भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

दुनिया आधी शताब्दी के बाद

दो दिन पहले क्रांति की विजय की 51वीं जयंती पर पहली जनवरी 1959 की बातें उमड़घुमड़कर फिर से याद आयी। हममें से किसी ने भी यह नहीं सोचा था कि आधी शताब्दी के बाद एक ऐसे समय के बाद जो बहुत तेजी के साथ गुजर गया - हम उस तरह इसकी याद करेंगे मानो यह कल की ही घटना हो।
28 दिसंबर 1958 को शत्रु सेनाओं के कमांडर-इन-चीफ जिसकी संभ्रांत इकाईयों को भय सता रहा था कि कर निकल जाने की कोई संभावना नहीं रह गयी है - के साथ ओरियंट चीनी में एक मीटिंग के दौरान उसने अपनी हार मान ली और हमसे अपील की हम उदारता का परिचय देते हुए उसकी बाकी सेनाओं को निकल जाने का कोई सम्मानजनक तरीका निकालने की कोशिश करें। उसे पता था कि हम शत्रु के कैदियों और जख्मी लोगों के साथ बिना किसी अपवाद किस तरह मानवीय बर्ताव करते थे। मैंने जो सुझाव दिया उसे उसने स्वीकार कर लिया यद्यपि उसे चेतावनी दी कि जो सैन्य आपरेशन चल रहा है वह बेरोकटोक जारी रहेगा। तथापि, वह राजधानी गया और अमरीकी दूतावास के उकसावे पर उसने एक सत्ता पलट की कोशिश की।
हम पहली जनवरी के उस दिन लड़ाई के लिए तैयारी कर रहे थे कि सुबह-सवेरे पता चला कि आततयी बच निकला है। विद्रोही सेना को तुरन्त ही आदेश दिये गये कि युद्ध विराम को स्वीकार न करें। और सभी मोर्चों पर लड़ाई जारी रखें। साथ ही, विद्रोही रेडियो (रेडियो रेबल) के जरिये मजदूरों का एक क्रांतिकारी आम हड़ताल पर जाने का आह्वान किया गया, जिसका तत्काल ही पूरे देश ने समर्थन किया। सत्ता पलट को नाकाम कर दिया गया और उसी दिन दोपहर बाद हमारा विजय सैन्य दल सेंटियागो डी क्यूबा में दाखिल हो गया।
इस बीच, चे और केमिलो को अपने बहादुर एवं अनुभवी सैन्य बलों को वाहनों के जरिये लाकाबाना और कोलम्बिया के मिलटरी कैम्प की तरफ तेजी से बढ़ने के लिए कहा गया। शत्रु की सेना हर मोर्चे पर पिट चुकी थी और उसमें प्रतिरोध की क्षमता नहीं रही। तब तक जनता विद्रोह कर चुकी थी और दमन केन्द्रों और पुलिस स्टेशनों पर कब्जा कर चुकी थी। दो जनवरी की शाम की, घटी हुई संख्या में अनुरक्षकों को साथ लेकर मैं बयामो स्टेडियम में टैंक, तोपखाने और यंत्रीकृत पैदल सेना के दो हजार के लगभग सैनिकों से मिला जिनसे हम पिछले दिन तक लड़ाई लड़ रहे थे। वे अभी भी अपने हथियार लिये हुए थे। अनियमित युद्ध लड़ने के हमारे निर्भीक पर मानवीय तौरतरीकों के कारण हमारी शत्रु सेना भी हमारा सम्मान करती थी। तो इस तरह, 25 महीनों तक एक ऐसे युद्ध को लड़ने के बाद जिसे हमने चंद राइफलों के साथ शुरू किया था, केवल चार ही दिन में लगभग एक लाख की संख्या में हवा, समुद्र और जमीन से मार करने वाले हथियार और सरकार की पूरी शक्ति क्रांति के हाथों में आ गयी। मैं 51 वर्ष पहले उन दिनों में जो कुछ हुआ चंद लाइनों में उसका वर्णन कर रहा हूं।
