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शनिवार, 5 जून 2010
at 6:31 pm | 0 comments | अतुल कुमार अनजान
हम किस दिन के इंतजार में
कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने ग्रामीण भारत और किसानों की दुर्दशा पर लगभग आधी सदी पहले लिखा था ‘‘जिधर देखिऐ उधर पूंजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई थी। किसानों की खेती उजड़ जाये उनकी बला से’’। आज भी स्थिति बदली नहीं है। किसान, खेत मजदूर एवं असंगठित मजदूर यातना झेल रहे हैं। संघर्ष कर रहे है और अपनी आंखों में स्वप्न पाल रहे हैं। वो उस दिन के इंतजार में है जब उनकी जीवन में कुछ तो चमक आएगी। लेकिन सच्चाई तो ये है कि उदारीकरण की इस आंधी में सरकारी नीतियों और उसकी आगोश में खूब मजा लूट रहे देशी-विदेशी पूंजी मालिक अकूत मुनाफा लूट रहे हैं। अब उनकी निगाह ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने के नाम पर, ढांचागत बुनियादी विकास को ग्रामीण क्षेत्र में ले जाने के नाम पर, यह गठजोड़ खेती का कंपनीकरण चाहता है। अगर सचमुच देशी-विदेशी पूंजी के गठजोड़ के चलते किसान अपनी जमीन और किसानी से पूरी तरह बेदखल हो गये तो छोटा-मझोला सीमांत गरीब किसान तो मिट ही जायेगा। साथ ही साथ खेत मजदूरों का विशाल समुदाय भूख-गरीबी, विस्थापन की लपटों का और गंभीर शिकार हो जायेगा। वह समाज में जीवित होकर भी जिंदा नहीं कहलायेंगे। खेती के कंपनीकरण के चलते देश में कृषि व्यापार करने वाली कंपनियों को बढ़ावा मिलेगा। वैसे भी उन्हें बढ़ावा मिल ही रहा है। वास्तव में कृषि व्यापार करने वाली कंपनियां किसानों से नफरत करती हैं। अमरीका और यूरोप में तो किसानों को कंपनियों ने खेती से बाहर ही कर दिया। नतीजे के रूप में देखा जा सकता है कि 30 करोड़ की आबादी वाले अमरीका में खेती करने वालों की संख्या लगभग 7 लाख परिवारों में सिमट गयी है। यूरोप के 15 देशों में महज 70 लाख किसान बचे हुए हैं। इस तरह के कृषि मॉडल के साफ संदेश है कि खेती से किसानों को बाहर निकाला जाये। जब खेती से किसान बाहर निकल जायेंगे तो खेत मजदूरों की हालत तो और भी भयावह हो जायेगी। जनसंख्या की दृष्टि से भारत एक बढ़ता हुआ देश है। भारत आज सबसे जवान देश है। 110 करोड़ की आबादी के 51 प्रतिशत 25 वर्ष की कम आयु के हैं। आबादी का दो तिहाई भाग 35 वर्ष से कम है। अनुमान लगाया जा रहा है कि सन् 2020 में भारत की औसत आयु 29 वर्ष हो जायेगी। हम कैसे अपनी विशाल युवा समुदाय को कृषि एवं औद्योगिक विकास के साथ जोड़कर रोजगार के अवसर देकर उनके जवान जोश और ताकत का इस्तेमाल देश के लिए कर सके यह सबसे बड़ी चुनौती है। आज भी भारत का 70 फीसदी आबादी गांव में रहता है। खेती किसानी से ही लगभग 74 फीसदी लोगों को पूर्ण और अर्ध रोजगार मिलता है। बढ़ते हुए सीमांत और लघु जोतों की संख्या किसानों के सीमांतीकरण की ओर इशारा करती है। 1970-71 में सीमांत जोतों की संख्या 3।568 करोड़ थी जो 2000-01 में दोगुने से भी अधिक बढ़कर 7।