भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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Communist Party of India, U.P. State Council

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रविवार, 15 अगस्त 2010

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का कार्यक्रम संबंधी दस्तावेज

आजादी के पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भारतीय क्रांति को दो चरणों वाली प्रक्रिया बताया जिसमें वर्तमान साम्राज्यवाद-विरोधी सामंत-विरोधी चरण (एक राष्ट्रीय जनवादी चरण) के बाद पूंजीवाद-विरोधी (समाजवादी) चरण आयेगा। पार्टी ने मोटे तौर से मजदूर वर्ग, मध्यम वर्ग एवं राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के राष्ट्रीय जनवादी मोर्चे की रणनीति का अनुसरण किया।
1947 में राष्ट्रीय आजादी की प्राप्ति ने भारत और विश्व के लिए एक नये युग, एक ऐतिहासिक घटना का सूत्रपात किया। यह भारत में एक अभूतपूर्व जन-उभार तथा विश्व में शक्तियों के नये सह-संबंधों का परिणाम था।

क्रांति का नया चरण
यह राष्ट्रीय क्रांति की विजय का सूचक था, हालांकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने जैसा सोचा था या अनुमान लगाया था उससे भिन्न घटनाक्रम विकसित हुआ। देश का विभाजन हुआ जिसके गंभीर परिणाम सामने आये। फिर भी उसने भारतीय जनता के सामने राजनीतिक आजादी एवं राष्ट्रीय संप्रभुता को मजबूत करने और आर्थिक आजादी के लिए काम करने के वास्ते व्यापक अवसरों का मार्ग प्रशस्त कर दिया। हमारी जनता से क्रांति को एक नये चरण, एक आत्म-निर्भर, लोकतांत्रिक एवं गतिशील अर्थव्यवस्था का निर्माण करने तथा उसका नवीकरण करने, हमारी जनता के बेहतर जीवनस्तर को सुनिश्चित करने और लोकतंत्र के क्षेत्र का विस्तार करने एवं उसे समृद्ध करने, लोकतांत्रिक संस्थाओं का निर्माण करने तथा व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्रताओं एवं तेजी से सांस्कृतिक प्रगति को सुनिश्चित करने के साम्राज्यवाद-विरोधी और सामंत-विरोधी कर्तव्यों को पूरा करने के चरण तक ले जाने की अपील की गयी।
प्रगति और नया चरण
इस अवधि में महान उपलब्धियां हासिल की गयीं; एक सार्वभौम राष्ट्रीय राज्य की प्राप्ति, बालिग मताधिकार एवं बहुदलीय प्रणाली के आधार पर चुनावों के साथ सरकार के संसदीय रूप तथा धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र पर आधारित एक संविधान का अपनाया जाना, विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका का अलगाव, एक संघीय किस्म की सरकार जिसमें केन्द्र तथा राज्यों को अधिकार आवंटित किये जायेंगे। सभी वर्गीय सीमाओं के साथ ये बड़े कदम हैं। राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष के दौरान अनेक बुनियादी पहलुओं पर एक आम सहमति कायम हुई।
एक ऐतिहासिक उपलब्धि रही है सामंती रजवाड़े राज्यों की समाप्ति, उनके भूतपूर्व प्रदेशों का पड़ोसी क्षेत्रों में विलय और भाषाई आधार पर और इस बहु-भाषी, बहु-राष्ट्रीय देश में जनता की आकांक्षाओं एवं लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप भारत का पुनर्गठन। यह वास्तव में नीचे से और ऊपर से क्रांति थी जिसमें टालमटोल एवं जनता को खुलेआम तथा बार-बार दिये गये वचनों से शासक हलकों के हटने के प्रयासों पर काबू पाया गया। शक्तिशाली तथा संयुक्त शासक जनांदोलनों ने जिसमें कम्युनिस्टों ने अन्य ठोस सामंत-विरोधी ताकतों के साथ प्रमुख भूमिका अदा की, इस ऐतिहासिक उपलब्धि को संभव बनाया, और भारत के राष्ट्रीय एकीकरण को आगे बढ़ाया गया और भाषाई और जातीय इकाइयों को राजनीतिक रूप से सुदृढ़ किया गया जिनसे उनकी पहचान को स्वीकार किया गया और इस तरह उनके लिए आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक विकास की व्यापक संभावनाएं उन्मुक्त की गयीं।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राष्ट्रीय पूंजीवादी नेतृत्व ने जिन्हें 1947 में विभाजित भारत में सत्ता हस्तांतरित की गयी, संविधान तैयार करने और स्वतंत्र भारत के नये राज्य का निर्माण करने की पहल की।
अंतर्विरोधों के जरिये राज्य मशीन एवं तंत्र का निर्माण किया गया और साम्राज्यवाद तथा सामंतवाद के साथ समझौता किया गया। एक विशाल अति-केन्द्रीकृत तथा भारी-भरकम राज्य मशीन निर्मित की गयी है। एक विशाल देश का प्रशासन चलाने की प्रक्रिया में जिसका समाज अत्यंत जटिल है, नौकरशाही अति-केन्द्रीकरण, व्यापक भ्रष्टाचार, राजनीतिज्ञ, पुलिस-अपराधी गिरोह पर आधारित माफिया के बढ़ते ताने-बाने जो दोनों आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में काम करते हैं, के नकारात्मक पहलू भी विकसित हुए हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था और अंतर्विरोध
आर्थिक क्षेत्र में आर्थिक आजादी की दिशा में काफी प्रगति हुई है। दोनों उद्योग तथा कृषि क्षेत्र में उत्पादक शक्तियों का विकास हुआ है।
उपनिवेशी अवधि के अनेक विदेशी प्रतिष्ठानों के राष्ट्रीयकरण, अत्यंत आवश्यक आधारभूत ढांचे के निर्माण के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के निर्माण और अनेक भारी एवं बुनियादी औद्योगिक परियोजनाओं के निर्माण में सोवियत संघ तथा अन्य समाजवादी देशों से बड़ी सहायता मिली, जिससे इस प्रगति में काफी मदद मिली। मजबूत एवं विविधीकृत सार्वजनिक क्षेत्र ने जिसका बुनियादी उद्योग आधार रहा है, एक आत्म-निर्भर अर्थव्यवस्था की बुनियाद रखी।
लेकिन विकास के पूंजीवादी पथ ने जिसका अनुसरण किया गया है, सामाजिक धु्रवीकरण में योगदान दिया है और असमानता बढ़ायी है। इजारेदार घरानों की परिसंपत्ति कई गुना बढ़ गयी है। उसके साथ ही, छोटे एवं मध्यम उद्योग, खासकर लघु क्षेत्र काफी बढ़े हैं। अन्य दस या बारह प्रतिशत ने काफी समृद्धि हासिल की है जबकि 30 से 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं। एकदम अपर्याप्त रोजगार के अवसरों, स्वरोजगार की सीमित संभावना, मूलगामी भूमि सुधार की तोड़फोड़ तथा औद्योगिक प्रतिष्ठानों की बंदी एवं छंटनी की वजह से बेरोजगारी में भारी वृद्धि होती रही है।
औद्योगिक विकास की दर धीमी हो रही है। योजना उलट-पुलट हो गयी है। देश का आंतरिक तथा विदेशी कर्ज काफी अधिक बढ़ा गया है और हम कर्ज जाल के निकट पहुंच गये हैं। हाल का वित्तीय-राजकोषीय संकट जो एकदम प्रतिकूल भुगतान संतुलन की स्थिति में अभिव्यक्त हुआ, रोगसूचक था। बढ़ते बजटीय घाटे तथा आसमान कर ढांचे ने अधिकाधिक विकास के बोझ को आम लोगों पर डाल दिया है। वृद्धि तथा विकास में क्षेत्रीय असंतुलन बढ़ गया है। राज्य के संसाधनों तथा सार्वजिनक क्षेत्र की लूट, विशाल कालाधन एवं विदेशी डिपाजिट, मुनाफाखोरी और तस्करी व्यापक हो गयी है।
नयी आर्थिक नीतियां
1974 के दशक के अन्त एवं 1980 के दशक से आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाया जा रहा है जिसने अब नयी आर्थिक नीति का रूप ले लिया है जिसे “आर्थिक सुधार” के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। इसे उद्योगपतियों, बड़े भूस्वामियों एवं अभिजन वर्ग तथा दक्षिणपंथ और दक्षिण-केन्द्र की राजनीतिक ताकतों का समर्थन प्राप्त है। उसने निजी क्षेत्र तथा ‘मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था’ के दर्शन और ‘समाजवाद विफल हो गया है’ ऐसा दावा करते हुए सशक्त प्रचार के साथ विचारधात्मक स्तर ग्रहण कर लिया है।
“नयी आर्थिक नीति” की ये निम्नलिखित न्यूनतम विशेषताएं हैं:
- सार्वजनिक क्षेत्र को दरकिनार करना और बदनाम करना तथा निजी क्षेत्र पर अधिकाधिक भरोसा करते हुए निजीकरण की ओर बढ़ना;
- इजारेदारों को पूरी तरह छूट देना और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए द्वार खोल देना, आधुनिकीकरण, टेक्नालॉजी एवं पूंजी हासिल करने तथा निर्यात क्षमता बढ़ाने के नाम पर सहयोग को प्रोत्साहित करना;
- आयात को उदार बनाना और निर्यात की दिशा पर जोर डालना;
- एक ऐसी वित्तीय नीति अपनाना जो बड़े औद्योगिक घरानों एवं इजारेदारों का पक्ष पोषण करती हो जिसमें अनिवासी भारतीय एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियां शामिल हैं (अवमूल्यन, स्वर्णनीति आदि);
- एकीकृत विश्व अर्थव्यवस्था के नाम पर विकसित पश्चिम के साथ अर्थव्यवस्था का एकीकरण करने का प्रयास करना।
विश्व बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा खासकर भारत एवं सामान्य रूप से विकासशील देशों के लिए अपने अनेक नुस्खों के रूप में इन सभी कदमों की वकालत की जा रही है। हाल के नीतिगत कदम जो केन्द्रीय बजट तथा उसके पहले निरूपित किये गये हैं जिनमें दो बार रुपये का अवमूूल्यन भी शामिल है, विश्व बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों को स्वीकार करने की विनाशकारी प्रवृत्ति को ही रेखांकित करता है। यदि इसे सुधारा नहीं गया तो यह निश्चित रूप से आर्थिक संकट को और अधिक गहरा करेगा एवं हमारी आत्म-निर्भरता तथा आर्थिक संप्रभुता पर ही खतरा उत्पन्न करेगा।
वैकल्पिक आर्थिक मार्ग
अर्थव्यवस्था संकट का सामना कर रही है, लेकिन विश्व स्तर पर तथा भारत में एक व्यवस्था के रूप में पूंजीवाद के पास विभिन्न तरीकों से संचित आर्थिक कठिनाइयों का समाधान ढूंढ़ने तथा जोड़-तोड़ करने की जो क्षमता है, लचीलापन है, उसे नजरअंदाज करना गलत होगा।
अर्थव्यस्था के सामने विद्यमान बुनियादी समस्याओं का समाधान केवल समाजवादी रास्ते से ही संभव हो सकता है। लेकिन तात्कालिक संदर्भ में हमें एक वैकल्पिक आर्थिक मार्ग के लिए संघर्ष करना होगा जो वर्तमान आर्थिक कठिनाइयों को दूर करने में सहायता दे सकता है, सर्वतोमुखी विकास एवं वृद्धि को प्रोत्साहन दे सकता है और एक आत्मनिर्भर लोकतांत्रिक अर्थव्यवस्था का निर्माण कर सकता है। एक ऐसे वैकल्पिक मार्ग का तकाजा है:
- भूमि सुधारों, रोजगारोन्मुख योजनाओं के जरिये आंतरिक बाजार का विस्तार करना और कर्ज तथा विपणन सुविधाओं के जरिये स्वरोजगार को बढ़ाना;
- अधिक तेजी से उत्पादक ताकतों को विकसित करना और उन बेड़ियों को खत्म करना जो उनके विकास को रोकती हैं;
- आयात में कमी करना, खासकर अभिजन वर्ग के उपभोग की वस्तुओं के आयात में कमी करना और विदेशी मुद्रा बचाना;
- सार्वजनिक क्षेत्र का पुनर्गठन करना और उसका लोकतंत्रीकरण करना, उसे लागत के रूप में कारगर बनाना, प्रतियोगितात्मक एवं जवाबदेह बनाना जो सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध हो;
- विदेशी कर्ज के बोझ को कम करना और देश के कर्ज को पुनर्व्यवस्थित करना, विदेशी कर्ज को एक विवेकपूर्ण स्तर पर विदेशी निवेश में बदला जा सकता है;
- कर ढांचे का पुनर्गठन ताकि इसका अधिक बोझ बड़े भूस्वामी समेत समृद्ध तबकों पर पड़े, विकास के लिए आंतरिक संसाधनों को लामबंद करना;
- अर्थव्यवस्था का गैर- नौकरशाहीकरण करना, लालफीताशाही तथा केन्द्र में लाइसेंसिंग नियमनों के अभेद्य परतों को खत्म करना;
- औद्योगिक लागत मूल्य ब्यूरो को सक्रिय करना, आवश्यक औद्यागिक वस्तुओं के उत्पादन की लागत की जांच करना तथा लागत आडिट रिपोर्ट को प्रकाशित करना ताकि एकाधिकार कीमत एवं दर-मुनाफे पर अंकुश लगाया जा सके;
- उन्हीं उद्योगों में विदेशी निवेश को इजाजत देना एवं आमंत्रित करना जहां उच्च टेक्नालॉजी आवश्यक है या जो सर्वतोमुखी आर्थिक विकास के हित में विकास के लिए आवश्यक है;
- राज्य का हस्तक्षेप जहां कमजोर तबकों तथा पिछड़े क्षेत्रों के लिए आवश्यक हो; लोकतंत्रीकरण एवं विकेन्द्रीकरण के जरिये नियोजन प्रक्रिया का पुनर्गठन करना;
- कानाधन को निकालना, उन सभी खामियों को दूर करना तथा स्रोतों का उन्मूलन करना जो कालाधन पैदा करते हैं;
- छोटे, लघु एवं कुटीर उद्योगों तथा सही कोआपरेटिवों को आसान कर्ज एवं बाजार की सुविधाएं प्रदान करना तथा भारतीय एवं विदेशी इजारेदारियों के खतरे के खिलाफ गैर-एकाधिकार क्षेत्र के हितों की रक्षा करना।
इन कदमों के साथ ही हमारे देश के बेहतर पड़ोसीपन एवं घनिष्ट राजनीतिक संबंधों के सोपान के रूप में हमारे क्षेत्र के देशों और खासकर सार्क के देशों के साथ घनिष्ट आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक संबंध विकसित करना है। इसका लाभकारी प्रभाव पड़ेगा। इससे भारत को रक्षा-खर्च घटाने में भी मदद मिलेगी। इन देशों की अर्थव्यवस्था पूरक रही है और सदियों से घनिष्ट रूप से जुड़ी रही है। साम्राज्यवाद ने इन देशों के बीच अनबन को बनाये रखा है और इनमें प्रत्येक देश से अपनी शर्तों पर सौदा करने का प्रयास करता रहा है तथा इन देशों की अर्थ व्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाता रहा है। क्षेत्रीय सहयोग विकसित करके तथा एक नयी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था और व्यापार एवं निवेश की समान शर्तों के लिए संघर्ष में तेजी लाकर इन नीतियों का प्रतिकार किया जाना है।
परिवर्तित कृषि परिदृश्य
इस अवधि में उपनिवेशी सामंती कृषि ढांचे में काफी परिवर्तन हुआ है। देश के बड़े हिस्से में उत्पादन संबंध बदल गये हैं। इस तरह कृषि तरीके एवं फसल तथा फसल के ढ़ांचे भी। निवेश तथा उत्पादन बाजार, भूमि एवं श्रम बाजार में एक एकल राष्ट्रीय बाजार तेजी से उभर रहा है।
बिचौलिया काश्तकारी का उन्मूलन एक महत्वपूर्ण कदम रहा है। पर काश्तकारी तथा हदबंदी कानून जैसे अन्य भूमि सुधारों की काफी हद तक तोड़फोड़ की गयी है, इसका अपवाद केरल, पश्चिम बंगाल तथा जम्मू कश्मीर जैसे कुछ राज्य हैं जहां मूलगामी भूमि सुधार लागू किये गये हैं और कुछ अन्य क्षेत्र जहां शक्तिशाली जन-संघर्षों के फलस्वरूप भूमि सुधार कानूनों को आंशिक रूप से लागू किया जा सका। कृषि योग्य केवल एक प्रतिशत जमीन हदबंदी कानून के अंतर्गत वितरित की गयी। इसके फलस्वरूप भूमि का संकेन्द्रण अभी भी कायम है, हालांकि उसमें अनेक कारकों से काफी कमी आयी है। मध्य तथा पूर्वी भारत में उत्पादन का अर्ध-सामंती संबंध काफी मजबूत है।
पूंजीवादी सरकार ने अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण तथा कृषि में उत्पादन ताकतों को बढ़ाने के लिए ऋण एवं अन्य कोआपरेटिव ढांचे को मजबूत करने के साथ ही सिंचाई, कृषि बाजार, संचार आदि जैसे ग्रामीण आधारभूत ढांचे के विकास के लिए अनेक कदम उठाये हैं।
इसके लिए शासक वर्ग ने भूस्वामियों के दबाव तथा अपने वर्गीय हित में मझधार में ही भूमि सुधार का परित्याग कर दिया और कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए बीज-उर्वरक टेक्नालॉजी को लागू किया। इस मामले में साम्राज्यवादी दबाव ने भी कुछ भूमिका अदा की।
इस नयी कृषि राजनीति ने जो समृद्ध किसानों और समुन्नत क्षेत्रों पर आधारित है और जो असमान सामाजिक ढांचे पर थोपी गयी, इन सामाजिक एवं क्षेत्रीय असमानताओं को और बढ़ावा है तथा धनी किसानों एवं पूंजीवादी किसानों और ग्रामीण ढांचे पर उनकी पकड़ तथा उनके राजनीतिक प्रभाव और देश के सत्ता ढांचे में उनकी भागीदारी को काफी मजबूत किया है।
इन घटनाओं की वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक अंतविर्रोध बढ़ा है जिससे गंभीर सामाजिक संघर्ष हुए हैं। अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों एवं अन्य पिछड़े लोगों पर बढ़ता अत्याचार इसका प्रमाण है।
इन सामाजिक अंतविर्रोधों को कम करने के लिए “लघु किसान विकास एजेंसी“, “सीमांत किसान और खेत मजदूर विकास एजेंसिया”, “गरीबी निरोधी कार्यक्रम“, “रोजगार गारंटी योजना”, “आई आर डी पी कार्यक्रम”, आदि शुरू किये गये जिनका उद्देश्य बढ़ती असमानताओं को कम करना था।
इस तरह वर्तमान ग्रामीण ढांचे में एक ओर वर्तमान असमानता के बढ़ने की अंतविरोधीं प्रक्रिया तथा दूसरी ओर अन्य योजनाओं के जरिये उन्हें संतुलित करने की प्रक्रिया चल रही है।
आज जीवन का एक महत्वपूर्ण तथ्य सामने है और वह यह कि सामाजिक रूप से वंचित तबके जो सामाजिक तथा आर्थिक समानता एवं आत्म-सम्मान के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उच्च जाति के शोषकों एवं अन्य उत्पीड़कों के सामाजिक उत्पीड़न को सहन नहीं करने जा रहे हैं।
छोटे तथा सीमांत फार्मों का तेजी से विकास एक सकारात्मक पहलू रहा है, लेकिन कृषि क्षेत्र में एक चिंताजनक पहलू है स्वरोजगार में कमी, अकिंचनता में वृद्धि, खेत मजदूरों की आबादी में वृद्धि तथा कृषि पर अधिकाधिक लोगों की निर्भरता, जबकि 70 प्रतिशत श्रमबल अभी भी कृषि पर निर्भर है। खेत मजदूर पिछड़े क्षेत्रों से रोजगार की तलाश में विकसित राज्यों की ओर पलायन कर रहे हैं और अधिकाधिक शहरी क्षेत्रों की ओर जा रहे हैं।