तब क्यूबा की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए मुख्य लड़ाई शुरू हुई और हमारा सामना विश्व के अब तक के सबसे बड़े साम्राज्य के साथ था; एक ऐसी लड़ाई जिसे हमारी जनता ने अत्यंत गरिमा के साथ चलाया है। मैं यह देखकर खुश हूं कि जिन लोगों ने अविश्सनीय रूकावटों, त्याग और खतरों के बावजूद अपनी मातृभूमि की रक्षा की, इन दिनों वे अपने बच्चों, अनेक माता-पिताओं और अपने प्रियजनों के साथ हर नये वर्ष के गौरव का बड़ी खुशी के साथ अन्य आनंद ले रहे हैं।
तथापि, आज के ये दिन किसी भी तरह अतीत के उन दिनों जैसे नहीं है। हम एक ऐसे नये युग में रह रहे हैं जो इतिहास के अन्य किसी युग जैसा नहीं है। अतीत में लोग एक ऐसी बेहतर दुनिया जिसमें अपेक्षाकृत अधिक न्याय मिले, के लिए संघर्ष करते थे और आज भी सम्मान के साथ इस मकसद के लिए संघर्ष करते हैं, पर आज भी उनको संघर्ष करना चाहिए क्योंकि मानव प्रजाति के अस्तित्व के लिए कोई अन्य विकल्प ही नहीं है। यदि हम इसे अनदेखा करते हैं तो हम कुछ नहीं जानते। क्यूबा निस्संदेह उच्चतम राजनीतिक शिक्षा वाले देशों में से है। उसने अत्यंत शर्मनाक निरक्षरता से शुरूआत की थी और उससे भी बदतर बात यह थी कि जमीन, चीनी मिलों, उपभोक्ता मालों का उत्पादन करने वाली फैक्टरियां, स्टोर सुविधाएं, दुकानें, बार, होटल, टेलीफोन तंत्र, बैंक, खान-खदान, प्रिटिंग प्रेस, पत्रिकाएं, समाचार पत्र, दफ्तर, रेडियो, उभरता हुआ टेलीविजन और हर वह चीज जिसका कोई महत्व होता है, हमारे अमरीकी आकाओं और विदेशी मालिकों से जुड़े पूंजीपतियों के कब्जे में थी।
मुक्ति के लिए हमारे युद्ध की लपटें जब थम गयी चांकी (अमरीका) ने अपने ऊपर उस जनता के लिए सोचने की जिम्मेदारी ले ली जिसने अपनी स्वतंत्रता, अपनी सम्पत्ति और अपनी नियति को हासिल करने के लिए इतनी कठिन लड़ाई लड़ी थी। उस समय हमारा कुछ भी न था। हममें से कितने पढ़-लिख सकते थे? कितने लोग ग्रामर स्कूल में छठी कक्षा तक की पढ़ाई पूरी कर सकते थे? मैं अन्य बातों का जिक्र नहीं करता क्योंकि मुझे अन्य अनेक बातों को शामिल करना पड़ेगा जैसे कि सर्वोत्तम स्कूल, सर्वोत्तम अस्पताल, सर्वोत्तम डाक्टर, सर्वोत्तम वकील। हममें से कितनों की उन तक पहुंच थी? चंद अपवादों को छोड़कर कितने लोगों को मैनेजर या नेता बनने का सहज एवं दिव्य अधिकार था?
