पिछली राष्ट्रीय परिषद की बैठक के बाद गुजरे छः महीने में देश में आर्थिक तथा राजनीतिक संकट और अधिक गहरा हुआ है। उसके साथ ही दक्षिणपंथी और वाम-विरोधी ताकतों का हमला बढ़ा है एवं कम्युनिस्ट तथा अन्य वामपंथी पार्टियां कमजोर हुई हैं, जो बचाव में आ गयी हैं। कुल स्थिति जिसका हम आज सामना कर रहे हैं, काफी कठिन है।
आर्थिक संकट
वित्तीय और आर्थिक संकट का जो अमरीका में पैदा हुआ एवं जिसने पूंजीवादी विश्व के देशों को अपनी चपेट में ले लिया, भारत समेत विकासशील देशों पर गहरा प्रभाव पड़ा। निर्यात के लिए सामान बनाने वाले उद्योगों, लघु क्षेत्र के उद्योगों, हस्तशिल्प और यहां तक कि आईटी को भी मांग में भारी कमी का सामना करना पड़ा एवं करीब 30 से 40 लाख कर्मचारियों को रोजगार के नुकसान, बंदी, छंटनी तथा वेतन कटौती का सामना करना पड़ा। यदि उसका असर काफी बदतर नहीं हुआ और यदि खासकर वित्तीय क्षेत्र को बचा लिया गया तो उसका यही कारण है कि भाकपा, भाकपा (एम) एवं अन्य वामपंथी पार्टियों ने यूपीए को बैंक, बीमा तथा वित्तीय क्षेत्र का निजीकरण करने से रोक दिया था।
‘आर्थिक सुधार’ के नाम पर पूंजीवादी पथ के लिए प्रतिबद्ध सरकार ने जो अमरीका और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक एवं विश्व व्यापार संगठन से प्रेरित तथा निर्देशित होकर तेज आर्थिक विकास के इंजिन के रूप में नव-उदारवाद की व्यवस्था - उदारीकरण, निजीकरण तथा भूमंडलीकरण की व्यवस्था एवं मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में लग गयी। पूंजीवादी प्रचार को जनमानस में बैठाया गया कि ”दूसरा कोई विकल्प नहीं है“ (टिना)।
अभूतपूर्व आर्थिक संकट ने जो वास्तव में स्वयं पूंजीवादी व्यवस्था का संकट है, उन लोगों के इस दावे को तार-तार कर दिया जिनके लिए मुनाफा जनता से अधिक महत्वपूर्ण है।
सभी पूंजीवादी देशों में सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों, कार्पोरेट घरानों तथा बड़े व्यापारिक घरानों को बचाने के लिए तथाकथित प्रोत्साहन फंड के रूप में भारी बेलआउट (बचाव) पैकेज दिया और इस तरह यह दिखला दिया कि उनके लिए मुनाफा निजी विनियोग के लिए है जबकि नुकसान सार्वजनिक खजाने को उठाना है। पर गरीब लोगो ंके लिए कोई बेल आउट नहीं है जो इस संकट के शिकार रहे हैं और जिनकी कीमत पर पूंजीवादी सरकारें उसका
समाधान निकालने की कोशिश कर रही हैं।
अनुभव ने यह दिखला दिया है कि पूंजीवादी देशों में संकट से रिकवरी धीमी है एवं मनमौजी ढंग से हो रही है। चीन ने जो एक समाजवादी अर्थव्यवस्था का निर्माण कर रहा है, इस संकट से उबरने वाला पहला देश रहा है।
महंगाई
आर्थिक क्षेत्र में सबसे बदतर परिणाम रहा है सरकार की गलत आर्थिक नीतियों के कारण सभी आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं की आसमान छूती कीमते। एक वर्ष में चावल और गेहूं की खुदरा कीमत 51 प्रतिशत, दाल खाद्य तेल की कीमत 100 प्रतिशत से भी अधिक बढ़ गयी। सामान्य सब्जियों, दूध, अंडों, चीनी की कीमतें भी बढ़ गयी हैं। महीना दर महीना और सप्ताह दर सप्ताह यह रूझान जारी है।
इस बढ़ती कीमतों के रूझान के प्रति सरकार इतनी असंवेदनशील है कि उसने भी पेट्रोल तथा डीजल के दाम बढ़ाकर उसमें योगदान दे दिया। गरीब मुसीबतों के दलदल में फेंक दिये गये और मध्यम वर्ग भी इस अभूतपूर्व मूल्यवृद्धि से बुरी तरह आहत हो गया।
