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मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

हालात - जहां मौत एक गिनती है

इस साल मई में हम कैमरा टीम के साथ गोरखपुर के आसपास के इलाकों में जापानी बुखार से हुई मौतों की कहानी दर्ज कर रहे थे। जून का महीना बीतते-बीतते बारिश का पानी फिर से जमने लगा और इसी के साथ दिमागी बुखार ने भी अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। 1978 से शुरू हुई इस बीमारी से उत्तर प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में अब तक बारह हजार से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है। गैरसरकारी अस्पतालों का आंकड़ा उपलब्ध नहीं है लेकिन ऐसा कहा जा रहा है कि यहां मौत के आंकड़े सरकारी अस्पतालों में हुई मौतों से कई गुना अधिक होंगी। हजारों बच्चों की मौत के बावजूद सरकार अब तक कोई ठोस नीति नहीं बना पाई है। सरकार ने 27 साल बाद इंसेफेलाइटिस के एक रूप जापानी इंसेफेलाइटिस के टीकाकरण का फैसला किया लेकिन चार साल तक टीकाकरण करने के बाद इस साल इसलिए टीकाकरण नहीं हो सका क्योंकि टीके रखे-रखे खराब हो गए। मतलब यह कि जापानी बुखार से बचने का इस बरस कोई रास्ता न था। इसी दौरान उत्तर प्रदेश सरकार के स्वास्थ्य मंत्री ने भी बचकाना बयान दे डाला। उन्होंने कहा कि हमने ग्रामीण इलाकों और कस्बों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को सुविधा संपन्न बना दिया है इसलिए बेवजह जिला अस्पतालों में आने का कोई मतलब नहीं है। इसी आपाधापी में अगस्त का महीना बीत गया और बुखार ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया।



सितंबर के महीने में एक बार फिर मौत की खबरें आनी शुरू हो गईं। ये अलग बात है कि बच्चों की मौतों की रोज-रोज आने वाली खबरें अभी न्यूज रूम की टी आर पी नीति की नजर में न चढ़ने के कारण अदृश्य पेजों पर हाशिए पर पड़ी थीं। ऐसे समय में हम भी अपनी कहानी में मौतों को दर्ज करने आठ सितंबर की सुबह गोरखपुर के बाबा राघव दास मेडिकल कालेज पहुंचे। मेडिकल कालेज के एपिडेमिक वार्ड में जगह-जगह मरीजों के परिवार वाले भरे पड़े थे। कैमरामेन पंकज ने वार्ड का मुआयना किया और ट्राईपोड रख कर फ्रेम बनाने लगे। मई के महीने में यहां इक्का-दुक्का मरीज थे। अब पंकज के हर फ्रेम में कई मासूम बच्चे के चेहरे कैद हो रहे थे। हर बेड पर कम से कम दो-तीन बच्चे और उनका पस्त पड़ा परिवार। जूनियर डाक्टर जानता है कि इस बार तो टीका भी नहीं लगा है। इसलिए वे यही कह रहे थे कि मस्तिष्क ज्वर है। इस मस्तिष्क ज्वर का निदान कैसे होगा यह किसी के मस्तिष्क में नहीं था। सारे मस्तिष्क जैसे एक होनी को घटते हुए देखने के आदी हो चले थे।



वार्ड में भीड़ न हो इस समझ से मैं गलियारे की बेंच पर बैठ गया। बगल में बैठी नौजवान मुस्लिम औरत ने सुबकते हुए मुझसे कलम और कागज मांगा। उस पर उसने किसी का मोबाइल नंबर लिखा। उसका डेढ़ साल का बेटा भी यहां भरती था। कई हफ्ते उसे बीमारी समझने और अपने गांव-कसबे में ठोकर खाने में बीत गए। काश! मेरे पास कोई जादू होता और मैं मानवीय स्वास्थ्य मंत्री अनंत मिश्रा जी से पूछता यह बिचारी किस अस्पताल में जाए। अनंत मिश्र जैसों के बच्चे सरकारी अस्पतालों में दाखिल नहीं होंगे और न ही उनके घर तक मच्छर पहुंच सकेंगे। तभी एक औरत अपनी बारह साल की अचेत बेटी को गोद में उठाए बदहवास आती दिखाई दी। कुशीनगर के बड़गांव टोला उर्मिला और शारदा प्रसाद की बेटी मधुमिता को पंद्रह अगस्त से दौरे पड़ने शुरू हो गए थे। गांव और कस्बे में इधर-उधर चक्कर लगाने में ही इस परिवार के हजारों रुपए खर्च हो गए। रोते-रोते उर्मिला ने बताया कि कैसे इस बीमारी ने पूरे परिवार को सड़क पर खड़ा कर दिया है। यह पूछने पर कि क्या उन्होंने अपनी बिटिया को टीके लगवाए थे- जवाब न में मिला।