बिना किसी अपवाद के, कोई भी ऐसा करोड़पति या अमीर आदमी नहीं था जो किसी पार्टी का नेता, सीनेटर, एक प्रतिनिधि या एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी न बना हो। वह हमारे देश में प्रतिनिधिक और शुद्ध लाकतंत्र था सिवाय इसके लिए अमरीकियों ने मनमौजी तरीके से निष्ठुर एवं निर्दयी अत्याचारी निरंकुश शासकों को थोप दिया था जब उन्हें भूमिहीन किसानों और रोजगार या बेरोजगार मजदूरों से अपनी सम्पत्तियों की बेहतर तौर पर रक्षा एवं अपने हितों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त लगता था। क्योंकि व्यवहारतः कोई उसका जिक्र तक नहीं करता। में इस बात को याद करने की कोशिश कर रहा हूं। यदि मानवता वास्तविकता के और मनुष्य द्वारा पैदा किये जलवायु परिवर्तन के परिणाम के प्रति काफी तेजी के साथ कोई स्पष्ट एवं निश्चित विवेक विकसित नहीं करती तो हमारा देश तीसरे विश्व के उन 150 देशों में से एक होगा, जिन्हें अविश्सनीय परिणाम भुगतने पडेंगे, अलबत्ता इन परिणामों को भुगतने वाले अकेले ही देश नहीं होंगे।
हमारे संचार माध्यमों ने पर्यावरण परिवर्तन के प्रभावों को समझाया है जबकि बढ़ते घने तूफानों, सूखों और अन्य प्राकृतिक आपदाओं ने भी इस मुद्दे के बारे में हमारी जनता को शिक्षित करने के लिए उतना ही काम किया है। इसी प्रकार, एक असाधारण घटना ने, कोपेनहेगन शिखर सम्मेलन में चलने वाली लड़ाई ने आसन्न खतरे के
संबंध में जागरूकता पैदा करने में मदद की है। यह कोई दूर का खतरा नहीं है जो 22वीं शताब्दी तक इन्तजार करेगा बल्कि यह 21वीं शताब्दी का खतरा है और यह उसके बाद वाले 50 वर्षों के दौरान आने वाला खतरा नहीं है बल्कि अभी अगले दशकों में आने वाला खतरा है जब हम इसके भयंकर परिणामों की मुसीबतें झेलना शुरू करेंगे।
यह उस साम्राज्य के विरूद्ध एक साधारण कार्रवाई नहीं है जो जैसा कि वह हर अन्य बातों में करता है, अपने मूर्खता एवं स्वार्थपूर्ण हितों को थोपने की कोशिश करता है, इसके बजाय यह विश्व जनमत संघर्ष है जिसे स्वतः प्रवृत्ति (यानी जिस तरह भी अपने आप चले वैसे चलते रहने) के या संचार माध्यमों की सनकों एवं झक्कीपन के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। यह एक ऐसी स्थिति है जिसे सौभाग्य से विश्व के लाखों ईमानदार और बहादुर लोग समझते हैं, यह एक ऐसी लड़ाई है जिसे जनगण को साथ लेकर सामाजिक संगठनों और वैज्ञानिक, सांस्कृतिक एवं लोकोपकारी मानवतावादी संगठनों और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और खासतौर पर उस संयुक्त राष्ट्र संगठन में लड़ा जाना है जहां अमरीकी सरकार, उसके नाटों सहयोगी और सबसे अमीर देशों ने डेनमार्क में बाकी उभरते हुए देशों और तीसरी दुनिया के गरीब देशों के विरूद्ध एक छलपूर्ण एवं अलोकतांत्रिक प्रहार करने की कोशिश की।
कोपेनहेगन में उभरती अर्थव्यवस्थाओं और तीसरी दुनिया के देशों के साथ-साथ क्यूबा के
प्रतिनिधिमंडल ने हिस्सा लिया। वहां अमरीका के राष्ट्रपति बाराक ओबामा और इस पृथ्वी के सबसे अमीर देशों के समूह ने जो भाषण दिये उनसे पता चलता था कि वे क्योटो-जहां 12 वर्ष पहले इस जटिल मुद्दे पर विचार-विमर्श किया गया था- में हुए बाध्यकारी समझौते को खत्म करने पर और त्याग का बोझ उन विकासशील और अविकसित देशों पर डाालने पर तुले हुए था जो दुनिया के सबसे गरीब देश हैं और साथ ही सबसे अधिक अमीर एवं संपन्न देशों को इस पृथ्वी के कच्चे मालों और अ-नवीकरणीय संसाधनों की आपूर्ति करते हैं। उनके भाषण से जो विस्मयकारी घटनाएं घटी उनके चलते क्यूबा वहां मजबूती से संघर्ष करने के लिए बाध्य हुआ।
