भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

About The Author

Communist Party of India, U.P. State Council

Get The Latest News

Sign up to receive latest news

फ़ॉलोअर

सोमवार, 22 सितंबर 2014

34 करोड़ का उपभोक्ता बाजार

तमाम देश भारत के साथ कारोबार बढ़ाना चाहते हैं। अमरीका भले आतंकवाद की समाप्ति के लिए करोड़ों डालर पाकिस्तान की सेना को देकर भारत में आतंकवादी घटनायें अंजाम दिलाता रहे परन्तु उसे भारत के इस उपभोक्ता बाजार में अपने सरमायेदारों का हित नजर आता है। इजरायल भी यही चाहता है। जापान भी यही चाहता है। तमाम विकसित यूरोपीय देश भी यही चाहते हैं और चीन भी यही चाहता है। इसीलिए ये सभी भारत के साथ कूटनीतिक रिश्ते बनाये रखना चाहते हैं। केन्द्र में नई सरकार भी इन सभी से अपने रिश्तों को मजबूत करना चाहती है और उसके परिणामों की उसे कतई चिन्ता नहीं है।
पिछले 40-50 सालों में भारत में मध्यम वर्ग का उभार हुआ है और पिछले 23-24 सालों में बाजारवाद ने इस वर्ग के दिलो-दिमाग पर कब्जा कर लिया है। यह वर्ग तमाम उपभोक्ता वस्तुओं - कार, फ्रिज, टीवी, फ्लैट, मोबाईल, कम्प्यूटर को खरीदने के लिए व्याकुल है, भले उसकी आमदनी से इन्हें न खरीदा जा सकता हो। इस वर्ग की पूरी खरीददारी ईएमआई आश्रित है। पिछले दो दशकों से भारत के बैंकिंग क्षेत्र को इस बात की चिन्ता नहीं है कि किसानों, छोटे कारोबारियों, दस्तकारों और छोटे एवं मध्यम उद्योगों को वह कर्जा मुहैया करवा रहा है कि नहीं परन्तु उसे इस बात की बहुत चिन्ता है कि बड़े व्यापारियों और सरमायेदारों को अनाप-शनाप पैसा मुहैया हो पा रहा है कि नहीं। तो फिर मात्र 31 करोड़ की आबादी वाले अमरीका, 13 करोड़ की आबादी वाले जापान, 8 करोड़ की आबादी वाले जर्मनी, 82 लाख की आबादी वाले इजरायल के साथ-साथ तमाम अन्य विकसित पश्चिमी देशों को इतना बड़ा उपभोक्ता बाजार और कहां मिलेगा?
इसीलिए एक बड़ी भूखी, निरक्षर, कुपोषण और रक्ताल्पता का शिकार आबादी वाले देश भारत से तमाम देश अपने सरमायेदारों के हितों को साधने के लिए व्यापारिक सम्बंध बनाने को तत्पर हैं। नए प्रधानमंत्री जापान हो आये हैं और चीन के राष्ट्रपति बरास्ते गुजरात भारत दर्शन को आ चुके हैं। प्रधानमंत्री की कई देशों की यात्रा की तैयारियां चल रहीं हैं तो कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों में भारत आने की होड़ मच गयी है।
हमारे पास उनको बेचने को क्या है? अमरीका और चीन जैसे देशों के पास भी लौह अयस्क का अपार भंडार है। परन्तु वे अपने खनिज श्रोतों का उपभोग करने के बजाय यहां से लौह अयस्क और कोयला आदि खरीदते हैं। क्यों? क्योंकि इनके भंडार सीमित हैं। जब पूरी दुनिया के खनिज भंडार समाप्त हो जायेंगे, तब वे इसका उपभोग करेंगे। दूसरी ओर हमारी सरकारें कच्चा माल बेचने के लिए व्याकुल हैं। लौह अयस्क 46 रूपये टन, फाईन 3160 रूपये टन और कोयला 500 से 700 रूपये टन बेचते हैं और उसके बाद परिष्कृत इस्पात को 34 हजार रूपये टन के हिसाब से खरीदते हैं। नई सरकार की नीतियां क्या हैं - सार्वजनिक क्षेत्र में चलने वाले खाद कारखानों का भट्ठा बैठा दो, सेल की कब्र खोद दो और विदेशी पूंजी को यही माल बनाने के लिए पलक पांवड़े बिछा दो। 
अमरीका के बौद्धिक कामों के लिए अपने बुद्धिजीवियों (बुद्धिजीवियों से यहां आशय अपनी बुद्धि बेचकर भेट भरने वालों से है) को भेजने वाले तथा विश्व की सबसे पुरानी सभ्यताओं में शामिल हमारे देश को अपने एक पुरातन शहर वाराणसी को स्मार्ट बनाने के लिए दूसरों का मुंह ताकते हुए शर्म क्यों नहीं आती। मोदी जी दावा कर रहे हैं कि उन्होंने विदेशी सरमाये के लिए हिन्दुस्तान में रेड टेप हटा कर रेड कारपेट बिछा दी है। उनके कहने का मतलब पर गौर करना जरूरी है। उन्होंने हिन्दुस्तान के नियम, कायदे, कानून, विस्थापन, पर्यावरण तथा अपने देश की बहुसंख्यक आबादी के हितों - सभी को विदेशी सरमाये पर कुर्बान कर देने की तैयारी कर ली है।
हमें इस बात पर गौर करना होगा कि आज की तारीख में जब कोई विदेशी सरमायेदार उद्योग लगाता है तो विस्थापन और बेरोजगारी का शिकार कितने होते हैं, ठेका मजदूरी के नाम पर कितने मजदूरों का लहू पीने का हम अवसर मुहैया करा रहे हैं और उस उद्योग में कितने लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार मिलेगा। सोवियत संघ की मदद से सार्वजनिक क्षेत्र में 4 मिलियन टन का इस्पात कारखाना जब बोकारों में लगा था तो 52000 लोगों को रोजगार मिला था। लेकिन यही उद्योग अगर विदेशी पूंजी लगाती है तो 3000 लोगों को भी रोजगार मुहैया हो जाये तो बहुत होगा। और इसमें अधिसंख्यक रोजगार असंगठित क्षेत्र में मिलेगा या फिर ठेका मजदूरी के जरिये।
पूरी मजदूरी मांगने का खामियाजा मारूति उद्योग के मजदूरों को क्या मिला था, यह हमें याद रखना चाहिए। सरकार तो सरमायेदारों का लठैत बनने के लिए व्याकुल है।
‘ट्रिकल डाउन’ सिद्धान्त (जिसने यह समझाने का प्रयास किया था कि जब पूंजीपति पर्याप्त मुनाफा कमा लेंगे तो पैसा टपक-टपक कर मजदूरों की जेबों में आने लगेगा) हमें आज भी याद होना चाहिए। आज तक तो ऐसा हो नहीं सका। सरमायेदारों का सरमाया तो हजारों गुना बढ़ चुका है लेकिन उनके पास से पैसा मजदूरों की जेब में गिरना तो आज तक शुरू नहीं हो सका।
कमजोर वामपंथ के दौर में यह सब होना ही है। अपनी बर्बादी की राह पर देश चल चुका है। जनता को सरकार के हर कदम और उसके हर संदेश के निहितार्थ लगातार समझते रहना होगा।
- प्रदीप तिवारी
»»  read more
Share |

लोकप्रिय पोस्ट

कुल पेज दृश्य