शुक्रवार, 25 जून 2010
at 8:45 pm | 0 comments | भरत डोंगरा
हक की लड़ाई में बेहाल वनवासी
भारत में आदिवासी भूमि-अधिकारों का मुद्दा हाल के कुछ सालों में आजीविका की रक्षा और न्याय के व्यापक प्रयास के तौर पर प्रमुखता से उभरा है। अब जलवायु बदलाव के संकट के गंभीर होने के साथ आदिवासियों की भूमि-रक्षा के मुद्दे को एक और अहम आधार भी मिल रहा है। अगर आदिवासियों को उनकी भूमि मेंए विस्थापित किया जाता है तो अक्सर वे भटकते हुए शहरी मलिन बस्तियों में पहुंचते हैं। इन दो जीवन-पद्धतियों को देखें तो शहरी बस्तियों में अधारित जीवन-पद्धति में अधिक प्रदूषण है। जलवायु बदलाव की समस्या ग्रीनहाउस गैसों के अधिक उत्सर्जन से जुड़ी है। आदिवासी ग्रामीण जीवन पद्धति खेती के साथ हरे-भरे पेड़ों की बहुलता पर आधारित है, जिसमें ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने की क्षमता है। जबकि इस जीवन पद्धति के उजड़ने पर अगर शहरी मलिन बस्तियों में जाना पड़ेगा तो निश्चय ही इस प्रक्रिया में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन बढ़ेगा। अगर आदिवासी-वनवासी समुदाय अपनी भूमि के आसपास बसे रहेंगे तो अपनी परंपरा के बल पर वे आसपास हरियाली बढ़ा सकते हैं और जलवायु बदलाव की गति कम करने में सहायक हो सकते हैं।आदिवासी भूमि अधिकारों के कई पहलू हैं। हाल के समय में विशेष कर इस पक्ष की ओर अधिक ध्यान दिया गया, जिसे इतिहास का एक अन्याय भी कहा गया है कि बहुत से आदिवासियों-वनवासियों की हकदारी को उपेक्षित करते हुए मनमाने ढंग से उनके द्वारा जोती गई भूमि को वनभूमि घोषित कर दिया गया था। एक और नाइंसाफी यह भी हुई कि जगह-जगह से आदिवासियों को बिना संतोषजनक पुनर्वास के विस्थापित किया गया और इस हालत में जीवित रहने के लिए वे जहां कुछ भूमि जोत सके उसे जोतने लगे। ऐसी और दूसरी मिलती जुलती स्थितियों में मूल बात यह है कि अपने जीवन-निर्वाह के लिए आदिवासी-वनवासी परिवार कुछ भूमि जोत रहे हैं जो उनके जीवित रहने के लिए बहुत जरूरी है। न्याय पक्ष उनके साथ है और चूंकि इस भूमि पर पहले से खेती हो रही है इसलिए इसकी हकदारी उन्हें देने से कोई वन भी नहीं कटने वाला है। इसलिए इंसाफ का तकाजा यही है कि इन आदिवासी परिवारों को उनके द्वारा पहले से जोती जा रही इस भूमि का मालिकाना हक दिया जाए और पर्यावरण की रक्षा के अनुकूल ख्ेाती करने और जहां संभव हो खेतों में कुछ स्थान पर पेड़ लगाने का प्रयास किया जाए। इन किसानों के लिए ‘मनरेगा’ जैसी सरकार की योजनाओं के माध्यम से जल-संरक्षण, छोटे स्तर की सिंचाई, मेढ़बंदी वगैरह का अधिकतम लाभ उपलब्ध कराने का प्रयास भी होना चाहिए।इस नजरिए से कई स्वैच्छिक संस्थाओं और जनआंदोलनों ने आदिवासियों को ऐसी भूमि पर कानूनी मालिकाना हक देेने के लिए प्रयास किए हैं। गुजरात की संस्था ‘दिशा’ और उसके सहयोगी संगठनों का काम काबिले गौर है।