णन करेंगे। जहां तक मालूम है, मई दिवस भारत में 1923 में पहली बार मनाया गया था। सिंगारवेलु चेट्टियार देश के आरम्भ के कम्युनिस्टों में से एक तथा प्रभावशाली टेªड यूनियन और मजदूर तहरीक के नेता थे। उन्होंने अप्रैल 1923 में भारत में मई दिवस मनाने का सुझाव दिया क्योंकि दुनिया भर के मजदूर इसे मनाते थे। उन्होंने फिर कहा कि सारे देश में इस मौके पर मीटिंगे होनी चाहिए। मद्रास में मई दिवस मनाने की अपील की गयी। इस अवसर पर वहां दो जनसभाएं हुई तथा दो जुलूस निकाले गए, पहला उत्तरी मद्रास के मजदूरों का हाईकोर्ट ‘बीच’ पर तथा दूसरा दक्षिण मद्रास के ट्रिप्लिकेन ‘बीच’ पर। सिंगारवेलू ने इस दिन मजदूर किसान पार्टी की स्थापना की घोषणा की तथा उसके घोषणा पत्र पर प्रकाश डाला। कई कांग्रेसी नेताओं ने भी मीटिंगों में भाग लिया।सिंगारवेलू ने हाईकार्ट ‘बीच’ की बैठक की अध्यक्षता की। उनकी दूसरी बैठक की अध्यक्षता एस. कृष्णास्वामी शर्मा ने की तथा पार्टी का घोषणा पत्र पीएस वेलायुथम द्वारा पढ़ा गया।बैठकों की रिपोर्ट कई दैनिक समाचार पत्रों में छपी। मास्को से छपने वाले वैनगार्ड ने इसे भारत में पहला मई दिवस बताया। (15 जून 1923)फिर दुबारा 1927 सिंगारवेलु की पहल पर मई दिवस मनाया गया, लेकिन इस बार उनके घर मद्रास में। इस मौके पर उन्होंने मजदूरों तथा अन्य लोगों को दोपहर की दावत दी। शाम को एक विशाल जूलुस निकाला गया जिसने बाद में एक जनसभा का रूप ले लिया, इस बैठक की अध्यक्षता डा. पी. वारादराजुलू ने की। यह कहा जाता है तत्काल लाल झंडा उपलब्ध न होने के कारण सिंगारवेलु ने अपनी लड़की की लाल साड़ी का झंडा बनाकर अपने घर पर लहराया।इस प्रकार हम मजदूर वर्ग के संघर्ष और मई दिवस तथा खासकर लाल झंडे के इतिहास के कई दिलचस्प तथा ज्ञानवर्धन प्रकरण पाते हैं।
- अनिल राजिमवाले
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सरकारी सेवाओं का निजीकरण जनविरोधी

निजीकरण की राह पर चल रही उत्तर प्रदेश सरकार संभवतः आम जनता के हितों को भूल चुकी है। आगरा में बिजली व्यवस्था के निजीकरण से उसने कोई सबक नहीं लिया और अब प्रदेश की गरीब जनता की जीवन रक्षा का सहारा बनी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की ठान ली है। पहले चरण में 4 जिला अस्पतालों, 8 उपजिला स्तरीय अस्पतालों, 8 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों, 23 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों तथा 21 0 स्वास्थ्य केन्द्रों के निजीकरण की योजना बनाई गई है।इतना ही नहीं राज्य के स्वास्थ्य महानिदेशालय ने जिला अस्पतालों के मुख्य चिकित्साधिकारियों द्वारा दवाओं तथा पेथौलोजी के लिये जरूरी कैमिकल आदि की खरीद पर रोक लगायी हैंयह दोनों ही कदम प्रदेश की आम जनता खासकर गरीब लोगों पर बड़ा कुठाराघात हैं। प्रायवेट अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवायें बेहद महंगी हैं। पहले महंगी फीस, फिर महंगी जांच और उसके बाद महंगी दवायें गरीब आदमी का तो दिवाला ही निकाल देती हैं। यदि मरीज भर्ती कराया जाये तो बेड या कमरे का चार्ज इतना ज्यादा है कि उससे रक्षा केवल राम ही कर सकते हैं।