राजनीतिक स्थिति - भाकपा और वामपंथ को आघात
राजनीतिक क्षेत्र में, इन छह महीनों के दौरान, महाराष्ट्र, हरियाणा तथा अरुणाचल प्रदेश राज्य विधानसभाओं के चुनाव हुए। झारखंड में भी जहां हमें कुछ आशा थी, हमें कुछ भी नहीं मिला। झामुमो ने अच्छा किया हैं। झामुमो, भाजपा और आजसु के गठबंधन ने सरकार का गठन किया है। यह देखना है कि वह कितना टिकाऊ होता है।
कांग्रेस तीन राज्यों में सत्ता में आ गयी, हालांकि घटी हुई बढ़त तथा घटे हुए वोट के साथ, अरुणाचल प्रदेश को छोड़कर जहां कोई दमदार विपक्ष नहीं है। हरियाणा में जहां कांग्रेस ने भारी जीत की आशा की थी, उसे 90 सीटों में केवल 40 सीटों ही मिली जबकि चौटाला के लोकदल को 30 सीटें मिलीं। अपने सामान्य तरीके के अनुरूप कांग्रेस ने निर्दलीय तथा भजनलाल के लोगों को खरीद लिया और सत्ता में बने रहने की व्यवस्था कर ली।
महाराष्ट्र में कांग्रेस एनसीपी के साथ मिलकर जीत हासिल कर सकी क्योंकि राज ठाकरे के एमएनएस ने भाजपा-शिवसेना के वोट काट लिये।
लेकिन यह गंभीर चिन्ता की बात है कि इस बार भी इन तीनों राज्यों में भाकपा को एक सीट भी नहीं मिली जबकि भाकपा (एम) अपनी तीन सीटों में केवल एक सीट बरकरार रख सकी। उस मोर्चे ने जो दोनों पार्टियों ने महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी तथा पीजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टियों एवं कुछ अन्य ग्रुपों के साथ मिलकर बनाया था, काम नहीं किया।
इस अवधि के दौरान अनेक उपचुनाव भी हुए। वे प्रायः सभी राज्यों में हुए। वहां भी वामपंथ कोई सफलता प्राप्त नहीं कर सका। पश्चिम बंगाल में जहां 11 सीटों में केवल एक सीट फारवर्ड ब्लाक जीत सका, वामपंथ के आधार में और क्षरण हुआ। कई नगर निकायों के चुनावों में भी इस रूझान की पुष्टि हुई। इससे यह भी पता चला कि तृणमूल कांग्रेस ने जिसने राज्य के दक्षिणी हिस्से में सफलता हासिल की थी, अब उत्तर में भी अपनी पैठ बना ली है। यह कहा जा सकता है कि केरल में दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने अच्छा प्रदर्शन किया है (खासकर अलेप्पी में भाकपा ने) और उन विधानसभा क्षेत्रों में लोकसभा चुनावों के दौरान मार्जिन की तूलना में हार के मार्जिन को कम किया है।
हमारी पार्टी तथा सबद्ध इकाइयों को इस बात का गंभीर नोट लेना चाहिए कि क्यों सीटें गंवाने पर भी हम उतना वोट बरकरार रखने में कामयाब नहीं होते हैं जो हमने उन निर्णाचन क्षेत्रों में पहले चुनाव में प्राप्त किये थे।
तृणमूल-माओवादी गठजोड़
इस कठिन स्थिति में माओवादी लड़ाई में कूद पड़े हैं और लालगढ़ में (पश्चिमी मिदनापुर झाग्राम का एक हिस्सा) तथा बांकुड़ा एवं पुरूलिया जिलों में निकटवर्ती क्षेत्रों को अपनी कारवाई का आधार बना लिया है। यह क्षेत्र झारखंड की सीमा पर है जहां माओवादी पिछले कुछ समय से कार्रवाइयां कर रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस को वाममोर्चा से लड़ने और सत्ता से हटाने के समान उद्देश्य के साथ माओवादियों से हाथ मिलाने में कोई हिचक नहीं हुई है। घने वन क्षेत्र का लाभ उठाते हुए और तृणमूल कांग्रेस से साठगांठ एवं नैतिक समर्थन के साथ माओवादियों ने आम आदिवासी जनों के खिलाफ खासकर भाकपा (एम) कैडरों तथा सदस्यों को निशाना बनाते हुए आतंक, हत्याओं एवं अपहरण का दौर-दौरा शुरू कर दिया है। हालांकि केन्द्र सरकार माओवादियों के खिलाफ संयुक्त कार्रवाई में राज्य के साथ सहयोग कर रही है पर राज्य की कांग्रेस ने अपने तंग उद्देश्यों के लिए इस स्थिति से अपनी आंखे मूंद ली है।