कोपेनहेगन में सम्मेलन 7 दिसम्बर को शुरू हुआ था, पर ओबामा अंतिम दिन वहां नजर आये। उनके आचरण की बदतरीन बात यह थी कि जब वह पहले ही अफगानिस्तान में एक ऐसे देश में जिसकी स्वतंत्रता की एक मजबूत परम्परा है जिसे अपने बेहतरीन एवं सर्वाधिक नृशंस समय में ही अंग्रेज लोग भी नहीं झुका सकते थे, तबाही और हत्याकांडों के लिए 30 हजार और सैनिक भेजने का फैसला कर चुके थे- वह किसी छोटी-छोटी बात के लिए नहीं बल्कि शंाति का नोबेल पुरस्कार लेने कोे ओस्लो पहुंचे। 10 दिसंबर को वह नारवे की राजधानी ओस्लो पहुंचे जहां उन्होंने अपनी कारगुजरी को सही ठहराने के लिए थोथा और लफ्फाजी भरा भाषण दिया। 18 दिसम्बर, शिखर सम्मेलन के अंतिम दिन वह कोपेनहेगन में प्रकट हुए जहां शुरू से उनका कार्यक्रम केवल 8 घटे ठहरने का था। उनके विदेश मंत्री और उनके सबसे अच्छे रणनीतिकार एक दिन पहले आ चुके थे।
ओबामा ने जो पहला काम किया वह यह कि जो शिखर सम्मेलन को संबोधित करते हुए उनका साथ दें, पूछ हिलाते और चापलूसाना अंदाज में डेनमार्क के प्रधानमंत्री ने जो शिखर सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे थे- मुश्किल से 15 व्यक्तियों को बोलने की इजाजत दी। शाही नेता खास सम्मान के हकदार थे। उनका भाषण चासनी लिए शब्दों और नाटकीय मुद्राओं का मेलजोल था जो उन लोगों के लिए उकता देने वाला था जो मेरी तरह उनके अनुभावों और राजनीतिक इरादों का यथार्थपरक मूल्यांकन करने की कोशिश करते हुए उन्हें सुनना चाहते थे। ओबामा ने अपने आज्ञापरायण मेजबान पर यह बात थोप दी थी कि बोलने के लिए उन्होंने जिन्हें चुना है वही वहां बोल सकते हैं, यद्यपि जैसे ही उन्होंने अपना स्वयं का भाषण समाप्त किया, ओबामा पिछले दरवाजे से वहां से अन्तर्धान हो गये मानो परीकथाओं का कोई जादुई बूढ़ा अपने उन श्रोताओं को छोड़कर भाग गया हो जो उसे बड़े ध्यान से सुनने को बैठे थे।
अधिकृत वक्ताओं की सूची में शामिल लोग जब बोल चुके तो एक व्यक्ति ने हर लिहाज से एक अयमारा (बोलीविया में तितिकाचा झील के पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले इंडियन) मूल निवासी हैं, इवा मोरालेस, बोलीविया के राष्ट्रपति ने मंच पर आकर बोलने के अपने अधिकार का दावा किया और वहां उपस्थित लोगों की जबर्दस्त करतल के मद्देनजर उन्हें यह अवसर दिया गया। मात्र नौ मिनट में उन्होंने वहां से पहले ही गैरहाजिर हो चुके अमरीकी राष्ट्रपति के शब्दों के जवाब में गंभीर एवं सम्मानजनक विचार प्रस्तुत किये। मोरालेस हाल ही में 65 प्रतिशत मत पाकर राष्ट्रपति चुने गये हैं। उनके तुरन्त बाद ह्यूगो शावेज वेनेजुएला के बोलिवेरियन गणतंत्र की तरफ से बोलने की मांग करते हुए खड़े हो गये। सत्र के
