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गुरुवार, 10 जून 2010
at 6:13 pm | 0 comments | शकील सिद्दीकी
संस्मरण जन्म शताब्दी वर्ष में विशेष - मिलने आना शमशेर का एक कामरेड से
हिन्दी कविता के विविधतापूर्ण उत्तेजक इतिहास में अपनी तरह के अकेले कवि शमशेर बहादुर सिंह अब कविताएं नहीं लिखते, कवि उन्हें अवश्य लिख रही है, उनकी छवियां उभार रही हैं, उनकी संवेदना को स्वर दे रही है। अब वह कहीं आते-जाते भी नहीं, कहीं कविताएं भी नहीं सुनाते, बेलाग टिप्पणियां भी नहीं करते, किसी पीठ के आचार्य अध्यक्ष भी नहीं। वह तो सुनाई पड़ते हैं, उनकी आवाज कहीं सुनाई नहीं पड़ती। कहीं गहरे से आती हुई, भावों से भरी हुई आवाज। विनम्रता जिसमें कूट-कूट कर समाई होती थी अस्वस्थ नहीं हैं, वह फिर भी। कारण बहुत स्पष्ट है उन्हें हमसे चिर विदा लिये हुए पूरे सत्रह वर्ष हो रहे हैं। साल 93 की 12 मई को उनकी इहलीला समाप्त हुई थी। साहित्यिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में यह खबर किसी घने दुख सी प्रसारित हुई थी। उनके न रहने पर उनकी उपस्थिति को बहुत शिद्दत से महसूस किया गया; इतनी निःस्वरता के बावजूद बहुत कम लोग इतनी जीवन्तता से रह पाते हैं। शमशेर जी को कई बार देखने सुनने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ। बहुत किट से उनके रुबरू होते हुए उन्हें बोलते, कविता सुनाते देखने, महसूस करने के बहुमूल्य क्षण भी मेरे जीवन में आये दरअसल उनके व्यक्तित्व, बाहरी व भीतरी दोनों को संवेदना के धरातल पर अनुभव करने के लिए उन्हें निकट से देखना सुनना जरूरी था। सरलता की केन्द्रीयता तथा जनवादी छट पटाहट के बावजूद जटिल संरचनात्मकता व कठिन बिम्बों की कभी-कभी वैचारिक उलझावों की कविताएं लिखनेवाला कवि इतना सहज-बोधगम्य हो सकता है, यह जानना बहुतों के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं। वह भी तब जब अक्खड़ माने जाने वाले जातीय परिवेश से निकल कर आये हों! परन्तु मेरे लिए अधिक विस्मयकारी था, उनका कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के एक पुराने कार्यकर्ता का। नईम खां से मिलने के उद्देश्य से पार्टी के लखनऊ कार्यालय में आना।यह नवें दशक के शुरूआती वर्षों की घटना है। कम्युनिस्ट पार्टी का वह कमरा, जिसमें का. नईम खां पार्टी के आफिस सीक्रेट्री की हैसियत से बैठा करते थे खचाखच भरा हुआ था। शमशेर जी के निकट सम्बन्धी अजय सिंह और शोभा सिंह भी थे। वीरेन्द्र यादव भी रहे ही होंगे। का. नईम खां पार्टी के बड़े नेता नहीं थे। बड़े इंसान जरूर थे। उनके भीतर व्याप्त खास तरह के बड़प्पन ने उनके व्यक्तित्व में ऐसा आकर्षण भर दिया था कि उनसे जो एक बार भी मिल लेता, वह उन्हें आसानी से भूल नहीं पाता। भारतीय राजनीति तथा साहित्य की कई बड़ी हस्तियों से उनका घनिष्ट परिचय था और ये सब था, कम्युनिस्ट आन्दोलन में उनकी सक्रिय शिरकत के कारण; संकट में लोगों की मदद करना उनके व्यक्तित्व का विशेष पक्ष था। शमशेर जी जब भी लखनऊ आते, नईम खां से मिलना चाहते। अजय सिंह बताते हैं कि नईम खां से मिलने वह कई बार कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर गये, संभव है घर भी गये हों। नईम खां को दिवंगत हुए अर्सा गुजर गया पत्नी भी लखनऊ में नहीं रहती कि ठीक-ठीक कुछ पता लग पाता। विचारधारा के स्तर पर शमशेर की साम्यवाद से निकटता अपनी जगह। एक जमाने में उनकी कविता बहुत मशहूर हुई थी “समय साम्यवादी” जनाधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले एक संगठन के तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी से उनका गहरा लगाव था, उनकी इन पंक्तियों को भुला पाना मुश्किल है ”बाम बाम दिशा” बम्बई में वह कई वर्षों तक पार्टी कम्यून (1945-46) में भी रहे। ”नया साहित्य” का संपादन भी किया -”मैं जो हूं,मैं कि जिसमें सब कुछ हैक्रांतियां, कम्यूनकम्युनिस्ट समाज के नाना कला विज्ञानऔर दर्शन केजीवन्त वैभव से समन्वितव्यक्ति मैं।मैं, जो वह हरेक हंूजो तुझसे ओ काल परे है।”बम्बई में पार्टी कम्यून तथा पार्टी नेताओं के सम्पर्क में रहते हुए वह मार्क्सवाद के अधिक निकट आये। वह ”नया पथ” के संपादक मण्डल में भी शामिल रहे। यों गहरे आर्थिक दबावों से ग्रस्त उनके जीवन का बड़ा भाग सर्वहारा का जीवन था। जहां भूख किसी भारक अनुभव के समान उनके पीछे लगी हुई थी। आंते छील देने वाली भूख एकाकीपन और साधन हीनता।”उस जमाने में (1941 से 47 के बीच) मैंने अपनी घोर अतार्किक भावुकता, रूमानी आदर्शवाद आदि से रचनात्मक संघर्ष शुरू कर दिया था और मार्क्सवादी माडल प्रबल रूप से मुझे अपनी ओर खींच रहे थे। उर्दू कविता का शानदार प्रगतिशील उभार भी प्रभावित कर रहा था।...” (उदिता 1980)प्रगतिशील आन्दोलन को वह जीवन की सच्ची परख का आन्दोलन मानते थे। यह सही है कि उनके यहां विचारधारा व जीवन के प्रति दृष्टिकोण को लेकर विचलन भी दिखाई पड़ा, एक ही समय में वह कई-कई विचार लोकों में जाते दिखाई दिये; स्वीकार व निषेध के उदाहरण भी सामने आये। प्रबल मानवतावाद का प्रभाव भी ध्वनित होता महसूस हुआ -मुझे अमेरिका का लिबर्टी स्टैचूउतना ही प्यारा है जितनामास्को का लाल ताराबावजूद इसके कम्युनिस्ट पार्टी तथा समानता के संघर्ष के प्रति शिथिलता का भाव उन पर कभी हावी नहीं हुआ।अगर मेरी वाणी में इंसान का दर्द है - छोटा सा ही दर्द सही, मगर सच्चा दर्द... भावुकता, ललक, आकांक्षा, तड़प और आशा कभी घोर रूप से निराशा भी लिये हुए, कभी उदासी, कभी-कभी उल्लास भी...एक प्रेमी, कवि, कलाकार, एक मध्यवर्गीय भावुक नागरिक का, जो मार्क्सवाद से रोशनी भी ले रहा है और ऊर्जा के स्रोत भी (अपनी सीमा में अपनी शक्ति भर) तलाश कर रहा है। एक ऐसा व्यक्ति जिसको सभी देशों और सभी धर्मों और सभी भाषाओं और साहित्य से प्यार है और सबसे अपने दिल को जोड़ता है। (प्रेम की भावुकता ने जो बीज बोया वह मैं देखता हूं कि आकरथ नहीं गया क्योंकि पूरी मनुष्य जाति से प्रेम, युद्ध से नफरत और शांति की समस्याओं में दिलचस्पी ये सब बातें उसी से धीरे-धीरे मेरे अन्दर पैदा हुई...) तो उपर्युक्त तमाम सूत्रों से मैं इंसान के साथ जुड़ता हूं तो मेरे लिए फिलहाल इतना ही काफी है।