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बुधवार, 29 मई 2013

सरकारी बैंकों के विलय की साजिश फिर शुरू

चिदम्बरम के वित्तमंत्री बनने के बाद से एक बार फिर सरकारी बैंकों, जोकि अब पूर्णतया सरकारी नहीं रहे हैं, को आपस में मिलाने की साजिश जोर पकड़ने लगी है। चिदम्बरम आखिर चाहते क्या हैं, वे स्पष्ट नहीं कर पाते। वे बार-बार दोहराते हैं कि देश को ग्लोबल बैंकों की जरूरत है और इसलिए सरकारी बैंकों का विलय कर पांच-छः बड़े बैंक बना दिये जायें। वास्तविकता यह है कि अगर सभी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का विलय कर दिया जाये तो भी कुल व्यवसाय के मामले में शायद ही वह नया बैंक ग्लोबल बैंकों की सूची में स्थान पा सके। इस तथ्य से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि वास्तव में चिदम्बरम का दीर्घकालिक लक्ष्य कुछ और ही है, जिसे वह साफ नहीं करना चाहते।
सन 2008-09 में वैश्विक मंदी के दौर में जब चिदम्बरम को गृह मंत्री बना दिया गया था, तो वित्त मंत्रालय का प्रभार प्रणव मुखर्जी के पास था। उस दौर में यह एजेंडा स्वतः पृष्ठभूमि में चला गया था। कुछ समय पहले जारी सालाना मौद्रिक नीति में भारतीय रिजर्व बैंक ने इस पर आगे विचार-विमर्श के लिए आधार पत्र जारी करने की बात कहीं है। रिजर्व बैंक बहकी-बहकी बाते करता है। वह इसी नीति में कहता है कि वित्तीय एवं बैंकिंग सेवाओं के लिए स्थानीय बैंकों की जरूरत है और इसके लिए उसने संकेत दिया है कि शहरी सहकारी बैंकों को पूर्ण वाणिज्यिक बैंक का दर्जा दिया जा सकता है ताकि वे शहरी क्षेत्रों में बैंकिंग जरूरतों को पूरा कर सकें। रिजर्व बैंक यूनिवर्सल बैंकिंग लाईसेन्स के स्थान पर घरेलू और विदेशी कारोबार करने वाले बैंकों को अलग-अलग लाईसेंस देने की भी वकालत करता है।
एक ओर उनकी सरकार बार-बार बैंकिंग क्षेत्र में प्रतिस्पर्घा की कमी का रोना रोती है और इसीलिए नये निजी बैंकों के लिए लाईसेंस जारी करने की योजना पर भी काम कर रही है। नये निजी बैंक निश्चित रूप से देशी और विदेशी सरमायेदारों द्वारा स्थापित किये जायेंगे। ये नये बैंक ग्रामीण क्षेत्र, जहां वास्तव में बैंकिंग सेवाओं की कमी आज भी है, में शाखाएं खोलने से रहे। वे शाखाएं खोलेंगे शहरों में जहां बैंकों की शाखाओं का विराट संजाल पहले से मौजूद है और किसी न किसी तरह ये सरकारी बैंकों के व्यवसाय का ही एक हिस्सा काट कर फलेंगे, फूलेंगे। आखिर वे बैंकिंग क्षेत्र की किस कमी को पूरा करेंगे, इस पर हमेशा प्रश्नचिन्ह लगा रहा है और लगा रहेगा।
आइये इस मुद्दे पर कांग्रेस के अंदर चल रहे द्वन्द्व का भी जिक्र कर दिया जाये। कांग्रेस के केरल से बड़े नेता व्यालर रवि ने 9 फरवरी को केरल के कोची में आल इंडिया बैंक इम्लाइज एसोसिएशन के 27वें राष्ट्रीय महाधिवेशन का उद्घाटन करते हुए कहा कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक बड़ा काम था, जिसे कारपोरेट घराने पटरी से उतारना चाहते हैं। काफी स्पष्ट शब्दों में उन्होंने कहा कि “बैंकिंग संशोधन बिल के जरिये कारपोरेट घराने भारतीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रण में लेना चाहते हैं। वे किसी सामाजिक जिम्मेदारी को तो निर्वाह करना नहीं चाहते और उन्हें नये बैंक खोलने की अनुमति देना देश के लिए अच्छा नहीं होगा। अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने में बैंक निर्णायक भूमिका निभाते हैं।”
व्यालर रवि यहीं नहीं रूकते, वे और आगे बढ़ते हैं, ”कुछ नीति नियंता कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्रियों की नीतियों को बदल रहे हैं। किसी सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वाह न करने वाले कारपोरेटों को खुश किया जा रहा है।“ उन्होंने कहा कि उनका मानना है कि इनमें सुधार के लिए वामपंथी ताकतों की आवाज की महती जरूरत है। हालांकि वे सीधे-सीधे कहने के बजाय बचते हुए निकल जाते हैं परन्तु उनकी भावभंगिमा साफ थी कि केन्द्र सरकार की जनविरोधी नीतियों में बदलाव के लिए देश में वामपंथ को मजबूत करने की जरूरत है।
व्यालर रवि कांग्रेस के कोई छोटे नेता नहीं हैं। वे केरल सरकार में दो बार गृह मंत्री रह चुके हैं और कई सालों से केन्द्र में प्रवासी भारतीय मामलों के मंत्री हैं। वे केरल में कांग्रेस के अध्यक्ष तथा केन्द्र में कांग्रेस के महासचिव भी रह चुके हैं। वे केरल की उस क्रान्तिकारी जमीन पर अपना भाषण दे रहे थे जहां कई दशक पहले साक्षरता दर शत प्रतिशत पहुंच चुकी थी और वामपंथ मजबूत है और कांग्रेस नीत गठबंधन और वामपंथ के मध्य सत्ता परिवर्तन लगातार होता रहता है। उनका कथोपकथन किसी हाल में शामियाने में सीमित नहीं रह जाना था। वे जानते थे कि ये आवाज कहीं दूर तक केरल के साथ-साथ हिन्दुस्तान में भी पहंुचेगी।
इसके बाद तो हम मनमोहन और चिदम्बरम से केवल इतना कहना चाहेंगे कि -
बात है साफ दलीलों की जरूरत क्या है?
दो कदम चल कर बता दो जन्नत की हकीकत क्या है?
- प्रदीप तिवारी

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