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शनिवार, 5 अक्टूबर 2013
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30 सितम्बर की रैली और उसके सबक
लगभग दो दशकों के अंतराल के बाद उत्तर प्रदेश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एवं उसके जन संगठनों ने मिल कर 30 सितम्बर 2013 को एक विशाल राज्य स्तरीय रैली का आयोजन किया। इस रैली पर तमाम-तमाम कारणों से तमाम लोगों की निगाहें टिकी थीं। हमें खुशी है कि हम और हमारे कार्यकर्ता लखनऊ में लाल झंडे की मजबूत दस्तक देने में पूरी तरह कामयाब रहे।
शासन, प्रशासन और प्रकृति द्वारा पैदा की गई तमाम अड़चनों के बावजूद रैली में भाग लेने वाले साथी 29 सितम्बर की शाम से ही चारबाग रेलवे स्टेशन पर आना शुरू हो गये थे, जहां से रैली को प्रारम्भ किया जाना था। हालांकि रैली निकालने के लिए प्रशासन ने अनुमति 11 बजे से दी थी परन्तु सुबह 10 बजते-बजते चारबाग रेलवे स्टेशन के विशालकाय परिसार में तिनके को भी ठहरने की जगह नहीं बची तो रैली को सड़कों पर उतारना आवश्यक हो गया। रैली क्या लाल झंडों का सैलाब सड़कों पर उतर चुका था। जोशीले और क्रान्तिकारी नारों के साथ यह रैली लगभग साढ़े दस कि.मी. लम्बी दूरी तय करके लगभग 12.30 बजे (2.30 घंटे में) सभास्थल ज्योतिर्बाफूले पार्क पहुंच सकी। राज्य सरकार और जिला प्रशासन के तुगलकी आदेशों के चलते अब शहर का कोई भी पार्क बड़ी रैलियों के लिए नहीं मिल सकता। अतएव हमें उपुर्यक्त पार्क लेना पड़ा। लगभग तीन-चार हजार स्त्री, वृद्ध, अधेड़ इतनी दूरी चल नहीं पाये और बीच रास्ते से ही स्टेशनों के लिए वापस हो लिये।
जैसाकि हमेशा होता है मीडिया में रैली को कम ही स्थान मिला। टी.वी. चैनलों ने तो लगभग पूरी तरह बायकाट रखा। मजबूरी में ही सही हिन्दी/अंग्रेजी के समाचार पत्रों ने समाचार मय फोटो के छापे लेकिन स्थानीय पन्नों पर। प्रदेश के किसी भी हिस्से में भाकपा की रैली की खबर पढ़ने को नहीं मिली। कई समाचार पत्रों ने रैली के कारण शहर में लगे जाम की फोटो और खबरें छापीं। हां कुछ छोटे हिन्दी समाचार पत्रों ने अपने प्रदेशव्यापी पन्नों पर रैली की खबरों को स्थान दिया। कई ने खबर न छापने के प्रायश्चित के तौर पर इन पंक्तियों के लेखक के साक्षात्कार अगले दिन प्रकाशित किये।
उर्दू अखबार सचमुच बधाई के पात्र हैं जिन्होंने रैली की न केवल राजनैतिक धार को पहचाना अपितु उसके संदेश को, खबरों को अपने ढंग से दुरूस्त कर प्रकाशित किया। कई ने लिखा - ”लगभग 25 साल बाद लखनऊ में लाल झंडे का इतना बड़ा सैलाब उमड़ा“ अथवा ”साम्प्रदायिकता, महंगाई, भ्रष्टाचार के खिलाफ भाकपा ने दी मजबूत दस्तक“ अथवा ”25 हजार का लाल सैलाब उमड़ा लखनऊ की सड़कों पर, यातायात ठप्प“ आदि।
यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि हमारा आकलन है कि रैली में गिने हुये 15-16 हजार से कम लोग नहीं आये। लेकिन प्रशासन, समाचार पत्रों और प्रत्यक्षदर्शियों का आकलन 20-25 हजार अथवा उससे अधिक का है।
यहां एक उल्लेखनीय पहले यह भी है कि इन दिनों गोरखपुर से गुजरने वाली अधिकांश गाड़िया रद्द थीं। मुजफ्फरनगर/शामली के दंगों से पश्चिमी जिलों में दहशत व्याप्त थी। 29 सितम्बर को मेरठ में गोलीबारी और पथराव से मेरठ ही नहीं अगल-बगल के जिलों में भारी तनाव पैदा हो गया और 29 सितम्बर की दोपहर से ही प्रदेश के कई भागों में बारिश से आवागमन प्रभावित हो गया था। अतएव बहुत से जिलों से आमद प्रभावित हुई।
केन्द्र सरकार के साढ़े चार साल के शासनकाल में जिस तरह से महंगाई, भ्रष्टाचार, विदेशी पूंजी, बेरोजगारी और आर्थिक पराभव का नंगा नाच देखने को मिला है, लोगों में उसके प्रति भारी गुस्सा है। कांग्रेस और भाजपा के बीच 2014 में सत्ता पर काबिज होने के लिये जिस तरह कबड्डी चल रही है, यह लोगों के गुस्से को और बढ़ा रहा है।
