इस समय महिलाओं के सशक्तीकरण का वैष्विक संघर्ष सारे संसार में एक समान प्रबलता के साथ लड़ा जा रहा है। परन्तु दो सौ साल पहले भारत और यूरोप की महिलाओं ने अपना सफर अलग-अलग मार्गो से शुरू किया था।
यूरोप में महिला आन्दोलन की शुरूआत
यूरोप की महिलाओं ने सबसे पहले आधुनिक उद्योगों के संसार में प्रवेश किया। क्लारा जे़टकिन का जन्म बर्लिन में सन 1857 में हुआ और उन्होंने पोशाक बनाने वाली एक फैक्ट्री में 18 वर्ष की आयु में नौकरी शुरू की। उन्होंने फैक्ट्री के अन्दर महिलाओं और पुरूषों के मध्य समानता का मुद्दा उठाया। उन्होंने सभी महिला मजदूरों को ट्रेड यूनियन में शामिल करने के लिए प्रेरित किया। एक हड़ताल में भाग लेने के लिए क्लारा को उनके पति ओसिप सहित जर्मनी से निकाल दिया गया। दोनों पेरिस चले गये। फ्रांस की पुलिस ने भी उनका पीछा किया। भूख से क्लारा के पति ओसिप और उनके बच्चे मर गये। क्लारा बर्लिन वापस चली आयीं। क्लारा ने सन 1890 में लिब्नेख्त के साथ जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया।
कोपेनहागन में सन 1907 में क्लारा जे़टकिन ने समाजवादी महिलाओं का पहला अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया। सन 1910 में ‘काम के घंटे आठ’ की मांग कर रही अमरीका की फैक्ट्रियों में काम कर रही महिलाओं पर गोली चलाई गयी जिसमें 8 महिला मजदूरों की मृत्यु हो गयी। क्लारा ने सन 1910 में समाजवादी महिलाओं के दूसरे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें 8 मार्च को महिलाओं की अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया गया। उसके बाद से हर साल 8 मार्च को सारे संसार में रैलियां, प्रदर्शन, सभायें और तमाम आयोजन होते हैं और उनमें:
पूरे संसार की महिलाओं के साथ एकजुटता प्रदर्शित की जाती है;
संसार में शान्ति की स्थापना और युद्ध के अन्त की मांग की जाती है;
लैंगिक समानता की मांग करते हुए उनके लिए अनवरत संघर्ष का प्रण किया जाता है; और
तीन ‘के’ के अंत की मांग की जाती है।
आखिर क्या हैं यह तीन ‘के’
जर्मन भाषा में चर्च, शिशु और रसोई के शब्द ‘के’ अक्षर से शुरू होते हैं। चर्च की अगुआई में जर्मनी के सामन्ती समाज में कहा जाता था कि महिलायें केवल खाना बनाने वाली के रूप में, मां के रूप में और पादरियों की सेविका के रूप में ही अच्छी दिखाई देती हैं। क्लारा जे़टकिन ने सभी महिलाओं से इसी तीन ‘के’ के खिलाफ विद्रोह करने का आह्वान किया।
अक्टूबर क्रान्ति के बाद का. क्लारा जे़टकिन का सम्मान करने के लिए का. लेनिन ने उन्हें पेत्रोग्राद सोवियत में निर्वाचित करवाया। सन 1921 में क्लारा ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ की कार्यकारिणी के लिए निर्वाचित हुयीं।
सन 1933 में अपने जीवन के अंतिम क्षण तक सारे संसार के महिला आन्दोलन की प्रथम नायिका, पहली महिला शहीद और अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की पहली महिला नेत्री बनी रहीं।
भारत में महिला आन्दोलन की शुरूआत
यूरोप के विपरीत भारत में महिलाओं ने आधुनिक विचार और कार्यवाहियों के मार्ग पर चलना समाज सुधार आन्दोलन के जरिये शुरू किया।