हरित क्रांति टेक्नालॉजी के साथ ही खाद्यान्न की पैदावार बढ़ी है। छोटे किसानों की जीवन-क्षमता में सुधार हुआ है। 1950-51 की तुलना में खाद्यान्न की पैदावार में साढ़े तीन गुनी वृद्धि हुई है और इस तरह देश करीब आत्म-निर्भरता की स्थिति में पहुंच गया है हालांकि वर्तमान निम्न उपभोग की स्थिति में। कृषि विकास के फलस्वरूप कुछ हद तक हरित क्रांति क्षेत्रों में विविधीकरण हुआ है। क्षेत्रीय असमानताएं बढ़ी हैं।
अधिकांश क्षेत्रों में आजीविका कृषि की जगह बाजार की उन्मुखता के साथ ही आधुनिक वाणिज्यिक कृषि ने ले ली है और इस तरह लघु किसान अर्थव्यवस्था भी बाजार अर्थव्यवस्था के भंवर में फंस गयी है।
बाजार पर निर्भरता तथा कृषि उत्पादन का पण्यकरण और मुद्रा-वस्तु संबंधों में भी वृद्धि हुई है। ग्रामीण बाजार पर इजारेदारियों तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों की पकड़ और मजबूत हुई है तथा वे किसानों को लूटने के लिए बाजार की जोड़-तोड़ कर रहे हैं। असमान व्यापार के साथ ही विशाल संसाधनों को कृषि से औद्योगिक क्षेत्र में स्थानांतरित किया जा रहा है। विभिन्न सार्वजनिक वस्तु निगम भी बिचौलियों की लूट को खत्म करने में समर्थ नहीं हुए हैं।
आदिवासी लोगों की प्राकृतिक अर्थव्यवस्था भी वस्तु-मुद्रा तथा बाजार संबंधों का ग्रास बन गयी है और उनके बीच धीमा विभेदीकरण उत्पन्न हो गया है एवं उनका शोषण बढ़ गया है।
एक ओर हरित क्रांति टेक्नालॉजी और दूसरी ओर उर्वरक एवं कीटनाशक दवा जैसे कृषि निवेश पर अत्यधिक निर्भरता की वजह से हमारे कृषि क्षेत्र खासकर कृषि व्यवसाय के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रवेश हुआ है। 1980 के दशक में अपनायी गयी उदारीकरण की नीतियों से इस परिघटना में मदद मिली।
बीज-उर्वरक टेक्नालॉजी की वजह से पानी एवं उर्वरक की मांग काफी बढ़ गयी है। नयी किस्म के बीच जिसके लिए अधिक उर्वरक की जरूरत होती है, नाशक कीटों की चपेट में आ जाते हैं और परिणामतः इसके लिए अधिक कीटनाशक दवाओं की जरूरत होती है जिससे अंततः गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न होती हैं। लाखों हेक्टेयर कृषि भूमि जल-जमाव, खारेपन की वजह से निम्नकोटि की हो गयी और नाशक कीटों का स्वाभाविक प्रतिरोध करने वाली अनेक किस्म की परंपरागत फसलें विनष्ट हो गयीं।
इस अन्य ऊर्जा एवं अन्य लागत तथा सिंचाई आधारित टेक्नालॉजी को बदलने और नयी टेक्नालॉजी अपनाने की जरूरत है जो कम खर्चीली, अधिक उत्पादक हो तथा जो पर्यावरणीय संतुलन बनाये रखे एवं मिट्टी की बनावट तथा उर्वरकता में सुधार करे और जिसका दोनों सिंचाई तथा गैर-सिंचाई की स्थितियों में इस्तेमाल किया जा सकता है। इस संबंध में तेजी से विकासमान जैव-टेक्नालॉजी ने एक अच्छा अवसर प्रदान किया है।
सरकार को एक जैव-टेक्नालॉजी नीति का अनुसरण करने के लिए विवश किया जाना चाहिए जो हमारे देश के हित में होगा और जो रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक दवाओं पर कम निर्भरशील हो और जो छोटे किसान की ओर उन्मुख हो। हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव के सामने नहीं झुकना चाहिए और उनकी जैव-टेक्नालॉजी का आयात नहीं करना चाहिए एवं हमारे कृषि क्षेत्र में उनके मुक्त प्रवेश की इजाजत नहीं देनी चाहिए।
इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए पार्टी कृषि क्षेत्र में निम्ननिखित उद्देश्यों के लिए संघर्ष करेगी:
(1) कृषि क्षेत्र में सभी सामंती एवं अर्ध-सामंती अवशेषों का उन्मूलन और हदबंदी तथा काश्तकारी कानूनों का कड़ाई से कार्यान्वन तथा जमीन के सभी बेनामी कारोबार को रद्द करना और भूमि-उद्धार तथा सभी कृषि योग्य परती, अवक्रमित भूमि का वितरण और वन्य बंजर जमीन में वनरोपण।
(2) कृषि तथा खाद्यान्न पैदावार में तेजी से वृद्धि, अंतर-क्षेत्रीय असमानता में कमी, शुष्क भूमि कृषि के विकास पर जोर तथा मध्य एवं पूर्वी भारत में कृषि के विकास पर जोर। सिंचाई, ग्रामीण विद्युतीकरण, बाजार का विकास, सहायता प्राप्त कर्ज, संचार आदि, बहुद्देशीय नदी घाटी परियोजनाएं जो बाढ़ नियंत्रण, खारापन, तथा जन-प्लावन के निवारण, सिंचाई एवं विद्युत उत्पादन को सुनिश्तिच करे और बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण के लिए जो पारिस्थितिकीय संतुलन को बनाये रखे, आदि अनेक आधारभूतसुविधाओं के विकास के लिए विशाल सार्वजनिक निवेश।
(3) कृषि उत्पादों के लिए लाभाकारी कीमत, व्यापार के रूप में उद्योग तथा कृषि के बीच समानता बरकरार रखना और इजारेदारियों एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट काविरोध। कृषि को लाभकारी और सम्मानजनक पेशा बनाना।
(4) खेत मजदूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा, जीवन निर्वाह योग्य वेतन तथा जमीन की व्यवस्था करना और व्यापक केन्द्रीय कानून बनाना। काम के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाना और रोजगार या अर्ध-रोजगार भत्ते या उत्पादक स्व-रोजगार के लिए संसाधनों की अवश्य ही गारंटी करना। सामाजिक एवं जातीय उत्पीड़न के खिलाफ और विकेन्द्रीकृत तथा लोकतांत्रिक सत्ता के ढांचे के लिए संघर्ष।
(5) डेयरी, मुर्गी पालन फार्मिंग, रेशम-उत्पादन, सामाजिक वनरोपण, भेड़ पालन, बागवानी तथा मत्स्य पालन आदि सहायक व्यवसायों को प्रोत्साहित करके कृषि का विविधीकरण किया जाना चाहिए जो फसल के उत्पादन के बाहर रोजगार की व्यवस्था करेगा एवं उससे अतिरिक्त आमदनी होगी।
(6) ग्रामांचल में उद्योगों को बढ़ावा देना, छोटे, लघु तथा कुटीर उद्योगों खासकर कृषि उद्योगों को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया जाना चाहिए ताकि अभी कृषि पर निर्भर करने वाले श्रमबल के एक बड़े हिस्से को गैर-कृषि क्षेत्र में लाया जा सके। इस तरह कृषि क्षेत्र में लगी भीड़ को काफी कम किया जाना चाहिए और ग्रामीण जनता की आमदनी के स्तर को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
(7) कृषि क्षेत्र को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुले प्रवेश तथा मुक्त बाजार की ताकतों एवं प्रतियोगिता के लिए खोले जाने का जैसा कि विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने सुझाव दिया है, विरोध किया जाना चाहिए और छोटे तथा सीमांत किसानों की अर्थव्यवस्था को सभी सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए तथा कर्ज, पौध, बीज, उर्वरक की आपूर्ति समुचित टेक्नालॉजी एवं उत्पादों की बिक्री जैसे मामलों में तरजीही सुविधाएं देने के साथ ही अन्य आवश्यक कदम उठाये जाने चाहिए और इन फार्मों को कारगर एवं सक्षम बनाया जाना चाहिए। छोटे और सीमांत किसानों के बीच सहयोग के विभिन्न रूपों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। कुछ कृषि उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा देते हुए घरेलू बाजार के विस्तार को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
(8) सभी गरीबी-विरोधी तथा ग्रामीण विकास कार्यक्रमों एवं रोजगार के अवसर पैदा करने वाले कार्यक्रमों को कृषि विकास कार्यक्रमों के साथ जोड़ा जाना चाहिए और उन्हें लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित पंचायतों, जन-संगठनों तथा अन्य स्वैच्छिक एजेंसियों के जरिये चलाया जाना चाहिए। इनके कोषों के दुरुपयोग को रोका जाना चाहिए।
(9) बेहतर स्थानीय जैव-टेक्नालॉजी एवं जेनेटिक इंजीनियरिंग को विकसित किया जाना चाहिए जैसा कि पहले बताया जा चुका है।
जबकि आंतरिक अंतविर्राेध तेज हुआ और सामाजिक तनाव बढ़ा तो आपातकालीन व्यवस्थाओं का दुरुपयोग करते हुए, धारा 356 और 357 एवं राष्ट्रपति के अधिकारों तथा राज्यपाल की संस्थाओं का दुरूपयोग करते हुए लोकतांत्रिक अधिकारों और संस्थाओं पर हमले भी तेज हो गये हैं। अधिनायकवादी प्रवृत्तियां बढ़ने के साथ ही संसदीय मानदंडों तथा संस्थाओं पर हमले बढ़े हैं।
केन्द्र में लंबे समय तक एक पार्टी की सत्ता पर इजारेदारी के फलस्वरूप राज्यों के अधिकारों पर अतिक्रमण बढ़ा है तथा केन्द्र पर उनकी वित्तीय निर्भरता बढ़ी है। इन और दूसरी तरह से बढ़ती हुई एकात्मवादी प्रवृत्तियों के फलस्वरूप केन्द्र-राज्य संबंधों में भी बिगाड़ आयी है।
राजनीति के अपराधीकरण, चुनावी प्रक्रियाओं की विकृतियों तथा बढ़ रही लोकतंत्र-विरोधी प्रवृत्तियों की वजह से जन-प्रतिरोध भी बढ़ा है, लोकतांत्रिक चेतना बढ़ी है और लोकतांत्रिक अधिकारों का दावा भी बढ़ा है। पहले राज्यों में सत्ता पर एक पार्टी के एकाधिकार को तोड़ा गया और अब केन्द्र में भी। इसे पुनर्स्थापित करने में सफलता मिलने की संभावना नहीं है। और न ही वामपंथी पार्टियों को दबाते हुए दो दलीय प्रणाली का कदम ही सफल होगा। राज्यों में गैर-कांग्रेस सरकारें कायम रहेंगी, हालांकि संवैधानिक अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए उन पर लगातार हमला किया जाता रहा है। वामपंथ के नेतृत्व में सरकारों ने भी बने रहने का अधिकार हासिल कर लिया है। संसदीय प्रणाली को हटा कर राष्ट्रपति प्रणाली की सरकार स्थापित करने या उसका भीतरधात करने के प्रयासों को नाकाम कर दिया गया है। गंभीर सीमाओं एवं कमजोरियों के बावजूद संसदीय लोकतंत्र काम कर रहा है। उसकी रक्षा की जानी है एवं उसका विस्तार किया जाना है। इसके लिए चुनावी सुधार भी अत्यन्त आवश्यक हो गया है ताकि धनशक्ति और गुंडाशक्ति पर अंकुश लगाया जा सके।प्रतिक्रियावादी हमलों और अधिनायकवादी विकृतियों के खिलाफ संविधान के मूलतत्वों की रक्षा की जानी है। लेकिन कुछ अंतर्निहित खामियों तथा सीमाओं के बावजूद यह महसूस किया जाना चाहिए कि कमोबेश राज्य नीति के अधिकांश निर्देशक सिद्धांतों को जो धारा 39 में निहित है, आंशिक रूप से ही कार्यान्वित किया गया है या उनकी उपेक्षा की गयी है। इसलिए इन कुछ निर्देशक सिद्धांतों को मौलिक अधिकारों में हस्तांतरित करना और उन्हें लागू करने के लिए कारगर कदम उठाना, संविधान में प्रगतिशील संशोधन करना आवश्यक हो गया है ताकि उसे परिवर्तनों एवं नयी चुनौतियों और जन-आकांक्षाओं के अनुरूप बनाया जा सके।
राष्ट्रीय एकता पर बढ़ता खतरा
बढ़ती विखंडनकारी प्रवृत्तियों, सभी किस्म के हिन्दू, मुस्लिम एवं सिख संप्रदायवाद और बढ़ता सामाजिक एवं क्षेत्रीय तनाव तथा जातीय संघर्ष अधिकाधिक हमारे देश की एकता एवं अखंडता पर खतरा उत्पन्न कर रहा है।
शक्तिशाली सामंती अवशेष एवं निहित स्वार्थ जिन पर फैलते जन-जागरण से खतरा उत्पन्न हो रहा है, वोट बैंक, कैरियर तथा प्रतिक्रियावादी उद्देश्यों के लिए धर्म, जाति एवं क्षेत्रीय संबंधों तथा निष्ठा के दोहन, राजनीतिक और खासकर संसदीय लाभों के एक उपकरण के रूप में सांप्रदायिक भड़कावा और उत्तेजना, बेरोजगारों एवं निराश युवकों में वृद्धि, बढ़ती क्षेत्रीय असमानताएं तथा सामाजिक असमानताएं- ये सभी फूटवादी एवं उग्रवादी प्रवृत्तियों को चारा प्रदान करते हैं। समय पर लोकतांत्रिक आधार पर इन समस्याओं के समाधान में विफलता और या ऐसी प्रवृत्तियों तथा ताकतों द्वारा जो सामान्यतः धर्मनिरेपक्षता एवं राष्ट्रवाद का समर्थन करती हैं, अवसरवादी राजनीतिक लाभ उठाने के कदमों से फूटवादी ताकतों को ही बल मिलता है एवं पूरी समस्या और अधिक विकट हो जाती है। राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा और इन समस्याओं का समाधान अत्यंत फौरी कर्तव्य हो गया है।
अलगाववादी और आर.एस.एस.-भाजपा खतरा
घोर सांप्रदायिक ताकतें अधिकाधिक हिंसा का सहारा ले रही हैं और हमारे सामाजिक ढांचे पर खतरे उत्पन्न कर रही हैं। अलगाववादी मांगे जिनमें आतंकवाद ने भी योग दिया है जैसे “खालिस्तान”, “आजाद कश्मीर”, आदि अधिकाधिक सशक्त हो रही हैं। हाल ही में धार्मिक कट्टरतावाद तथा धर्मतंत्रवाद जिसमें सबसे अधिक भयानक एवं शक्तिशाली “हिंदुत्व” तथा “हिंदूराष्ट्र” है जिसे आर.एस.एस., विश्व हिंदू परिषद, भाजपा एवं शिवसेना द्वारा प्रचारित किया जा रहा है, देश की एकता और अखंडता, उसके धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक ढांचे, उसकी मिली-जुली संस्कृति की विरासत जिसे युगों तक निर्मित किया गया और हमारे समाज के ढांचे पर ही खतरे उत्पन्न कर रहा है। विदेशी साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा समर्थित इन सभी फूटवादी ताकतों को देश के सबसे घृणित प्रतिक्रियावादी निहित स्वार्थों द्वारा समर्थन दिया जा रहा है और उनका उपयोग किया जा रहा है।
अल्पसंख्यक संप्रदायवाद जो तंग एकांतिकता को ही बढ़ाता है, आर.एस.एस. एवं भाजपा को मजबूत बनाने में ही मदद देता है न कि वह उससे लड़ता है।
आर.एस.एस.-भाजपा ने जो रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मसले तथा कश्मीर को लक्ष्य बनाते हुए अभियान चला रहा है, धर्मनिरपेक्षता और भारतीय एकता पर ही गंभीर हमला शुरू कर दिया है। भारतीय इतिहास को विकृत करते हुए वे झूठे दावों द्वारा लोगों की आखांें में धूल झोंकते हैं और हिंदू राष्ट्रवाद को सही राष्ट्रवाद के रूप में पेश करते हैं तथा भारत की धार्मिक सहिष्णुता, सौहार्द एवं मानवीय बंधुत्व की युगों पुरानी परम्परा के विपरीत आक्रामक धर्मोन्माद तथा असहिष्णुता का प्रचार करते हैं। ये ताकतें न केवल जनता को विभाजित करती है बल्कि वे इतिहास के चक्के को पीेछे ले जाना चाहती है और सभी प्रगति तथा लोकतंत्र का विरोध करती है।
येे सभी घोर सांप्रदायिक ताकतें राजनीतिक उद्देश्यों के लिए धर्म का गलत अर्थ लगाती हैं और उसका दुरूपयोग करती हैं। कोई भी धर्म सांप्रदायिक दुश्मनी, घृणा तथा हिंसा का प्रचार नहीं करता है। इसके विपरीत धार्मिक कट्टरतावाद तथा मतांधता के समर्थकों द्वारा सहिष्णुता, सार्वभौम बंधुत्व और प्रेम की विरासत का भीतरघात किया जाता है तथा उसकी तोड़ फोड़ की जाती है। हमारी पार्टी को संयुक्त रूप से इन फूटवादी ताकतों का विरोध करने और धर्मनिरपेक्षता तथा सांप्रदायिक एकता की रक्षा करने के लिए जो बहुधर्मी भारत में राष्ट्रीय एकता की अवश्यक पूर्वापेक्षा है, सभी वामपंथी, देशभक्त तथा धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एकजुट करना है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सभी धर्मों के लिए पूजा करने की पूर्ण स्वतंत्रता, आवश्यक धार्मिक कृत्य करने तथा दूसरे धर्मो के प्रति किसी पूर्वाग्रह के बिना धार्मिक संस्थाओं को बढ़ाने की गारंटी का समर्थन करती है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सभी अलसंख्यकों के खिलाफ चाहे धार्मिक हों या जातीय, सभी तरह के परोक्ष या अपरोक्ष भेदभाव का दृढ़ता से विरोध करती है। हम धर्म तथा राज्य के अलगाव का समर्थन करते हैं और सांप्रदायिक घृणा एवं हिंसा पर अंकुश लगाने के वास्ते संयुक्त कार्रवाई के सिलसिले में सच्चे आस्तिकों के साथ बातचीत तथा सहयोग का समर्थन करते हैं। ऐसा सहयोग संभव और आवश्यक है।
जातिवाद और सामाजिक न्याय
एक सर्वाधिक घातक एवं प्रतिक्रियावादी सामंती अवशेष जिसका कुछ प्राचीन धर्मग्रंथो द्वारा भी समर्थन किया गया है, वह है जाति-प्रथा, शोषण तथा उत्पीड़न। वह अमानवीय सामाजिक अत्याचार का एक स्रोत हो गया है और प्रगति तथा लोकतंत्र के लिए एक बड़ा बाधक। उन महान संतों तथा समाज सुधारकों को तो यह श्रेय है कि उन्होंने उसकी असमानताओं को चुनौती दी और उत्पीड़न तथा वंचित जनता केविरोध को एक स्वर दिया। इन विविध सुधार आंदोलनों तथा विभिन्न आरक्षण नीतियों ने एक सकारात्मक भूमिका अदा की है और कुछ सुविधाएं प्रदान की हैं। लेकिन उस घातक प्रथा की जड़े कायम हैं। अनुभव ने उन दृष्टिकोणों की अपर्याप्तता को भी सामने ला दिया है जो आर्थिक पहलू पर एकांगी जोर देते हैं या कानूनी कदमों पर जिनमें अधिकांश कागजों पर ही पड़े हैं। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में समस्यााअें का समाधान करने के लिए सर्वतोमुखीं तथा मूलगामी कदम उठाने की जरूरत है। हमारी पूरी व्यवस्था में बुनियादी रूपांतरण की जरूरत है और उसके साथ ही विकास की तेज गति के साथ रोजगार की व्यवस्था, मूलगामी भूमि सुधार, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अन्य सामाजिक सुविधाओं के विस्तार, गरीबी दूर करने के कारगर कदमों, अनुसूचित जाति एवं पिछड़ी जातियों के लिए लाभकारी कानून के कार्यान्वयन की गारंटी तथा अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन एवं समर्थन की भी। जातीय उन्माद जिससे जातीय तनाव एवं संघर्ष, पैदा होता है, का प्रतिकार किया जाना है। सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष, जातीय उत्पीड़न एवं असमानता की समाप्ति के लिए संघर्ष लोकतंत्र तथा राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के लिए एक आवश्यक शर्त है। हमारा लक्ष्य जाति-प्रथा को जड़-मूल से उखाड़ फेंकना और एक जाति-विहीन समाज की दिशा में बढ़ना है।