यद्यपि भ्रष्टाचार के इस युग में सरकारी अस्पताल भी दूध के धुले नहीं हैं फिर भी वहां आज भी स्वास्थ्य परीक्षण, पेथोलोजी, भर्ती फीस बेहद सस्ती है और दवायें भी अधिकतर मुफ्त उपलब्ध हैं। लेेकिन राज्य सरकार को इस बात से कोई लेना देना नहीं है। वह तो पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने में जुटी है और पी।पी.पी. माडल के बहाने निजीकरण करने पर आमादा है।सरकार यह भूल गई है कि उत्तर प्रदेश गरीबी के मामले में नीचे से चौथे पायदान पर है। यहां 60 फीसदी जनता दो जून रोटी के लिये तड़पती है। वहां इन अस्पतालों का निजीकरण उसके इलाज के सारे रास्ते बन्द कर देगा। अब तक उपलब्ध स्वास्थ्य सेवायें भी उसके लिये बन्द हो जायेंगी। केवल धनी लोग ही इलाज करा सकेंगे।सरकार के पी.पी.पी माडल की कलई तो पहले ही खुल चुकी है यह स्पष्ट हो चुका है कि यह जनता के अर्जित संसाधनों को निहित आर्थिक स्वार्थों के चलते पूंजीपतियों को मुहैय्या कराना है। इस मामले में भी इसकी कलई खुल गई है। जनता को स्वास्थ्य सेवायें प्रदान करने को बनाई कंपनी में निजी क्षेत्र की भागीदारी 89 प्रतिशत होगी जबकि 11 प्रतिशत बेहद मामूली स्वास्थ्य सेवायें ही राज्य सरकार के पास बची रह जायेंगी। जाहिर है यह सेवायें आम जनता के लिये कितनी कठिन हो जायेंगी। स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों की छंटनी का रास्ता भी प्रशस्त हो जायेगा सो अलग।एक अन्य फैसले के तहत प्रदेश के स्वास्थ्य महानिदेशक ने जिले के मुख्य चिकित्साधिकारी के दबा एवं कैमीकल आदि खरीदने के अधिकार को ही हड़प लिया है। इससे कुछ ही दिनों में जिले के अस्पतालों में दवाओं और पैथोलोजी के लिये जरूरी रसायनों का अभाव पैदा हो जायेगा। ऐसे समय में जब मौसम की बदमिजाजी के चलते हैजा, दस्त, पेचिस, वायरल बुखार और त्वचीय रोग भारी पैमाने पर फैल रहे हैं, दवाओं के न मिल पाने से मरीजों को कितनी कठिनाई होगी इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।लगता है सरकार ने आगरा की विद्युत व्यवस्था पूरी तरह निजीकृत करने से वहां पैदा हुई भयावह स्थिति से कोई सबक नहीं लिया है। वहां जनता को बिजली मिल नहीं पा रही, निजी कंपनी टोरंेट द्वारा भर्ती नौसिखिये काम नहीं कर पा रहे हैं, यहां तक कि एक मजदूर की तो मौत भी हो गई तथा भ्रष्टाचार भी सरकारी व्यवस्था की तरह ही बना हुआ है। जनता इसका पुरजोर विरोध कर रही है। लेकिन सरकार मदमस्त हाथी की तरह जनहितों को रौंदती चली जा रही है।सरकार ही नहीं उत्तर प्रदेश के प्रमुख राजनैतिक दलों को इस निजीकरण से कोई परहेज नहीं है। सपा ने चुप्पी साधी हुई है। भूमंडलीकरण व निजीकरण की पैरोकार कांग्रेस और भाजपा से विरोध की उम्मीद करना ही बेकार है। केवल भाकपा और वामपंथी दल ही विरोध जता रहे हैं। लेकिन इस सवाल को जनता के बीच लेजाकर निजीकरण विरोधी जनबल तैयार करना अभी बाकी है।
- डा. गिरीश
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”सम्मान“ के नाम पर हत्या करने वालों को सजा