पश्चिम बंगाल में वाम-विरोधी
गठबंधन: नयी चुनौती
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, एसयूसीआई और सभी वाम-विरोधी एवं कम्युनिस्ट विरोधी ताकतें वाममोर्चा को हटाने के लिए एक साथ मिल गयी हैं। सिंगूर और नंदीग्राम ने उन्हें भाकपा (एम) और वाममोर्चे का मुकाबला करने के लिए विश्वास प्रदान किया है। चुनावी लड़ाई में सफलताओं ने उनका मनोबल बढ़ाया है और ममता बनर्जी के गिर्द वे एकजुट हो गयी हैं। कांग्रेस को उनके निर्देशों के सामने नतमस्तक होने के लिए मजबूर किया जा रहा है। यह संघर्ष का एक संभावित श्रोत है।
वाममोर्चा के 32 वर्षों के निर्बाध शासन तथा 2006 के चुनाव में उसकी भारी जीत के संदर्भ में पश्चिम बंगाल का यह घटनाक्रम अचानक का घटनाक्रम जैसा मालूम पड़ता है। वे वास्तव में वाममोर्चा द्वारा की गयी गलतियों और शासन के दौरान उसकी खामियों एवं कमियों के चलते उभरे हैं। उसने किसानों, मध्यमवर्ग तथा अल्पसंख्यकों के बड़े तबके को अलग-थलग कर दिया जो उसके समर्थन के स्तंभ रहे हैं। उन्हें वापस अपने पक्ष में लाना है। लंबे शासन के दौरान अनेक कम्युनिस्ट मूल्य कुंद हो गये और अनेक गलत प्रवृत्तियां घर कर गयी जिनका काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
मोर्चा के सभी घटकों द्वारा पिछले समय की आत्मालोचनात्मक समीक्षा की जा रही है। वाममोर्चा द्वारा एवं प्रत्येक पार्टी द्वारा सुधारात्मक कदम उठाये जा रहे हैं - बड़ी पार्टी को परिवर्तन के लिए बड़ी जिम्मेवारी लेनी है। कुछ सकारात्मक संकेत दिखने लगे हैं। हम आशा करते हैं कि कुछ और कदम उठाये जायेंगे। लोगों ने तृणमूल के असली चेहरे एवं माओवादियों के साथ उसके खतरनाक गठबंधन को देखना शुरू कर दिया है।
राज्य विधानसभा के चुनाव अप्रैल-मई 2011 में होने हैं। कुछ महीनों के बाद कोलकाता कार्पोरेशन के चुनाव होने वाले हैं। स्थिति को बदलने और विनम्रता के साथ जनता के साथ संपर्क सूत्र को पुनः मजबूत करने के लिए भारी प्रयास करने की जरूरत है। इसके लिए हमें वाममोर्चे के एक बेहतर संस्करण के लिए, बेहतर सलाह-मशविरे एवं सामूहिक कार्यप्रणाली के लिए काम करना है। यथास्थिति की ओर नहीं लौटा जा सकता है। मोर्चे के अंदर नया चिन्तन होना चाहिए। हमें उसके लिए कठिन काम करना है।
पश्चिम बंगाल में मिले गंभीर आघात तथा संसदीय चुनाव के दौरान केरल में एलडीएफ को मिली पराजय ने राष्ट्रीय राजनीति में वामपंथ के प्रभाव को काफी कम कर दिया है। संसद में वामपंथ का प्रतिनिधित्व 61 से घटकर 24 हो गया जिसके फलस्व्रूप देश के राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक जीवन में कम्युनिस्ट पार्टियों का हस्तक्षेप गंभीर रूप से प्रभावित हुआ है। नीतिगत सवालों पर सरकार को प्रभावित करने तथा जनता के फौरी मसलों का समाधान करने में वामपंथ की क्षमता में आम लोगों का विश्वास कम हो गया है। पर यह अच्छी बात है कि संसद में इतनी घटी संख्या के साथ भी हमारे कामरेड काफी अच्छा कर रहे है।