612 करोड़ हो गयी है। लघु जोतों की संख्या 1.343 करोड़ से बढ़कर 2.282 करोड़ हो गयी है। सीमांत और लघु जोतों वाले किसान देश के 82 प्रतिशत किसान हैं और इनकी खेती को किस प्रकार से आर्थिक रूप से सक्षम बनाया जाये यह हमारी पहल का मुख्य केन्द्र होना चाहिए। कृषि जनगणना 2000-01 के अनुसार देश में औसत जोत का आकार 1.39 हेक्टेयर है। विभिन्न राज्यों में इसका आकार अलग-अलग है। 15 प्रमुख राज्यों में से पांच राज्यों में औसत जोत 1 हेक्टेयर से भी कम है। केरल राज्य में सबसे कम 0.24 कम है। इसके बाद क्रमशः बिहार में 0.58 हेक्टेयर और पश्चिम बंगाल में 0.82 हेक्टेयर है। असम, उड़ीसा एवं आंध्र प्रदेश में औसत जोत का आकार राष्ट्रीय औसत से कम है।उपरोक्त तथ्यों से आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि विशाल ग्रामीण क्षेत्र और भारत की जनसंख्या का लगभग दो तिहाई हिस्सा आजादी के 62 साल के बाद भी व्यापक बुनियादी परिवर्तन के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहा है। वर्ष 2007 के आंकड़ों के अनुसार देश के 533 खरब-अरबपतियों के पास कुल 12 लाख 32 हजार 135 करोड़ रूपये की दौलत थी। वहीं दूसरी तरफ 2004-05 के अध्ययन के आधार पर कांग्रेसी सांसद प्रो. अर्जुन सेन गुप्ता आयोग ने बताया कि देश की 77 फीसदी जनता अर्थात 83 करोड़ 65 लाख लोगों की रोजाना की आमदनी 20 रूपये से कम है। 2007 के सरकारी आंकडों के मुताबिक मुकेश अंबानी के हजारों करोड़ रूपये की सालाना आमदनी है। लेकिन इसके अतिरिक्त अपनी कंपनी के चेयरमैन की हैसियत में वे तनख्वाह भी लेते हैं। उनकी प्रतिमाह तनख्वाह 2 करोड़ 54 लाख रूपये है। ऐसे ही 578 बड़े उद्योगपति अधिकारी प्रतिवर्ष 1497 करोड़ की तनख्वाह लेते है और 230 लोग दो करोड़ से अधिक की तनख्वाह लेते हैं। देश में दौलत का इतना असमान वितरण चौका देने वाला ही नहीं वरन सोचने पर मजबूर करता है कि सामाजिक अन्याय की भी कोई सीमा होगी। असमान आर्थिक स्थितियों के चलते क्या इस बात की आवश्यकता नहीं है कि देश की दौलत का न्यायिक वितरण किया जाये। पूरे देश की जनसंख्या का 9 प्रतिशत आदिवासी और जनजातियां हैं। वह देश के संपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र के 15 प्रतिशत क्षेत्र में निवास करते हैं। वह पहाड़ों, जंगलों और प्रकृति के गोद में गुजर-बसर करने वाले लोग हैं। जिन क्षेत्रों में वे रहते हैं वह खनिज संपदा, वनस्पति, कीमती पत्थरों और जीव जंतुओं से भरपूर हैं। परन्तु आदिवासी जनजाति के लोग प्राकृतिक संपदा के हिस्सेदार नहीं मात्र खामोश तामाशायी बन कर रह गये हैं। देश में कुल 700 जनजातियां हैं। सरकारों के नीतियों के चलते 70 जनजातियां खत्म होने की स्थिति में हैं। केन्द्र और राज्य सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों, देशी-विदेशी गठजोड़ की निजी कम्पनियों, कार्पोरेट घरानों को उद्योग स्थापित करने के नाम पर आदिवासियों एवं जनजातियों को उजाड़ कर उनकी जमीन दे रही है। उजाड़े हुए लोगों की पुनर्वास की सम्मानजक एवं अर्थपूर्ण कोई योजना भी नहीं है। आजादी के बाद प्रगतिशील भूमिसुधार लागू किये जाने की कोई विशिष्ट पहल नहीं की जा सकी। केरल, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा में भूमि सुधार