भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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शनिवार, 22 मई 2010

संसद में भाकपा - दंतेवाड़ा में 62वीं बटालियन पर माओवादियों के हमले पर बयान

उप सभापति महोदय। सर्वप्रथम हमारी पार्टी यानि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के जवानों की हत्या की कड़े से कड़े शब्दों में भर्त्सना करती है। हमारी पार्टी मारे गये उन जवानों के परिवार के सदस्यों के प्रति संवेदना और सहानुभूति प्रगट करती है। छत्तीसगढ़ में हुई घटना पर गृहमंत्री का बयान विशेष है। लेकिन मैं अति विशेष होना चाहता हूं।आज छत्तीसगढ़ में जनजातियों के लोग मजबूरन हाशिये पर आ रहे हैं। उन्हें कठोर यातनाएं दी जा रही हैं। खनन कार्यो, प्रोजेक्ट और विकास कार्यों के नाम पर उन्हें अपने निवास स्थान से हटाया जा रहा है। वन सम्पदा निगमित क्षेत्र और बहुराष्ट्रीय निगमों को सौंपा जा रहा है। छत्तीसगढ़ के आदिवासियों पर थोपी जा रही नवउदारवादी नीतियों के कारण वहां नई स्थिति उत्पन्न हो गई है। सर्वप्रथम इसे समझने की जरूरत है। मैं सभी राजनैतिक दलों से अनुरोध करता हूं कि इस समस्या पर धैर्य से विचार करें। यहां मैं डा। अम्बेडकर को उद्धृत करना चाहूंगा। संविधान पीठ में अपेन अंतिम भाषण में उन्होंने कहा था कि “अगर हम संविधान का इस्तेमाल जनता की समस्याओं को समझने और उसका समाधान करने के लिए एक असरदार औजार के रूप में करने में असफल होते हैं तो इसका परिणाम अराजकता का बोलबाला हो सकता है।” यह डा. अम्बेडकर की चेतावनी थी।उग्रवाद: गलत रास्ताआज वामपंथी उग्रवाद जो कर रहा है वह अराजकतावाद ही है। कम्युनिस्ट होने की हैसियत से हम उनके तरीकों से सहमत नहीं है और हम उनकी भर्त्सना करते हैं। लेनिन के समय भी ऐसा ही था। उन्होनंे कहा था कि वामपंथी उग्रवाद और वामपंथी साम्यवाद ‘बचपन की अराजकता’ है। राजनीति में वामंपथी उग्रवाद का रूझान एक प्रवृत्ति है। इससे वैचारिक और राजनैतिक स्तर पर लड़ना होगा और नियम-कानून के अंतर्गत इसका समाधान करना होगा। इससे निपटने के लिए सरकार को सही नीति बनानी होगी। आज हम देख रहे हैं कि इस संबंध में सरकार की नीति त्रुटिपूर्ण है। यह गलत नीति है और सरकार को नीति का पुनर्निर्धारण करना चाहिए। जहां तक छत्तीसगढ़ का संबंध है सरकार को अपनी नीति के संबंध में पुनर्विचार करनी चाहिए।‘सलवा जुडूम’ से हानिइस सदन में मैंने कई बार ‘सलवा जुडुम’ का मामला उठाया है। आज हम इस समस्या को उठा रहे हैं क्योंकि हम छत्तीसगढ़ की स्थिति पर बहस कर रहे हैं। बयान का संबंध छत्तीसगढ़ में घटी घटना से है। इसलिए पहले भी मैंने ‘सलवा जुडुम’ की समस्या को उठाया था। आज छत्तीसगढ़ में क्या हो रहा है? न्याय देने और ‘सलवा जुडुम’ पीड़ितों को पुनर्वास देने में असफलता के कारण माओवादियों की संख्या बढ़ रही है।