भाजपा पर आरएसएस का कसता नियंत्रण
संसद में मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा लंबे समय से, जबसे उसने 2004 में सत्ता खो दी और 2009 के चुनाव में और अधिक कमजोर हो गयी, गहरे संकट में है। इस दुर्गति से उबरने के हताश प्रयास में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने न केवल भाजपा पर अपना नियंत्रण मजबूत कर लिया है बल्कि वास्तव में उसने उस पर कब्जा कर लिया है। इसका यही अर्थ है कि उसकी सांप्रदायिक राजनीति, उसका हिंदुत्व एजेंडा और अधिक तीखा होगा। उसका पंाच राज्यों में शासन है और दो राज्यों में वह सत्ता में साझेदार है। इसलिए भाजपा के खतरे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
हालांकि लिब्रहान आयोग ने बाबरी मस्जिद के ध्वंस में संघ परिवार तथा भाजपा के बड़े नेताओं के आपराधिक दोष की अभिपुष्टि कर दी है, वहीं जांच परिणाम सौंपने में 17 वर्षों के विलंब, उसे रोकने में तत्कालीन कांग्रेस सरकार एवं प्रधानमंत्री नरसिंह राव की विफलता तथा सहअपराधिकता एवं कांग्रेस की भूमिका को बताने में जिससे वह शर्मनाक त्रासदी हुई, आयोग की विफलता और स्पष्ट पक्षपात से आयोग की विश्वसनीयता को गंभीर क्षति पहुंची है। भाजपा ने बड़ी ही निर्लज्जता से इस अपराध की एवं जिम्मेवारी का सामना किया है और इस बीच अन्य गंभीर घटनाक्रमों ने लिब्रहान को पृष्ठभूमि में डाल दिया है।
कांग्रेस का घमंड
2009 के संसदीय चुनाव में कंाग्रेस की सफलता (2004 की तुलनाएं में उसने 60 सीटें बढ़ा लीं), हालांकि उसे बहुमत से कम सीटें मिलीं, उत्तर प्रदेश की तुलना में उसके बेहतर प्रदर्शन, वामपंथ की संख्या में कमी जिससे उसे उन पर समर्थन के लिए निर्भर नहीं होना पड़ा है और अनेक मसलों पर उसके दबाव से छुटकारा ने कांग्रेस के व्यवहार में काफी हद तक घमंड ला दिया और अपने सहयोगियों के प्रति भी उसका एक लापरवाही का रूख हो गया है। वह नीतिगत मामलों पर भी दूसरी पार्टियों से परामर्श करने या प्रमुख राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सवालों पर निर्णय लेने के पूर्व आम सहमति विकसित करने की कोई जरूरत महसूस नहीं करती है।
वह अपने अच्छे प्रदर्शन को अपनी नीतियों की अभिपुष्टि समझती है। आर्थिक संकट से कोई सबक नहीं लेते हुए वह नवउदारवाद यानी निजीकरण के उसी नुस्खे को और तेजी से आगे बढ़ा रही है। वह इस बात को स्वीकार करने से इन्कार कर रही है कि यदि भारत में वित्तीय क्षेत्र पूंजीवादी विश्व में वित्तीय विक्षोभ से अप्रभावित रहा एवं इसलिए स्थिर बना रहा तो उसका यही कारण था कि वामपंथ ने यूपीए-1 को उसका निजीकरण करने से रोक दिया और उसे सार्वजनिक क्षेत्र में बनाये रखा। वह कतिपय सामाजिक एवं आर्थिक कदम उठाने तथा अनेक अच्छे कानून बनाने में वामपंथ के योगदान से इन्कार करती है जो समाज के वंचित एवं कमजोर तबकों को लाभ पहुंचाते है। उसने इनके लिए सारा श्रेय स्वयं ले लिया है। प्रसंगवश वामपंथ को इसका दोष लेना चाहिए क्योंकि वह जनता की चेतना में इन बातों को पर्याप्त रूप से बैठाने में विफल रहा।