अध्यक्ष के सामने उन्हें भी बुलवाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं था। उनके बाद उन्होंने एक अत्यंत शानदार भाषण दिया। मैंने उनके जितने भाषण सुने हैं यह उनका सबसे शानदार भाषण था। उसके बाद सत्र के सभापति की घंटी बज गयी और यह असाधारण सत्र समाप्त हो गया। पर अत्यंत व्यस्त ओबामा और उनका दल-बल एक भी मिनट खोने को तैयार न था। उनके ग्रुप ने मसविदा प्रस्ताव तैयार कर लिया था जिसमें अस्पष्ट टिप्पणियां भरी थी और जिसमें क्योटो संधि से पीछे हटने की बातें थी। हड़बड़ी में पूर्णाधिवेशन के सभा भवन से निकलने के बाद प्राइवेट तरीके से और छोटे समूहों में समझौता वार्ता करने के लिए ओबामा मेहमानों के अन्य समूहों से जो 30 से अधिक लोग नहीं थे- मिले। उन्होंने कोई ठोस बात पेश किये बगैर जिद की और धमकी दी कि यदि उनकी बातें नहीं मानी गयी तो वह मीटिंग छोड़ कर चले जायेंगे। बदतरीन बात यह है कि अंतिसम्पन्न देशों की मीटिंग थी जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण उभरते देशों को दो या तीन गरीब देशों के साथ बुलाया गया था। “इसे मानो या जाओ“ के प्रस्ताव के साथ दस्तावेज को उनके सामने रखा गया।
बाद में डेनिश प्रधानमंत्री ने भ्रमपूर्ण अस्पष्ट एवं अंतर्विरोधी घोषणा पेश करने का प्रयास किया जिसके विचार-विमर्श में संयुक्त राष्ट्र ने कहीं भी शिखर समझौते के में हिस्सा नहीं लिया। सम्मेलन समाप्त हो गया और प्रायः सभी राज्याध्यक्ष या शासनाध्यक्ष एवं विदेश मंत्री अपने अपने देश के लिए रवाना हो गये। जब सुबह तीन बजे डेनिश प्रधानमंत्री ने इसे
पूर्णाधिवेशन में पेश किया जहां सैकड़ों मुसीबतजदा अधिकारियों ने जो तीन दिनों से सोये नहीं थे, जटिल दस्तावेज को हस्तगत किया और जिनके पास उस पर विचार करने तथा उसके अनुमोदन पर निर्णय के लिए केवल एक घंटा का समय रह गया।
तब मीटिंग काफी अस्थिर हो गयी। प्रतिनिधियों को इसे पढ़ने का समय ही नहीं मिला। उनमें से अनेक ने अपनी बात रखने की मांग की। प्रथम थे तुवालू के प्रतिनिधि जिनका द्वीप पानी की तहत चला जायगा यदि दस्तावेत में शामिल प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाये। बोलीविया, वेनेजुएला, क्यूबा तथा निकारागुआ के
प्रतिनिधियों ने उसका अनुसरण किया। 19 दिसम्बर की सुबह 3ः30 बजे जो द्वंद्वात्मक टकराव हुआ, उसे इतिहास द्वारा दर्ज किया जाना चाहिएए, यदि जलवायु परिवर्तन के बाद लंबे समय तक इसे बना रहना है।
जो कुछ वहां हुआ, उसके बारे में क्यूबा में जानकारी मिल जायगा या इंटरर्नेट पर वह उपलब्ध हो जायेगा, मैं क्यूबा के विदेश मंत्री ब्रुनो रोड्रिगेज द्वारा दिये गये दो जवाबों को पेश करना चाहूंगा क्योंकि वे कोपेनहेगन सोप ओपेरा के अंतिम प्रकरण के बारे में जानने के लिए श्रेयस्कर हैं और अंतिम अध्याय के तत्वों के बारे में भी, जिसे अभी हमारे देश में प्रकाशित होना है।
“अध्यक्ष महोदय (डेनमार्क के
प्रधानमंत्री) आपने बार-बार जिस दस्तावेज का दावा किया जो हमें मिला ही नहीं, अब दिखायी पड़ रहा है हम सबों ने उस मसविदे को देखा जिसे चोरी-छिपकर प्रस्तावित किया गया और गुप्त मीटिंगें में उस पर विचार किया गया, कमरे के बाहर, जहां अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अपने
प्रतिनिधियों के माध्यम से पारदर्शी रूप से बातचीत कर रहे थे।“
“मैं तुवालु, वेनेजुएला, बोलीविया तथा क्यूबा के प्रतिनिधियों के साथ अपनी आवाज मिलाता हूं कि इस अप्रमाणिक मसविदे का मूलपाठ एकदम अपर्याप्त एवं अस्वीकार्य है।“
“वह दस्तावेज जो आप दुर्भाग्य से पेश कर रहे हैं, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी करने के संबंध में कोई वायदा नहीं करता है।”
