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सोमवार, 17 सितंबर 2012

वैश्वीकरण के दौर में कफन कहानी की प्रासंगिकता

हिन्दी मंे यथार्थवादी कहानी लेखन की शुरूआत प्रेमचंद ने की। उसका अन्यतम् उदाहरण ‘कफन’ है। इसीलिये बहुत से कथा समीक्षकों ने कथावस्तु तथा शिल्प की दृष्टि से कफन कहानी को पहली नई कहानी स्वीकार किया है। ‘कफन’ कहानी भारत में अंग्रेजी राज के दौर में सामन्ती समाज के क्रूर शोषण के शिकार दलित कृषि मजदूर की कथा है जिसमें धीसू-माधव जैसे पात्र अपने शोषण का प्रतिरोध अकर्मण्यता प्रदर्शित करते हैं।घीसू और माधव उस सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों की उपज हैं जहां गालियां भी पड़ती हैं, लात-घूंसे भी पड़ते हैं बेगार भी लिया जाता है। ऊपर से अस्पृश्यता का दंश।
    कहानी की कथावस्तु से परिस्थितियों के साथ-साथ घीसू-माधव के चरित्र का उद्घाटन होता है। जाड़े की रात, अंधकार में सारा गांव डूबा हुआ है। घीसू और माधव झोपड़े के द्वार पर अलाव के सामने दूसरों के खेत से चोरी किये हुए आलू भूनते हुए बैठे हैं। माधव की जवान बीवी प्रसव-पीड़ा से कराह रही है। दोनों शायद इसी इंतजार में हैं कि वह मर जाये तो आराम से सोयें। लेखक ने घीसू और माधव की प्रकृति का चित्रण इस तरह किया है साक्षात हमारे सामने उपस्थित हो। ‘‘चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम’’ घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम। माधव आधे घण्टे काम करता तो घण्टे भर चिलम पीता। इसलिये उन्हे कहीं मजदूरी नहीं मिलती थी। घर में फांके की नौबत आ जाती तब दोनों मजदूरी की तलाश करते। गांव मंे काम की कमी नहीं थी। किसानों का गांव था मेहनती आदमी के लिये पचास काम थे, मगर इन दोनों को लोग उसी वक्त बुलाते जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी संतोष कर लेने के सिवा और कोई चारा नहीं होता।’
    बड़ा विचित्र जीवन था, घर में मिट्टी के दो चार-बर्तनों के सिवा कोई संपत्ति नहीं थी, फटे चीथड़ों में अपनी नग्नता को ढंके हुए जी रहे थे, उन्हें कोई सांसारिक चिंता नहीं थी। कर्ज से लदे हुए, गालियां भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई गम नहीं। इनकी गरीबी देखकर वसूली की बिल्कुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कर्ज दे ही देते थे। दूसरों के खेत से चोरी कर लाये आलू-मटर भूनकर खाते, गन्ने तोड़कर रात मंे चूसते। बुधिया के आने पर इस घर में व्यवस्था की नींव पड़ी। वह दूसरों के घर चुनाई-पिसाई कर, घास काट कर सेर भर आटे का इन्तजाम कर लेती थी और दोनों का पेट भरती थी। इससे ये दोनोे और आलसी हो गये थे। बल्कि कुछ अकड़ने भी लगे थे। कोई उन्हें कार्य पर बुलाता, तो दुगुनी मजदूरी मांगते। वहीं बुधिया प्रसव-पीड़ा से तड़प रही है और दोनों उसकी मौत की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अलाव से गर्म-गर्म आलू निकाल कर खा रहे हैं। घीसू द्वारा उसे देख-आने के लिये कहने पर माधव बहाना बना देता है। उसे डर है वह कोठरी में गया तो आलू का बड़ा भाग भीखू खा जायेगा।
    यह अकर्मण्यता, अमानवीयता घीसू और माधव में कैसे पैदा होती है। प्रेमचंद ने इस कहानी में इसका खुलासा किया है। हमारी व्यवस्था में उसके बीज मौजूद है-प्रेमचंद ने लिखा है-’’ जिस समाज में दिन-रात मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहां इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी, वे लोग जो किसानों की कमजोरियों का फायदा उठाना जानते थे ज्यादा सम्पन्न थे। मेहनत करने वाले विपन्न थे और शोषण करने वाले फल-फूल रहे थे’’। प्रेमचंद ने घीसू को ज्यादा विचारवान बताया है जो किसानों के विचार शून्य समूह में सम्मिलित होने के बजाय उन लोगों के साथ उठते-बैठते हैं जो गांव के सरगना या मुखिया बने हुए हैं। यद्यपि यहां उन्हें सम्मान नहीं मिलता। उनके इस कृत्य को देखकर सारा गांव उन पर उंगली उठाता है। पर घीसू को  इस बात का संतोष है कि उसे कम से कम किसानों की तरह जी-तोड़ मेहनत नहीं करनी पड़ती। उनकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग फायदा तो नहीं उठाते।