सरकार ने शेयरों को बेचने तथा इस तरह मुनाफा कमाने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में सरकार के हिस्से को कम करने का अभियान शुरू कर दिया है। यह उनके अंततः निजीकरण की दिशा में ही एक कदम है। बैंक कर्मचारियों के संयुक्त विरोध की उपेक्षा करते हुए वह बैंकों का विलय करने का प्रयास कर रही है जो वास्तव में बैंक से कर्ज पाने के लिए आम लोगों की पहुंच को ही काफी कम कर देगा। उसकी दोषपूर्ण आर्थिक नीतियां खाद्य वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों की जड़ है जो न केवल गरीब लोगों की मुसीबतें एवं कठिनाइयां बढ़ा रही है बल्कि समाज के मध्यम वर्गीय तबके की भी। फिर भी यह सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सर्वव्यापक बनाने, खाद्य पदार्थों के वायदा कारोबार पर पाबंदी लगाने, राज्य सरकारों के सहयोग से जखीरा खाली कराने से इन्कार कर रही है। केवल इन कदमों तथा पर्याप्त सब्जिडी से कीमतें कम हो सकती है। ऐसा करने के बजाय वह राज्यों पर जिम्मेवारी डाल रही है। वास्तव में अपनी सीमित संसाधनों से कुछ राज्य जनता के बड़े तबकों को सहायता प्राप्त सस्ता खाद्यान्न उपलब्ध करा रहे हैं ‘खाद्य सुरक्षा बिल’, जिसका केन्द्र ने वायदा किया है, इन राज्यों के कामकाज पर नकारात्मक प्रभाव ही डालेगा और उन राज्यों में जनता की ‘खाद्य सुरक्षा’ के बजाय ‘खाद्य असुरक्षा’ ही लायेगा। यह आज और कल जन आंदोलन एवं अभियान का एक बड़ा मसला बना हुआ है। हमें ऐसे अभियान और आंदोलन संगठित करने हैं।
नवउदारवाद, जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति के बजाय मुनाफों को अधिकतम बढ़ाने, मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की नीतियां कार्पोरेट घरानों और बहुराष्ट्र्रीय निगमों को मालामाल कर रही है, उन्हें सार्वजनिक सम्पत्तियों (गैस, बहुमूल्य खनिजों की खदानों आदि) को हड़पने और लूटने की छूट दे रही है और अपराधियों एवं भ्रष्ट तौर-तरीकों को बढ़ावा दे रही हैं। चारों तरफ भ्रष्टाचार और घोटाले (जैसे कि टेलीकाम आदि के घोटाले) का बोलबाला है। अनैतिक प्रवृत्ति और दोषान्वेषण में वृद्धि हो रही है।
धनशक्ति का अधिकाधिक प्रयोग राजनीतिक स्तर पर स्थानीय निकायों से लेकर संसद तक के चुनावों पर असर डाल रहा है, करोड़पति लोग विधायिका में भारी तादाद में पहुंच रहे है। धनशक्ति के इस बढ़ते प्रयोग से लोकतंत्र और देश में जनता की ताकत को खतरा बढ़ रहा है। इसके साथ ही साथ सरकार द्वारा संसद की अनदेखी कर महत्वपूर्ण फैसले लेने और घोषणा करने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। हमारी तरफ से निरंतर चैकसी और जनता को लामबंद करके ही लोकतंत्र को बचाया जा सकता है और उस पर किसी खतरे को दूर किया जा सकता है।
तेलंगाना
एक अन्य लिहाज से भी आज एक गंभीर राजनीतिक संकट बढ़ रहा है। तेलंगाना के लिए जनता के आंदोलन की समस्या से कांग्रेस ने किस तरह निपटा है, उस पर गौर करें। उसने तमाम पार्टियों से सलाह-मशविरा करने, तमाम पार्टियों की एक मीटिंग बुलाने, तमाम तबकों को समझा-बुझाकर आम सहमति बनाने की कोशिश करने और उसके बाद उनके सुझावों आदि को ध्यान में रखने की कोई जरूरत नहीं समझी। वह समझती है कि उसका हाईकमान आधी रात में कुछ भी फैसला ले सकता है और मामला हल हो जायेगा। उसका नतीजा न केवल आंध्र प्रदेश पर, जहां अन्य क्षेत्रों के तबके अब आंदोलन के रास्ते पर हैं, बल्कि अन्य राज्यों पर भी पड़ा है। किसी राज्य का विभाजन एक जटिल मामला है और इसका तरीका यह नहीं है कि उसकी लम्बे अरसे तक अनदेखी की जाये और फिर अचानक ही एक जल्दबाजी भरी घबराहट में किसी फैसले की घोषणा कर दी जाये। ये लोकतांत्रिक नहीं बल्कि षडयंत्रपूर्ण तौरतरीके हैं।