महिलाओं के साथ सबसे अधिक पशुवत व्यवहार बंगाल में किया जाता था। जवान हिन्दू लड़कियों को उनके पति के शव के साथ बांध कर जला दिया जाता था। सती प्रथा के खिलाफ राजा राम मोहन राय (सन 1772-1833) ने अपनी जोरदार आवाज उठाई। ईष्वर चन्द्र विद्यासागर (सन 1820-1891) ने महिलाओं के लिए पहला आधुनिक विद्यालय खोला। उन्होंने विधवा विवाह के लिए कानून बनाने की मांग की और अपने पुत्र की शादी एक विधवा से की। इसी तरह मोहन गोविन्द रानाडे (सन 1842-1901), ज्योतिबा फूले (सन 1827-1890), विरसा लिंगम (सन 1848-1956), नारायण गुरू (सन 1855-1925), डा. भीमराव अम्बेडकर (सन 1890-1956) और पेरियार (सन 1879-1973) ने महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष किये। यह पहली धारा थी जिसके जरिये भारतीय महिलाओं ने पढ़ना-लिखना, घरों से बाहर निकलना, नौकरियां करना और समान नागरिक के रूप में अपने अधिकारों के लिए जागरूक होना शुरू किया।
स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भागीदारी
महिला जागरण की दूसरी धारा स्वतंत्रता संग्राम के जरिये शुरू हुई। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई धारायें शामिल थीं। स्वतंत्रता संग्राम की हर धारा ने कुछ न कुछ उत्कृष्ट महिला नायिकाओं को पैदा किया। सन 1857 के गदर ने महान कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान के शब्दों में ‘तलवार लिए हुए घोडे पर बैठी हुई’ नायिका रानी लक्ष्मी बाई को पैदा किया।
सन 1885 में कांग्रेस की स्थापना के साथ अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लोकतांत्रिक आन्दोलन का एक नया अध्याय शुरू हुआ। सन 1916 में जब महात्मा गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभाली तो जनांदोलनों के द्वार महिलाओं के लिए खुल गये। गांधी जी जानते थे कि अंग्रेजी राज को तभी समाप्त किया जा सकेगा जब उनके अनोखे सत्याग्रह में सड़कांे पर करोड़ों लोग जुट जायेंगे। गांधी जी ने लाखों महिलाओं को अपने घरों से निकल कर जेल जाने के लिए प्रेरित किया। एक बार जेल पहुंच कर महिलाओं ने न केवल सामंती बाधाओं को पार कर लिया बल्कि गांधी जी द्वारा स्वयं निर्धारित सीमाओं को भी लांघ गयीं। गांधी जी ने हमेशा भारतीय महिलाओं के लिए सीता और सावित्री को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। सन 1925 में कांग्रेस की अध्यक्षा निर्वाचित होने वाली सरोजिनी नायडू ने घोषणा कि - ”भारतीय महिलाओं के लिए सीता और सावित्री कभी आदर्श नहीं हो सकती। हमें सभी लक्ष्मण रेखाओं को तोड़कर पुरूषांे के बराबर बनना होगा।“
शिक्षित विद्यार्थियों के नेतृत्व में राष्ट्रीय क्रान्तिकारियों की धारा ने हाथ में बन्दूक लिए हुए कई उत्कृष्ट महिला संग्रामियों को पैदा किया। प्रीति लता और कल्पना दत्त इस धारा की प्रसिद्ध नायिकायें हैं।
सन 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। मार्क्सवाद और समाजवादी विचारों से लैस होकर महिलाओं ने विद्यार्थियों, मजदूर संघों और तिभागा, तेलंगाना, पुन्नप्रा व व्यलार सरीखे क्रान्तिकारी किसान संघर्षो का नेतृत्व करना शुरू कर दिया। मणिकुंतला सेन, रेमी चक्रवर्ती, कमला मुखर्जी, कनक मुखर्जी, इला रीड, अनिला देवी, लतिका सेन, बेलालाहिणी, गीता मलिक, नजीमुन्निसां अहमद, सुप्रिया आचार्य, गोदावरी पुरूलेकर, संतोष गुप्ता, प्रभा दासगुप्ता, सकीना बेगम, सुरजीत कौर, हाजरा बेगम और इला मित्रा आदि इस धारा की प्रसिद्ध नायिकायें में से कुछ नाम हैं।
