भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

हार्वर्ड जिन दिवंगत - उनकी याद में गूगल पर left-n-progressive-group@googlegroups.कॉम की शुरुआत

नाम चामस्की ने एक बार उनके बारे में कहा था - ”उन्होंने एक सम्पूर्ण देश के दृष्टिकोण में बदलाव ला दिया। लाखों लोग जिस नजरिए से इतिहास को देखा करते थे, उसमें रातों-रात तब्दीली आ गई।“ नोम चामस्की की यह उक्ति जिनके बारे में थी, वह हार्वर्ड जिन अब नहीं रहे। 87 साल की उम्र में उनका देहान्त हो गया।जो इतिहास प्रचलन में हुआ करता है, वह शोषकों का इतिहास है। शोषकों के इतिहास को जांचा परखा जाता है, उस पर मन्तव्य दिए जाते हैं। इस काम को करने के लिए ‘निरपेक्षता’ की आड़ ली जाती है, ताकि इतिहास में मेहनतकशों के योगदान को धो ‘पोछ’ डाला जा सके। लेकिन सच्चा इतिहास तो मेहनतकश लिखते हैं। उनके संघर्ष को, उनकी परम्परा को कहां जगह मिलती है इतिहास के पन्नों पर? हम एक एकलव्य की बात करते हैं। हम अगर अपनी चारों ओर नजर दौड़ाएं तो एकलव्यों की अनन्त कतार दिखाई पड़ेगी।हार्वर्ड जिन ने ”ए पीपुल्स हिस्ट्री आफ यूनाइटेड स्टेट्स“ नामक महाग्रंथ की रचना की। जिन बड़े नामों की आभा से अमरीका का इतिहास रौशन था, उन नामों के पीछे केवल मानव हित नहीं वर्ग-स्वार्थ भी थे - इस सच्चाई को उन्होंने उजागर किया, किसी को उन्होंने नहीं बख्शा - चाहे वह क्रिस्टोफर कोलम्बस हों या अब्राहम लिंकन। टामस अल्वा एडिसन हों या थियोडोर रूजवेल्ट। गरीब किसान, मजदूर, दास प्रथा के विरूद्ध जिन्होंने असल लड़ाई लड़ी थी, युद्ध-विरोधी सामाजिक कार्यकर्ता - हार्वर्ड जिन की लेखनी ने इन्हें इतिहास के रंगमंच पर उचित सम्मान के साथ स्थापित किया।17 साल की उम्र में हार्वर्ड जिन ने पहली बार अमरीकी कम्युनिस्ट पार्टी की रैली में हिस्सा लिया। उनका मानना था कि पूंजीवाद के बारे में मार्क्स का विश्लेषण आज भी प्रासंगिक है। खुद को वह ”मार्क्सवादी“ कहते थे, यद्यपि यह शंका भी उन्हें थी कि मार्क्स शायद उन्हें ”मार्क्सवादी“ न मानते। उन्होंने कभी भी अपनी राजनीति को छुपाने की कोशिश नहीं की। पेशे से अध्यापक हार्वर्ड जिन 1988 में सेवानिवृत हुए यद्यपि उनकी नौकरी बची हुई थी। अन्तिम दिन कक्षा समाप्त होने के 30 मिनट पहले ही उन्होंने छुट्टी घोषित कर दिया - चूंकि उन्हें हड़ताली मजदूरों की ‘पिकेट’ में शामिल होना था। छात्रों से भी उन्होंने आग्रह किया कि उनके साथ चलकर हड़ताली मजदूरों से अपनी एकजुटता का प्रदर्शन करें।वे अंतिम सांस तक अपनी आस्था पर अड़िग रहे।उनकी स्मृति में हम गुगल पर इस ग्रुप को आज शुरू कर रहे हैं और हमारा प्रयास होगा कि हम अपने उद्देश्य में सफल हों -
सर्वहारा क्रान्ति - जिन्दाबाद!साम्राज्यवाद का नाश हो!

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