हरियाणा की एक जिला सेशन अदालत ने कथित ‘सामाजिक सम्मान’ के नाम पर (आनर किलिंग) हत्या करने वाले 6 लोगों को कठोर सजा सुनायी है। 6 में से 5 को फांसी की सजा और एक को उम्र कैद की सजा सुनायी गयी है। हरियाणा और राजस्थान के कुछ हिस्सों में जाति पंचायत एवं ग्राम पंचायतों शादी और ऐसे ही मुद्दों पर फैसला सुनाने का अधिकार ले रखा है तथा फैसला नहीं मनाने वालों को जान तक से मारने की सजा सुनाती है।दर्दनाक घटनाऐसा ही एक मामला मनोज और बावली की शादी का था। “खाप पंचायत” ने जाति के बाहर शादी करने के लिए उनकी शादी को अवैध ठहराया था। पंचायत के फैसले के बाद दोनों ने सुरक्षा की गुहार करते हुए अदालत में अर्जी दी। अदालत में अर्जी देकर दोनों करनाल अपने घर लौट रहे थे तो जून 2007 में गांव वालों ने दोनों को बस से जबरन घसीट कर उतार लिया और हत्या कर दी। दोनों के शव नहर में पाये गये, दोनों के हाथ पैर बांध दिये गये थे। सेशन जज ने लड़की के भाई सुरेश, चचेरा भाई गौरव एवं सतीश तथा चाचा बासुराम और राजेन्द्र को फांसी की सजा सुनायी जबकि खाप पंचायत प्रधान गंगाराम को उम्र कैद की सजा सुनायी। बस के चालक पर अपहरण का आरोप लगाते हुए उसे सात साल की सजा सुनायी गयी। लड़के की मां ने अदालत की लड़ाई लड़ी। वह अदालत के फैसले से खुश नहीं है क्योंकि खाप पंचायत के अनेक दोषियों को छोड़ दिया गया। उन्हें षडयंत्र रचने के लिए सजा दी जानी थी।‘तहलका’ पत्रिका के अनुसार गांव की ये समानांतर अदालतें जाति के बहार शादी करने वालों को या तो निर्वासित जीवन बिताने के लिए बाध्य करते हैं या जान से मार डालते हैं। महीने में ऐसी करीब 12 हत्याएं होती हैं। इन जाति पंचायतों पर भ्रूण हत्या को बढ़ावा देने का आरोप है जिसके कारण हरियाणा में लिंग अनुपात काफी कम हो गया हैंकठोर रूढ़िवादिताइस तरह कट्टरपंथी जाति को एक शक्तिशाली हथियार के रूप में इस्तेामल करते हैं। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान या उससे पहले भी जब न्यायिक प्रणाली का ढंाचा खड़ा नहीं हुआ था, इस प्रकार की जाति पंचायत की शुरूआत हुई होगी। तब न्यायपालिका संपत्ति के विवादों और आपराधिक मामले पर विचार किया करती थी। संभवतः मुगल एवं ब्रिटिश शासकों ने जातिगत मामलों में हस्तक्षेप करना मुनासिब नहीं समझा होगा। इस प्रकार जाति पंचायत परंपरागत रूप में शक्तिशाली हो गयी होगी। जाति पंचायत अंतर्रजाति शादी पर रोक लगाती है। यह एक ही गोत्र में शादी पर भी प्रतिबंध लगाती है। यदि कोई एक ही गोत्र में या अंतर्रजाति विवाह करता है तो जाति पंचायत की बैठक होती है जो शादी को तोड़ने का फैसला सुनाती है। यदि दंपत्ति और उसके परिवार वाले फैसला मानने से इंकार करते हैं तो उन्हें जाति से बाहर कर दिया जाता है और इसकी आधिकारिक घोषणा की जाती है। इसके बाद उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाता है तथा उस परिवार के साथ कोई सामाजिक रिश्ता नहीं होता है। धोबी, नाई, दुकानदार कोई उनसे नाता नहीं रखता। शादी या किसी सामजिक समारोह का निमंत्रण उन्हें नहीं दिया जाता। हाल के वर्षों में इस मख्ययुगीन सामंती अदालत ने जाति पंचायत की मर्जी के खिलाफ शादी करने वालों पर हमला करना तथा उनकी हत्या करना जैसा घृणित काम करना शुरू कर दिया है। जाति पंचायत एक ही साथ अभियोजन, जज तथा फैलसे के लागू करने की भूमिका निभाती है।
- डा. बी.वी. विजयलक्ष्मी
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