देश में शिक्षित बेरोजगार युवकों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। सरकारी आंकड़ों का सन्देश यह है कि आप जितने शिक्षित होंगे, बेरोजगारी की संभावनायें उतनी ही ज्यादा प्रबल हो जायेंगी। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश के शहरी इलाकों में अशिक्षित बेरोजगार केवल 1.3 प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों में केवल 1.1 प्रतिशत हैं। माध्यमिक स्तर की पढ़ाई करने वाले 4.4 प्रतिशत शहरों में बेरोजगार हैं तो गांवों में 5.4 प्रतिशत। शहरी इलाकों में स्नातक बेरोजगारों की संख्या 8.4 प्रतिशत है तो गांवों में 11 प्रतिशत जबकि परास्नातक बेरोजगारों की संख्या शहरों में 7.7 प्रतिशत है तो गांवों में 13.9 प्रतिशत।
हाल में रोजगार संबंधी समाधान सुझाने वाली एक कंपनी एस्पारिंग माइंड्स ने करीब 6000 स्नातकों पर कराये गये अध्ययन में यह पाया कि 53 प्रतिशत युवक ही किसी नौकरी के काबिल हैं क्योंकि बाकी की अंग्रेजी काफी कमजोर है। आजादी के इतने सालों बाद भी देश में नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान की आवश्यकता भी बहस का एक मुद्दा है।
बेरोजगारी बढ़ने के बावजूद युवाओं में कोई गुस्सा नहीं दिखाई देता। वे सड़कों पर रोजगार मांगते दिखाई नहीं देते तो सरकार उनकी तरफ सोचे भी तो क्यों?
कुछ साल पहले की बात है कि एक चिकित्सक महोदय एक सम्मेलन में इंग्लैंड गये थे। लौट कर उन्होंने अपने सभी मरीजों को यह बताना शुरू किया कि वहां पर चिकित्सा व्यवस्था किस तरह निःशुल्क है और कैसी बेहतर सुविधायें वहां पर मौजूद हैं। वे बताया करते थे कि अगर किसी वृद्ध की तबियत खराब होती है तो वह अपने पुत्र या पुत्री के बजाय अस्पताल को फोन करता है, अस्पताल से एम्बुलेंस आकर उसे ले जाती है, उसका डाक्टरी मुआइना होता है और वह अस्पताल से बिना कुछ भी खर्च किये हुये दवाओं के साथ वापस आ जाता है। इस व्यवस्था का कारण वह यह बताते थे कि इंग्लैंड में वयस्कों की संख्या ज्यादा है और जिस किसी भी पार्टी की सरकार होती है, वह इनसे इनके इस अधिकारों को छीनने की जुर्रत इसलिए नहीं कर सकता है कि सरकार बनाना और गिराना उनके हाथ में होता है। जरा सी बात होने पर यह लोग सड़कों पर आ जाते हैं। हो सकता है कि उनकी इन बातों में कुछ अतिश्योक्ति हो लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि वहां की जनता अपने चिकित्सा के अधिकारों के प्रति जागरूक थी और उसके लिए संघर्ष करना जानती थी।
हिन्दुस्तान की आबादी का आज एक बहुत बड़ा हिस्सा युवा है और उसका अधिसंख्यक हिस्सा बेरोजगार है। यह वह हिस्सा है जो अपनी पारिवारिक आर्थिक स्थिति में कारण टॉप-10 या टॉप-20 कालेजों में दाखिला नहीं पा सकता और न ही ऐसे कालेजों की फीस भर सकता है। इसलिए उसका अंग्रेजी का ज्ञान कमजोर होता है। लेकिन यह तबका अपनी ताकत को नहीं समझता। सरकारें बनाने और सरकारें गिराने की क्षमता रखते वाला यह नौजवान अपनी ताकत को नहीं जानता। अपनी काबिलियत पर नौकरी छीनने की बात न कर अपने पिता के खेत को बेचने के ख्वाब देखता है। ‘नौकरी दो या बेरोजगारी भत्ता दो’ या ‘एक पैर रेल में एक पैर जेल में’ जैसे नारे लगाते युवाओं के हुजूम सड़कों पर नहीं दिखाई देते। शिक्षित नौजवान देश में क्रान्ति कर सकते हैं। परन्तु उन्हें क्रान्ति की चेतना से लैस करने वाले संगठन भी आज कल खामोश है। यह खामोशी समझ में नहीं आती।
बकौल भगत सिंह ऐसे नौजवानों में अगर क्रान्ति की चेतना नहीं भरी जाती तो यह प्रतिक्रियावादियों के हाथ के औजार बन जाते हैं। आइये इस खामोशी पर कुछ बहस करते हैं और कोशिश करते हैं कि इस बहस से इन नौजवानों में व्याप्त श्मशान सी खामोशी को तोड़ा जाये।
- प्रदीप तिवारी
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