इस लेखक को ऐसे लोगों से मिलने का अवसर मिला जिन्हें ख्ेाती करने, अपने और दूसरों का पेट भरने की मेहनत करने की वजह से कितना सताया जा रहा था। कुछ परिवारों ने तो यहां तक बताया कि एक सदस्य खेती करता है तो दूसरा दूर खड़े निगरानी करता है कि कहीं परेशान और मारपीट करने वाले कर्मचारी तो नहीं आ रहे हैं। गुजरात के दाहौद जिले के मातवा गांव के कई किसानों के वन कर्मचारियों और पुलिस के उत्पीड़न के अनुभव सुनाए। मामन भाई, पुंजिया भाई, भामोड़ू की झोंपड़ी तोड़ दी गई और बुरी तरह से पीटा गया। दाहोद पुलिस स्टेशन में एक पुलिसकर्मी ने उससे कहा- मुझे वह हाथ दिखा जिससे तू हल चलाता है। जब मामन भाई ने हाथ आगे किया तो उस पर डंडा बरसाया गया। मामन भाई के साथ दर्जन भर अन्य किसानों को भी प्रति किसान पांच सौ रुपए का दंड भरना पड़ा।पुनिया कलिया नीनामा को छह दिन हिरासत में रहना पड़ा। उसे अपना केस लड़ने पर चार हजार रुपए खर्च करने पड़े और इसके लिए अपनी पत्नी के जेवर गिरवी रखने पड़े। जब कर्मचारी उसे पकड़ने आए थे तो उन्होंने उसे बुरी तरह पीटा भी था। बीमारी में मार के कारण जब वह गिर गया तो एक कर्मचारी उसके ऊपर चढ़ बैठा। बैचत भाई, देवा भाई राल्लौर को दस अन्य किसानों के साथ हिरासत में लिया गया।उन्हें गांव में पीटा गया और फिर पुलिस स्टेशन में भी पीटा गया। उन्हें गांव और पुलिस स्टेशन दोनों जगह पैसे देने पड़े, कुल मिलाकर प्रति परिवार लगभग एक हजार रुपए का बोझ पड़ा। अधिकतर व्यक्तियों को ऊंचे ब्याज और कर्ज लेकर यह रकम जुटानी पड़ी और आने वाले दिनों में उनका परिवार कर्ज के बोझ से त्रस्त हो गया।दरिया भाई, तेज सिंह भाई हथोला के द्वारा जोती गई जमीन पर वन-विभाग ने वृक्षारोपण का काम शुरू कर दिया। उनका हल-बैल छिन गया और उसे एक पुलिस स्टेशन से दूसरे पुलिस स्टेशन ले जाकर परेशान किया गया। उसे पांच सौ रुपएा देने के लिए कहा गया पर रसीद सिर्फ पचीस रुपए की दी गई। दूसरे गांवों में तो ऐसे छोटे और सीमांत किसानों के उत्पीड़न की और भी दर्दनाक कहानियां बिखरी हुई हैं। फिल्म निर्माता अमित भवसर ने दर्जनों गांवों में इन किसानों की समस्याओं पर आधारित फिल्म बनाने की प्रक्रिया में बातचीत की तो उन्हें चौंकाने वाली जानकारियां मिलीं। उन्होंने बताया कि इन गरीब किसानों ने गुप्तांगों में मिर्च डालने, पेशाब पीने के लिए मजबूर किए जाने और शरीर पर भारी पत्थर रखने जैसे उत्पीड़न की शिकायतें भी हैं। ‘दिशा’ के प्रयासों औरविरोध-प्रदर्शनों से इस तरह के अत्याचार पर काफी हद तक रोक लग सकी। संस्था के कार्यकर्ताओं ने भूमि की मौजूदा स्थिति के बारे में काफी जानकारी जुटाई जो भी अनुकूलज नियम और निर्देश थे, उनका भरपूर उपयोग करते हुए आदिवासियों-वनवासियों की भूमि हकदारी पाने की कोशिश की। दूसरे स्वैच्छिक संगठन भी इसमें सहयोग के लिए आगे जा रहे हें। दिशा और उसके सहयेागी संगठनों ने अमदाबाद में ऐसे करीब दस हजार किसानों की विशाल रैली निकाली।सरकार से हुई बातचीत का एक खास नतीजा यह निकला कि सरकार ने राज्य स्तर की एक समिति तय कर दी जिसे जंगल जमीन जोतने वालों के बारे में हम छानबीन करनी थी। इस समिति ने राज्य स्तर की जानकारी मांगनी शुरू की तो समस्या की गहराई का पता चला। सरकारी रिकार्डों से पता चला कि 66 हजार एकड़ भूमि दी जा सकती है। इस तरह एक छोटे स्तर पर शुरू संघर्ष से अब करीब 68 हजार परिवारों को एक नई उम्मीद मिली।