मैं फिर उस मुस्लिम महिला के बगल में जा बैठा। अभी तक उसका फोन नहीं आया था लेकिन वार्ड की भयावहता से वह अपने डेढ़ साल के बेटे के भविष्य को लेकर परेशान थी और लगातार रो-रो कर हलकान हुए जा रही थी। स्वास्थ्य मंत्री के दावे को चुनौती देने के लिए एक समाचार एजेंसी की टीम भी वहां पहुंच चुकी थी। एजेंसी के रिपोर्टर की दुविधा थी कि उन्हें कोई भी डाक्टर आधिकारिक वक्तत्व नहीं दे रहा था। तब उन्होंने हमारे सहयोग के लिए आए गोरखपुर के पूर्व छात्र नेता व पत्रकार अशोक चौधरी को घेर लिया।



अशोक कुछ बोलते ही कि वार्ड के दूसरे कोने से गगन भेदती चीखों ने हमें हिला दिया। यह वार्ड के एक कमरे के बाहर से उठी आवाजें थी। ढाई साल के एक बच्चे ने दम तोड़ दिया था। बच्चे की मौत पर उसके परिवार वाले विलाप कर रहे थे। यह दूसरा बच्चा था जिसने उस दिन दिमागी बुखार से दम तोड़ा था। उस वार्ड में हर परिवार अपने ऊपर मंडरा रही मौत से आशंकित था। हम वार्ड के बाहर खड़े थे। थोड़ी देर बाद उस परिवार का मुखिया, संभवत उस नन्हें शिशु का दादा घुंघराले बालों वाले प्यारे शिशु को तेजी से लेकर बाहर निकला। उस नन्हें शिशु का सलोना चेहरा पूरे वार्ड को गहरी खामोशी और अवसाद में डुबा चुका था। हमने भी अपना ट्राईपौड समेटा और इमरजंसी वार्ड के पास आ गए। तभी उसी तीव्रता वाली चीख हैडफोन के जरिए मेरे कानों तक पुहंचा। दाहिनी तरफ नजर घुमाई तो वही मुसलिम महिला दहाड़ मारकर छाती पीट रही थी जिसने आधा घंटा पहले मुझे वार्ड के गलियारे में किसी परिचित का नंबर लिखने के लिए कलम और कागज मांगा था। हमारे फ्रेम में क्लोज अप में उसका आंसुओं से भरा चेहरा और हेडफोन पर अरे कोई मोर बेटवा के जिया दे... का करुण आतर्नाद था। राघव दास मेडिकल कालेज, गोरखपुर में अपनी फिल्म के लिए मौत की कहानी दर्ज करते हुए हमें सिर्फ तीस मिनट बीते थे और हम दो मौतों को देख चुके थे। अब उस आधी मौत के बारे में पता करने का हौसला मेरे अंदर नहीं बचा था जो बारह साल की लगभग विकलांग हो चुकी मधुमिता को बचाने में घरबार बेच कर कर्ज में डूब कर हासिल कर चुकी थी।



हम मेडिकल कालेज से लौट रहे हैं। गाड़ी गोरखपुर की भीड़ वाली सड़कों और बरसाती पानी के जमाव के बीच रास्ता बनाते हुए जा रही है। रेलवे स्टेशन पहुंचा तो एक पत्रकार दोस्त का संदेश मिला- बाबा राघवदास मेडिकल कालेज में छह बच्चों की आज मौत हुई।



 संजय जोशी

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