1 साल 5 माह के शासन काल में उत्तर प्रदेश सरकार जिस तरह जनविरोध की राह पर चली, लोग हतप्रभ हैं क्योंकि उन्हें इस सरकार के मुखिया में एक उम्मीद की किरण नजर आई थी। एस सौ की गिनती पार कर चुके साम्प्रदायिक दंगों, मुजफ्फरनगर/ शामली में हुये साम्प्रदायिक हत्याकांडों, पलायनों, बलात्कारों और सम्पत्ति की तबाही ने प्रदेश की धर्मनिरपेक्ष जनता को भारी हताश किया है और मुस्लिम अल्पसंख्यकों में भारी आक्रोश और असुरक्षा बोध है। दो दशक में पहली बार अल्पसंख्यकों का विश्वास सपा और उसकी सरकार से डिगा है जिसकी जल्दी भरपाई संभव नहीं है।
इस परिस्थति में पार्टी और जन संगठनों के नेता और कार्यकर्ता, जो कई वर्षों से लगातार आन्दोलन चला रहे थे, इस रैली को पार्टी की प्रतिष्ठा का प्रश्न मान कर उसकी तैयारियों में जुट गये और रैली की सफलता का श्रेय उन्हीं सबको जाता है।
मोटे तौर पर रैली ने केन्द्र और राज्य सरकार की जनविरोधी नीतियों, खासकर मुजफ्फरनगर दंगों से निपटने में राज्य सरकार की असफलता पर कड़ा प्रहार किया है। उत्तर प्रदेश की खासकर लखनऊ की जनता को यह बताने में कामयाबी हासिल की है कि भाकपा आज भी एक ताकत है। समूचे देश और उत्तर भारत की पार्टी कतारों में अहसास जगाया है कि देश की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले उत्तर प्रदेश में भाकपा पुनः करवट ले रही है।
और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्तर प्रदेश भाकपा और जन संगठनों का एक-एक कार्यकर्ता उत्साह से लबरेज है, उनका आत्मविश्वास बढ़ा है और नई परिस्थतियों में स्वतंत्र रूप से लड़ाई लड़ कर, पार्टी एवं जन संगठनों का विस्तार कर वामपंथी ताकतों की धुरी बनकर वामपंथी लोकतांत्रिक विकल्प के निर्माण का उनका संकल्प सुदृढ़ हुआ है।
यह सब इसलिये संभव हो सका कि पार्टी कतारों में यह विश्वास पैदा हो गया है कि अब प्रदेश पार्टी किसी की पिछलग्गू नहीं बनेगी और अपनी ताकत के बल पर गैरों को ताकतवर नहीं बनायेगी।
रैली की सफलता की बधाइयां देने और स्वीकार करने का दौर अभी कुछ दिनों और चलेगा लेकिन अब वक्त आ गया है कि हम एक पल भी खामोश न बैठें। 2014 के लोकसभा चुनावों को लेकर भाजपा, कांग्रेस तथा दूसरे पूंजीवादी दल जिस तरह से लोगों की समस्याओं पर चर्चा से बचते हुये, आम जन को केवल अपना वोट समझते हुये अपना अभियान चला रहे हैं, उससे आम लोग संतुष्ट नहीं हैं। जनपरक नीतियां प्रस्तुत करने के बजाये जिस तरह से साम्प्रदायिक, जातीय और क्षेत्रीय विभाजन के कार्ड्स फेके जा रहे हैं, लोग उसको भी समझ रहे हैं। किसी हद तक कहा जाये तो किसी भी पूंजीवादी दल से लोग संतुष्ट नहीं हैं। ऐसी स्थिति देश की राजनीति में कई वर्षों के बाद आई है।
जहां तक भाकपा और वामपंथ की बात है, लोग उन्हें बेहद ईमानदार, भ्रष्टाचार से कोसों दूर, सही मायने में धर्मनिरपेक्ष और जातिवाद, क्षेत्रवाद तथा दूसरी संकीर्णताओं से मुक्त मानते हैं और उन पर भरोसा करते हैं।
हमें उनके भरोसे को जीतना है। अतएव स्थानीय, प्रादेशिक और राष्ट्रीय सवालों पर लगातार आन्दोलन चलाने होंगे। शोषित, पीड़ित जनता से मजबूत कड़ियां बनानी होंगी। इसके लिए पार्टी शाखाओं और जन संगठनों को सक्रिय करना होगा। पार्टी शिक्षा, पार्टी अखबार और पत्र-पत्रिकाओं को फैलाना होगा। पार्टी की आर्थिक स्थिति को नीचे से ऊपर तक सुदृढ़ करना होगा। सबसे अहम सवाल है कि छात्रों, नौजवानों और महिलाओं को बिना विलम्ब किये पार्टी कतारों में शामिल करना होगा।
और फौरी कर्तव्य यह है कि जिन सवालों पर रैली का आयोजन किया गया, उन सवालों के साथ स्थानीय सवालों पर 21 अक्टूबर 2013 को जिला केन्द्रों पर सत्याग्रह/जेल भरो आन्दोलन को पूरी शिद्दत से सफल बनाना होगा।
- डा. गिरीश
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