संगठन के स्तर पर इस बढ़ती हुई जिम्मेदारी को संभाला ‘दिशा’ के अमदाबाद के नए सहयोगी संगठन ‘एकलव्य’ ने। फरवरी 1994 में ‘दिशा’ ने गांधीनकर में एक विशाल रैली के आयोजन की तैयारी की थी, लेकिन घोषित तिथि से कुछ दिन पहले ही राज्य सरकार ने ‘एकलव्य’ को एक लिखित आश्वासन दिया, जिसमें कहा गया कि 1980 से पहले जोती जा रही कृषि भूमि पर अब न तो पौधा लगाया जाएगा न उस पर कोई जुर्माना लिया जाएगा। साथ ही राज्य सरकार ने यह भी कहा कि वह केंद्र सरकार से ऐसी भूमि को छोटे किसानों के लिए पाने की कोशिश करेगी और यह अनुमति मिलते ही वह इस भूमि के कानूनी कागजात इन किसानों को दे दिए जाएंगे।यह एक अहम आश्वासन था पर इसके कुछ ही समय बाद सरकार में बदलाव आया और नई सरकार पिछली सरकार के आश्वासन के प्रति उत्साहित नहीं रही। संगठनों की कोशिशों में कई उतार-चढ़ाव आते रहे।2007 का वनाधिकार कानून बनने और 2008 के शुरू में इसके नियम तैयार होने के बाद यह चुनौती और बढ़ गई। हकदारी अधिक परिवारों को मिलने की संभावना बढ़ गई। नये कानून में भी कई कमजोरियां थीं। इनके बावजूद ‘दिशा और एकलव्य’ ने भरपूर प्रयास किया कि इसकी सीमाओं के बीच इसका अधिकतम लाभ लोगों तक पहुंचाया जा सके। आखिरकार नए कानून और नियम की जानकारी अधिक जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने के लिए उन्होंने एक व्यापक अभियान चलाया। ऐसी जानकारी सरल स्थानीय भाषा में देने वाले पर्चे बड़े पैमाने पर वितरित किए गए। 2006 में दिशा ने अठारह तालुका स्तर की और छियालिस गांव स्तर की मीटिंगों का आयोजन किया। जहां वन-अधिकार समितियां बन गई थीं उन गांवों में इकसठ प्रशिक्षण कार्यशलाओं का आयोजन किया गया। जहां काननू के प्रावधानों को कमजोर करने या क्रियान्वयन गलत ढंग से करने के सरकारी प्रयास हुए वहां दिशा के कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध किया। दिशा से जुड़े कार्यकर्ता अविनाश प्रताप ने बताया कि कानून में अधिकारियों को जो भूमिका नहीं दी गई है वह भूमिका भी वे हड़पने का प्रयास कर रहे हैं जिससे गांव समुदाय की भूमिका कमजोर पड़ती है और कानून की भावना को चोट पहुंचती है और कानून की भावना को चोट पहुंचाती है। अनुचितअधिकारों का उपयोग कर अधिकारी अनेक परिवारों की भूमि हकदारी को नामंजूर कर रहे हैं। ‘दिशा’ की निदेशक पालोमी मिस्त्री ने बताया, ‘कानूनी तौर पर मालिकाना हक देने के स्थान पर सरकार केवल भूमि जोतने का अधिकार देने की कोशिश कर रही है, जिससे कानून की मूल भावना का उल्लंघन होता है और कुछ साल बाद फिर इन परिवारों के लिए समस्या आ सकती है।इस समय तक की आदिवासियों की जोती गई जमीन पर वन-विभाग के जोर-जबरदस्ती पेड़ लगाने के मामले सामने आ रहे हैं। फरवरी 2008 में भूमि हकदारी की मांग कर रहे आदिवासियों पर पुलिस की गोली से दो आदिवासियों की मौत हो गई और कई घायल हो गए। दिशा इस तरह की घटनाओंसंबंधी तथ्य जुटाने और इनका स्थानीय स्तर पर विरोध करने के साथ इनके बारे में राष्ट्रीय स्तर पर भी जानकारी उपलब्ध करा रही है।कमजोर वर्ग के हितों की रक्षा के लिए बनाए गए कानून अपने मकसद में तभी सफल होते हैं जब उन पर सही अमल के लिए जमीनी स्तर पर प्रयास हों। आदिवासियों की भूमि हकदारी के प्रयास उन तक, सही मायने में -पहुंचाने के लिए दिशा और उसके सहयोगी संगठन की कोशिशों को सार्थक कोशिश माना जाना चाहिए।- भरत डोंगरा
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