सलवा जुडुम के पीड़ितों को न तो न्याय मिला है और न ही उनका पुर्नवास हुआ है। इसका परिणाम माओवादियों के द्वारा भर्ती किये जाने की संख्या में वृद्धि हुई है। मैं खुफिया का आंकड़ा प्रस्तुत कर रहा हूं कि ‘सलवा जुडुम’ शुरू होने के बाद माओवादियों द्वारा भर्ती किये जाने में कम से कम 22 प्रतिशत की वृद्धि हुई हैं। अगर मैं गलत हूं तो गृहमंत्री मेरे बयान को सुधार सकते हैं। भारत सरकार को इसके संबंध में राजनीति नहीं करनी चाहिए। इसे न तो छत्तीसगढ़ में और न ही पश्चिम बंगाल में राजनीति करनी चाहिए। इस समस्या पर न तो गृहमंत्री और न ही रेल मंत्री को राजनीति करनी चाहिए। अगर इस तरह की राजनीति होती है तो हम देश के प्रजातांत्रिक ढांचे को क्षति पहुंचा रहे हैं।सरकारों की उदासीनतामैं इस ओर ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा कि 17.10.2008 को छत्तीसगढ़ सरकार ने स्वीकार किया कि सलवा जुडुम के कारण जलाये गये घरों के कारण पीड़ितों का पुनर्वास करने के साथ ही उनकी क्षतिपूर्ति भी करेगी। लेकिन पिछले दो वर्षों में इसने कुछ नहीं किया है। यह एक तथ्य है। लेकिन भारत सरकार ने अदालत में स्वीकार करने के बाद कि सलवा जुडुम ने घरों को जलाया है ओर अन्य गैरकानूनी काम किए हैं, वह सलवा जुडुम की जय जयकार कर रही है। खुफिया और सुरक्षाकर्मियों के द्वारा किये गये हिंसक कार्यो की भी कोई अनदेखी नहीं कर सकता है। गरीब आदिवासी दो तरह के हिंसकों के बीच फंसे हुए हैं। सलवा जुडुम भी हमारी संसदीय प्रजातंत्र के लिए खतरा है। अगर आप कहते हैं कि वामपंथी उग्रवाद संसदीय प्रजातंत्र के लिए खतरा है तो एक गैर सरकारी संगठन सलवा जुडुम भी प्रजातांत्रिक राजनीति के लिए खतरा है।उच्चतम न्यायालय18.2.2010 को उच्चतम न्यायालय ने आवेदकों से पुनर्वास की विस्तृत योजना प्रस्तुत करने को कहा था। मै आवेदकों का नाम बताता हूं क्योंकि मामला उच्चतम न्यायालय में हैं। ये नाम हैं - नंदिनी सुन्दर तथा अन्य, करतराम जोड़ा, मनीष कुंजाम-हमारी पार्टी के नेता, अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के नेता (जो भाकपा का है) तथा अन्य। उच्चतम न्यायालय के द्वारा मांगी गई जानकारी देने में छत्तीसगढ़ राज्य सरकार को दो सप्ताह लगा। लेकिन आज तक उसने कुछ नहीं किया है। उक्त पुनर्वास कार्यक्रम के प्रमुख अवयव निम्नतम लिखित हैं:1. सर्वेक्षण के द्वारा पीड़ित व्यक्तियों की पहचान,2. प्रखण्ड मुख्यालय में जिला न्यायाधीशों आदि की बैठकें3. बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य अपराधों से निपटना और गांवों में आवश्यक सेवा बहाल करना।इन सबों की निगरानी वरिष्ठ सेवानिवृत जज या भारत सरकार के सेवानिवृत सचिव करेंगे। शांति बहाल करने का एकमात्र तरीका प्रशासन को बहाल करना और न्याय प्रदान करना है। मैं बता रहा हूं कि प्रमुख सेवा में विलम्ब नहीं होना चाहिए क्योंकि वे आदिवासी कल्पना से परे यातनाओं तथा विपदाओं से गुजरे हैं। मैं फिर कह रहा हूं कि उनकी दशा अति दयनीय है। उनका कुपोषण का स्तर तीसरे दर्जे का है। आप वहां से आये किसी भी व्यक्ति, जो