सोमवार, 9 दिसंबर 2013
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पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव - क्या सबक ले वामपंथ?
पांच राज्यों - दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं मिजोरम के चुनाव परिणाम हमारे सामने हैं। जहां तक मिजोरम का सवाल है वहां मुख्य मुकाबला कांग्रेस और मिजो नेशनल फ्रंट के बीच था। वहां के परिणाम पूरी तरह से शाम तक साफ हो सकेंगे। हालांकि शुरूआती रूझानों से ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस के सामने मुकाबले में वहां कोई था ही नहीं।
राजस्थान में कांग्रेस की सरकार थी। भाजपा को वहां भाजपा को 162 सीटों (पिछले चुनावों से 84 सीटें अधिक) पर, कांग्रेस को केवल 21 सीटों पर, नेशनल पीपुल्स पार्टी को 4 सीटों पर, बसपा को 3 सीटों पर, नेशनल यूनियनिस्ट जमींदारा पार्टी को 2 सीटों पर विजय मिली है जबकि 7 सीटों पर निर्दलीय विजयी रहे हैं। मत प्रतिशत की ओर ध्यान दिया जाये तो भाजपा को इस बार 45.1 प्रतिशत वोट मिले हैं जबकि 2008 में उसे केवल 34.3 प्रतिशत वोट ही मिले थे। भाजपा को सबसे बड़ी विजय इसी राज्य से मिली है। कांग्रेस के वोट प्रतिशत में कोई विशेष गिरावट दर्ज नहीं की गई है। उसे 2008 के मुकाबले केवल 3.8 प्रतिशत मत कम यानी 33 प्रतिशत वोट मिले हैं। बसपा के वोटों में भी गिरावट दर्ज की गई है। 2008 में उसे 7.6 प्रतिशत वोट मिले थे जो इस बार घट कर 3.4 प्रतिशत रह गये हैं।
छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार थी। वहां भाजपा को 49 सीटों पर, कांग्रेस को 39 सीटों पर तथा बसपा को 1 सीट पर सफलता मिली है और 1 सीट पर निर्दलीय जीता है। इस राज्य में भाजपा के वोट प्रतिशत में केवल 0.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है और उसे 41 प्रतिशत वोट मिले हैं। कांग्रेस के मतों में 1.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गयी है और उसे 40.3 प्रतिशत वोट मिले हैं यानी भाजपा से केवल 0.7 प्रतिशत कम वोट ही मिले हैं। बसपा के मतों में 1.8 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है और उसे केवल 4.3 प्रतिशत वोट ही मिले हैं।
मध्य प्रदेश में भी भाजपा की सरकार थी। भाजपा को यहां पिछली बार की तुलना में 22 सीटें अधिक यानी 165 सीटों पर विजय प्राप्त हुई है। कांग्रेस को पिछले चुनावों के मुकाबले में 13 सीटें कम यानी केवल 58 सीटों पर संतोष करना पड़ा है। बसपा की सीटें घटकर केवल 4 रह गयीं हैं जबकि निर्दलीय 3 सीटों पर जीते हैं। अगर वोट प्रतिशत की ओर ध्यान दिया जाये तो भाजपा के वोट प्रतिशत में 7.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है और उसे कुल 44.9 प्रतिशत मत मिले हैं। कांग्रेस के वोटों की तादाद में 4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है और उसे 36.4 प्रतिशत वोट मिले हैं जबकि बसपा के वोटों में 2.7 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है और उसे केवल 6.3 प्रतिशत वोट ही प्राप्त हुए हैं।