    घीसू और माध्व कामचोरी क्यों करते हैं अकर्मण्यता क्यों करते हैं यहां समझ में आता है। काम की कमी नहीं है गांव में पर काम नहीं करते। भूखों मरने की नौबत आती है तब काम की तलाश करते हैं। शोषण उनसे बेहतर स्थिति वाले किसानों का भी हो रहा है, लेकिन विचार शून्य होने के कारण वे अपना शोषण बर्दाश्त कर रहे हैं घीसू और माधव को यह मंजूर नहीं। बुधिया मर रही है, पर उसे बचाने का उद्यम नहीं करते। अलाव से गर्म-गर्म आलू निकालकर खाते हैं। घीसू को अपने जवानी के समय एक दिन-दरयाव ठाकुर के यहाँ बेटी के विवाह मे दिया गया भोज याद आता है। माधव कहता है ‘‘अब हमें कोई भोज नहीं खिलाता। घीसू कहता है’’ अब कोई क्या खिलायेगा ? अब तो सबको किफायत सूझती है। शादी-ब्याह में मत खर्च करो, क्रियाकर्म में मत खर्च करो, पूछो गरीबों का माल बटोर-बटोर कर कहाँ रखोगे ? बटोरने में तो कभी नहीं है। हाँ खर्च में किफायत सूझती है।’ दोनों इसकी चर्चा करते आलू खाकर पानी पीकर सो जाते हैं। रात में बुधिया मर गई थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था दोनों रोते-पीटते हैं। पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे होकर सान्त्वना देते हैं। अंतिम संस्कार के लिये बांस, लकड़ी का इंतजाम करते हैं। लेकिन कफन के लिये पैसे नहीं हैं पहले जमींदार के पास जाते हैं। जमींदार उनसे नफरत करता है फिर दो रूपये का ढिंढोरा पीटकर सेठ-साहूकारों से दो-दो चार-चार आने वसूल कर लेते हैं। जब पांच रूपये की अच्छी रकम हो जाती है तब कफन लेने निकलते हैं। लेकिन कफन के पैसे से शराब पीते हैं-दावत उड़ाते हैं।
    प्रेमचंद ने यहां घीसू-माधव की अकर्मण्यता, अमानवीयता की चरम स्थिति का चित्रण किया है। और यह भी बताया है कि घीसू और माधव को अमानवीय कौन बना रहा हैं। ऐसा नहीं है कि घीसू और माधव में मानवीय संवेदना नहीं है-मानवीय संवेदना उनमें भी है-‘‘बुधिया प्रसव पीड़ा से पछाड़ खा रही थी रह-रहकर उसके मुँह से ही ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज निकलती थी कि दोनें कलेजा थाम लेते थे।’ यह उद्धरण और दूसरी जगह कफन के पैसे मिलने पर वे कहते हैं-यही पांच रूपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते।’ कफन के पैसे से दावत उड़ाने के बाद ‘‘बची हुई पूड़ियां-भिखारी को देना’ इस बात के प्रमाण है।
    प्रेमचंद ने उस व्यवस्था के चरित्र को उजागर किया है-जो दान, धर्म, उदारता का नाटक करती है और दोनों हाथों से गरीबों को लूटती है। समाज की यह व्यवस्था ही घीसू माधव को अकर्मण्य, अमानवीय बनाती है।
    प्रेमचंद की इस कहानी को पढ़ते हुए आज की व्यवस्था पर हम दृष्टि डालें तो आज भी घीसू-माधव को मौजूद पाते है। प्रेमचंद की कफन कहानी हमें यह सोचने के लिये विवश करती है कि घीसू-माधव अकर्मण्य, अमानवीय होकर जीते रहे, किसान विचार शून्य बने रहे, अपनी स्थिति को नियति का खेल मानकर उसे स्वीकार करके बदहाली में जीते रहे या उससे उबरने के लिये-उसे अमानवीय बनाने वाली व्यवस्था से मुक्ति के लिये एक होकर संघर्ष करें ? यह सवाल हमारे सामने हैं और आज के समय में इस कहानी के नये सिरे से पाठ की आवश्यकता है।
- थान सिंह वर्मा

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