(उदिता 1980)इस दृष्टिकोण तथा कम्युनिस्ट पार्टी से आत्मीयता में कहींविरोधाभास नहीं है, बल्कि जीवन के प्रति एक कम्युनिस्ट का ऐसी दृष्टिकोण होना चाहिये। अवश्य ही उनके व्यक्तित्वच में विरोधाभास भी थे लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यालय आते हुए उसके साथ पुराने रिश्तों की बातें करते हुए वह सभी तरह के अन्तविरोधों-विरोधाभासों से मुक्त होते थे, उनकी एक-एक गतिविधि से पार्टी और उसके लोगों के प्रति प्यार झलकता था। नईम खां के प्रति यह प्यार अधिक आवेगमयी होता था। बहुत संभव है कि का. नईम खा ने संकट के किन्हीं क्षणों में शमशेर जी की मदद की हो, जैसा कि उनका स्वभाव था और काल विशेष तक शमशेर जी पर संकट आते ही रहते थे। वह गजब के स्वाभिमानी थे। फिर भी अभाव के अपने दबाव होते हैं।मेरे लिए उन क्षणों को भुला पाना संभव नहीं जब मैंने अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा व भारतीय उपमहाद्वीप के अत्यन्त लोकप्रिय शायर फैज अहमद फैज को कैसरबाग कोतवाली के पीछे स्थित संकरी गलियों को पार करते हुए का. नईम से मिलने उनके घर जाते देखा था। सांस्कृतिक व मानवीय रिश्तों के इतिहास के वह याादगर क्षण थे, ठीक उसी तरह जैसे शमशेर बहादुर सिंह का का. नईम खां से मिलने आना। उस समय उनका घर भी खचाखच भरा हुआ था। मुहल्ले की औरतें बच्चें, पुरुषों तथा पार्टी कार्यकर्ताओं से का. नईम ने बहुत कठिन समय में फैज का साथ निभाया था। राजा हरिसिंह के महल में सम्पन्न हुई फैज की शादी में वह अकेले बराती थे। दो बड़े कवियों-दो बड़े इंसानों का पुराने रिश्तों का सम्मान करना देखिये! मानवीय संवेदना कविता में ही नहीं जीवन में भी बिम्बित होती है। “अभी चुका नहीं हूं मैं” शमशेर के शब्दों को कवियों से इतर चरितार्थ होते देखना हो तो उनका कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर आना देखिये-“प्रेम का कंवल कितना विशाल हो जाता हैआकाश जितनाऔर केवल उसी के दूसरे अर्थ सौन्दर्य हो जाते हैंमनुष्य की आत्मा में”(कला/इतने पास अपने)कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर में उन्हें अपने इतना करीब पाकर मेरा ध्यान बार-बार वर्षो पूर्व संजोये हुए उनके चित्र की तरफ चला जाता है, जिसे मैंने उनके किसी कविता संग्रह से काट कर सुरक्षित कर लिया था। प्रगतिशील आन्दोलन की स्वर्ण जयंती आयोजन के अवसर पर (अप्रैल 1998) रविन्द्रालय लखनऊ में प्रतिशील रचनाकारों के चित्रों की जो प्रदर्शनी लगाई गई थी, उसमें शमशेर जी का वहीं चित्र इन्लार्ज कराकर प्रदर्शित किया था कि मैं ही उस प्रदर्शिनीका संयोजक था। मैं इस शमशेर में उस शमशेर को ढूंढ रहा था, शमशेर जी के चित्र की सबसे बड़ी विशेषता है, उसमें एक बहुत संवेदनशील कवि का समूची जीवन्तता में ध्वनित होना। जहां तक मुझे याद आता है, बन्द कालर का कोट पहने हुए थे या काली शेरवानी, मोटे शीशे का चशमा, उसके पीछे सोच में डूबी हुई चमक भरी आंखे, आकुल सी, कुछ कहने को व्याकुल होंठ। एक बेचैन आदमी का समूचापन उनमें झलकता था संघर्ष जनित अनुभवों का पकापन लिये हुए।
- शकील सिद्दीकी
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