महिलाओं का सवाल
लैंगिक असमानता और उस पर आधारित भेदभाव और उत्पीड़न तथा महिलाओं को घटिया दर्जा, ये सब दुर्गुण हमारे समाज में आज भी कायम हैं और उनसे महिलाएं पीड़ित हैं तथा ये एक अन्य घातक आदिमकालीन अवशेष हैं। विकासमान पूंजीवाद भी इसका इस्तेमाल करता है और समस्याओं को बढ़ाता है। हमारा समाज पुरुषों एवं महिलाओं के बीच इस आसमानता तथा दोहरे शोषण को जिससे महिलाएं पीड़ित हैं, खत्म किये बिना एक आधुनिक, लोकतांत्रिक एवं सभ्य समाज नहीं हो सकता है। इसके बिना और महिलाओं की सभी लोकतांत्रिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी के बिना कोई भी सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रांति संभव नहीं है। पुरुषों के साथ समान आधार पर आर्थिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी के लिए कारगर कदम उठाया जाना है, उसके लिए संघर्ष करना है तथा उसे लागू करना है। दहेज-विरोधी, सती-विरोधी तथा बाल विवाह-विरोधी जैसे कानूनों को केवल कागज पर ही नहीं रहना चाहिए बल्कि उन्हें कारगर एवं कठोर बनाया जाना चाहिए।
इनके अलावा महिलाओं के लिए संपत्ति का अधिकार, घरों से वंचित या परित्यक्ताओं के लिए कारगर पुनर्वास के कदम, विधवा-विवाह को प्रोत्साहन आदि भी अत्यंत आवश्यक है। जन चेतना जगायी जानी चाहिए और पुरुषों के अहं एवं प्रभुत्व का प्रतिकार किया जाना चाहिए।
बच्चे के जन्म से पहले और बाद में सवेतन अवकाश, शिशुशालाओं एवं नर्सरियों का व्यापक विस्तार अत्यंत आवश्यक है। समान कार्य के लिए समान वेतन, उन सभी अशक्ताओं को दूर करना जिनसे महिलाएं पीड़ित हैं, महिलाओं की मुक्ति और समाज में समान दर्जे के लिए उनके सभी आंदोलनों का समर्थन आदि को हमारे समाज के लोकतांत्रीकरण के संघर्ष के एक हिस्से के रूप में सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
भाषा समस्या
सभी भाषाओं की समानता होनी चाहिए। राज्यों में प्रशासन तथा शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी की जगह भारतीय भाषाओं को पूरी तरह प्रतिस्थिापित किया जाना चाहिए और सभी राज्यों को सरकारी विभागों, सार्वजनिक संस्थाओं तथा कानून की आदलतों में आंतरिक प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए अपनी भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए। उसे सभी स्तरों पर शिक्षा का माध्यम होना चाहिए। उर्दू भाषा तथा लिपि की उन राज्यों तथा इलाकों में अवश्य ही रक्षा की जानी चाहिए जहां उसका परंपरागत इस्तेमाल होता है। संविधान की आठवीें अनुसूची में मणिपुरी तथा नेपाली भाषाओं को शामिल किया जाना चाहिए। विभिन्न राज्यों में भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा में शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था की जानी चाहिए। अखिल भारतीय सेवाओं के लिए सभी प्रतियोगात्मक परीक्षाएं संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में ली जानी चाहिए। भाषााअें को शामिल करने की समुचित मांग का प्रतिरोध नहीं किया जाना चाहिए जैसा कि अभी किया जा रहा है।
जातीयता और आदिवासी समस्या
जातीय समस्या हमारे बहु-भाषाई तथा बहु-जातीय देश में एक महत्वपूर्ण समस्या है। भाषाई पुनर्गठन के बावजूद अभी अनेक समस्याएं कायम हैं। छोटी जातियां तथा आदिवासी जनगण में नयी चेतना जागृत हो रही है और वे अपनी भाषा तथा संस्कृति के विकास एवं राजनीतिक अधिकारों और पहचान की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे हैं। 1991 की जनगणना से यह संकेत मिलता है कि करीब 3000 भाषाएं एवं बोलियां है और केवल 59 भाषाओं को ही शिक्षा के लिए स्वीकार किया गया है। अपनी पहचान तथा अपने स्वायत्त राज्य के लिए आदिवासी जनगणों के आंदोलनों ने एक नया आयाम ग्रहण कर लिया है। झारखंड राज्य, बोडोलैंड तथा स्वायत्त राज्य के लिए जिसमें उत्तरी कछार-मिकिर पहाड़ी क्षेत्र शामिल हो, आंदोलन जन आंदोलन हो गया है और केन्द्र को समाधान ढूंढ़ने के लिए बातचीत शुरू करनी है। ऐसे और नारे एवं आंदोलन अस्तित्व में आने वाले हैं। अनेक राज्यों में आदिवासी आबादी का एक अच्छा प्रतिशत है।
केन्द्र-राज्य संबंधों का पुनर्गठन
इस फैसतेे आदिवासी जागरण के साथ ही वर्तमान राज्य राज्यों के अधिकारों पर केन्द्र के दखल तथा वित्तीय अधिकारों और संसाधनों के गभीर अभाव पर काफी आंदोलित है क्योंकि इसके बावजूद विकास की पूरी जिम्मेवारी उन्हीं पर है।संवैधानिक व्यवस्थाओं का दुरुपयोग करके और संशोधनों तथा अन्य कदमों से केन्द्र ने अपने हाथ में अधिकाधिक अधिकार केन्द्रित कर लिया है और वह एकात्मक दिशा में बढ़ा है, न कि संघीय दिशा में। इससे सभी बड़े और छोटे राज्यों को अधिक अधिकार तथा अधिक प्रशासनिक, राजनीतिक एवं वित्तीय स्वायत्तता देने की लगातार मांग उठने लगी। हमारी पार्टी राष्ट्रीय एकता और एक मजबूत केन्द्र का समर्थन करती है। पर उसे यह विश्वास है कि संघीय सिद्धांतों के आधार पर ही हमारे देश की एकता निर्मित की जा सकती है और उसकी रक्षा की जा सकती है।
इसलिए पार्टी मांग करती है कि संघीय सिद्धांतों पर केन्द्र-राज्य संबंधों का पुनर्गठन किया जाये और संविधान में संशोधन किया जाये। संघ तथा राज्यों के बीच अधिकारों के आवंटन में मूलगामी संशोधन (वित्तीय संसाधन भी) अत्यंत आवश्यक है जिसमें राज्यों को अधिक स्वायत्तता दी जाये।
आदिवासी जनगणों एवं अन्य जातीय समूहों तथा ग्र्रुपों की आकांक्षाओं को पूरा करने के वास्ते राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था करने के लिए संविधान में संशोधन किया जाना है। उन सभी क्षेत्रों को जहां आदिवासी जन रहते हैं और जहां वे बहुमत में हैं या एक सबसे बड़े गु्रप हैं, वर्तमान राज्य के अंतर्गत एक तरह की क्षेत्रीय स्वायत्तता दी जानी चाहिए या भारतीय संघ की अंगीभूत इकाई के रूप में राज्य का दर्जा दिया जाना चाहिए तो खास आदिवासी क्षेत्रों में विकास के चरण, चेतना तथा अन्य परिस्थितियों पर निर्भर करता है। झारखंड राज्य और उत्तराखंड जैसी मांगों को अविलंब स्वीकार किया जाना चाहिए। आदिवासी जनों को अवश्य ही वन उत्पादों का इस्तेमाल करने की इजाजत दी जानी चाहिए और उनके कब्जे या दखल की जमीन को पूरी सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए। उन्हें अविलंब पट्टा दिया जाना चाहिए और वन कानून में समुचित संशोधन किया जाना चाहिए।
वैज्ञानिक और प्राविधिक क्रांति
भारत औद्योगिक क्रांति में भाग नहीं ले सका क्योंकि वह एक उपनिवेश था और उस समय निष्ठुर साम्राज्यवादी शोषण का शिकार था। बाद में वह केवल आंशिक रूप से ही उसमें भाग ले सका और वह इस क्षेत्र में गंभीर रूप से पीछे है। पूंजीवाद-पूर्व के शक्तिशाली अवशेषों एवं असंतुलित पूंजीवादी विकास के साथ उसके बहु-संरचानात्मक समाज को वर्तमान वैज्ञानिक एवं प्राविधिक क्रांति की नयी चुनौती का सामना करना है।
आजादी के बाद भारत में विज्ञान तथा प्रविधि में काफी प्रगति की है, हालांकि अभी हमें बहुत कुछ करना है। हम समझते हैं कि प्राविधिक प्रक्रिया को जो वैज्ञानिक एवंप्राविधिक क्रांति की देन है, सबसे पहले हमारे लोगों की जरूरतों को पूरा करना चाहिए और फिर उनके जीवन एवं पर्यावरण की बेहतरी के लिए काम करना चाहिए।
विकास के पूंजीवादी पथ ने, जिसे हमारे देश में पूंजीपति वर्ग ने अपनाया, वैज्ञानिक एवं प्राविधिक क्रांति से समाज के अभिजन वर्गों की जरूरतों को पूरा किया। जबकि हम रक्षा उत्पादन, मशीनी-पुर्जा कार्यक्रम तथा इलेक्ट्रानिक्स और कृषि उत्पादन के सीमित क्षेत्रों में प्रगति कर सके हैं, लेकिन हमारी सामान्य औद्योगिक उदत्पादकता अभी भी निम्न है। वैज्ञानिक एवं प्राविधिक कमियों की योग्यता का उपयोग विकास कार्यक्रमों के लिए नहीं किया गया है और सामान्य रूप से विज्ञान एवं प्रविधि के लाभों का प्रभाव बहुमत के जीवन पर बहुत कम पड़ा है।
सरकार की नयी आर्थिक नीतियों जिसने बड़े पैमाने पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आने की इजाजत दी है और उद्योगों के संबंध में उदारीकरण के कदमों ने प्रविधि के मामले में अनेक सवाल खड़े कर दिये हैं। जबकि हम अपने राष्ट्रीय आर्थिक जीवन में आधुनिकतम टेक्नालॉजी के प्रवेश का स्वागत करते हैं, लेकिन हमारी यह भी राय है कि ऐसी सभी प्रविधि से सस्ता भोजन, कपड़ा, मकान प्राप्त होना चाहिए और जनता के विशाल बहुमत को रोजगार मिलना चाहिए।
यह अनुभव रहा है कि सामान्यतः विज्ञान तथा प्रविधि श्रम बचाती है और इसमें अधिक पूंजी लगती है। यह आवश्यक है कि ऐसी प्रविधि को इजाजत नहीं दी जाये जो मजदूरों को फालतू एवं बेरोजगार बना दे। सहायक उद्योगों में पुनः पूंजी लगाने का कदम उठाया जाना चाहिए और औद्योगिक तथा सेवा क्षेत्रों में विज्ञान एवं प्रविधि लागू करने के फलस्वरूप विस्थापित हुए कर्मियों को पुनर्प्रशिक्षिण दिया जाना चाहिए। ऐसा सुनियोजित तथा चरणबद्ध तरीके से किया जाना चाहिए। वास्तव में हम आयातित प्रविधि को आत्मसात नहीं कर पाते हैं और एक लंबे समय तक बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर ही भरोसा करते हैं या हम पुरानी प्रविधि ही प्राप्त करते हैं। इसे टालने के लिए आयातित प्रविधि को आत्मसात करने और खास समय में विदेशी सहयोग से प्राप्त अनुभव का उपयोग करने के लिए एक औद्योगिक आधार पर निर्माण किया जाना चाहिए।
तेज गति से स्थानीय वैज्ञानिक एवं प्राविधिक आधारभूत ढांचे का विकास हमारे देश की प्रगति के लिए आवश्यक है। इसके लिए और आत्म-निर्भरता के आधार पर हमारे राष्ट्रीय संसाधनों के पुननिर्माण के व्यापक कर्त्तव्य को पूरा करने के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सरकार द्वारा पर्याप्त कोष के आवंटन के लिए संघर्ष करेगी।
नयी प्रविधि के प्रयोग के अनेक मामलों में स्वास्थ्य के लिए खतरा उत्पन्न हो रहा है। मानव जीवन तथा पारिस्थितिकी पर दीर्घकालीन पर्यावरण प्रभाव के संबंध में चिन्ता होनी चाहिए और नियोजन तथा लाइसेंसिंग कार्यविधि में भी इसे प्रतिफलित होना चाहिए। औद्योगिक लाइसेंस को अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए यदि वे खास पर्यावरण सुरक्षा मानदंडों का अनुपालन नहीं करते हैं। पर्यावरण प्रदूषण कानूनों को मजबूत बनाया जाना चाहिए और बड़ी कड़ाई से उन्हें लागू किया जाना चाहिए।
वैज्ञानिक तथा प्राविधिक क्रांति ने मजदूर वर्ग की संरचना में काफी परिवर्तन ला दिया है। भौतिक उत्पादन में सीधे लगे मजदूरों की तुलना में सेवा तथा संचार उद्योगों में कार्यरत मजदूरों की संख्या में अपेक्षाकृत वृद्धि हुई है। ह्वाइट कॉलर मजदूर, टेक्निशियन, इंजीनियर एवं विशेषज्ञ भौतिक उत्पादन के क्षेत्र में अधिकाधिक भाग लेते हैं और अधिकांश रोजमर्रे के कार्य करने वाले अकुशल मजदूरों की संख्या भी बढ़ी है जिसका यह तकाजा है कि एक नया ट्रेड यूनियन दृष्टिकोण अपनाया जाये ताकि उन्हें एक सामान्य आंदोलन में शामिल किया जा सके। एक पूंजीवादी व्यवस्था में इजारेदार ग्रुपों के क्षुद्र हितों को पूरा करने के लिए प्रविधि के दुरुपयोग ने वास्तविक खतरा उत्पन्न कर दिया है। स्थानीय पोषक प्रविधि के साथ नयी प्रविधि तभी लाभकारी हो सकती है यदि समुचित संस्थागत और संरचनात्मक परिवर्तन करके खतरे का मुकाबला किया जाये। इन परिस्थितियों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्राथमिक कर्तव्य अन्य लोकतांत्रिक ताकतों के साथ मिलकर इन संस्थागत और संरचनात्मक परिवर्तनों के लिए संघर्ष करना है।
पर्यावरण की सुरक्षा
जल और वायु का प्रदूषण, जघन्य वन कटाई, वन्य जीवन की अधांधुंध हत्या, बढ़ता हुआ औद्योगिक प्रदूषण तथा वाहनों के उत्सर्जन से वायुमंडल में जहर का फैलाव आदि जिन्दगी तथा स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा उत्पन्न कर रहा है। हमें पर्यावरण की सुरक्षा के लिए विभिन्न आंदोलनों के प्रति सकारात्मक एवं सहयोगात्मक रुख अख्तियार करना चाहिए और दोनों राष्ट्रीय तथा भूमंडलीय स्तर पर इस गंभीर समस्या के समाधान के लिए सक्रिय कार्य करना चाहिए और सरकारी तथा गैर-सरकारी स्तर पर दोनों अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन कदम उठाना चाहिए तथा कार्रवाई करनी चाहिए।
विदेश नीति कर्तव्य
विदेश नीति के क्षेत्र में प्रारंभिक हिचकिचाहट तथा समझौतों पर काबू पा लिया गया क्योंकि वह स्वतंत्र विकास की अनिवार्यता थी। विदेश नीति एक स्वतंत्र उपनिवेशवाद-विरोधी दिशा में आगे बढ़ी। शीघ्र ही उन ताकतों के साथ सहयोग की दृढ़ विदेश नीति अपनायी गयी जो विश्व शांति, निरस्त्रीकरण तथा एक समान आधार पर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए संघर्ष कर रही थीं और उसके साथ ही मुक्ति संघर्षों के साथ एकजुटता, गुटनिरपेक्ष आंदोलन के निर्माण में सक्रिय भूमिका, समाजवादी देशों, खासकर सोवियत संघ और नवस्वतंत्र देशों के साथ मैत्री एवं सक्रिय सहयोग की नीति अपनायी गयी।
कश्मीर, गोवा में साम्राज्यवादी दुरभिसंघि, दिएगो गार्सिया में सैनिक अड्डे के अनुभवों और समाजवादी देशों के साथ गंभीर सहयोग तथा तीसरी दुनिया के देशों के साथ संयुक्त संघर्ष के लाभों ने प्रगतिशील विदेश नीति के लिए ठोस लोकप्रिय आधार प्रदान किया। इसके फलस्वरूप भारत को लोकतांत्रिक एवं स्वतंत्र अंतर्राष्टीय संबंध बनाने, इस क्षेत्र में एक प्रमुख भूमिका अदा करने तथा गुटनिरपेक्ष आंदोलन का निर्माण करने और प्रतिष्ठा एवं सम्मान हासिल करने में मदद मिली।
आज परिवर्तित स्थिति और शक्तियों के नये संबंधों तथा नयी विश्व प्रवृत्तियों में यह और अधिक महत्वपूर्ण हो गया है कि इस नीति की दिशा को बरकरार रखा जाये, व्यापक सहयोग विकसित किया जाये तथा अधिक समान आधार पर अंतर्राष्ट्रीय संबंधों एवं विदेश व्यापार का विस्तार किया जाये और एक नयी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लिए सुसंगत रूप से संघर्ष किया जाये तथा वर्तमान असमान विश्व वित्तीय व्यवस्था में सुधार किया जाये। दक्षिण-दक्षिण सहयोग को विकसित करने के लिए सुसंगत प्रयासों को और तेज किया जाना चाहिए। गुटनिरपेक्ष आंदोलन को शांति एवं राष्ट्रीय आजादी को और अधिक दृढ़ता से समर्थन देना चाहिए तथा नवउपनिवेशवाद का और सशक्त प्रतिरोध किया जाना चाहिए।
आज चीन, क्यूबा, वियतनाम तथा कोरिया लोक जनवादी गणतंत्र आदि के साथ घनिष्ठ सहयोग एवं मैत्री ने अधिक महत्व ग्रहण कर लिया है। एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमरीका के देशों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
पड़ोसी देशों (खासकर पाकिस्तान और बंगलादेश) के साथ क्षेत्रीय सहयोग बढ़ाने एवं संबंध सुधारने और सार्क को मजबूत बनाने के लिएअधिक प्रयासों की जरूरत है।
इस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कर्तव्य है संयुक्त राष्ट्र का लोकतांत्रीकरण एवं उसे और मजबूत बनाने तथा उसके ढांचे में संरचनात्मक परिवर्तन लाने के लिए कार्य करना, उसे साम्राज्यवादी दबाव से मुक्त करना (परोक्ष या अपरोक्ष) और उसकी शांति-कामी भूमिका को सुनिश्चित करना। हथियार और युद्ध विहीन विश्व के लक्ष्य के लिए यह आवश्यक है कि संयुक्त राष्ट्र को और अधिक मजबूत किया जाये, उसमें सभी देशों को समान दर्जा प्रदान किया जाये तथा सुयंक्त राष्ट महासभा के प्रस्तावों एवं निर्णयों को समुचित सम्मान देकर तथा नियमित सलाह-मशविरा के जरिये संयुक्त राष्ट्र की नीति-निर्माण प्रक्रिया में गैर-सरकारी संगठनों को भाग लेने की संभावना प्रदान करके उनकी लोकतांत्रिक भागीदारी को सुनिश्चित किया जाये। सुरक्षा परिषद की भूमिका की अवश्य ही समीक्षा की जानी चाहिए ताकि महासभा की सहमति के बिना शांति एवं सुरक्षा के महत्वपूर्ण मसलों पर सदस्य देशों के एक छोटे तबके को निर्णय लेने की इजाजत नहीं दी जा सके। “स्थायी सदस्यों” के ग्रुप की सीमित संरचना में भी इस विश्व निकाय के सर्वव्यापक स्वरूप के अनुरूप परिवर्तन किये जाने की जरूरत है।
सुसंगत लोकतंत्र के लिए
इस बात पर जोर देते हुए कि समाजवाद हमारा अंतिम लक्ष्य है, पूंजीवाद का विकल्प है और गरीबी, बेरोजगारी, निरक्षता, घोर असमानता, वर्ग शोषण एवं सामाजिक उत्पीड़न जैसी समस्याओं का कारगर ढंग से समाधान करने का रास्ता है, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आज सुसंगत लोकतंत्र, सभी क्षेत्रों- आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में समस्त सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के लोकतांत्रिक पुनर्गठन के लिए संघर्ष पर अत्यधिक जोर देती है। आज भारत की ठोस परिस्थितियों में इसका अर्थ हैः
- इजारेदारियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर अंकुश लगाना तथा उनका नियमन करना, नव-उपनिवेशवादी घुसपैठ और हमले का प्रतिकार करना;
- सभी सामंती अवशेषों को समाप्त करना। मूलगामी भूमिसुधार, जातीय शोषण एवं उत्पीड़न तथा पुरुषों एवं महिलाओं के बीच असमानता को समाप्त करने के लिए कारगर कदम, सूदखोरी एवं कर्ज-दासता को खत्म करने के लिए कारगर कदम;
- सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार एवं लोकतंत्रीकरण, गुप्त मतदान के जरिये निर्वाचित प्रतिनिधियों के साथ प्रबंध में मजदूरों की भागीदारी, मजदूरों की पहलकदमी तथा उत्पादकता बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन और “कार्यसंस्कृति” को बढ़ावा;
- किसान उत्पादकों के आपराधिक पूंजीवादी शोषण पर अंकुश लगाना, कृषि उत्पादों के लिए लाभकारी कीमत की व्यवस्था और खेत मजदूरों के लिए व्यापक वेतन कानून;
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली का व्यापक विस्तार, छोटे व्यापारियों का इस्तेमाल करना, लेकिन उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए लोकप्रिय समितियों का गठन किया जाये;
- स्वैच्छिक सही कोआपरेटिवों को प्रोत्साहन, छोटे उद्यमियों, उद्योग में मजदूरों एवं परंपरागत हस्तशिल्प तथा स्व-रोजगार में लगे लोगों को प्रोत्साहन;
- सबों के लिए समुचित स्वास्थ्य एवं आवास के लिए कारगर कदम, सार्वजनिक आवास के लिए शहरी जमीन पर हदबंदी, सभी गांवों में पेयजल की व्यवस्था;
-मजदूरों और कर्मचारियों के लिए न्यूनतम जीवन निर्वाह वेतन, सामाजिक सुरक्षा एवं अन्य टेªड यूनियन अधिकारों को सुनिश्चित करना;
- सार्वजनिक क्षेत्र तथा सभी केन्द्रीय, राज्य एवं स्थानीय स्व-शासन संस्थाओं (जैसे-कार्पोरेशनों, म्युनिसिपैलिटियों, पंचायतों आदि) में मजदूरों तथा कर्मचारियों को राजनीतिक एवं लोकतांत्रिक अधिकार प्रदान करना, जिसमें सभी निर्वाचित निकायों के लिए चुनाव लड़ने का भी अधिकार शामिल है और नियुक्तियों, प्रोन्नतियों एवं सेवा दशा के सबंध में उनकी प्रथम मांगों का कार्यान्वयन भी शामिल हैं;
- वेतन, आवास, बच्चों की शिक्षा तथा पर्याप्त पेंशन के लिए समुचित कदम (एक रैंक-एक पेंशन) के संबंध में सेना के लोगों की मांगों को पूरा करना। और सेवानिवृत्ति के बाद पुनर्वास के मामले में अर्धसैनिक बल तथा पुलिस समेत सशस्त्र सेना के सदस्यों के लिए शालीन स्तर को सुनिश्चित करना।
राजनीतिक ढांचे का लोकतंत्रीकरण
इस क्षेत्र में इन कर्तव्यों के साथ महत्वपूर्ण राजनीतिक कर्तव्यों को निम्नलिखित रूप से निरूपित किया जा सकता है:
- लोकतंत्र को सुदृढ़ करना एवं उसका विस्तार करना, लोकतांत्रिक संस्थाओं को साफ-सुथरा करना तथा लोकतांत्रिक मानदंडों एवं मूल्यों को लागू करना, सभी कठोर कानूनों एवं लोकतांत्रिक अधिकारों पर सभी रोक को खत्म करना, चुनावी सुधार जिसमें समानुपातिक प्रतिनिधित्व शामिल है, गुंडाशक्ति एवं धनशक्ति पर रोक लगाना और मतदाताओं के लिए स्वतंत्र रूप से अपने मताधिकार का प्रयोग करने की व्यवस्था करना तथा उनके वास्तविक प्रतिनिधित्व एवं इच्छा की अभिव्यक्ति को सुनिश्चित करना;
- देश के धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ढांचे की रक्षा करना और मजबूत करना। सभी धर्मांे के लिए पूजा करने एवं अपने आवश्यक धार्मिक कृत्यों का अनुपालन करने की स्वतंत्रता की गारंटी करना और दूसरे धर्मों के प्रति बिना किसी पूर्वाग्रह के धार्मिक संस्थाओं को बढ़ावा देना। अल्पसंख्यकों को वे जहां कहीं भी हों, पूर्ण गारंटी एवं सुरक्षा प्रदान करना, राजनीतिक जीवन के किसी क्षेत्र में धार्मिक विश्वास या मत के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करना, राज्य और धर्म को अलग करना;
- सभी जातियों के लिए तथा पुरुषांे एवं महिलाओं के बीच समान स्तरों और अवसरों के साथ सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए कारगर कदम उठाना;
- काम के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने के अलावा युवकों के लिए रोजगार के अवसरों के विस्तार के लिए फौरी कदम उठाना, शिक्षा, खेल-कूद तथा सांस्कृतिक कार्यकलाप एवं अन्य कल्याण योजनाओं, लोकतांत्रिक और लोकप्रिय शिक्षा प्रणाली को सुनिश्चित करना;
- सच्चे संघीय आधार पर केन्द्र-राज्य संबंधों का पुनर्गठन करना, (संघ) और राज्यों के बीच अधिकारों का मूलगामी पुर्नआवंटन करना जिसमें राज्यों को पूर्व अवशिष्ट अधिकार तथा पूर्ण स्वायत्तता, राजनीतिक, प्रशासनिक एवं वित्तीय अधिकार प्राप्त हों जो भारत की एकता तथा लोकतांत्रिक आधार पर एक मजबूत केन्द्र के अनुरूप हो। जिला तथा स्थानीय निकायों को सत्ता का हस्तांतरण एवं विकेन्द्रीकरण जिसका लक्ष्य विकासगत और प्रशासनिक कार्य में सक्रिय भागीदारी के लिए आम जनता को शामिल करना है;
- नौकरशाही, लालफीताशाही एवं भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना, उसे सही बनाने के लिए कारगर कदम उठाना जिसमें ऊपर से नीचे तक का हिस्सा शामिल है। नौकरशाही तंत्र में मूलगामी सुधार तथा उसे चुस्त-दुरुस्त करना और उसे जनता के प्रति अधिक जवाबदेह बनाना;
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता, भाषण, प्रेस, समामेलन तथा अंतःकरण की स्वतंत्रता की रक्षा करना और विपक्षी पार्टियां बनाने का अधिकार प्रदान करना, बशर्ते कि वे संवैधानिक ढांचे के अंदर कार्य करें।
शिक्षा और संस्कृति
राष्ट्रीय प्रगति और सामाजिक रूपांतरण के लिए एक आवश्यक शर्त है जन-साक्षरता और लोकप्रिय शिक्षा, वैज्ञानिक ज्ञान एवं संस्कृति का बढ़ता स्तर। इसका तकाजा है कि वर्तमान राष्ट्रीय शिक्षा नीति को समाप्त किया जाये जो उच्च वर्गों के हितों को पूरा करने की दिशा में उन्मुख है। जन शिक्षा की कीमत पर अभिजन शिक्षा को बढ़ावा देने की नीति को उलटा जाना है और एक वैकल्पिक लोकप्रिय शिक्षा नीति तैयार की जानी है और उसे लागू किया जाना है। प्राथमिक शिक्षा का अवश्य ही विकेन्द्रीकरण किया जाना चाहिए। अनौपचारिक शिक्षा को अवश्य ही सुदृढ़ किया जाना चाहिए और उसे इस तरह से सांगठित किया जाना चाहिए जिससे मेहनतकश जनता को भी शिक्षित किया जा सके। पाठ्यक्रम अवश्य ही राष्ट्रीय विकास की जरूरतों एवं जनता की व्यावहारिक जरूरतों से संबंधित होना चाहिए और उसके साथ ही उसे मानविकी तथा विज्ञान में अभिरुचि जागृत करनी चाहिए।
हमारे सृजनात्मक सांस्कृतिक जीवन का लोकतंत्रीकरण करने, उसे जीवंत एवं समृद्ध बनाने की जरूरत है। इसके लिए एक राष्ट्रीय संस्कृति नीति की जरूरत है जो हमारी मूल्यवान संस्कृतिक विरासत और मानव सभ्यता द्वारा निर्मित समस्त सांस्कृतिक संपदा तथा हमारे भाषाई एवं जातीय ग्रुपों की बहुमुखी संस्कृति को समन्वित करती हो। भारत की प्रगतिशील विरासत और मिली-जुली संस्कृति पर प्रतिक्रियावादी एवं हृासोन्मुख सांस्कृतिक हमले के खिलाफ रक्षा की जानी है। यह कर्तव्य आज और अधिक आवश्यक हो गया है क्योंकि साम्राज्यवाद नियंत्रित बहुराष्ट्रीय मीडिया संगठनों का हमारे जन-प्रचार माध्यमों पर हमला बढ़ गया है जो वास्तविकता को विकृत करते हैं। वे हमारे दिमाग का उपनिवेशीकरण करने तथा हमें स्वयं हमारी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से अलग करने का प्रयास करते हैं। नये संगठनात्मक रूपों का उपयोग करते हुए और राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय एकता एवं सांप्रदायिक सौहार्द तथा विवेकपूर्ण चिन्तन की हमारी परंपरा और सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक न्याय के लिए उत्कट आकांक्षा को आगे बढ़ाते हुए एक नया व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन अवश्य ही निर्मित किया जाना चाहिए। सत्यनिष्ठा को कायम रखते हुए जीवन और जनता ही उसका आधार होना चाहिए।
वर्गीय पंक्तिबद्धता
समस्त लोकतांत्रिक साम्राज्यवाद-विरोधी, इजारेदार-विरोधी, एवं सामंत-विरोधी ताकतों को लामबंद किया जाना चाहिए और व्यापकतम लोकतांत्रिक एकता निर्मित की जानी चाहिए। कार्यनीति तैयार करते हुए मजदूर वर्ग, खेत मजदूरों, किसानों, सभी अन्य मेहनतकश तबकों, बुद्धिजीवियों एवं मध्यम वर्ग और उसके साथ ही गैर-इजारेदार राष्ट्रीय पूंजीपतिवर्ग की भूमिका को पूरी तरह ध्यान में रखा जाना चाहिए। खेत मजदूरों और बुद्धिजीवियों की बड़ी संख्या एवं बढ़ी हुई भूमिका को भीध्यान में रखा जाना चाहिए। वर्ग गठबंधन के आधार के रूप में मजदूर-किसान गठबंधन की निर्णायक भूमिका को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
आर्थिक, राजनीतिक एवं सैद्धांतिक स्तर पर जन अभियान, कार्रवाई तथा संघर्ष चलाकर ऐसी एकता एवं व्यापक वर्ग गठबंधन निर्मित किया जा सकता है। प्रतिक्रियावादी एवं सांप्रदायिक-फूटवादी ताकतों का पर्दाफाश करते हुए और उन्हें अलग-थलग करते हुए, वामपंथी ताकतों को काफी सुदृढ़ करते हुए तथा सभी धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक ताकतों को एकजुट करते हुए लोकतांत्रिक ताकतों के पक्ष में शक्तियों के सहसंबंध में बुनियादी परिवर्तन आवश्यक है।
वामपंथ की भूमिका
सभी वामपंथी पार्टियां, ताकतों तथा तत्वों जिनमें वे वामपंथी पार्टियां भी शामिल हैं जो “वामपंथी मोर्चे” में अभी सम्मिलित नहीं है, सोशलिस्ट तथा बुद्धिजीवियों एवं अलग स्वतंत्र वामपंथियों के बीच कार्रवाईगत एकता के साथ वामपंथ को व्यापक रूप से मजबूत किया जाना है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और नक्शलवादियों के बीच ऐसे तत्वों जो कम्युनिस्ट एकता के समर्थक हैं, के बीच एकता से वामपंथ के सुदृढ़ीकरण और सहयेाग में बड़ी सहायता मिलेगी।
लोकतांत्रिक जन संगठनों का एकीकरण एक महत्वपूर्ण कर्तव्य है जिससे समाज में तथा फैक्टरियों और खेतों के मजदूरों, युवकों, महिलाओं, शिक्षकों एवं छात्रों की भूमिका काफी बढ़ जायगी।
समाज सुधार संगठनों और सामाजिक कार्रवाई ग्रुपों को भी जो सामाजिक न्याय का समर्थन करते हैं, लामबंद किया जाना है।
एक वामपंथी और लोकतांत्रिक विकल्प निर्मित करने के लक्ष्य के साथ वर्गीय तथा राजनीतिक ताकतों के सहसंबंधों में परिवर्तन लाया जाना है। केन्द्र में सत्ता प्राप्त करना बुनियादी कर्तव्यों को लागू करने की दिशा में एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रगति होगी।
उपर्युक्त कर्तव्यों को कार्यान्वित करने तथा उसके लिए व्यापकतम सहयोग एवं एकता निर्मित करने में वामपंथ की भूमिका से उसकी प्रतिष्ठा तथा शक्ति में वृद्धि होगी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इन जिम्मेवारियों को पूरा करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगी।
शांतिपूर्ण पथ की संभावना
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ऐसी लोकतांत्रिक सत्ता तथा सुसंगत रूप से एक लोकतांत्रिक समाज हासिल करने का प्रयास करना चाहती है जो शांतिपूर्ण तरीकों से समाजवादी लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़े। एक शक्तिशाली जन क्रांतिकारी आंदोलन विकसित करके और सभी वामपंथी एवं लोकतांत्रिक ताकतों की व्यापक एकता निर्मित करके तथा एक ऐसे जन आंदोलन से समर्थित संसद में स्थायी बहुमत हासिल करके मजदूर वर्ग और उसके सहयोगी प्रतिक्रिया की ताकतों के प्रतिरोध को नाकाम करने एवं संसद को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक ढांचे में मौलिक परिवर्तन लाने की जनता की इच्छा का एक यथार्थ उपकरण बनाने का भरसक प्रयास करेंगे।
उसके साथ ही क्रांतिकारी ताकतों के लिए आवश्यक है कि वे अपने को इस तरह से उन्मुख करें एवं कार्य करें जिससे वे सभी तरह की आकस्मिकताओं तथा देश के राजनीतिक जीवन में किसी तरह के उतार-चढ़ाव का सामान कर सकें।
समाजवाद की दिशा में संक्रमण
अपनी स्थापना के बाद से ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने समाजवाद को स्वतंत्र भारत के भावी विकास का लक्ष्य स्वीकार किया। इस लक्ष्य को सुसंगत लोकतंत्र के जरिये उपर्युक्त कर्तव्यों को पूरा करके ही हासिल किया जा सकता है। जब उपर्युक्त कर्तव्यों को पूरा किया जायगा तो राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था उत्पादक शक्तियों के उच्च स्तर तथा उच्च उत्पादकता के साथ गतिशील, कारगर एवं स्व-उत्पादक होती जायेगी, जनता के मंगल-कल्याण के लिए विज्ञान तथा प्रविधि की उपलब्धियों को आत्मसात करेगी और करोड़ों जनता की पहलकदमी को व्यापकतम संभावनाएं प्रदान करेगी ताकि पिछड़ेपन की कठोर विरासत को दूर किया जा सके और हमारे विशाल भौतिक तथा मानव संसाधानों के पूर्ण इस्तेमाल के लिए परिस्थितियां निर्मित की जा सकें।
जब लोकतंत्र मजबूत होगा और उसका विस्तार होगा एवं जीवन के सभी क्षेत्रों में जनता को पूर्ण लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति प्रदान करेगा, सभी तरह के भेदभाव, असमानता तथा धर्म, जाति, लिंग एवं भाषा या जातियता के आधार पर सभी तरह के उत्पीड़न का उन्मूलन करेगा और उपर्युक्त प्रक्रियाओं में अधिकाधिक कारगर भूमिका अदा करेगा तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और समाजवाद का समर्थन करने वाली सभी अन्य शक्तियां भी मजबूत होंगी।
यह एक लंबी अवधि होगी जिसके दौरान देश को अनेक राजनीतिक संरचनाओं एवं गठबंधनों के दौर से गुजरना होगा जिसके जरिये प्रतिक्रिया की ताकतें हासिये पर आ जायेंगी और लोकतंत्र तथा समाजवाद की ताकतें अधिकाधिक ताकतवर होकर सामने आयेंगी।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अपनी जिम्मेवारियां पूरी करते हुए अपने विचार-धारात्मक राजनीतिक आधार और जनाधार में भी काफी मजबूत होगी। इस तरह समाजवाद में संक्रमण के लिए वस्तुगत तथा आत्मगत परिस्थितियां परिपक्व होंगी।
इस पथ और भारतीय परिस्थितियों एवं वर्तमान ऐतिहासिक अवधि में समाजवाद की अवधारणा को पूरी सावधानी से विचार-विमर्श करके पुनर्परिभाषित किया जाना है। अभी यही कहा जा सकता है कि यह एक लोकतांत्रिक बहुसंरचनात्मक अर्थव्यवस्था के साथ जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र एक नेतृत्वकारी भूमिका अदा करेगी, मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मजदूरों, किसानों, सभी अन्य मेहनतकश जनता, बुद्धिजीवियों और मध्यवर्ग का राज्य होगा।
किसान स्वामित्च को मूलगामी कृषि सुधार, कृषि विकास नीतियों के पूर्ण कार्यान्वयन और आर्थिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में स्वैच्छिक कोआपरेटिवों को प्रोत्साहन केआधार पर फलने-फूलने की पूरी सुविधाएं दी जायेंगी। औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादन के साधनों का सामाजिक स्वामित्व नेतृत्वकारी भूमिका अदा करेगा जबकि निजी क्षेत्र, संयुक्त क्षेत्र, कोआपरेटिव क्षेत्र, लघु क्षेत्र साथ-साथ कायम रहेंगे और पूरी अर्थव्यवस्था में पारस्परिक रूप से हाथ बंटायेंगे। राज्य आर्थिक विकास को नियंत्रित करने और उसे बढ़ाने, जनता के मंगल-कल्याण को बढ़ाने, शोषण समाप्त करने, सामाजिक एवं क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने, सार्वभौमिकता की रक्षा करने और आत्म-निर्भरता विकसित करने के लिए नियोजन की कार्यविधि का इस्तेमाल करेगा। यह एक मानवीय एवं न्यायोचित समाज होगा जिसमें सबों को समान अवसर प्रदान किया जायगा तथा लोकतांत्रिक अधिकारों की गारंटी दी जायेगी जो मनुष्य के शोषण को खत्म करने का मार्ग प्रशस्त करेगा, एक ऐसा समाज जिसमें मेहनतकश करोड़ों लोगों द्वारा उत्पादित धन पर कुछ लोगों द्वारा कब्जा नहीं किया जायगा।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवाद के विज्ञान को सुसंगत लोकतंत्र और समाजवाद की दिशा में अपने पथ को निर्धारित करने के लिए अपरिहार्य समझती है। वह भारतीय समाज को समझने एवं उसमें परिवर्तन लाने के एक उपकरण के रूप में मार्क्सवादी प्रणाली का इस्तेमाल करने का प्रयास करती है। कठमुल्लावादी तथा पुराने घिसे-पिटे विचार का परित्याग करते हुए वह अपना मार्ग निर्धारित करने के लिए इस विज्ञान तथा भारत की क्रांतिकारी विरासत से निर्देशित होती है जो हमारे देश की खास विशेषताओं, उसके इतिहास, परंपराओं, संस्कृति, सामाजिक संरचना तथा विकास के स्तर से निर्धारित होगा।
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शनिवार, 14 अगस्त 2010