संगठन के स्वरूप
क्षेत्रीय आन्दोलनों के फलस्वरूप उत्पन्न समस्याओं से निपटने के लिए स्वयं स्फूर्त ढ़ंग से महिलाओं ने जिला एवं राज्य स्तरीय संगठनों को खड़ा किया।
घरों से बाहर निकलने का फैसला करने वाली महिलाओं के खिलाफ सामंती एवं पुनर्जागरण की ताकतों द्वारा चालू की गयी गुंडागर्दी से निपटने के लिए शुरूआती दौर में ही महिलाओं ने स्वःरक्षा दस्तों की आवष्यक महसूस की।
महिलाओं ने विशिष्ट चिकित्सा परामर्श और सहायता की आवष्यकता महसूस कर चिकित्सा सहायता कमेटियों का गठन किया। महिलाओं ने इसी आवष्यकता के मद्देनजर चिकित्सा शिक्षा लेना शुरू किया।
महिलाओं ने धर्म एवं राज्य द्वारा प्रदत्त अधिकारों की जानकारी की आवष्यकता महसूस की और इसके लिए कानूनी सहायता कमेटियों का गठन किया।
इन स्थानीय संगठनों से होते हुए महिलाओं ने सन 1927 में पहले अखिल भारतीय संगठन ”आल इंडिया वीमेन कांफ्रेंस“ (एआईडब्लूसी) का गठन किया। यह संगठन किसी राजनीतिक दल से सम्बद्ध नहीं था और सन 1953 तक अकेले भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधित्व करता रहा।
सन 1953 में वीमेन इंटरनेशनल डेमोक्रेटिक फेडरेशन (डब्लूआईडीएफ) की स्थापना हुई। डब्लूआईडीएफ का. क्लारा जे़टकिन द्वारा स्थापित ”इंटरनेशनल कांफ्रेंस आफ सोशलिस्ट वीमेन“ की उत्तराधिकारी संगठन था। डब्लूआईडीएफ से सम्बद्धता के प्रष्न पर एआईडब्लूसी में विभाजन हो गया और सन 1954 में ”नेशनल फेडरेशन आफ इंडियन वीमेन“ (एनएफआईडब्लू) की स्थापना हुई। अपनी स्थापना के समय से ही एनएफआईडब्लू महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए पूरे विष्व में संघर्षरत महिलाओं के साथ एकजुटता हेतु प्रतिबद्ध है।
भारत में महिला आन्दोलन के विभिन्न दौर और दृष्टिकोण
1 - सुधार एवं कल्याण का दृष्टिकोण :
भारत में महिला आन्दोलन की शुरूआत ही हिन्दू समाज सुधार आन्दोलन से हुई। समाज सुधार आन्दोलन की जरूरत अभी तक समाप्त नहीं हुई है। सुधार के पहले क्षण से ही सुधार का विरोध यानी पुनर्जागरण की ताकतों का जन्म हो गया।
समय के साथ पुनर्जागरण की ताकतों को पीछे हटना पड़ा परन्तु दुर्भाग्य से पिछले दस सालों से इन्हीं पुनर्जागरण की ताकतों का भारत में केन्द्रीय सत्ता पर कब्जा हो गया है। इसीलिए समाज सुधार के आन्दोलन को ढीला नहीं छोड़ा जा सकता है। पिछले तीन दशकों के दौरान जातिवादी ताकतों ने ताकतवर राजनीतिक दलों का गठन कर लिया। पुनर्जागरण और जातिवादी दोनों ताकतें महिलाओं के सशक्तीकरण के खिलाफ हैं। दहेज, बलात्कार, महिलाओं के खिलाफ शारीरिक हिंसा, बालिकाओं की भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराईयां उफान पर हैं। इन बुराईयों का उन्मूलन केवल कानून बना कर नहीं किया जा सकता। पितृसत्तात्मक विचारों के दिमागी नजरिये को ध्वस्त किये बगैर महिला आन्दोलन इन बुराईयों को रोक नहीं सकता।
मुसलमान सम्प्रदाय में सुधार आन्दोलन की शुरूआत एक सकारात्मक पहल है। ईरान की शिरीन इबादी को नोबल पुरस्कार एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। एक वकील, एक न्यायाधीश, एक विष्वविद्यालय शिक्षक रही शिरीन इबादी ने महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए कई बार जेल यात्रा की। नोबल पुरस्कार प्राप्त करते हुए शिरीन ने दृढ़ता के साथ घोषणा की - ”मेरा संघर्ष इस्लाम के खिलाफ नहीं बल्कि पुरूषों को अति के खिलाफ है।“