“मैं पूर्व के मसविदे से अवगत हूं जिन पर फिर आपत्तिजनक एवं गोपनीय कार्यविधि के जरिये छोटे ग्रुप में बातचीत की जा रही थी और जिसने 2050 तक 50 प्रतिशत कमी करने का उल्लेख किया।”
“दस्तावेज जिसे आप पेश कर रहे हैं, उन मसविदों में शामिल उन अल्प एवं अपर्याप्त मुख्य बातों को भी छोड़ रहे हैं। यह दस्तावेज किसी भी रूप में इस भूमंडल तथा मानवजाति के लिए एक अत्यंत गंभीर न्यूनतम कदमों की भी गारंटी नहीं करता है।”
“यह शर्मनाक दस्तावेज जो आप हमारे सामने ला रहे हैं, अपार्यप्त तथा अस्पष्ट है जहां तक उत्सर्जन में कमी करने के लिए विकसित देशों की विशेष प्रतिबद्धता का संबंध है, जबकि वे अपने उत्सर्जन के ऐतिहासिक वर्तमान स्तर से उत्पन्न उल्लेख वार्मिंग के लिए जिम्मेवार हैं और यह उचित है कि वे अर्थपूर्ण कमी करने का कदम उठाये। यह दस्तावेज विकसित देशों द्वारा किसी ऐसी प्रतिबद्धता का कोई ग्लोबल नहीं करता है।”
“अध्यक्ष महादेय, आपका दस्तावेज क्योटो संधि का मृत्यु प्रमाण पत्र है जिसे हमारा प्रतिनिधिमंडल स्वीकार करने से इंकार करता है।”
“क्यूबाई प्रतिनिधिमंडल बातचीत की भावी प्रक्रिया में मुख्य अवधारणा के रूप में” सामान लेकिन विभेदीकृत (अलग- अलग) जिम्मेवारियों की प्रमुखता पर जोर देता है। आपका दस्तावेज उस संबंध में एक शब्द भी नहीं कहता है।
“क्यूबाई प्रतिनिधिमंडल कार्यविधि के गंभीर उल्लंघन का विरोध करता है जो अलोकतांत्रिक तरीके को ही उजागर करता है जिस आधार पर इस सम्मेलन को चलाया गया। खासकर बातचीत एवं बहस को स्वैच्छिक, एकांतिक तथा भेदभावपूर्ण रूप से चलाया गया।”
“अध्यक्ष महोदय, में औपचारिक रूप से आग्रह करता हूं कि इस व्क्तव्य को पार्टियां के इस शर्मनाम एवं दुखद 15वें सम्मेलन के कार्य की अंतिम रिापोर्ट में शामिल किया जाये।“
अकल्पनीय बात यह है कि लंबे मध्यावकाश के बाद और अब हर व्यक्ति ने यह समझा कि केवल
अधिकृत कार्यवाही ही शिखर सम्मेलन के समापन के लिए बाकी रह गयी है। मेजबान देश के प्रधानमंत्री ने, यांकी (अमरीका) से प्रेरित होकर, ऐसा प्रयास किया कि दस्तावेज शिखर सम्मेलन में आमसहमति से पास हो गया जबकि पूर्णाधिवेशन हाल में विदेश मंत्री भी मौजूद नहीं थे। वेनेजुएला, बोलीविया, निकारागुआ एवं क्यूबा के प्रतिनिधियों ने जो अंतिम क्षण तक चैकस एवं सतर्क बने रहे, कोपेनहेगन में अंतिम जोड़तोड़ को नाकाम कर दिया।
पर समस्या खत्म नहीं हुई। ताकतवर का प्रतिरोध नहीं हो रहा है और वे इस बात को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। 30 दिसम्बर को न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र स्थित डेनमार्क के स्थायी मिशन ने हमारे मिशन को बड़ी विनम्रता से सूचित किया कि उसने 18 दिसम्बर 2009 के कोपेनहेगन समझौते को नोट किया है और उस निर्णय की अग्रिम कापी अग्रपे्रषित कर रहा है। उसने वास्तविक रूप में कहा “डेनमार्क की सरकार कोपेनहेगन 15वें सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में सम्मेलन में शामिल पक्षों से आग्रह करती है कि वे यूएनएफसीसीसी सचिवालय को अपनी सुविधानुसार जल्द की कोपेनहेगन समझौते के साथ अपने को शामिल करने की तत्परता के बारे में लिखित रूप से सूचित करें।”