दिल्ली में बहुत बड़ा उल्ट-फेर सामने आया है। यहां 15 सालों से कांग्रेस की सरकार थी और यहां अन्ना आन्दोलन के गर्भ से उपजी आम आदमी पार्टी - ”आप“ को बहुत बड़ी सफलता मिली है और त्रिशंकु विधान सभा का गठन होगा। दिल्ली में भाजपा को 31 सीटों पर सफलता मिली है, कांग्रेस को 8 सीटों पर, जनता दल (यूनाईटेड) को 1 सीट पर, शिरोमणि अकाली दल को 1 सीट पर, निर्दलीय को 1 सीट पर सफलता मिली है जबकि ”आप“ ने अप्रत्याशित रूप से 28 सीटों पर कब्जा कर लिया है। वोट प्रतिशत पर ध्यान दिया जाये तो कांग्रेस के वोटों पर 15.3 प्रतिशत की जबरदस्त गिरावट दर्ज की गई और उसे केवल 25 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए हैं। भाजपा के वोटों में भी 2.3 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है और उसे केवल 34 प्रतिशत मत प्राप्त हुए हैं जबकि अन्य के वोटों में 14 प्रतिशत की गिरावट आई है। ”आप“ को भाजपा से केवल 2 प्रतिशत कम वोट यानी 32 प्रतिशत वोट मिले हैं।
पांचों राज्यों में भाकपा और वामपंथ को कोई सफलता नहीं मिली है और उन्हें प्राप्त मतों की संख्या कुछ दिनों के बाद ही पता लग सकेगी। परन्तु निश्चित ही वह संख्या नगण्य ही होगी।
मीडिया एक बार फिर चीख-चीख कर तीन-तीन राज्यों में भाजपा के सत्तासीन हो जाने के पीछे ”नमो“ (नरेन्द्र मोदी के लिए मीडिया में प्रचलित शब्द) फैक्टर का बखान कर रहा है परन्तु मत प्रतिशत और सीटों की संख्या से हमें बहुत गंभीरता से इन चुनाव परिणामों की मीमांसा करनी चाहिए और विशेषकर हमारा ध्यान इस ओर होना चाहिए कि इन चुनावों में हम - यानी भाकपा और वामपंथ कहाँ खड़े थे और हमारा हस्र क्या हुआ।
दिल्ली चुनावों में ”आप“ की सफलता ने एक बार फिर यह साफ कर दिया है कि जनता का बहुसंख्यक तबका न कांग्रेस को सत्ता में लाना चाहता है और न ही भाजपा को परन्तु एक गुंजायमान विकल्प की अनुपस्थिति उसे लगातार खल रही है और जहां भी उसे जिस तरह का भी विकल्प दिखाई देगा वह उसके पीछे चल देगा। ”आप“ ने केवल दिल्ली की सभी सीटों पर प्रत्याशी उतार कर एक विकल्प देने का हल्का प्रयास किया जिसके नतीजे हमारे सामने हैं। अपने बारे में सोचते, विचारते और कुछ आगे की योजना बनाते समय हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि चुनावों में जनता सरकार बनाने और सरकार हटाने के लिए वोट देने के लिए घरों से निकलती है न कि चार ईमानदारों सांसदों या विधायकों को जिताने के लिए।
”आप“ या इस जैसा कोई अन्य संगठन या पार्टी पूंजीवादी राजनीति का विकल्प कभी साबित नहीं हो पायेंगे। बिना वैचारिक विकल्प के आम आदमी की आज की समस्याओं का हल नहीं खोजा जा सकता। एक विकल्प देने के लिए हमें 542 सीटों पर विकल्प देने की रणनीति के साथ उतरना पड़ेगा।
एक मजबूत कार्यक्रम आधारित वामपंथी विकल्प की योजना बनाते समय हमें इस तथ्य का ध्यान रखना चाहिए। हमें अपने कवच से बाहर निकल कर सैद्धान्तिक प्रतिबद्धता के साथ चुनावी रणनीति के सवाल को भी हल करना ही होगा। वर्तमान राजनीति में कायम रहने के लिए हमें वर्तमान दौर के उन तौर-तरीकों को खोज निकालना होगा जो कहीं भी सैद्धान्तिक विचलन न पैदा करें।
- प्रदीप तिवारी
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