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मंगलवार, 16 दिसंबर 2014
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भाजपा और कांग्रेस का विकल्प केवल वामपंथ
पिछले 25 सालों से घूम फिर कर केन्द्र में और तमाम राज्यों में जो भी गैर वामपंथी सरकारें बनी, इन सबने सरमायेदारों के अधिकतम मुनाफे के लिए काम किया है और विदेशी पूंजी मंगाने के नाम पर आने वाली पीढ़ियों पर लगातार बोझ लादा है। स्वदेशी, राम राज्य और पता नहीं विकास के किन-किन नारों के साथ कांग्रेस को पीछे छोड़ते हुए भाजपा केन्द्रीय सत्ता में आसीन हो गई और वामपंथ भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सबसे निचले पायदान पर पहुंच गया। आज लोक सभा एवं राज्य सभा में पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के साथ-साथ तमाम तरह के संकीर्णतावाद और फूटपरस्ती से संघर्ष करने वाली शक्तियां गिनी-चुनी बची हैं। लेकिन न तो यह इतिहास का अंत है और न ही भारतीय लोकतंत्र में अभी दो-दलीय शासन व्यवस्था कायम होने का कोई दौर ही शुरू हो गया है।
ऐसे मौके पर भाजपा के विरोध के नाम पर लोहिया के तमाम पुराने समाजवादी सहयोगियों यानी जनता दल के पुराने कुनबे को जोड़ने की कवायद हाल में शुरू की गयी है। सियासी तौर पर तो जमा हुए 6 दलों का वर्तमान लोक सभा में विशेष वजूद नहीं है। कुल मिला कर 15 संसद सदस्य मात्र हैं। दूसरे इन दलों का चन्द राज्यों को छोड़ कर कहीं जमीनी धरातल भी नहीं है। बिहार में नितीश और लालू का एक मंच पर आना उनकी राजनैतिक मजबूरी है और यह गठजोड़ भी आने वाले बिहार विधान सभा चुनावों में भाजपा को कितना रोक पायेगा, यह तो वक्त ही बतायेगा। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी है। उसके वोट बैंक में इस गठजोड़ से कोई इजाफा होने से रहा। जनता दल सेक्यूलर का भी वजूद बहुत सीमित दायरे में है। इनेलो नेतृत्वहीनता की शिकार है, ओम प्रकाश चौटाला और उनके पुत्र अजय चौटाला चुनाव ही नहीं लड़ सकते। यही संकट लालू के सामने भी है। छठा दल चन्द्रशेखर की सजपा (राष्ट्रीय) है। चंद्रशेखर के एक पुत्र सपा से राज्य सभा में हैं तो दूसरे भाजपा से। सियासी वजूद के रूप में शून्य हो चुकी उनकी विरासत को कमल मुरारका अभी तक ढो रहे हैं, कोई भाव नहीं देता तो मुलायम के घर बैठक में पहुंच गये।
इन दलों के एकीकरण का काम करने के लिए मुलायम सिंह को अधिकृत किया गया है। मुलायम की स्वयं की विश्वसनीयता सबसे बड़ा संकट है। उन्होंने उत्तर प्रदेश में भाकपा तथा माकपा को धोखा देने के साथ ही वी.पी. सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा, अजित सिंह, ममता आदि तमाम लोगों को धोखा दिया है। उन्होंने समाजवादी आन्दोलन को कभी आगे नहीं बढ़ाया। उनका समाजवाद और पिछड़ों के कल्याण का एजेंडा केवल उनके परिवार तक और उनके गांव तक सीमित रहा है। मुजफ्फरनगर में लोग मरते रहे और वे सैफई में नाच देखते रहे। कमोबेश यही हालत इस मोर्चे से कुछ अन्य नेताओं के साथ है, चाहे वे चौटाला परिवार हो या लालू परिवार।
इन सभी पार्टियों ने अपने-अपने सूबों में अपनी सरकार चलाते समय वही सब किया है जो केन्द्र में कांग्रेस, भाजपा और दूसरे दल करते रहे हैं। सभी पूंजीवाद के हितैषी तथा उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीयकरण के ध्वजवाहक हैं। सभी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। इसलिए वे केन्द्र में गैर भाजपा गैर कांग्रेस विकल्प हो ही नहीं सकते। उनका वास्तविक विकल्प वही दल प्रस्तुत कर सकते हैं जो 25 सालों से केन्द्र में चलाई जा रही नीतियों के उलट चलने की बात करते हो और उनका इतिहास ऐसा रहा हो।
पिछले 25 सालों में देश का जो विकास किया गया है, उससे आम जनता को कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। चिकित्सा और शिक्षा दो बुनियादी मुद्दे हैं जिनकी आम जनता तक पहुंच हेतु भारत का संविधान अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करता है। परन्तु इन दोनों ही क्षेत्रों का असीमित निजीकरण किया गया है। शिक्षा संस्थान और अस्पताल खोलना आज एक व्यवसाय बन चुका है। आजादी के पहले और आजादी के बाद भी लम्बे वक्त तक शिक्षा संस्थान और अस्पताल धर्मादा उद्देश्य से खोले जाते थे या सरकार खोलती थी। लेकिन आज इनसे ज्यादा मुनाफा देने वाला कोई व्यवसाय नहीं है। देशी और विदेशी पूंजीपति इन दोनों क्षेत्रों में निवेश को व्याकुल हैं। गरीबों को चिकित्सा और शिक्षा दोनों से वंचित होना पड़ रहा है। खाने को तो उन्हें पेट भर मिलता ही नहीं है। वामपंथी दलों को छोड़ कर उनकी बात करने वाला भी कोई नहीं है। लेकिन मुलायम के नेतृत्व में खड़ा हो रहा तथाकथित मोर्चा ऐसे बयान जारी कर रहा है कि वे अपने साथ वामपंथ को भी जोड़ेंगे। ये सभी वामपंथ का पहले ही बहुत दोहन कर चुके हैं अतएव वामपंथ को अब इनकी बैसाखी नहीं बनना चाहिए और वाम पंथी दलों ने जो अपना आत्मनिर्भरता और एकता का रास्ता पकड़ा है, उसी पर चलना चाहिए। हमें आत्मविश्वास के साथ कहना चाहिए कि भाजपा और कांग्रेस की नीतियों का विकल्प वामपंथ ही देगा और हमें उसी के लिए अपने सारे प्रयास करने चाहिए। इस स्थिति से भटकाव वामपंथ को फिर से और पीछे ले जा सकता है।
इस समय पूरे देश में वामपंथ का संयुक्त आन्दोलन चल रहा है। मीडिया में उसकी आवाजें भले न सुनाई पड़ रहीं हो परन्तु सड़कों पर उनकी हलचल धीरे-धीरे बढ़ रही है। वामपंथी दलों और उसमें विशेषकर भाकपा का पूरे देश में संगठन है। भारतीय जन मानस को जाति, धर्म और क्षेत्रीयता के संकीर्ण दायरों से ऊपर उठ कर वामपंथी विकल्प के पीछे ही कतारबद्ध होना चाहिए।
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