लागू कर खेत मजदूरों को और ग्रामीण मजदूरों को कुछ न्याय दिया जा सका। अधिकांश राज्य भूमि सुधार से बचते हैं। फलतः समाज के शोषित, पीड़ित जिनमें अधिकांश अनुसूचित जाति, पिछड़ी जाति और आदिवासी हैं वह आज सामाजिक और आर्थिक हासिये पर ढकेल दिये गये हैं। वह आज गरीबी रेखा के नीचे जीने पर विवश हैं। बिहार में डी. बंधोपाध्याय आयोग ने भूमि सुधार संबंधी सिफारिशों को बिहार सरकार के सामने रखा परन्तु सरकार ने अपना हाथ खींच लिया है। अगर सरकार इस कमीशन की सिफारिशों पर काम करे तो ग्रामीण गृहविहीनों को वास भूमि, हदबंदी से फाजिल, भूदान और सरकारी जमीन का वितरण, पर्चाधारियों को जमीन पर कब्जा और बटाईदारों के बेदखली की सुरक्षा संभव हो सकती है। भूमि सुधार के द्वारा हम गांव से खेतिहर मजदूरों, गरीब किसानों के शहर की ओर पलायन को रोक सकते हैं। आज एक अनुमान के अनुसार 7 से 9 प्रतिशत के बीच गांव से शहरों की ओर हर वर्ष पलायन हो रहा है। भूमि सुधार आज एक ज्वलंत राष्ट्रीय कर्तव्य है। किसान, खेत मजदूर एवं असंगठित मजदूरों को सर्वाधिक कठिन चुनौतियों भरे वक्त से गुजरना पड़ रहा है और इससे निपटने के लिए व्यापक एकता बनाकर संघर्ष के मैदान में अपनी हिफाजत के लिए उतरना होगा। गांव, किसान, खेती और खेत मजदूर की हिफाजत से ही भारत के कृषि क्षेत्र की हिफाजत की जा सकती है। यह आइने के सामने बैठकर कंघी काढ़ने का वक्त या तितलियों से प्रेम का दौर नहीं है। (लेखक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिव और अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय महासचिव हैं।)
- अतुल कुमार अनजान
कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने ग्रामीण भारत और किसानों की दुर्दशा पर लगभग आधी सदी पहले लिखा था ‘‘जिधर देखिऐ उधर पूंजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई थी। किसानों की खेती उजड़ जाये उनकी बला से’’। आज भी स्थिति बदली नहीं है। किसान, खेत मजदूर एवं असंगठित मजदूर यातना झेल रहे हैं। संघर्ष कर रहे है और अपनी आंखों में स्वप्न पाल रहे हैं। वो उस दिन के इंतजार में है जब उनकी जीवन में कुछ तो चमक आएगी। लेकिन सच्चाई तो ये है कि उदारीकरण की इस आंधी में सरकारी नीतियों और उसकी आगोश में खूब मजा लूट रहे देशी-विदेशी पूंजी मालिक अकूत मुनाफा लूट रहे हैं। अब उनकी निगाह ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने के नाम पर, ढांचागत बुनियादी विकास को ग्रामीण क्षेत्र में ले जाने के नाम पर, यह गठजोड़ खेती का कंपनीकरण चाहता है। अगर सचमुच देशी-विदेशी पूंजी के गठजोड़ के चलते किसान अपनी जमीन और किसानी से पूरी तरह बेदखल हो गये तो छोटा-मझोला सीमांत गरीब किसान तो मिट ही जायेगा। साथ ही साथ खेत मजदूरों का विशाल समुदाय भूख-गरीबी, विस्थापन की लपटों का और गंभीर शिकार हो जायेगा। वह समाज में जीवित होकर भी जिंदा नहीं कहलायेंगे। खेती के कंपनीकरण के चलते देश में कृषि व्यापार करने वाली कंपनियों को बढ़ावा मिलेगा। वैसे भी उन्हें बढ़ावा मिल ही रहा है। वास्तव में कृषि व्यापार करने वाली कंपनियां किसानों से नफरत करती हैं। अमरीका और