इस अनपेक्षित पत्र ने संयुक्त राष्ट्र में क्यूबा के स्थायी मिशन को जवाब देने को विवश किया कि “वह परोक्ष रूप से उस मूल पाठ का अनुमोदन करने के प्रयास को साफतौर से अस्वीकार करता है जिसका अनेक प्रतिनिधियों ने न केवल जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभावों की रोशनी में उसकी अपर्याप्तता के लिए उसे अस्वीकार कर दिया बल्कि इसीलिए भी क्योंकि उसने केवल राष्ट्रों के कुछ सीमित ग्रुप के हितों को ही पूरा किया।
उसी तरह क्यूबा के विज्ञान, टेक्नोलोजी और पर्यावरण मंत्रालय के प्रथम उपमंत्री डा. फर्नाडों गोजलेज बेर्मूदेज ने जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के एक्जीक्यूटिव सचिव यूवो डीर बोएर को एक पत्र दिया। जिसके कुछ पैराग्राफ मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं:
“हमने आश्चर्य एवं चिन्ता के साथ न्ययार्क में संयुक्त राष्ट्र सदस्य देशों के स्थायी मिशन को डेनिश सरकार द्वारा जारी किया गया नोट प्राप्त किया जिससे आप निश्चित रूप से अवगत हैं जिसमें जलवायु परिपवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन में शामिल पक्षों से कहा गया कि वे एक्जीक्यूटिव सचिवालय को
सुविधानुसार जल्दी से लिखित रूप में तथाकथित कोपेनहेगन समझौते में शामिल होने को अपनी तत्परता के बारे में सूचित करें।”
“कोपेनहेगन में सहमति का स्पष्टतः अभाव था। सम्मेलन में शामिल पक्ष ने इस दस्तावेज के अस्तित्व का नोट मात्र लिया। अतः क्यूबा गणतंत्र इस आचरण को वहां किये गये निर्णय के अशिष्ट एवं निन्दनीय उल्लंघन के रूप में लेता है।” सम्मेलन की रिपोर्ट में सम्मेलन में शामिल उन पार्टियों के नाम शामिल करेगा। जिन्होंने इस समझौते के साथ शामिल होने की अपनी तत्परता व्यक्त की।
“क्यूबा गणतंत्र समझाता है कि वह व्यवहार क्रूर है और कोपेनहेगन में लिये गये निर्णय का निंदनीय उल्लंघन है जहां आम सहमति के स्पष्ट अभाव की रोशनी में ऐसे दस्तावेज के अस्तित्व के बारे में महज नोट लेता है।”
“कोपेनहेगन शिखर सम्मेलन में ऐसी कोई सहमति नहीं बनी जो डेनमार्क सरकार को इस तरह की कार्रवाई का रास्ता अपनाने के लिए अधिकृत करें और एक्जीक्यूटिव सचिवालय को कन्वेंशन में शामिल पक्षों की सूची को अंतिम रिपोर्ट में शामिल करने का अधिकार नहीं है।”
क्यूबा के विज्ञान टेक्नालोजी की एवं पर्यावरण के प्रथम उपमंत्री ने समापन करते हुए कहा कि “मैं कहना चाहता हूं कि क्यूबा गणतंत्र की सरकार एक अवैध एवं मिथ्या दस्तावेज को अप्रत्यक्ष रूप से वैध ठहराने की इस नयी कोशिश को दृढ़ता के साथ खारिज करता है और इस बात को दोहराता है कि यह आचरण सम्मेलन के कार्यों के लिए हानिकर मिसाल कायम करता है और प्रतिनिधियों को वार्ता प्रक्रिया को अगले वर्ष जिस अच्छी भावना के साथ चलाना चाहिए उस भावना को हानि पहुंचाता है।”
विश्व के अनेक लोग-खासकर सामाजिक आंदोलन और मानवीय, सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक संस्थानों के सर्वोत्कृष्ट जानकर लोग-जानते हैं कि अमरीका ने जिस दस्तावेज को आगे बढ़ाया है वह उन लोगों - जो मानव जाति को महाविनाश से बचाने के लिए प्रयत्नशील है - द्वारा ली गयी स्थिति से पीछे ले जाने वाला कदम है। यहां उन तथ्यों एवं आंकड़ों को दोहराने की जरूरत नहीं जो बात को अकाट्य तरीके से साबित करते हैं। यह तमाम सामग्री इंटर्नेट पर मिल सकती है; यह सामग्री इस विषय में रूचि लेने वालों की बढ़ती संख्या की पहुंच के अंदर है।