जाति आधारित जनगणना एवं अन्य बातें



(“क्लास कास्ट रिजर्वेशन एंड स्ट्रगल अंगेस्ट कास्टिज्म” किताब का दूसरा संस्करण इस सप्ताह आने वाला है। किताब के लेखक ए.बी. बर्धन ने दूसरे संस्करण की प्रस्तावना लिखी है जो कुछ उन मुद्दों के बारे में है जिन पर जाति आधारित जनगणना सहित जाति और वर्ग को लेकर अभी बहस चल रही है। हम इस प्रस्तावना को छाप रहे हैं जिससे इन मुद्दों पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दृष्टिकोण को समझने में मदद मिलेगी - संपादक)
“क्लास कास्ट रिजर्वेशन एंड स्ट्रग्ल अंगेंस्ट कास्टिज्म” किताब पहले 1990 में प्रकाशित हुई थी। इनमें उन लेखों एवं दस्तावेजों को शामिल किया गया है जो 1980 के दशक में लिखे गये थे जबकि मंडल कमीशन की सिफारिशों के आने और वी.पी. सिंह सरकार द्वारा उन पर अमल की घोषणा से पहले और बाद में आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में जबर्दस्त बहस और आंदोलन चला था।

इन लेखों और दस्तावेजों में न केवल आरक्षण एवं मंडल आयोग की सिफारिशों और उनको लागू करने के जटिल मुद्दों पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दृष्टिकोण को व्यक्त किया गया बल्कि वर्ग, जाति आरक्षण और जातिवाद के विरूद्ध संघर्ष के बारे में तथा जातियों को समाप्त करने और अन्यायपूर्ण जाति प्रथा को मिटाने के बारे में सैद्धांतिक पक्ष को पेश करने का प्रयास किया गया। ये सभी प्रश्न आज भी, अधिक नहीं तो समान रूप से, प्रासंगिक बने हुए हैं। वे देश के राजनीति एवं सामाजिक एजेंडे से गायब नहीं हो गये हैं। इसलिए हम सब किताब का दूसरा संस्करण निकाल रहे हैं जो आशा है उपयोगी साबित होगा।
जाति आधारित जनगणना की मांग की गयी है तथा यह मांग संसद के समक्ष है। हमने इस विषय पर अपने दृष्टिकोण के साथ पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजिन्दर सच्चर के एक लेख को भी शामिल किया है।
लोगों की बहुपक्षीय सामाजिक पहचान है- जैसे वर्ग पहचान, जाति पहचान, धार्मिक पहचान, भाषाई पहचान, एथनिक पहचान (नृजातीय पहचान) और अन्य। यहां हम खासकर हमारे बहुसंख्यक लोगों की वर्ग पहचान और जाति पहचान की बात करेंगे। मार्क्सवादी होने के नाते हमने हमेंशा भारत में वर्गों एवं जातियों दोनों के अस्तित्व के सामाजिक यथार्थ को स्वीकार किया है।
लेकिन यह सच है कि हमने हमेशा अपने आंदोलनों और संघर्षों के आधार के रूप में वर्ग पहचान पर ही जोर दिया है। यह उनकी जाति पहचान को लगभग अलग रखकर किया गया है। अक्सर यह चूक हो जाती कि मजदूर वर्ग एवं मेहनतकश किसानों की एकता को उनके जाति भेदों की अनदेखी करके हासिल करना और उसे बनाये रखना कठिन होता है।
यह वर्ग भेद शोषक वर्गो में, चाहे वे पूंजीपति हों या जमींदार कोई भूमिका अदा नहीं करता है, लेकिन विभिन कारणों से, यह जातिभेद शोषित वर्गाें में, उन्हें एकताबद्ध करने में कभी-कभी बाधा उत्पन्न करता है या कुछ कठिनाइयां पैदा करता है।
शहर और देहात में जो लोग आर्थिक रूप से शोषित वर्ग के होते हैं, उसके साथ ही साथ वे आमतौर पर सबसे ज्यादा सामाजिक रूप से भी शोषित जातियों के लोग होते हैं। वे राजनीतिक रूप से भी सबसे अधिक वंचित वर्ग हैं।
इसलिए मेहनतकश जनता के बीच एकता कायम करने तथा शोषकों के खिलाफ वर्ग संघर्ष विकसित करने के दौरान यह जरूरी है कि सभी प्रकार के जाति भेदभावों एवं शत्रुता का दृढ़ता से विरोध किया जाये और दलितों तथा तथाकथित निम्न जातियों के खिलाफ होने वाले हर तरह के अत्याचार एवं अन्याय के खिलाफ संघर्ष किया जाये और जातिवाद के खिलाफ सतत वैचारिक, राजनीतिक एवं व्यवहारिक संघर्ष चलाया जाये। ये सभी संघर्ष के विभिन्न पहलू हैं।
इन सभी को सकारात्मक कार्रवाई के साथ एक साथ जोड़ना होगा ताकि नीचे के तबकों को, जो अब तक समाज के शोषित, वंचित एवं पिछड़े तबके रहे हैं तथाकथित उच्च वर्गांे के बराबर लाया जा सके। ऐसे संघर्ष एवं जातियों को समाप्त करने तथा जाति प्रथा को मिटाने के संघर्ष के बीच एक द्वंद्वात्मक आंतरिक संबंध है। इसी वास्ते तो आरक्षण है, जो सकारात्मक कार्रवाई का एक तरीका है। लेकिन केवल यही एक अकेला तरीका नहीं है। सकारात्मक कार्रवाई के कई अन्य तरीके हैं जिनमें भूमि सुधार, कमजोर एवं वंचित वर्गांे के नीचे से ऊपर तक सशक्तीकरण शामिल हैं। बुर्जुआ सरकार का जमींदारों एवं बड़े भूस्वामियों के साथ संबंध है, वह उन तरीकों को कभी नहीं लागू करेगी। इसके लिए संयुक्त संघर्ष एवं सक्रिय हस्तक्षेप जरूरी है।
सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रवर्तक यह अच्छी तरह समझते थे। इसलिए वे मजबूत आधार तैयार कर सके और अनेक क्षेत्रों एवं राज्यों में इन मजबूत आधारों के निर्माण में उन्होंने दलित और पिछड़ी जातियों को अपने साथ लामबंद किया। उन्होंने उचित ही कमजोर वर्गों के आर्थिक शोषण के खिलाफ संघर्ष को उनकी आकांक्षाओं तथा सामाजिक न्याय, गरिमा और बराबरी के लिए संघर्ष के साथ जोड़ा। लेकिन बाद के वर्षों में खामियों के कारण तथा हमारी समझदारी और व्यवहार में विफलता से दलितों एवं पिछड़ी जातियों पर आधारित पार्टियों को उनका शोषण करने और सामाजिक न्याय के नाम पर उनकी खास-खास मांगों को आगे बढ़ाने का मौका मिला। इस प्रकार उन पार्टियों ने कुछ राज्यों में हमारे जनाधार का क्षरण किया। उदाहरण के लिए बिहार में जहां राज्य पार्टी अपेक्षाकृत मजबूत थी तथा उत्तर प्रदेश एवं अन्य जगह में भी, ये पार्टियां इन तबकों के कुछ हिस्से को कम्युनिस्ट प्रभाव से हटाकार अपनी ओर लाने और उन्हें अपना वोट बैंक बनाने में सफल रही हैं।
उनका यह दावा कितना सच है कि वे सामाजिक न्याय की पार्टियां हैं या वे दलितों एवं पिछड़ी जातियों की भलाई के लिए लड़ रही हैं, भूमि सुधार के मुद्दे पर इनमें से अधिकांश पार्टियों के नेतृत्व के रवैये से पता चल जाता है कि वे कहां खड़े हैं। उदाहरण के लिए वे बिहार में भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों का विरोध करने के लिए एकजुट हो गये हैं। आयोग ने भूमिहीनों को अतिरिक्त भूमि का वितरण करने, जिनके पास मकान नहीं है ऐसे खेत मजदूर परिवारों को मकान बनाने के लिए 10 डिसमिल जमीन देने, बटाईदारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने आदि की सिफारिशें की हैं। इन कदमों से सबसे गरीब लोगों तथा उनमें से सबसे पिछड़ों को भला होता है और उन्हें अपने जीवन में सुरक्षा एवं गरिमा प्राप्त होती है। ये वही लोग हैं जो दलित और अत्यंत पिछड़ी जाति के हैं। पर जाति पर आधारित पार्टियां इन सिफारिशों का विरोध कर रही हैं। जब भूमि सुधार की बात आती है तो इन जाति आधारित पार्टियों का यह दावा निरर्थक साबित होता है कि वे सामाजिक न्याय के लिए काम कर रही हैं।
खाप पंचायतेें और तथाकथित “ऑनर किलिंग” केवल सगोत्र विवाह के खिलाफ नहीं है बल्कि वे ऐसी मिश्रित जातियों के विवाह के भी खिलाफ है जिसमें निम्न जाति का एक पार्टनर ऊंची जाति के पार्टनर के साथ शादी करता है। ये खासतौर पर घिनौने किस्म की सोच-विचार कर की गयी हत्याएं हैं। सख्त कार्रवाई करके इन्हें खत्म करने की जरूरत है।
आरक्षण न केवल सरकारी और अर्धसरकारी नौकरियों के लिए लागू है बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों की नौकरियों के लिए भी लागू है। सरकार अब सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों के निजीकरण की ताबड़तोड़ कोशिश कर रही है। इससे आरक्षित श्रेणियों के लिए उपलब्ध रोजगार प्रभावित होंगे। इसलिए निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग पूरी तरह न्यायोचित है, हालांकि कुछ मामलों में वैध एवं खास कारणों से छूट हो सकती है।
इस समय यह बहस चल रही है कि 2010 की जनगणना में क्या जाति की गणना को शामिल किया जाना चाहिए या नहीं। क्या ऐसा करना संविधान की भावना के विपरीत नहीं होगा? इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह सवाल उठता है कि क्या इससे जात-पात की भावना को फिर से हवा नहीं मिलेगी तथा जातिवाद के खिलाफ लड़ने और उसे समाप्त करने के लिए हमारे प्रयास कमजोर नहीं होंगे?
जाति एक सामाजिक यथार्थ है। इसके अस्तित्व से इंकार करके इससे बचा नहीं जा सकता। हम देख चुके हैं कि भारतीय समाज में जाति प्रथा का कितना बुरा प्रभाव पड़ा है। अनुसूचित जातियों, जिन्हें अछूत माना जाता है, के अलावा सामाजिक एवं शैक्षिणक रूप से पिछड़े वर्गों के निर्धारण में निम्न जातियों को ऐसे समूहों एवं वर्गों के रूप में रखना पड़ा जिनकी स्पष्ट पहचान हो सके। 1931 की जनगणना के आधार पर यह अनुमान लगाया गया था कि ये अन्य पिछड़े वर्ग, ओबीसी करीब 52 प्रतिशत हैं। उन्हें 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया ताकि कुल आरक्षण 50 प्रतिशत को पार न कर जाये।
लेकिन अनेक अदालतों में यह सवाल उठाया गया है कि इस आंकड़े पर कैसे पहंुचा गया। इसलिए यह उपयोगी रहेगा कि ताजा जनगणना करके हम किसी आंकड़े पर पहुंचे। इन वर्गों के कल्याण के लिए बनायी जाने वाली अनेक योजनाएं भी ताजा आंकड़ों पर आधारित की जा सकती हैं।
लेकिन जाति आंकड़ों में हेरफेर करने और लाभ पाने या समाज में बेहतर हैसियत प्राप्त करने के उद्देश्य से जनगणना के समय जाति को बदलकर बताने-इन दो खतरों से हमें सावधान रहना होगा।
केवल ओबीसी के रूप में गणना नहीं हो सकती क्योंकि सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधारपर किस जाति को इसमें शामिल किया जाये, किसको नहीं, यह एक खुला प्रश्न है।
लोगों का एक बड़ा हिस्सा है जो जाति या यहां तक कि धर्म के आधार पर अपनी पहचान नहीं कराना चाहता। जनगणना के दौरान इन लोगों को अधिकार है कि वे अपनी जाति या धर्म बताने से इंकार कर सकते हैं। इस वर्ग की संख्या बढ़ रही है और इसे नोट किया जाना चाहिए। निश्चय ही आज जाति एक राजनीतिक मुद्दा बन गयी है। यह खतरा है कि जाति आधारित जनगणना में ऐसी स्थिति पैदा हो सकती है जिसमें जाति पहचान राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र में अन्य तमाम बातों पर हावी हो जाये तथा अन्य की तुलना में किसी जाति भेद एवं जाति द्वेष बढ़ाने के लिए किया जाये। राजनीतिक नेतृत्व एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं को इसके प्रति सावधान रहना होगा। हमारा उद्देश्य स्पष्ट रहना चाहिए। हम जातिविहीन एवं वर्गविहीन समाज के पक्षधर हैं जो केवल एक पूर्ण विकसित समाजवादी समाज में ही सुनिश्चित हो सकता है। हमें ऐसे क्रांतिकारी बदलाव के लिए संघर्ष करना है, लड़ाई लड़नी है।
(नयी दिल्ली, 24 जुलाई, 2010)
- ए.बी.बर्धन
लेखक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हैं।

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संसद में भाकपा - अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों के कल्याण का पैसा भी राष्ट्रमंडल खेलों में हजम

राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन की तैयारियों के सिलसिले में सामने आये व्यापक भ्रष्टाचार के संबंध में बोलते हुए भाकपा सांसद डी. राजा ने अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए चिन्हित पैसे को भी इन खेलों के आयोजन में खर्च किये जाने पर गंभीर आपत्ति की। उन्होंने कहा कि:
”वामपंथ, दक्षिणपंथ और मध्यमार्ग के मध्य मतभेदों के बावजूद सदन ने इस मुद्दे को बहस के लिए लिया है। इससे पता चलता है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कल्याण के प्रति हरेक को सरोकार है। हम आज जिस बात की चर्चा कर रहे हैं वह तो आइसबर्ग की दिखने वाली चोटी मात्र है, असल मसला इससे बहुत बड़ा है। अनुसूचित जाति के लिए विशेष अंगभूत योजना (स्पेशल कम्पोनेन्ट प्लान) और आदिवासी उपयोजना के प्रश्न वृहत्तर मुद्दे हैं और मेरे पास जानकारी है कि कई राज्य सरकारें आज भी स्पेशल कम्पोनेन्ट प्लान या ट्राइबल सब प्लान के लिए पैसा चिन्हित नहीं करती। केन्द्र सरकार के 24 से अधिक केन्द्रीय विभागों में इन योजनाओं के लिए कोई अलग आबंटन नहीं है और वे समझते हैं कि इसके लिए अलग पैसा आबंटन की जरूरत नहीं। इतना कहने के बाद, मैं कहना चाहता हूं कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कल्याण के लिए तय पैसे को अन्यत्र खर्च कर देना अक्षम्य है। यह संवैधानिक दायित्वों के साथ विश्वासघात है, चाहे वह केन्द्र सरकार हो या कोई राज्य सरकार। इसे संविधान की भावना के विरूद्ध एक अपराध मानना होगा। सरकार दावा करती है कि यह आम आदमी की सरकार है, पर वह जो कुछ भी कर रही है, वह आम आदमी के खिलाफ है।
यह मात्र एक अत्याचार नहीं है। यह आज के जमाने का एक गंभीर अत्याचार है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लोग राष्ट्र के लिए जो दौलत पैदा करते हैं, उसमें उनके वाजिब हिस्से को हड़प कर लिया जाये। यह लोकतंत्र के नाम पर चुनी जाने वाली सरकारों द्वारा किये जाने वाला भयंकर अपराध है। ऐसी चीजें जारी रहें, इसे सहन नहीं किया जा सकता। राष्ट्रमंडल खेल देश के लिए गौरव की बात होने चाहिये थे पर यह शर्म की बात बन रही है। सरकार के पास क्या जवाब है?यह एक गंभीर अपराध है। आज यह दिल्ली में हो रहा है, कल अन्य राज्यों में हो सकता है। अतः यह सही समय है कि केन्द्र सरकार हस्तक्षेप करे और जो कुछ हुआ है, उसे सुधारे। यह पैसा वापस दिया जाये और अनुसूचित जातियों के लिए स्पेशल कम्पोनेन्ट प्लान और ट्राइबल सब प्लान को योजना आयोग के दिशानिर्देशों के तहत इन लोगों के कल्याण के लिए योजनाओं के रूप में समझा जाना चाहिये।“
- डी. राजा
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शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

संसद में भाकपा - महंगाई के लिए मनमोहन सरकार की नीतियां जिम्मेवार

3 अगस्त को लोकसभा में महंगाई की समस्या पर बहस में हिस्सा लेते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद गुरूदास दासगुप्ता ने कहा:

”अंततः महंगाई पर बहस हो रही है। बहस इस पर है कि क्या मुद्रास्फीति एवं महंगाई को बढ़ने से रोकने के लिए पूरी कोशिश की है। सरकार यदि पूरी कोशिश करती तो स्थिति अलग होती। यदि सरकार ने पूरी कोशिश की होती तो सदन में काम रोको की मांग ही नहीं उठती, विशेष बहस की जरूरत नहीं होती और सरकार को संसदीय सलाह देने के लिए प्रस्ताव पारित करने के लिए मतैक्य की भी जरूरत नहीं होती। अतः मुद्दा यह है कि क्या सरकार ने देश में महंगाई एवं मुद्रास्फीति को रोकने के लिए पूरी कोशिश की।

लम्बे समय से मुद्रास्फीति के इस संकट पर पार पाने में सरकार की नाकामयाबी से यह संकेत मिलता नजर आता है कि सरकार को मुद्रास्फीति और देश के अधिकांश उन गरीबों की काई फिक्र नहीं है जिनकी आमदनी क्रयशक्ति कम होने के कारण घट गयी है। लगता है सरकार को मुद्रास्फीति की कोई परवाह ही नहीं। सरकार आज जिस सांचे में ढली है वह उसकी सैद्धान्तिक एवं दार्शनिक स्थिति है। कारण क्या है? मुद्रास्फीति को देश में आर्थिक विकास को बढ़ाने के लिए समायोजन का अपरिहार्य नतीजा माना जा रहा है। सरकार की समझ है कि अर्थव्यवस्था विकसित हो रही है, देश में आर्थिक वृद्धि हो रही है तो मुद्रास्फीति तो होगी ही। पर यह एक बेकार का आर्थिक सिद्धान्त है। खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा पेश कुछ तथ्य इस मिथक को तोड़ देते हैं। आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) का कृषि नजरिया - एक अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेज है। उसमें साफ तौर पर कहा गया है कि भारत उन चन्द देशों में से है जहां खाद्य मुद्रास्फीति दो अंकों में है। मैं नहीं, एफएओ यह कहता है। इसके अलावा उसमें यह भी कहा गया है कि जिन देशों को बढ़ती मुद्रास्फीति का सामना करना पड़ा वे काफी समय बाद मूल्यों को स्थिर करने में कामयाब हो गये हैं। भारत इसका अपवाद क्यों है? यह बढ़ती अर्थव्यवस्था वाला देश है। दूसरी बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में मूल्य स्थिर हो गये हैं तो भारत में क्यों नहीं?