यूरोप में तो किसानों को कंपनियों ने खेती से बाहर ही कर दिया। नतीजे के रूप में देखा जा सकता है कि 30 करोड़ की आबादी वाले अमरीका में खेती करने वालों की संख्या लगभग 7 लाख परिवारों में सिमट गयी है। यूरोप के 15 देशों में महज 70 लाख किसान बचे हुए हैं। इस तरह के कृषि मॉडल के साफ संदेश है कि खेती से किसानों को बाहर निकाला जाये। जब खेती से किसान बाहर निकल जायेंगे तो खेत मजदूरों की हालत तो और भी भयावह हो जायेगी। जनसंख्या की दृष्टि से भारत एक बढ़ता हुआ देश है। भारत आज सबसे जवान देश है। 110 करोड़ की आबादी के 51 प्रतिशत 25 वर्ष की कम आयु के हैं। आबादी का दो तिहाई भाग 35 वर्ष से कम है। अनुमान लगाया जा रहा है कि सन् 2020 में भारत की औसत आयु 29 वर्ष हो जायेगी। हम कैसे अपनी विशाल युवा समुदाय को कृषि एवं औद्योगिक विकास के साथ जोड़कर रोजगार के अवसर देकर उनके जवान जोश और ताकत का इस्तेमाल देश के लिए कर सके यह सबसे बड़ी चुनौती है। आज भी भारत का 70 फीसदी आबादी गांव में रहता है। खेती किसानी से ही लगभग 74 फीसदी लोगों को पूर्ण और अर्ध रोजगार मिलता है। बढ़ते हुए सीमांत और लघु जोतों की संख्या किसानों के सीमांतीकरण की ओर इशारा करती है। 1970-71 में सीमांत जोतों की संख्या 3।568 करोड़ थी जो 2000-01 में दोगुने से भी अधिक बढ़कर 7।612 करोड़ हो गयी है। लघु जोतों की संख्या 1.343 करोड़ से बढ़कर 2.282 करोड़ हो गयी है। सीमांत और लघु जोतों वाले किसान देश के 82 प्रतिशत किसान हैं और इनकी खेती को किस प्रकार से आर्थिक रूप से सक्षम बनाया जाये यह हमारी पहल का मुख्य केन्द्र होना चाहिए। कृषि जनगणना 2000-01 के अनुसार देश में औसत जोत का आकार 1.39 हेक्टेयर है। विभिन्न राज्यों में इसका आकार अलग-अलग है। 15 प्रमुख राज्यों में से पांच राज्यों में औसत जोत 1 हेक्टेयर से भी कम है। केरल राज्य में सबसे कम 0.24 कम है। इसके बाद क्रमशः बिहार में 0.58 हेक्टेयर और पश्चिम बंगाल में 0.82 हेक्टेयर है। असम, उड़ीसा एवं आंध्र प्रदेश में औसत जोत का आकार राष्ट्रीय औसत से कम है।उपरोक्त तथ्यों से आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि विशाल ग्रामीण क्षेत्र और भारत की जनसंख्या का लगभग दो तिहाई हिस्सा आजादी के 62 साल के बाद भी व्यापक बुनियादी परिवर्तन के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहा है। वर्ष 2007 के आंकड़ों के अनुसार देश के 533 खरब-अरबपतियों के पास कुल 12 लाख 32 हजार 135 करोड़ रूपये की दौलत थी। वहीं दूसरी तरफ 2004-05 के अध्ययन के आधार पर कांग्रेसी सांसद प्रो. अर्जुन सेन गुप्ता आयोग ने बताया कि देश की 77 फीसदी जनता अर्थात 83 करोड़ 65 लाख लोगों की रोजाना की आमदनी 20 रूपये से कम है। 