इस दस्तावेज के पालन की दुहाई में जो तर्क इस्तेमाल किया जा रहा है वह कमजोर है। और उसका तात्पर्य है एक कदम पीछे हटना। इस धूर्त विचार को काम में लाया जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए गरीब देशों को जो कीमत चुकानी पड़ेगी उसके लिए अमीर देश उन्हें तीन वर्ष के दौरान 3 करोड़ डालर की मामूली सी रकम देंगे। उसके काम 2020 तक इसमें प्रतिवर्ष 100 अरब की वृद्धि की जा सकती है। यह एक गंभीर मुद्दा है और उनकी यह बात ऐसी है मानो महाविनाश तक उनकी मदद का इंतजार करते रहे। विषेशज्ञ जानते हैं कि इस काम में जितना पैसा खर्च होगा, उसे देखते हुए ये आंकड़े हास्यास्पद एवं अस्वीकार्य हैं। इन आंकड़ों के स्रोत अस्पष्ट एवं भ्रमकारी है, अतः इसके लिए कोई भी वचनबद्धता नहीं है।
एक डालर का क्या मूल्य है? 30 अरब डालर का क्या मूल्य है? हम सब जानते हैं कि 1944 में ब्रेटनवुड्स के बाद से लेकर 1971 में निक्सन के एक्जीक्यूटिव आर्डर-वह आर्डर जिसका मकसद वियतनाम में किये गये नरसंहार पर हुए खर्च को विश्व की अर्थव्यवस्था पर डालना था- तक सोने के समय में डालर का मूल्य घट गयाहै और अब उस समय मूल्य से 32 गुना कम है। अर्थात 30 अरब का अर्थ है एक अरब से कम और 100 अरब को 32 से भाग करें तो आता है 3.1 अरब। आज के समय में इतना पैसा एक मध्यम आकार के
तेलशोधक कारखाना बनाने के लिए भी पूरा नहीं पड़ेगा। औद्योगिक देशों ने अपने सकल घरेलू उद्योग के 0.7 प्रतिशत हिस्से को विकासशील देशों को देने का वायदा किया था। यदि उन्होंने वह वायदा पूरा किया होता तो वह प्रतिवर्ष250 बिलियन डालर की मदद बैठती। पर चंद अपवदों को छोड़ उन्होंने अपने उस वायदे को कभी पूरा नहीं किया।
अमरीका की सरकार ने बैंकों को मुसीबत से बचाने के लिए 800 अरब डालर खर्च किये हैं। यदि ऐसा गंभीर सूखे न पड़े और ग्लेशियरों और ग्रीनलैंड एवं अन्टार्कटिका में जमे हुए पानी का विशाल मात्रा के पिघलने के फलस्वरूप संभावित बाढ़ें न आयें तो 2050 तक इस पृथ्वी पर जो 9 अरब होंगे उन्हें बचाने के लिए वह कितना पैसा खर्च करने को तैयार है?
हमें किसी धोखे में नहीं रहना चाहिए। कोपेनहेगन में अमरीका अपने दांवपेच से जो कुछ करना चाहता था वह था तीसरी दुनिया में फूट डालना, अर्थात 150 देशों को, सामाजिक, वैज्ञानिक एवं मानवतावादी संगठनों के साथ-साथ चीन, भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका आदि उन देशों से अलग करना जिनके साथ बोन में, मेक्सिकों में था किसी अन्य अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में ऐसा समझा करने में, जो होकर देश को फायदा पहुंचा सके और हमारी मानवजाति को नेस्तनाबूद करने वाली महाविभीषिका से मानवजाति को बचा सके।
विश्व के पास अधिकाधिक जानकारियों और सूचनाएं मिलती जा रही है पर राजनेताओं के पास सोचने-समझने का समय कम होता जा रहा है।
मालूम पड़ता है कि अमीर देश और अमरीकी कांग्रेस समेत अनेक नेता इस पर बहस कर रहे हैं कि सबसे अंत में कौन लुप्त होगा।
मैं इस लम्बे लेख के लिए क्षमा चाहता हूं मैं इसे दो हिस्सों में नहीं लिखना चाहता था। मैं चाहता हूं कि धैर्यवान पाठक इसे पढ़ने का अनुग्रह करेंगे।


फिडेल कास्ट्रो

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