मैं चीन की बात नहीं कहता। मुझे पता है कि वहां दूसरी राजनीतिक व्यवस्था है। दोनों विकासमान विश्व में सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाएं हैं। चीन में खाद्य में मुद्रास्फीति की दर क्या है? 2009 में एक प्रतिशत से भी कम। सरकार की निष्ठुर आर्थिक नीतियों से गरीबों को नहीं कार्पोरेट पूंजीपतियों को फायदा पहुंचता हैं। इन नीतियों के खिलाफ अभिव्यक्त जनाक्रोश उतना अधिक सामने नहीं आया है तो हमारे देश की अनोखी एवं अनूठी राजनैतिक स्थिति के कारण यह हो सकता है। पर पिछले दिनों में जनाक्रोश का बढ़ता यह तथ्य सड़कों पर अधिकाधिक विरोध प्रदर्शनों के रूप में सामने आ रहा है। सड़कों पर अधिकाधिक और संयुक्त विरोध कार्रवाईयां उभर कर आ रही हैं। सरकार इसे जानती है। विभिन्न राजनैतिक दृष्टिकोण रखने वाली राजनैतिक पार्टियां - वामपंथी, दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी - सब इस मुद्दे पर एकजुट हो गयी हैं। यह किसी अवसरवादी फायदे के लिए नहीं बल्कि इस जबर्दस्त भरोसे का कारण है कि वे देश की जनता की तरफ से इस मांग को उठा रही हैं।

यह विरोध की आवाज है जो सामूहिक तौर पर बुलंद की गयी है। इसे अवसरवादी गठबंधन नहीं कहा जा सकता। हमने जनता की आवाज उठायी, परेशानहाल लोगों की आवाज उठायी, सरकार की नीतियों के बदलाव के लिए आवाज उठायी।

यह एक निकम्मी सरकार है जो निरंकुश हेकड़ी के साथ जनविरोधी नीतियों पर बढ़ती ही जा रही है। मैं इसे हेकड़ी कहता हूं क्योंकि यह किसी आलोचना पर, यहां तक कि इसी सदन में इसके स्वयं के पार्टनरों एवं मित्रों द्वारा की गयी आलोचना पर भी ध्यान नहीं देती। पिछले दिनों इसने कहना शुरू कर दिया कि महंगाई घट रही है। दुर्भाग्य से असलियत इससे बिलकुल अलग है।

जुलाई 2010 के थोक मूल्य सूचकांक से तीन अत्यंत अपशकुन भरी बातें सामने आती हैं। पहली, लगातार पांच महीने से मुद्रास्फीति दो अंकों में चल रही है। दूसरी, इस स्थिति के फलस्वरूप एक समूह के रूप में खाने पीने की चीजों के दाम 16.5 प्रतिशत बढ़ गये हैं। यह सबसे ताजा आंकड़ा है। इतना ही नहीं, ईंधन की कीमतें 13 प्रतिशत और कल-कारखानों में बनने वाले सामानों की कीमतें 6 से 7 प्रतिशत बढ़ गयी हैं। तीसरी खास बात क्या है? खुदरा बाजार में मुद्रास्फीति या महंगाई बढ़ने की दर थोक बाजार में महंगाई की दर से बहुत अधिक तेजी से बढ़ी है। इसके क्या उदाहरण हैं? मैं एकतरफा बात तो नहीं कह रहा? नहीं! उदाहरण देखिये - जुलाई में पिछले दो साल के मुकाबले गेहूं के दाम 19 प्रतिशत, तूर दाल के दाम 58 प्रतिशत, उड़द की दाल के 71 प्रतिशत, मूंग की दाल के 113 प्रतिशत, आलू एवं प्याज के दाम 32 प्रतिशत और चीनी के दाम 73 प्रतिशत बढ़े हैं। जब आलू की बात करतें तो मैं मानता हूं इसे औने पौने दामों पर भी बेचा गया।

यह साफ तस्वीर है। सरकार को मुगालते में नहीं रहना चाहिये कि दाम गिर रहे हैं। यही कारण है कि विपक्ष ने सदन को चलने भी नहीं दिया और इतना हल्ला कर रहा है। मैं इसका समर्थक नहीं हूं कि सदन का काम चलने न दिया जाये। यह सदन बहस, विचार-विमर्श के लिए है, बहस कितनी ही कड़वाहट भरी क्यों न हो। पर सवाल यह है कि काम रोको प्रस्ताव की जरूरत क्यों पड़ी? एक प्रस्ताव पास करने की जरूरत क्यों पड़ी? यह इस कारण की स्थिति चिंताजनक है, अधिकाधिक चिंताजनक होती जा रही है; हो सकता है ऐसे में जबकि देश में कम वर्षा होने की स्पष्ट असलियत सामने आ रही है तो एक विभीषिका ही सामने पैदा हो जाये। अतः यह कहना गलत है कि कीमतें गिर रही हैं।

अब मैं बुनियादी मुद्दे पर आता हूं। हालत इतनी चिंताजनक क्यों है? कौन है इसके लिए जिम्मेदार? यह सरकार इसके लिए जिम्मेदार है। मैं क्यों कहता हूं कि सरकार जिम्मेदार है?

पहला कारण यह है कि सरकार ने देशी और विदेशी कार्पोरेटों को खाद्यान्न बाजार में प्रवेश की इजाजत दी। इस क्षेत्र में विदेशी कार्पोरेटों को प्रवेश की इजाजत क्यों दी गयी? उनके इस क्षेत्र में आने का नतीजा है कि वितरण में एक संकेन्द्रण हो गया है (यानी वितरण चंद हाथों के नियंत्रण में आ गया है)। अतः खुदरा कीमतें और थोक कीमतों में फर्क बढ़ रहा है। किसान जिस भाव पर बेचता है उसमें फर्क बढ़ता जा रहा है। इसका क्या मतलब है? आपने न्यूनतम समर्थन मूल्य कुछ भी रखा है, किसान को फायदा नहीं पहुंचा। साथ ही उपभोक्ता को भी नुकसान पहुंचा है।

एक अन्य कारक जिसने इस संकट को और भी तेज कर दिया है वह है कृषि की पूरी तरह उपेक्षा। कृषि पिछले कई वर्षों से उपेक्षा का शिकार है। यह सरकार सात सालों से सरकार में है। कृषि की बहाली करने के लिए यह कोई कम समय नहीं? कृषि को संकट से निजात दिलाने के लिए क्या यह कोई कम समय है?

हरित क्रांति बहुत अर्सा पहले हुई और अब कमी का उल्टा चक्कर चल पड़ा है। सरकार कृषि की उपेक्षा के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। कृषि की पूरी तरह उपेक्षा की गयी, कृषि में सरकार और निजी निवेश में कमी आयी। यही मूल कारण है कि आज सट्टेबाजों और ऑन लाईन ट्रेडिंग करने वालों ने देश के लिए मुश्किलें पैदा कर दी हैं।

तीसरी बात है अनुदान को खत्म करना और अनुदान को खत्म करने का ढांचागत असर और अंत में, अच्छे मानसून की संभावना से बाजार में कीमतें कम नहीं हुई। सबसे बड़ी बात ये है कि इस मसले पर कोई ध्यान ही नहीं दिया गया। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को देश में विस्तारित करने की और प्रभावी बनाने की कोशिश नहीं की गयी। अतः यह तीन कारक इस महंगाई के लिए जिम्मेदार हैं - कृषि संकट, सार्वजनिक वितरण प्रणाली की असफलता और भारत के बाजार पर सट्टेबाजों का कब्जा। इस सबके लिए सरकार जिम्मेदार है।

किस बात के लिए मैं सरकार को जिम्मेदार ठहराता हूं? इस बात के लिए कि उसने आवश्यक वस्तु कानून को मजबूत नहीं किया। भाजपा सरकार ने इस कानून को कमजोर कर दिया था। इस सरकार ने उसे मजबूत नहीं किया। दूसरा, बैंकों को खाद्यान्नों की जमाखोरी के लिए पैसा देने से नहीं रोका गया। जनता के पैसे को जनता पर मुसीबतें ढाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। बैंकों ने खाद्यान्नों की जमाखोरी और सट्टेबाजी के लिए बड़ी उदारता से पैसा दिया। तीसरा, सिंचाई को विस्तारित नहीं किया गया। आज भी 60 प्रतिशत खेती कृषि पर निर्भर है। चौथी बात यह है कि सरकार खाद्यान्नों की सट्टेबाजी की इजाजत देने में बड़ी उदार रही।

अतः महंगाई का मुख्य कारण क्या है? कौन जिम्मेदार है? सट्टेबाजी की अर्थव्यवस्था को कायम करने के लिए सरकार जिम्मेदार है। सट्टेबाजी की अर्थव्यवस्था, वायदा कारोबार की अर्थव्यवस्था, खाद्यान्नों में देशी विदेशी कारपोरेटों के प्रवेश की अर्थव्यवस्था - इन्होंने खाद्य उत्पादन में कमी का जमकर फायदा उठाया और देश को बेहाल कर दिया।

सरकार ने क्या किया? महंगाई रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया। क्या इस कारण कि वह उदारीकरण में यकीन रखती है? सरकार उदारीकरण की सोच में यकीन रखती है। सरकार समझती है कि बाजार की ताकतें अपने आप ही समायोजन कर लेंगी, सरकार के हस्तक्षेप की जरूरत नहीं। सरकार के हस्तक्षेप न करने की यह नीति, उदारीकृत अर्थव्यवस्था पर अत्यधिक भरोसा और बाजार की ताकतों पर निर्भरता - इन्हीं चीजों ने देश को इस विभीषिका में लाकर पटक दिया। अतः जो कुछ हुआ उसके लिए मैं सरकार को जिम्मेदार ठहराता हूं। ऐसा नहीं है कि विकासमान अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति होगी; ऐसा नहीं कि देश में महंगाई तो होगी ही; विकास की कीमत तो चुकानी ही ही पड़ेगी और महंगाई का शिकार तो होना ही पड़ेगा। अतः मेरा सरकार को कहना है कि उदारीकरण की अपनी सोच को बदले और इस तरह के मामलों में हस्तक्षेप करे।

विश्व भर में, और अमरीका में जो संकट आया उससे निपटने में राज्य ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। दुनिया भर में लोग राज्य के सक्रिय हस्तक्षेप की चर्चा कर रहे हैं। दुनिया भर में उदारीकरण के सिद्धान्त की भर्त्सना की गयी है। मैं विश्वास करता हूं कि सरकार कुछ समझेगी और मुद्रास्फीति से निपटने के लिए कुछ करेगी और मुसीबतजदा जनता को बचाने के लिए आगे आयेगी। मुझे आशा है कि संसद जिस प्रस्ताव को पारित करेगी वह सरकार को संसद के निर्देश का काम करेगा और संसदीय व्यवस्था की प्रतिपादक होने के नाते सरकार इस सामूहिक इच्छा को और इस सत्ता यानी संसद के मूल्यांकन को मानेगी।“


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गुरुवार, 12 अगस्त 2010

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष - “क्रांतिकारी और रेलवे गार्ड”

काकोरी षड्यंत्र केस अपने समय का सबसे बड़ा क्रांतिकारी मुकदमा था। इस मुकदमें में बीस देशभक्तों को सजा मिली थी। रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी तथा अशफाकउल्ला खां को फांसी दे दी गयी और वे शहीद हो गये। शचीन्द्रनाथ सान्याल और मुझे आजन्म काले पानी की सजा मिली। मन्मथनाथ गुप्त को चौदह साल, राजकुमार सिन्हा, रामकृष्ण खत्री, जोगेश चटर्जी आदि को दस-दस साल शेष को सात-सात और पांच-पांच साल की सजायें दी गयीं। अपील में कुछ लोगों की सजायें बढ़ायी भी गयी थीं।
इस षडयंत्र केस का ‘काकोरी केस’ के नाम से महशहूर होने का आधारभूत कारण यह था कि हरदोई-लखनऊ के दरम्यान जिस स्टेशन के पास पैसेन्जर टेªन को रोककर रेलवे का खजाना लूटा गया था, उस स्टेशन का नाम काकोरी था।
9 अगस्त, 1925 के दिन 8 डाउन पैसेन्जर टेªन गार्ड जगन्नाथ प्रसाद के चार्ज में थी। टेªन डकैती से संबंधित सरकारी गवाहों में जिसने सर्वाधिक समय तथा क्रांतिकारियों को देखा था, वह था गार्ड जगन्नाथ प्रसाद। वह डकैती शुरू होने के वक्त से लगातार पैंतीस मिनट तक देखता रहा। शेष गवाहों में से किसी ने भी हमें दो-चार सेकेण्ड से ज्यादा नहीं देखा।
वस्तुतः घटना इस प्रकार थी -
सन् 1925 तक उत्तर प्रदेश में क्रांतिकारी संगठन मजबूत हो गया था और संगठन में तेजी भी आ गयी थी। जुलाई के अंत में हमें खबर मिली कि जर्मनी से पिस्तौलों का चालान आ रहा है। कलकत्ता बन्दरगाह पहुंचने से पहले ही नकद रुपया देकर उसे प्राप्त करना था। एतदर्थ काफी रुपयों की आवश्यकता पड़ी और पार्टी के सामने डकैती के अलावा कोई अन्य चारा नहीं था। केवल अकेले अशफाकउल्ला खां ने इस योजना का विरोध किया और आखिर तक करते रहे। उनका कहना था कि हमारा दल अभी इतना मजबूत नहीं है कि हम ब्रिटिश साम्राज्य को खुली चुनौती दे सकें। लेकिन कोई यह चेतावनी सुनने के मूड में नहीं था।
नतीजा यह हुआ कि डकैती का काम शुरू करने का भार रामप्रसाद ने मेरे ऊपर डाला। मैंने रामप्रसाद को बताया कि अशफाक और राजेन्द्र लाहिड़ी को साथ लेकर मैं सेकेण्ड क्लास की जंजीर खींचकर ट्रेन रोक दूंगा तथा उतरकर गार्ड को पकड़ लूंगा। रामप्रसाद ने इस सुझाव को पसंद किया और बताया कि वह बचे हुए छह साथियों को लेकर तीसरे दर्जे में बैठेंगे और टेªन रुकने पर हम लोगों से आ मिलेंगे।
जब मैंने काकोरी स्टेशन पर लखनऊ के लिए तीन सेकेण्ड क्लास के टिकट खरीदने के लिए नोट बढ़ाया, तब असिस्टेंट स्टेशन मास्टर घूमकर मेरे चेहरे को गौर से देखने लगा। उसे महान आश्चर्य हुआ कि इस-छोटे से स्टेशन से तीन सेकेण्ड क्लास के टिकट खरीदने वाला यह व्यक्ति कौन है। मेरे हाथ में रूमाल था और मैं आनायास दूसरी ओर मुंह फेरकर रूमाल से मुंह पोछने लगा।
पैसेन्जर टेªन आयी। हम तीनों सेकेण्ड क्लास का एक खाली डिब्बा देखकर बैठ गये। गाड़ी चल दी। इतने में एक मुसाफिर डिब्बे में आकर मेरे पास बैठ गया। मैं फौरन घूमकर जंगले के बाहर देखने लगा। सामने के बर्थ पर अशफाक और राजेन्द्र बैठे थे। डिब्बे में बिजली की रोशनी हो रही थी। जब टेªन डिस्टेण्ट सिग्नल के पास पहुंच गयी, मैंने अपने साथियों की तरफ मुखातिब होकर पूछा- जेवरों का बक्सा कहां रह गया है?
अशफाक ने तुरन्त जवाब दिया- ओ हो, वह तो काकोरी में ही छूट गया है। इतने में मैंने अपने पास लटकती हुई जंजीर खींच दी।
गाड़ी रुक गयी। हम तीेनों उतर पड़े तथा काकोरी की ओर चल पड़े। तीन-चार डिब्बों को पार करने पर गार्ड साहब मिले, जो हमारी तरफ आ रहे थे। उन्होंने पूछा- जंजीर किसने खींची?
मैंने चलते-चलते बताया कि मैंने खींची है। गार्ड मेरे साथ हो लिया और उसने मुझे रुकने को कहा। उत्तर में मैंने बताया- काकोरी में हमारा जेवरों का बक्सा छूट गया, हम उसे लेने जा रहे हैं।
इतने में हम लोग गार्ड के डिब्बे तक पहुंचकर रुक गये। तब तक हमारे अन्य साथी भी वहां पहुंच गये थे। हमनें पिस्तौल के फायर के साथ मुसाफिरों को आगाह किया कि कोई मुसाफिर न उतरे, क्योंकि हम सरकारी खजाना लूट रहे हैं।
इतने में मेरी निगाह गार्ड साहब पर पड़ी, जो मेरे बगल में ही खड़े थे और इंजन की तरफ नीली बत्ती दिखा रहे थे। मैंने उनकी पसली में पिस्तौल की नली लगा दी और एक हाथ से उनकी बत्ती छीन ली। बत्ती को जमीन पर पटकते हुए एक ठोकर मारकर मैंने गार्ड से कहा- गोली मार दूंगा। नीली बत्ती क्यों दिखा रहा था?
गार्ड जगन्नाथ प्रसाद ने हाथ जोड़ते हुए गिड़गिड़ाकर कहा-हुजूर! मेरी जान बख्श दीजिए।
तब तक लोहे का सन्दूक गार्ड के डिब्बे से ढकेलकर नीचे गिरा दिया गया और उसे तोड़ा जाने लगा। मैं डिब्बे के पायदान का सहारा लेकर गार्ड की ओर पिस्तौल ताने खड़ा रहा।
मेरे ऐसे पंाच मिनट तक खड़ा रहने के बाद रामप्रसाद ने एकाएक मेरा हाथ पकड़कर अंधेरे में खींच लिया और कहा- कर क्या रहे हो? सारी रोशनी तुम्हारे चेहरे पर पड़ रही है और गार्ड तुमको पहचान रहा है, जबकि और सब साथी अंधेरे में हैं।
मैं तब गार्ड के डिब्बे में चढ़ गया और बत्तियां बुझाने की कोशिश करने लगा, किन्तु स्विच मुझे ढूंढ़ने पर भी नहीं मिला। तब मैंने पिस्तौल के कुन्दे से सारे बल्ब फोड़ डाले और नीचे उतर आया।
रामप्रसाद की यह बात- गार्ड आपको पहचान रहा है- मेरे मन में चुभ गयी।
लोहे का संदूक बड़ी मुश्किल से टूटा। यह अशफाकउल्ला खां की ताकत की करामात थी।
इन कामों में करीब 35 मिनट लग गये। जब चलने की तैयारी हुई, तब मैंने रामप्रसाद से कहा - सूबेदार साहब, आप लोग बढ़े। सौ-सवा गज जाकर रुक जाइएगा और सीटी बजाइएगा। मैं आ जाऊंगा। तब तक जरा गार्ड से निपट लूं।
सभी साथी चले गये। मैं अकेला गार्ड जगन्नाथ प्रसाद के पास खड़ा था। सामने टेªन खड़ी थी। सारी फिजा शान्त औ निःस्तब्ध। मैं दो-तीन मिनट चुप खड़ा रहा। हमारे सब साथी अंधेरे में ओझल हो गये थे। जब मैंने खामोशी को भंग कर शन्त स्वर में अंग्रेजी में कहा- वेल गार्ड साहब, डेड मैन कैन नॉट स्पीक। जिसका मतलब था- मुर्दा आदमी बोल नहीं सकता। मैंने गार्ड से यह भी कहा- आपने मुझे बिजली की रोशनी में बहुत देर तक देखा है और पहचाना भी है। पुलिस कार्यवाही में आप मुझे पहचानेंगे। इसलिए आपको क्यों न खत्म कर दूं, ताकि पहचानने का झगड़ा ही खतम हो जाए। मैं यह सब बातें धीरे-धीरे बहुत शान्ति से बोलता रहा। गार्ड साहब अपने सामने मौत का नजारा देखकर हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगे और बोले हुजूर! मैं आपको कतई नहीं पहचानता हूं, मुझे मत मारिए।
मैंने कहा- सिर्फ एक कारतूस का खर्च है और सब संकट खत्म हो जाएगा।
गार्ड साहब बड़ी आजिजी से बोले- मैं आपको कैसे समझाऊं कि मैं आपको कभी नहीं पहचानूंगा।
मैने पूछा- पुलिस के जोर देने पर भी नहीं?
उन्होनंे कहा- कभी भी नहीं।
मैंने फिर पूछा- यह आपकी प्रतिज्ञा है?
उन्होंने जोर देकर कहा- जी हुजूर, यह मेरी प्रतिज्ञा है और अटल प्रतिज्ञा है।
मैंने कुछ सोचा और पूछा कि वह ईश्वर को मानते हैं कि नहीं?
उनके हामी भरने पर और ‘जी हां’ कहने पर मैंने कहा- इस वक्त मेरे और आपके बीच जो कुछ बात हुई, उसका साक्षी आपका ईश्वर है। आपने ईश्वर को साक्षी करके यह प्रतिज्ञा की है कि आप मुझकों नहीं पहचानेंगे।
इस घटना के एक साल छह महीने बाद मैं बिहार प्रान्त के भागलपुर शहर में गिरफ्तार हुआ। इस बीच में मेरे बहुत से साथी गिरफ्तार हो गये थे। लखनऊ में काकोरी षड्यंत्र का मुकदमा चल रहा था, जिसमें मुखबिरों के बयानों से बहुत से भेद खुल चुके थे। इकबाली मुलजिम बनवारीलाल बता चुका था कि टेªन डकैती में सेकेण्ड क्लास में अशफाकउल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी और मैं थे। रेलवे का डाक्टर चंद्रपाल गुप्ता, जो हमारे डिब्बे में आ गया था, राजेन्द्र लाहिड़ी और अशफाक की शिनाख्त कर चुका था। एक मैं ही बाकी बचा था।
पहचान की कार्यवाही के लिए जेल के अहाते में मजिस्ट्रेट के सामने 5 या 6 कैदियों के साथ मुझकों खड़ा किया गया।
और कई गवाहों के गुजरने के बाद जगन्नाथ प्रसाद मेरे सामने आये। उनके आते ही मैंने उन्हें पहचान लिया। जब वह मेरे सामने से गुजरे तब उनकी आंखों में भी पहचानने की झलक-सी देखी, लेकिन वह मुझे न पहचानने का अभिनय करते हुए आगे बढ़ गये। दो चक्कर लगाने के बाद उन्होंने मजिस्ट्रेट से कहा- इनमें तो नहीं है। मजिस्ट्रेट ने फिर से गौर करने कोे कहा। उसने और दो चक्कर मेरे सामने लगाये। इस बार भी मैंने उनकी आंखों में पहचानने की झलक देखी, लेकिन उन्होंने मेरे बगल वाले व्यक्ति का हाथ पकड़ा। फिर गार्ड साहब बाहर भेज दिये गये।
गार्ड जगन्नाथ प्रसाद के चले जाने के साथ-साथ मेरे मानसपटल पर चलचित्र की भांति 9 अगस्त, 1925 की सारी घटनाएं रह-रहकर उभरने लगीं।
काकोरी सप्लिमेण्टरी षड्यंत्र केस में अशफाक को फांसी दे दी गयी और मुझको उम्रकैद की सजा मिली। जमाना गुजर गया। यू.पी. की सेंट्रल जेलों में बहुत-सी लड़ाइयां लड़ने के बाद और बहुत सारी भूख-हड़ताल करने के बाद मैं रिहा हुआ। मेरे सह साथी भी रिहा हुए।
सन् 1938 की बात है। मैं लखनऊ लौटने के लिए रायबरेली स्टेशन पर बैठा था। प्लेटफार्म पर पंजाब मेल का इंतजार करते हुए एक बेंच पर बैठकर मैं अखबार पढ़ रहा था।
इतने में एक रेलवे अफसर मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। उसके सफेद सूट को मैं देख रहा था। मेरा नाम पुकार कर नमस्ते करने पर जब मैंने सिर उठाया, तब देखा कि वही चिरपरिचित गार्ड जगन्नाथ प्रसाद खड़े हैं।14 वर्ष बीत जाने पर भी मैंने उन्हें फौरन पहचान लिया। मैंने हंसकर कहा - हैलो गार्ड साहब, आप मुझे भूले नहीं हैं।
गार्ड जगन्नाथ प्रसाद ने उस पुराने लहजे में उत्तर दिया- नहीं हुजूर, इस जिंदगी में मैं आपको कभी भूल नहीं सकता।
- शचीन्द्रनाथ बख्शी
क्रंातिकारी शचीन्द्रनाथ बख्शी की पुस्तक - ”वतन पे मरने वालों का...” से साभार (ग्लोबल हारमनी पब्लिशर्स, नई दिल्ली)
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मंगलवार, 10 अगस्त 2010