जनजाति का है या उनके बीच काम किया है, से इसकी जानकारी ले सकते हैं। आपकों पता चल जायेगा कि वहां तीसरे दर्जें का कुपोषण है। खाद्य कमिश्नर ने ऐसा बयान उच्चतम न्यायालय के समक्ष दिया है। सभी बाजार बंद हैं जिसे खोलने की जरूरत है। जन वितरण प्रणाली को बहाल करने की जरूरत है। आदिवासियों के लिए खाद्यान्न प्राप्त करने का वही एकमात्र स्रोत है। सभी दुकानों के साथ-साथ स्कूल भी बंद हैं। सवाल है कि इस समस्या से कैसे निपटा जाये? माओवादियों का कहना है कि वे किसी खास तरह के युद्धविराम के लिए राजी है और उन ग्रामों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बहाल किये जाने के पक्षधर हैं। उक्त समाचार 14.4.2010 के ‘हिन्दू’ दैनिक में आया है। माओवादियों ने यह भी संकेत दिया है कि वे एक साथ युद्धविराम के लिए तैयार हैं। क्या सरकार अपनी बात पर अड़ी रह सकती है? सरकार का कहना है कि उनके द्वारा हिंसा बंद करने के बाद ही वह बात कर सकती है। लेकिन युद्धविराम या हिंसा को बंद करना दोनों पक्षों के बीच सहमति का मामला है। सरकार को भी खुले दिमाग से सामने आना चाहिए। हमें नागालैंड में समस्याओं से निपटने का अनुभव है। अब एक संकेत है जिसे भी 14.4.2010 के ‘हिन्दू’ में प्रकाशित किया गया है।अब मैं अपने कुछ अनुभवों की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा। मैं लोगों से मिलता हूं। ऐसे लोग भी हैं जो अहिंसा में विश्वास करते हैं। वे छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के बीच काम करते हैं। उन लोगों को वहां काम करने नहीं दिया जाता है। उनको परेशान किया जाता है। उनके विरूद्ध मुदकमा दायर किया गया है और उन्हें वहां से निष्कासित किया जा रहा है। अब वे छत्तीसगढ़ के बाहर हैं। अगर हमारे पास आदिवासी लोगों के पास पहुंचने का प्रजातांत्रिक साधन नहीं है तो हम उनका विश्वास कैसे हासिल कर सकते हैं? माओवादियों और आम ग्रामीणों के बीच पहचान करना असम्भव है। पुलिस की कारवाई से दोनों तरफ हिंसा बढ़ेगी।जीवन अमूल्य है। केन्द्रीय रिजर्व पुलिस के जवानों का जीवन अमूल्य है। एक ग्रामीण या गरीब आदिवासी का भी जीवन अमूल्य है। हमें उन गरीब आदिवासियों के विषय में सोचना होगा। यही मूल समस्या है जिस पर हमें ध्यान देना है। पंचायत के शिड्यूल क्षेत्र में विस्तार के 5वीं शिड्यूल का लगातार उल्लंघन हो रहा है। उसी प्रकार संविधान के अंतर्गत आदिवासियों को दिये गए सभी अधिकारों का भी उल्लंघन हो रहा है। मैं पूछना चाहता हूं कि लगातार ये उल्लंघन क्यों हो रहे हैं? यह किसी एक राजनैतिक दल की समस्या नहीं है। मैं सभी दलों से पूछला चाहता हूं कि स्वतंत्रता के 60 साल से अधिक हो जाने के बाद भी हमारे देश में आदिवासी लोग क्यों उतनी दयनीय और जोखिम भरे हालत में रह रहे हैं। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? क्या यह राज्य सरकारों की असफलता नहीं है? क्या यह केन्द्र सरकार की असफलता नहीं है? क्या यह हम लोगों की सामूहिक असफलता नहीं है? मैं यहां उपस्थित सभी व्यक्तियों की अर्न्तआत्मा से अपील करता हूं। मैं पूरी संसद की अर्न्तआत्मा से अपील करता हूं। क्या यह हम लोगों की सामूहिक जिम्मेदारी नहीं है? आदिवासी लोग दयनीय हालत में क्यों रहें? यह मूल समस्या है और इसका समाधान होना चाहिए। मेरी समझ से इस संबंध में केन्द्रीय सरकार के द्वारा अपनाई गई नीति सही नहीं है। यह नीति गलत है। मैं राजनीति और गृह मंत्री के द्वारा संसद के बाहर दिये गये बयान के विवाद में नहीं पड़ना चाहता हूं। मैं इस विवाद में नहीं पड़ना चाहता क्योंकि गृहमंत्री के काम करने का तरीका गलत है। वे पश्चिम बंगाल में कुछ कहते है तो दिल्ली में कुछ और कहते हैं। हमारे देश में यह सब क्या हो रहा है? गृहमंत्री पूरे देश का गृहमंत्री होता है। अगर मामला बंगाल में मुख्यमंत्री के टेबल पर रूकता है तो यह छत्तीसगढ़ में क्यों नहीं रूकता है? अंत में वे कहते हैं कि वे पूरी नैतिक जिम्मेदारी लेते है और मामला दिल्ली में उनके टेबल पर आकर रूकता है। फिर वे बयान देते हैं कि 2-3 साल में वे माओवादियों का खात्मा कर देंगे। आखिर इन सबके पीछे नीति क्या है?सरकार से सवालमैं सरकार से पूछना चाहता हूं। क्या यह बता सकती है? कि उसकी क्या नीति है? जब तक हम आदिवासी लोगों को विश्वास में नहीं लेते है और आदिवासियों के बीच भेद पैदा कर आपस में लड़ाने वाले गैर सरकारी तत्वों को बढ़ावा देना बंद नहीं करते हैं तब तक हम वामपंथी उग्रवाद से लड़ाई में नहीं जीत सकते हैं। यह एक रूझान है जो जारी रहेगी। जब तक हमारे देश में बड़े स्तर पर असमानता और असंतोष है तब तक आपको वामपंथी उग्रवाद मिलता रहेगा। प्रजातंत्र में हमें छत्तीसगढ़ के बहुमत के विषय में सोचना होगा। यह उनके भविष्य का सवाल है। अगर हम आदिवासी लोगों की मनोस्थिति को नहीं समझ सकते हैं तो हम प्रजातंत्र की मूल भावना को भी नहीं समझ सकते हैं। अगर इस देश के आदिवासियों को प्रजातंत्र नहीं सुरक्षा प्रदान कर सकता है तो प्रजातंत्र का क्या मतलब है? आदिवासियों की सुरक्षा ही हमारे देश के संसदीय प्रजातंत्र की सुरक्षा है। भारत सारकार को इन समस्याओं का समाधान निकालना चाहिए और इसके लिए अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए। गृहमंत्री ने कहा है कि वे जांच रिपोर्ट पेश करेंगे। देखना है कि वे क्या रिपोर्ट पेश करते हैं। जांच रिपोर्ट में वे बातें नहीं होनी चाहिए जो गृहमंत्री कहते रहे हैं। यह एक गंभीर समस्या है और सदन को इसे गंभीरता से लेना चाहिए। जो घटनाएं घर्टी हैं उसकी भर्त्सना की जानी चाहिए और आने वाले दिनों में इसकी पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन इसके लिए केन्द्र सरकार को उचित नीति बनानी चाहिए। हमारे सामने सवाल है कि क्या केन्द्र में समुचित नीति बनाने की इच्छाशक्ति है? मैं इन्हीं शब्दों के साथ अपना वक्तव्य समाप्त करता हूं।
- डी. राजा

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