2007 के सरकारी आंकडों के मुताबिक मुकेश अंबानी के हजारों करोड़ रूपये की सालाना आमदनी है। लेकिन इसके अतिरिक्त अपनी कंपनी के चेयरमैन की हैसियत में वे तनख्वाह भी लेते हैं। उनकी प्रतिमाह तनख्वाह 2 करोड़ 54 लाख रूपये है। ऐसे ही 578 बड़े उद्योगपति अधिकारी प्रतिवर्ष 1497 करोड़ की तनख्वाह लेते है और 230 लोग दो करोड़ से अधिक की तनख्वाह लेते हैं। देश में दौलत का इतना असमान वितरण चौका देने वाला ही नहीं वरन सोचने पर मजबूर करता है कि सामाजिक अन्याय की भी कोई सीमा होगी। असमान आर्थिक स्थितियों के चलते क्या इस बात की आवश्यकता नहीं है कि देश की दौलत का न्यायिक वितरण किया जाये। पूरे देश की जनसंख्या का 9 प्रतिशत आदिवासी और जनजातियां हैं। वह देश के संपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र के 15 प्रतिशत क्षेत्र में निवास करते हैं। वह पहाड़ों, जंगलों और प्रकृति के गोद में गुजर-बसर करने वाले लोग हैं। जिन क्षेत्रों में वे रहते हैं वह खनिज संपदा, वनस्पति, कीमती पत्थरों और जीव जंतुओं से भरपूर हैं। परन्तु आदिवासी जनजाति के लोग प्राकृतिक संपदा के हिस्सेदार नहीं मात्र खामोश तामाशायी बन कर रह गये हैं। देश में कुल 700 जनजातियां हैं। सरकारों के नीतियों के चलते 70 जनजातियां खत्म होने की स्थिति में हैं। केन्द्र और राज्य सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों, देशी-विदेशी गठजोड़ की निजी कम्पनियों, कार्पोरेट घरानों को उद्योग स्थापित करने के नाम पर आदिवासियों एवं जनजातियों को उजाड़ कर उनकी जमीन दे रही है। उजाड़े हुए लोगों की पुनर्वास की सम्मानजक एवं अर्थपूर्ण कोई योजना भी नहीं है। आजादी के बाद प्रगतिशील भूमिसुधार लागू किये जाने की कोई विशिष्ट पहल नहीं की जा सकी। केरल, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा में भूमि सुधार लागू कर खेत मजदूरों को और ग्रामीण मजदूरों को कुछ न्याय दिया जा सका। अधिकांश राज्य भूमि सुधार से बचते हैं। फलतः समाज के शोषित, पीड़ित जिनमें अधिकांश अनुसूचित जाति, पिछड़ी जाति और आदिवासी हैं वह आज सामाजिक और आर्थिक हासिये पर ढकेल दिये गये हैं। वह आज गरीबी रेखा के नीचे जीने पर विवश हैं। बिहार में डी. बंधोपाध्याय आयोग ने भूमि सुधार संबंधी सिफारिशों को बिहार सरकार के सामने रखा परन्तु सरकार ने अपना हाथ खींच लिया है। अगर सरकार इस कमीशन की सिफारिशों पर काम करे तो ग्रामीण गृहविहीनों को वास भूमि, हदबंदी से फाजिल, भूदान और सरकारी जमीन का वितरण, पर्चाधारियों को जमीन पर कब्जा और बटाईदारों के बेदखली की सुरक्षा संभव हो सकती है। भूमि सुधार के द्वारा हम गांव से खेतिहर मजदूरों, गरीब किसानों के शहर की ओर पलायन को रोक सकते हैं। आज एक अनुमान के अनुसार 7 से 9 प्रतिशत के बीच गांव से शहरों की ओर हर वर्ष पलायन हो रहा है। भूमि सुधार आज एक ज्वलंत राष्ट्रीय कर्तव्य है। किसान, खेत मजदूर एवं असंगठित मजदूरों को सर्वाधिक कठिन चुनौतियों भरे वक्त से गुजरना पड़ रहा है और इससे निपटने के लिए व्यापक एकता बनाकर संघर्ष के मैदान में अपनी हिफाजत के लिए उतरना होगा। गांव, किसान, खेती और खेत मजदूर की हिफाजत से ही भारत के कृषि क्षेत्र की हिफाजत की जा सकती है। यह आइने के सामने बैठकर कंघी काढ़ने का वक्त या तितलियों से प्रेम का दौर नहीं है। (लेखक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिव और अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय महासचिव हैं।)
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