उत्तर प्रदेश में 2012 के विधान सभाओं चुनावों की पैतरेबाजी शुरू






8 अगस्त को समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह ने घोषणा की कि उनकी पार्टी आसन्न पंचायत चुनावों में नहीं उतरेगी। ऐसी ही घोषणा प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती बहुजन समाज पार्टी के बारे में कर चुकी हैं। वे तो यहां तक कह चुकी हैं कि उनकी पार्टी विधान सभा के आम चुनावों तक प्रदेश में होने वाले किसी भी चुनाव में प्रत्याशी नहीं उतारेगी। कारण साफ है कि दोनों ही नहीं चाहते थे विधान सभा के 2012 में होने वाले आम चुनावों के पहले किसी तरह का कोई नकारात्मक सन्देश उनकी चुनावी हार को लेकर जनता में जाये।
जुलाई के अंतिम दिनों में मुख्यमंत्री मायावती ने छुआछूत के आगे घुटने टेक दिये थे। हुआ यह कि बसपा सरकार ने पहले मध्यान्ह भोजन रसोईयों के पदों पर आरक्षण लागू कर दिया। इस आरक्षण के लिए सरकार ने व्यवस्था दी थी कि हर स्कूल में भर्ती होने वाला पहला रसोईया दलित होगा। शायद ऐसा उन्होंने अपने जातिगत आधार को व्यापक करने के लिए दिया था। यह व्यवस्था लागू होते ही कई स्थानांे पर दलितों द्वारा पकाये गये खाने को खाने से इंकार करने के समाचार आये। पहले समाचारों में तो दलितों द्वारा भी दलितों का बनाया खाना न खाने के मामले भी थे। यह साफ-साफ छुआछूत का मामला था। परन्तु दलित-सवर्ण-मुसलमान का वोट बैंक बनाने में लगी मायावती को शायद यह लगा कि इससे उनके ब्राम्हणों एवं अन्य उच्च जातियों के साथ भाईचारे में आने वाले चुनावांे तक समस्या खड़ी हो सकती है तो उन्होंने घुटने टेक दिये। उन्होंने इस आदेश को ही वापस ले लिया और बाद में स्पष्टीकरण दिया कि ये नियुक्तियां ठेके पर होती हैं अतः इनके ऊपर आरक्षण लागू नहीं होता है। वैसे इस आरक्षण के बारे में उनके प्रतिद्वंद्वी मुलायम सिंह यादव ने पहले ही उनकी आलोचना कर दी थी। शायद उनके दिमाग में भी चुनावों के वोट तैर रहे थे।
प्रदेश के चारों प्रमुख राजनीतिक दल - बसपा, सपा, कांग्रेस और भाजपा कभी अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों के हित चिन्तक नहीं रहे। उन्होंने कभी भी उनके शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन स्तर को सुधारने के लिए कुछ नहीं किया। कांग्रेस को छोड़ दें तो बाकी तीनों ने आपस में समझौता कर उत्तर प्रदेश में राज्य सरकारों का समय-समय पर गठन किया। 1977 में मुलायम सिंह यादव और कल्याण सिंह मंत्री थे। पिछला विधान सभा चुनाव मायावती से हारने के बाद मुलायम सिंह को हार का डर ज्यादा सता रहा था। पिछड़ों में उनके पास केवल यादवों का वोट है जो स्वतंत्र रूप से उन्हें चुनाव नहीं जिता सकता है। उन्होंने सोचा कि अयोध्या के विवादित ढांचे के ध्वंस के नायक कल्याण सिंह के साथ मिल जाने से एक अन्य पिछड़ी जाति लोध का वोट उन्हें मिल जायेगा। इस अति उत्साह में उन्होंने कल्याण सिंह से हाथ मिला लिया। ध्यान देने योग्य बात है कि वे ऐसा पहले भी कर चुके थे। 2002 में मुलायम सिंह यादव ने कल्याण सिंह के बेटे राजबीर को मंत्री बनाया था। इस गठजोड़ से वे इतने अधिक उत्साहित हुए कि उन्होंने सपा के सीटिंग अधिसंख्यक मुसलमान सांसदों को टिकट देने से मना कर दिया। लोकसभा में समाजवादी पार्टी को पराजय का मुंह देखना पड़ा। उसके बाद मुलायम के अमर भाई भी उन्हें छोड़ कर चले गये। आजम खां जैसे तो पहले ही धता बता चुके थे। 2012 में होने वाले विधान सभा के आम चुनावों को देखते हुए मुलायम को मुसलमानों की बहुत याद आने लगी। उन्होंने मुसलमानों से माफी मांग ली। उन्होंने कल्याण सिंह को गलत तत्व बताते हुए कहा कि वे किसी भी सूरत में अब किसी भी ऐसे आदमी से हाथ नहीं मिलायेंगे जिसका हाथ बाबरी मस्जिद को गिराने में रहा हो। वैसे इसके लिए वे एक बार पहले भी मुसलमानों से माफी मांग चुके हैं।
दलितों के घर जाकर अखबार में फोटो छपवाने वाले राहुल गांधी के नेतृत्व में मिशन 2012 की तैयारी में लगी कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्षा रीता बहुगुणा जोशी कहां चुप रहने वाली थीं। कांग्रेस की जीत का पूरा दारोमदार जो मुसलमानों के हाथ में है। मुसलमान प्रदेश की आबादी का लगभग 18 प्रतिशत हैं। किसी जमाने में इनका वोट कांग्रेस को मिलता था तो कांग्रेस की सरकार प्रदेश में तो बनती ही थी दिल्ली में भी रास्ता मिल जाता था। उन्होंने मुलायम को अवसरवादी बताते हुए कहा कि मुसलमान उन्हें कभी माफ नहीं करेंगे। जैसे मुसलमानों ने उन्हें अपनी इकलौती प्रवक्ता बना दिया हो। वह बात तो दीगर है कि चुनाव आते-आते अल्पसंख्यक मुसलमानों का क्या रूख होगा। मुख्यमंत्री मायावती भी कहां चुप रहने वाली थीं। उन्होंने भी इतिहास के पेज पलटते हुए मुसलमानों को यह बताने की कोशिश की कि मुलायम सिंह बाबरी मस्जिद गिराने वालों के साथ कितनी बार हाथ मिला चुके हैं। उन्होंने यह उल्लेख नहीं किया कि वे भी बाबरी मस्जिद गिराने वालों के सहयोग से कितनी बार मुख्यमंत्री बनी हैं और जिनके घर रक्षाबंधन पर प्रेस फोटोग्राफरों को लेकर राखी बंधाने जाती थीं, वे लालजी टंडन कौन हैं?
भाजपा भी व्याकुल है। लेकिन उसके पास संकट ज्यादा है। उसकी काठ की हांडी एक बार चढ़ चुकी है। दुबारा उसे प्रयोग में लाया नहीं जा पा रहा। मुसलमान उनसे भ्रमित होने वाले नहीं हैं। दलित और पिछड़ी जातियों का वोट उन्हें पूरे प्रदेश में मिल नहीं सकता। ब्राम्हण और राजपूत भी उनके पास पूरा का पूरा है नहीं। कुछ मायावती के भाईचारे में उनके पास है तो कुछ कांग्रेस के पास। वणिक वोट प्रदेश में इतना है नहीं कि वह उन्हें चुनाव की वैतरणी पार करवा सके। आपस में गुटबाजी भी जोरों पर है।
जात-पांत और धर्म में बंटी उत्तर प्रदेश की मुख्य राजनीति में लोगों को लुभाने का दौर शुरू हो चुका है। नेताओं के मुंह से निकलने वाला एक-एक शब्द और नारा 2012 के विधान चुनावों को ध्यान में रख कर निकाला जा रहा है। वामपंथ को भी 2012 की तैयारियों पर ध्यान अभी से ध्यान देना होगा, उसकी अभी से तैयारी शुरू करनी होगी।
- प्रदीप तिवारी
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सोमवार, 9 अगस्त 2010

कई दिनों के बाद

कई दिनों तक चूल्हा रोया,
चक्की रही उदास!
कई दिनों तक कानी कुतिया,
सोयी उसके पास।

कई दिनों तक लगी भीत पर,
छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी,
हालत रही शिकस्त!

दाने आये घर के अन्दर,
कई दिनों के बाद।
धुंआ उठा आंगन से ऊपर
कई दिनों के बाद!

चमक उठी घर भर की आंखें
कई दिनों के बाद
कौए ने खुललायी पांखे
कई दिनों के बाद!


- नागार्जुन

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मंगलवार, 3 अगस्त 2010

बेटा बेटी

आज कल में ढल गया
दिन हुआ तमाम
तू भी सो जा सो गई
रंग भरी शाम
साँस साँस का हिसाब ले रही है ज़िन्दगी
और बस दिलासे ही दे रही है ज़िन्दगी
रोटियों के ख़्वाब से चल रहा है काम
तू भी सोजा ....
रोटियों-सा गोल-गोल चांद मुस्‍कुरा रहा
दूर अपने देश से मुझे-तुझे बुला रहा
नींद कह रही है चल, मेरी बाहें थाम
तू भी सोजा...
गर कठिन-कठिन है रात ये भी ढल ही जाएगी
आस का संदेशा लेके फिर सुबह तो आएगी
हाथ पैर ढूंढ लेंगे , फिर से कोई काम
तू भी सोजा...
- शंकर शैलेन्द्र
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सोमवार, 2 अगस्त 2010

लहू न हो तो क़लम

लहू न हो तो क़लम तरजुमाँ नहीं होता
हमारे दौर में आँसू ज़ुबाँ नहीं होता

जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा
किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता

ये किस मक़ाम पे लाई है मेरी तनहाई
के मुझ से आज कोई बदगुमाँ नहीं होता

मैं उस को भूल गया हूँ ये कौन मानेगा
किसी चराग़ के बस में धुआँ नहीं होता

श्वसीमश् सदियों की आँखों से देखिये मुझ को
वो लफ़्ज़ हूँ जो कभी दास्ताँ नहीं होता

- वसीम बरेलवी
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रविवार, 1 अगस्त 2010

सॉनेट का पथ

इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौड़ा;
सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट; क्या कर डाला
यह उस ने भी अजब तमाशा। मन की माला
गले डाल ली। इस सॉनेट का रस्ता चौड़ा

अधिक नहीं है, कसे कसाए भाव अनूठे
ऐसे आएँ जैसे क़िला आगरा में जो
नग है, दिखलाता है पूरे ताजमहल को;
गेय रहे, एकान्विति हो। उस ने तो झूठे
ठाटबाट बाँधे हैं। चीज़ किराए की है।
स्पेंसर, सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन की वाणी
वर्ड्सवर्थ, कीट्स की अनवरत प्रिय कल्याणी
स्वर-धारा है, उस ने नई चीज़ क्या दी है।


सॉनेट से मजाक़ भी उसने खूब किया है,
जहाँ तहाँ कुछ रंग व्यंग्य का छिड़क दिया है।

- त्रिलोचन
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केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा 7 सितम्बर को राष्ट्रव्यापी आम हड़ताल का आह्वान

नयी दिल्ली, 15 जुलाई 2010ः एक अत्यंत विरल घटना में नौ केन्द्रीय टेªड यूनियन संगठन-जो अलग-अलग विचारधाराओं को मानते हैं - यूपीए-दो सरकार की ऐसी जनविरोधी नीतियों के खिलाफ-जिनसे आम लोगों, खासकर मजदूर वर्ग को नुकसान पहुंचता है- संघर्ष करने के लिए एकजुट हुए हैं।
जब यह समाचार प्रेस में जा रहा है, केन्द्रीय टेªड यूनियनों और मजदूरांे एवं कर्मचारियों की फेडरेशनों के प्रतिनिधि दिल्ली के मावलंकर भवन में मजदूरों के दूसरे राष्ट्रीय सम्मेलन में अपना विचार-विमर्श शुरू कर चुके हैं। देश के कोने-कोने से विभिन्न केन्द्रीय टेªड यूनियनों और फेडरेशनों के प्रतिनिधि सम्मेलन में हिस्सा ले रहे हैं और उनमें अभूतपूर्व उत्साह है। सभी प्रतिनिधि यूपीए-दो सरकार की जनविरोधी नीतियों-खासकर महंगाई, मंदी से ग्रस्त उद्योगों में रोजगार के छिनने, श्रम कानूनों के उल्लंघन, असंगठित क्षेत्र में सामाजिक सुरक्षा के अभाव, सार्वजनिक क्षेत्र के विनिवेश-के विरूद्ध संघर्ष तीव्र करने पर जोर दे रहे हैं।
सम्मेलन में शामिल होने वाले नौ केन्द्रीय संगठन हैंः इंटक, एटक, सीटू, हिंद मजदूर सभा, टीयूसीसी, एआईसीसीटीयू, एआईयूटीयूसी, यूटीयूसी और एलपीएफ। राष्ट्रीय सम्मेलन से पहले इन संगठनों के बीच वार्ताओं के कई दौर चले। आशा है कि सम्मेलन के घोषणापत्र में 7 सितम्बर 2010 को अखिल भारतीय आम हड़ताल के आह्वान को मजदूर वर्ग के इस सम्मेलन में जबर्दस्त समर्थन मिलेगा। आशा की जाती है कि अन्य क्षेत्रों के मजदूर भी मजदूर वर्ग के इस संयुक्त आह्वान का अनुमोदन करेंगे।
सम्मेलन में जिस घोषणापत्र पर बहस चल रही है उसका मूलपाठ नीचे दिया जा रहा है।
घोषणापत्र
15 जुलाई 2010 को टेªड यूनियनों, श्रमिकों एवं कर्मचारियों, फेडरेशन के प्रतिनिधियों के इस दूसरे राष्ट्रीय सम्मेलन में विगत 14 सितम्बर 2009 केा सम्पन्न ऐतिहासिक सम्मेलन में सर्वसहमति से निर्धारित पांच सूत्री मांगों पर किये गये संयुक्त कार्यक्रमों की समीक्षा की गयी। 28 अक्टूबर को सम्पन्न अखिल भारतीय प्रतिरोध दिवस, 18 दिसंबर 2009 का विराट धरना और 5 मार्च 2010 का सत्याग्रह और जेल भरो कार्यक्रम, जिसमें 10 लाख श्रमजीवियों ने हिस्सा लिया, के आलोक में और उसके बाद उत्साह परिस्थिति को देखते हुए यह सम्मेलन निम्नाकिंत घोषण पत्र स्वीकार करता हैः टेªड यूनियनों द्वारा महंगाई रोकने के लिए कारगार कदम उठाये जाने की लगातार मांग किये जाने के बावजूद खासकर खाद्य पदार्थों के दाम लगातार ऊंचे होते हुए 17 प्रतिशत ऊपर पहुंच गये, मुद्रास्फीति दो अंकों में आ गयी, किंतु सरकार श्रमजीवी जनता के दुखों को कम करने के मामले में बिल्कुल संवेदनहीन बनी रही।
टेªड यूनियन अधिकार और श्रम कानूनों के बेरोकटोक किये जा रहे उल्लंघन के प्रति टेªड यूनियनों द्वारा व्यक्त चिंताओं के बावजूद परिस्थिति और भी ज्यादा रोजाना विकट एवं दमनकारी बनती जा रही है।
रोजगार के नुकसान, बेरोजगारी, असह्ाय जीवनदशा, काम के घंटे बढ़ना, अंधाधुंध ठेकाकरण और आउटसोर्सिंग और आकस्मीकरण का टेªड यूनियनों द्वारा लगातार विरोध किये जाने के बावजूद मजदूरों की हो रही बदतर जीवनदशा और मेहनतकश अवाम के गिरते जीवन स्तर को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया जा रहा है।
टेªड यूनियनों द्वारा विरोध किये जाने के बावजूद लाभ कमाने वाले सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों का विनिवेश और हाल में कोल इंडिया लि., बीएसएनएन, सेल, एनएलसी, हिंदुस्तान कॉपर, एनएमडीसी आदि में विनिवेश की कार्रवाई बेरोकटोक जारी है।
टेªड यूनियनों द्वारा असंगठित मजदूरों के लिए सार्वभौमिक सम्यक सामाजिक सुरक्षा तथा इसके लिए पर्याप्त कोष आवंटन किये जाने की लगातार मांग किये जाने के बावजूद बहुत मामूली कोष का आवंटन और लाभ दिए जाने के मामले में अनेक पाबंदियों के प्रावधान किये गये हैं।
यह सम्मेलन अत्यंत चिंतापूर्वक दर्ज करता है कि न केवल टेªड यूनियनों के विरोध की उपेक्षा कर दी गयी है, बल्कि खाद्य पदार्थों के दाम तेज गति से बढ़ानेवाली नीतियों को बर्बरतापूर्वक अमल में लाया जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार के अनुरूप पेट्रोल-डीजल के दामों को नियंत्रण से मुक्त किये जाने का ताजा सरकारी फैसला इसका उदाहरण है जिससे केरोसिन तेल, घरेलू गैस, डीजल और पेट्रोल का दाम और भी बढ़ जायेगा।
अतएव यह सम्मेलन सर्वसहमति से पूर्व निर्धारित मांगों को एक बार फिर निम्न प्रकार दोहराता है:
ऽ आवश्यक वस्तुओं के मूल्यवृद्धि की गति को रोकने के लिए सर्वव्यापी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के समुचित सुधार और वितरण उपाय और सट्टेबाजार पर रोक।
ऽ मंदी प्रभावित क्षेत्र में रोजगार सुरक्षा को सम्बन्धित उद्यमों को प्रोत्साहन पैकेज से जोड़ने के कदम उठाये जायें और ढांचागत उद्यमों में पर्याप्त सार्वजनिक निवेश किया जाए।