पिछले वर्ष वदोदरा में मुसलमान बुद्धिजीवियों के एक सम्मेलन ने हिम्मत के साथ घोषणा की - ”मुसलमान स्वयं अपने कट्टरवाद से छुटकारा पाये बिना हिन्दू कट्टरवादी ताकतों से संघर्ष नहीं कर सकते। मुसलमानों को समय के साथ स्वयं में सुधार करना चाहिए।“
स्पष्ट है कि महिलाओं को अपने सशक्तीकरण के लिए संघर्ष के दौरान सुधार और कल्याण के दृष्टिकोण को साथ लेकर चलना होगा।
2 - विकास में सहभागिता का अधिकार :
पुरूष प्रधान समाज द्वारा यह घोषणा की गयी थी कि महिलायें केवल अध्यापक और नर्सिंग के कामों के ही योग्य हैं और अन्य कामों के लिए वे अयोग्य हैं।
स्वतंत्रता के बाद जब विकास की प्रक्रिया देश में शुरू हुई तो महिलाओं ने सभी प्रकार के काम - पुलिस और सेना में, नागरिक प्रशासन और न्यायालयों में, चिकित्सा एवं संचार में, सामाजिक गतिविधियों और खेलकूद में सहभागी होना शुरू किया। उन्होंने सभी क्षेत्रों में दखल दिया और यह साबित कर दिया कि योग्यता, क्षमता, साहस, प्रतिबद्धता और समर्पण में वे पुरूषों से किंचित मात्र भी कम नहीं हैं।
महिलायें अब सामाजिक आर्थिक सभी क्षेत्रों में दखल बना रहीं हैं। वे हर विभाग में महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग कर रहीं हैं। जिसके फलस्वरूप जातिवादी राजनैतिक संगठनों ने महिला आन्दोलन में जाति के आधार पर दरार डालने के प्रयास करने शुरू कर दिये हैं। महिलाओं को और अधिक दृढ़ता के साथ जातिवाद के खिलाफ संघर्ष करना होगा। स्वतंत्रता एवं समानता के लिए महिलाओं के संघर्ष में जातिवाद उनका सबसे बड़ा दुष्मन है।
3 - सशक्तीकरण :
महिलाओं ने अपने सफर की शुरूआत सभी जगहों पर अलग-अलग मार्गो से शुरू की जो इतिहास ने उनके लिए खोला परन्तु अब अपने अनुभवों और संघर्षो से एक समान रास्ते पर आ गयीं है जो उनके सशक्तीकरण की ओर जाता है।
महिलाओं ने अपने पूरे संघर्ष में सामन्ती और धार्मिक ताकतों के प्रतिरोध को झेला है। परन्तु अब पूंजीवाद कथित ”वैज्ञानिक“ सत्यों के द्वारा उनके मार्ग पर प्रतिरोध के लिए आ गया है। उदाहरण स्वरूप:
विज्ञान बताता है कि एक स्वस्थ बच्चे के लिए एक ऐसी मां की जरूरत होती है जो गृहणी हो।
काम करने वाली महिला एक स्वस्थ बच्चे का जन्म नहीं दे सकती।
जन्म के बाद यदि बच्चे की देखरेख मां नहीं करती है तो बच्चा असामान्य, अपराधी और बुद्धिहीन हो जाता है।
काम करने वाली महिलायें पुरूषों को नैतिकता से डिगाती हैं। समाज में नैतिकता के हित में जरूरी है कि महिलायें घरों पर ही रहें।
सन 1895 में एंगेल्स की मृत्यु के बाद मातृसत्तात्मक सत्ता का मानव समाज के विकास की नीव के रूप में रक्षा नहीं की और मानव विज्ञान के क्षेत्र में पुरूष प्रधानता के कारण यह साबित करने की कोशिश की गयी कि मानव समाज का जन्म पितृसत्तात्मक था। अब यूरोप और अमरीका में महिला मानववैज्ञानिकों ने इस प्रतिपादन को ललकारना शुरू किया है।
इस प्रकार इन चारों तर्को के पीछे केवल एक उद्देष्य छिपा हुआ है - महिलाओं के सशक्तीकरण को रोकना।
सभी महिला संगठनों को ध्यान रखना होगा कि उनका संघर्ष पुरूषों या धर्मो से नहीं है बल्कि पितृसत्तात्मक विचारों के खिलाफ है।
- का. हरबंस सिंह
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