ऽ सभी मौलिक श्रम कानूनों को बिना किसी अपवाद या छूट के कठोरता से लागू किया जाए और श्रम कानूनों के उल्लंघन पर दंडात्मक कदम उठाया जाय।
ऽ असंगठित कामगार सामाजिक सुरक्षा कानून 2008 की योजनाओं में गरीबी रेखा के आधार पर पात्रता दायरे के रोक संबंधी प्रावधानों को हटाने के कदम उठाये जाएं और नेशनल फ्लोर लेवेल सोशल सिक्योरिटी सभी असंगठित कामगारों सहित ठेका एवं आकस्मिक श्रमिकों को दिलाने के लिए राष्ट्रीय कोष का गठन किया जाए जिसकी अनुशंसा असंगठित क्षेत्र उद्यमों के राष्ट्रीय आयोग और श्रम संबंधी स्थायी संसदीय समिति ने की है।
ऽ बजटीय घाटे को पूरा करने के मकसद से केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्र उद्यमों में विनिवेश का कदम न उठाया जाये, बल्कि उन के बढ़ते रिजर्व और सरप्लस का उपयोग उनके विस्तार और नवीनीकरण के लिए एवम् बीमार उद्यमों के पुनः स्थापन के लिए किया जाए।
श्रमिकों का यह राष्ट्रीय सम्मेलन संवैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए अपने वैध प्रतिरोध को जारी रखते हुए मजदूरों के गुस्से का इजहार करता है और उन गलत नीतियों को तुरंत सुधारने की मांग करता है, जिनसे श्रमजीवी जनता के हितों को और संपूर्ण समाज को खतरनाक तरीके से नुकसान पहुंचता है।
अतएवं यह सम्मेलन 7 सितम्बर 2010 को अखिल भारतीय आम हड़ताल के आह्वान का निश्चय करता है।
यह सम्मेलन देश के तमाम मेहनतकश अवाम का आह्वान करता है कि वे सम्बद्धता का भेदभाव भूलकर, संयुक्त रूप से आह्वान की जाने वाली इस राष्ट्रव्यापी हड़ताल को पूरी तरह कामयाब बनायें और मजदूरों की संपूर्ण एकता को साकार करें। यदि इस दौरान सरकार इन मांगों को नहीं मानती है तो टेªड यूनियनें संघर्ष को और तेज करंेगी और संसद मार्च की तैयारी करेंगी।
आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) द्वारा जारी
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शनिवार, 31 जुलाई 2010

सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे

सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
परछाइयों से नीद में लड़ते हुए लोग
जीवन से अपरिचित अपने से भागे
अपने जूतों की कीलें चमका कर संतुष्ट
संतुष्ट अपने झूठ की मार से
अपने सच से मुँह फेर कर पड़े
रोशनी को देखकर मूँद लेते हैं आँखें

सोते हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
ऋतुओं से डरते हैं, ये डरते हैं ताज़ा हवा के झोंकों से
बारिश का संगीत इन पर कोई असर नहीं डालता
पहाड़ों की ऊँचाई से बेख़बर
समन्दरों की गहराई से नावाकिफ़
रोटियों पर लिखे अपने नाम की इबारत नहीं पढ़ सकते
तलाश नहीं सकते ज़मीन का वह टुकड़ा जो इनका अपना है
सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
इनकी भावना न चुरा ले जाए कोई
चुरा न ले जाए इनका चित्र
इनके विचारों की रखवाली करनी पड रही है मुझे
रखवाली करनी पड रही है इनके मान की
सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
- शलभ श्रीराम सिंह
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थम नहीं रहा है थाईलैंड का संकट

थाईलैंड गंभीर उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है। हालांकि सेना ने राजधानी बैंकाक को सरकार विरोधी रेडशर्ट पर कड़ प्रहार करके तत्काल प्रदर्शनकारियों से मुक्त कर दिया है लेकिन राजनीतिक असंतोष, बेचैनी तथा संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है। पिछले कुछ समय से बैंकाक तथा आसपास के इलाके हिंसा की गिरफ्त में थे। सेना की कार्रवाई से स्थिति भले ही नियंत्रण में मालूम पड़े लेकिन असंतोष उबल रहा है। 45 दिनों से चला आ रहा उग्र प्रदर्शन अभिसित बेज्जजीवा के इस्तीफे की मांग कर रहे थे। वे नए चुनाव की भी मांग कर रहे थे। इस कार्रवाई से उन लोेगों में रोष और बढ़ेगा जो यह समझते रहे हैं कि वर्तमान सरकार ने गैरकानूनी तरीके से सत्ता पर कब्जा कर रखा है। इससे अभिसित विरोधी और सरकार समर्थक ताकतों के बीच राजनीतिक धु्रवीकरण बढ़ेगा ही। सरकार विरोधी ताकतों ने तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र के लिए संयुक्त मोर्चा (यूडीडी) का गठन किया है। उसमें रेड शर्ट भी शामिल है।
ऐसा नहीं लगता है कि रेड शर्ट सरकार को अपदस्थ करने का प्रयास छोडें़गे और सरकार भी ताकत के सहारे उसे दबाने का प्रयास करेगी। दो ऐसे अवसर आए थे जब इस गतिरोध को दूर किया जा सकता था लेकिन दोनों पक्षों ने उसका उपयोग करने से इंकार कर दिया। हाल के सप्ताहों में दो बड़ी घटनाओं में रेडशर्ट तथा सुरक्षा बलों के बीच संघर्ष में कम से कम 60 लोग मारे गए। पहले प्रधानमंत्री अभिसित बेज्जजीवा ने निर्धारित समय से एक वर्ष पहले नवंबर में चुनाव कराने की पेशकश की। लेकिन रेडशर्ट ने उसे अस्वीकार कर दिया। वे पहले अभिसित बेज्जजीवा सरकार का इस्तीफा चाहते थे। प्रदर्शनकारी यह भी चाहते थे कि सरकार के वरिष्ठ मंत्री को हिंसा के प्रथम दोैर के लिए जिम्मेदार घोषित किया जाए जो अप्रैल में घटित हुई थी। फिर मई के दूसरे सप्ताह में हिंसा की घटना हुई। उसके तीन दिन पहले संकट का समाधान सन्निकट मालूम पड़ता था लेकिन सरकार की ओर से उसे ठुकरा दिया गया। ऐसा लगता है कि दोनों पक्षों के गरमपंथी शांति कायम करने के पक्ष में नहीं हैं।
वर्तमान थाई सरकार पूर्व प्रधानमंत्री थाकसिन शिनवात्रा को इसके लिए दोषी मानती है जिन्हें 2006 में सत्ताहरण के दौरान अपदस्थ कर दिया गया था और जो अभी विदेश में स्व-निर्वासन में रह रहे हैं एवं थाईलैंड में सरकार विरोधी कार्रवाई को हवा दे रहे हैं। सरकार शिनवात्रा को वर्तमान संकट तथा हिंसा के लिए दोषी समझती है। रेडशर्ट का एक तबका शिनवात्रा का समर्थन बताया जाता है जो यह समझता है कि उन्हें गलत एवं गैरकानूनी तरीके से अपदस्थ कर दिया गया था। लेकिन यह भी सच है कि विरोध प्रदर्शन गहरे असंतोष को भी प्रतिबिंबित करता है। बैंकाक में चल रहे प्रदर्शनों तथा विरोध कार्रवाइयांे में मुख्य तौर से आर्थिक रूप से पिछड़े एवं उपेक्षित ग्रामांचल के लोगों ने हिस्सा लिया। ये लोग चाहते हैं कि सरकार और प्रशासन में उनकी आवाज को भी महत्व दिया जाए। राष्ट्रीय मेल-मिलाप के लिए कोई रोड मैप तैयार नहीं किया जा सकता है। यदि लोकतंत्र की उनकी मांग पर गौर नहीं किया जाएगा जो पूरे राष्ट्र को सत्ताधिकार में शामिल करें न कि केवल सेना तथा राजशाही द्वारा समर्थित शासक विशिष्ट वर्ग को।
थाईलैंड के वर्तमान संकट में अनेक चीजें शामिल हैं। आंशिक रूप से ही सही यह एक वर्ग संघर्ष भी है जिसमें उत्तर तथा पूरब के गरीब किसान शामिल हैं जिन्हें यह भय है कि वे कारपोरेट खेती तथा अन्य किस्म के कृषि व्यवसाय को अपनी जमीन खो देंगे। एक अंश में यह दो किस्म की राजनीति के बीच संघर्ष है एक ओर सेना समर्थित तथा शाही समर्थक विशिष्ट वर्ग एवं संकुचित लोकतंत्र है जिसने दशकों से किसी चुनौती का सामना नहीं किया है तथा दूसरी ओर थाकसिन शिनवात्रा जैसे पूंजीपति का भूमंडलीकृत पूंजीवाद जिन्होंने जनता को लामबंद करने के लिए सार्वभौम का लाभ उठाया एवं अपने नियंत्रण में टेलीविजन स्टेशनों का उपयोग किया।
थाईलैंड में प्रकट रूप से असमानता नहीं है जहां इडोनेशिया या भारत जैसी बड़े पैमाने पर शहरी झुग्गी-झोपड़ियां हैं। संपत्ति की खाई अधिकांशतः छिपी है क्योंकि वह भौगोलिक रूप से निर्धारित है। कुछ आप्रवासन के बावजूद दो-तिहाई से अधिक थाई अभी भी ग्रामांचल में रहते हैं और उनमें से करीब आधे गरीबों की श्रेणी में आते हैं। नगरों में नव मध्यम वर्ग लोकतंत्र का अच्छा ड्राइवर साबित नहीं हुआ है जिसकी अनेक विश्लेषकों ने भविष्यवाणी की थी। उसके अधिकांश सदस्य सुधार को दबाने के सरकार के प्रयासों का समर्थन करते हैं जिसमें हाल का विरोध प्रदर्शन भी शामिल हैं
अभी सबसे अधिक जरूरत इस बात की है कि सरकार बातचीत शुरू करने की रेडशर्ट की मांग को स्वीकार करे। यह सच है कि नवंबर में चुनाव कराने की सरकार की पेशकश को स्वीकारनहीं किया क्योंकि प्रदर्शनकारियों को गरमपंथी तबके ने बेरिकेड को खत्म करने से इंकार कर दिया। लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री अभिसित बेज्जजीवा को अपनी पेशकश तथा रियायत को रद्द नहीं करना चाहिए था और सेना को कार्रवाई के लिए नहीं बुलाना चाहिए था। इस कार्रवाई से तो यही लगता है कि अभी भी वहां सेना प्रभुत्वकारी शासक तंत्र बनी हुई है। उन्होंने अपने एक अलग वायदे को भी पूरा नहीं किया। उन्होंने दक्षिण में मुस्लिम बहुल इलाके में सुरक्षा बलों को नियंत्रित करने का वायदा किया था जहां एक अलग विद्रोह थम नहीं रहा है।
यह बात छिपी नहीं है कि सेना के पीछे राजभवन है। हालांकि राजा के समर्थकों ने यह प्रचारित किया कि वे राजनीतिक संघर्ष से ऊपर है लेकिन यह भी सच है कि राजा ने अपने 60 वर्षों के शासनकाल में हर सैनिक सत्ताहरण का समर्थन किया। लेकिन बहुत की कम थाई खुलकर यह बात कहता है फिर भी लोग महसूस करने लगे हैं कि अब समय आ गया है कि थाईलैंड में संसदीय लोकतंत्र स्थापित किया जाए। पिछले सितंबर से ही राजा भूमिबोल आदुल्यादेज अस्पताल में हैं उनकी अनुपस्थिति ने एक शून्य पैदा कर दिया है। जिसे एक कामचलाऊ सरकार से भरा जाना चाहिए जो चुनाव की तैयारी करे और राजशाही की शक्ति कम करने के लिए एक आयोग की पहल करे। हाल की अवधि में विदेश मंत्री कासित पिरोम्या विदेशी राजनयिकों से थाई संकट में हस्तक्षेप नहीं करने का आग्रह करते रहे हैं लेकिन हाल में उन्होंने ऐसी बातें स्पष्ट रूप से कही जो अनेक थाई महीनों से निजी रूप से कहते रहे हैं।
कासित पिरोम्या ने अप्रैल में बाल्टीमोर में जोन्स होपकिन्स विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एडवास्ड इंटरनेशनल स्टडीज में भाषण देते हुए कहा कि थाई राजनीतिक घटनाक्रम में एक सकारात्मक चीज यह है कि 15 या 20 वर्ष पूर्व थाईलैंड की स्थिति के विपरीत सामान्य जन राजनीतिक प्रक्रिया में भाग ले रहे हैं। 15 या 20 वर्ष पूर्व राजनीतिक खिलाड़ी नौकरशाहों, कुछ हद तक उद्योगपतियों, कुछ हद तक पेशेवर राजनीतिज्ञों तथा कुछ हद तक सैनिक आधिकारियों तक सीमित थे। उन्होंने आगे कहा कि हम आशा करते हैं कि घातक हिंसक अनुभवों के साथ ही वहां एक ऐसा लोकतंत्र होगा जो प्रत्यक्ष लोकतांत्रिक भागीदारी के साथ प्रतिनिधित्वपूर्ण लोकतंत्र को जोड़ेगा। फिर उन्होंने यह महत्वपूर्ण बात कही कि मैं समझता हूं कि हमें इतना साहसी होना चाहिए कि हमें राजशाही की संस्था के वर्जित विषय के संबंध में भी बातचीत करनी चाहिए। हमें बहस करनी चाहिए कि हमें किस प्रकार का लोकतांत्रिक समाज चाहिए। उन्होंने अंत में यह भी कहा कि बैंकाक की सड़कों पर अब कोई रक्तपात नहीं होना चाहिए और फिर थाईलैंड की निश्चलता समाप्त हो।
जब थाईलैंड के भविष्य के संबंध में संघर्ष चल रहा है तो एक व्यक्ति जो पहले ऐसे कठिन संघर्षों का समाधान निकालने में सक्षम थे, एकदम चुप है। वे हैं राजा भूमिबोल आदुल्यादेज जो एक लम्बे समय तक अपने देश को एकताबद्ध करने वाले विशिष्ट व्यक्ति थे। जब देश कठिन दौर से गुजर रहा है एवं देश के विशिष्ट वर्ग और उसके अधिकार वंचित गरीबों के बीच तीक्ष्ण संघर्ष चल रहा है तो 82 वर्षीय राजा घटनाक्रम को प्रभावित करने वाले अपने अधिकार को क्षीण होते देख रहे हैं। थाईलैंड के एक विशेषज्ञ चार्ल्स केयेस ने कहा है कि यह राजनीतिक सहमति की समाप्ति है जिसे राजा ने बनाए रखने में मदद की। यह उत्तराधिकार के मसले से अधिक कुछ है। राजा ने अभी तक कुछ भी नहीं कहा है कि जिससे तनाव समाप्त हो जैसा कि उन्होंने 1993 और 1992 में किया जब उन्होंने अपनी बात कहकर राजनीतिक रक्तपात होने से रोक दिया था।
करीब 64 वर्ष पहजे राजगद्दी पर आरूढ़ होने के बाद भूमिबोल ने राजनीतिक अधिकार के बिना एक संवैधानिक राजा की भूमिका ग्रहण की और उस भूमिका का विस्तार करके एक विपुल नैतिक शक्ति प्राप्त कर ली। उन्होंने शाही परिवार के विशाल व्यावसायिक संपत्ति का विस्तार किया। राजशाही का समर्थन करते हुए एक विशिष्ट राजतंत्रवादी वर्ग उभर कर सामने आ गया जिसमें नौकरशाही, सेना और उच्च व्यावसायिक वर्ग शामिल थे। वर्तमान संकट के दौरान एक पैलेस प्रिबी काँसिल ने अपनी शक्ति का प्रयोग किया। यही यह विशिष्ट वर्ग है जिसे अभी प्रदर्शनकारी चुनौती दे रहे हैं।
जो लेाग यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं, वे अपने को राजा के प्रति निष्ठावान घोषित करते हैं और रेडशर्ट पर राजशाही को समाप्त करने का प्रयास करने का दोषारोपण करते हैं क्योंकि वे थाई समाज में परिवर्तन लाना चाहते हैं। थाईलैंड के संबंध में एक ब्रिटिश इतिहासकार क्रिस बेकर ने कहा है कि राजा के नाम का राजनीतिकरण ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि राजशाही अब केन्द्रीय सुलहकारी भूमिका अदा नहीं कर सकता है। अनेक रेडशर्ट का कहना है कि वे राजा का सम्मान करते हैं लेकिन उस व्यवस्था में परिवतर्न लाना चाहते हैं जिसका उन्होंने निर्माण किया है। ऐसा लगता है कि समाज में विभाजन काफी गहरा हो गया है और शेष इतना उग्र हो गया है कि मेल मिलाप करने में काफी समय लग जाएगा। अनेक विश्लेषकों को कहना है कि देश की जागरूक ग्रामीण जनता और उसके विशिष्ट वर्ग के बीच एक स्थायी संघर्ष शुरू हो गया है जिसे आसानी से दूर नहीं किया जा सकता है। राजा की बीमारी ने भविष्य की चिंता बढ़ा दी है। राजगद्दी के उत्तराधिकारी राजकुमार महाबाजी- रालोंगकोर्न ने अपनी पिता की लोकप्रियता हासिल नहीं की है।
उत्तराधिकारी तथा राजशाही की भावी भूमिका के बारे मंें बातचीत निषिद्ध है और उसके बारे में काना-फूसी ही हो सकती है। इसके लिए कठोर लेसे मैजेस्टी कानून बना हुआ है जिसके अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को जो राजा रानी, उनके उत्तराधिकारी या रीजेंट को बदनाम, अपमानित या धमकी देता हो पंद्रह वर्ष की सजा दी जा सकती है। इसके तहत लेखकों, अकादमीशियनों, कार्यकर्ताओं तथा दोनों विदेशी एवं स्थानीय पत्रकारों को भी सजा दी जा सकती है।
हालांकि वे प्रदर्शनकारी ही हैं जो थाई समाज में परिवर्तन की मांग कर रहे हैं। इनमें वे कुछ लोग भी शामिल हैं जो भविष्य में एक रिपब्लिकन तरह की सरकार चाहते हैं। थाईलैंड के विदेश मंत्री कासित पिरोम्या ने भी इस संबंध में आवाज उठाई है।
- कमलेश मिश्र
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