माओवादी रणनीति हानिकर
देश के अनेक इलाकों में आज आम असुरक्षा एवं असंतोष की भावना है। ऐसे इलाकों में, जहां सामान्यता आदिवासी रहते हैं जहां वे स्वतंत्रता के 60 वर्ष बाद भी उपेक्षा एवं अविकास के शिकार हैं, माओवादियों ने जड़े जमा ली हैं। इसे केवल कानून एवं व्यवस्था की समस्या मानने और इसके सामाजिक-आर्थिक आयामों को न देखने के सरकार के दृष्टिकोण के फलस्वरूप आम लोग क्रास फायर में फंस जाते हैं और निर्दोष लोग मारे जाते हैं। दुर्भाग्यवश, हमारी पार्टी भी इन सर्वाधिक शोषित क्षेत्रों में घुसने में और वहां अपनी जड़ें जमाने में विफल रही है और इस तरह मैदान को माओवादियों के लिए खुला छोड़ दिया है। “लम्बे जनयुद्ध” और चुनावों के बहिष्कार के नाम पर कत्ल एवं हत्या करने, राजनीतिक प्रतिद्वंदियों (जैसे लालगढ़ में भाकपा (मा)) को अपना निशाना बनाने, जबरन लेवी जमा करने और जबरन पैसा वसूली करने की माओवादियों की रणनीति क्रांति के ध्येय को नुकसान पहुंचा रही है। हमें विचारधारात्मक एवं राजनीतिक तरीके से उनके संघर्ष करना होगा। साथ ही, उन्हें खत्म करने के लिए सशस्त्र बलों के प्रयोग और विकास की उपेक्षा की सरकार की नीति का हमें विरोध करना चाहिए। उनके साथ संवाद शुरू करने के लिए कोशिश करनी होगी ताकि सशस्त्र टकराव खत्म हो सके। सरकार माओवादियों के विरूद्ध अपने अभियान को कम्युनिस्टों एवं लालझंडों के विरूद्ध एक आम आक्रमण बनाने की कोशिश कर रही है। ये तमाम बातें आदिवासियों के बीच और दूरदराज के इलाकों में पार्टी के काम की आवश्यकता पर ही जोर डालती हैं।
उत्तर-पूर्व: मणिपुर के घटनाक्रम
पूर्वोत्तर में अनेक विद्रोही ग्रुप कार्यरत है और भारत की स्थिरता एवं सम्प्रभुता को चुनौती दे रहे हैं। यह एक गंभीर चिंता का विषय है। असम में हमारी पार्टी मांग कर रही है कि उल्फा के साथ बिना किसी पूर्व शर्त के एक राजनीतिक संवाद किया जाना चाहिए ठीक उसी तरह जैसे कि नागालैंड में एनएससीएन (आईएम) के साथ किया जा रहा है। असम पुलिस द्वारा उल्फा के शीर्ष नेता को पकड़े जाने का सरकार द्वारा दुरूपयोग नहीं किया जाना चाहिए।
मणिपुर के घटनाक्रम से हमारी पार्टी को गंभीर चिंता हो रही है क्योंकि उस राज्य में हम एक महत्वपूर्ण राजनीतिक ताकत है। पिछली बार यद्यपि हमने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा, पर उस अस्थिर सीमावर्ती राज्य में सरकार की स्थिरता में मदद देने के लिए हम कांग्रेस कैबिनेट में शामिल हुए। इस समय 60 सदस्यों वाली विधानसभा में हमारे चार विधायक हैं। पहले हमारे पांच विधायक थे। वहां 34 विद्रोही ग्रुप हैं जिनमें से तीन ग्रुप बड़े है। अधिकांश विद्रोही ग्रुप ब्लैकमेल और जबरन वसूली के जरिये अपना कामकाज चलाते हैं। लोगों की हत्या दिनप्रतिदिन की बात हो गयी है। दूसरी तरफ सरकार की पुलिस और सशस्त्र बल भी एनकाउंटरों का तरीका अपना रहे हैं और निर्दोष लोगों को मार रहे हैं। मणिपुर की सीमा म्यांमार से लगती है। लोकतांत्रिक तरीकों से सामान्य राजनीतिक कार्यकलाप चलाना मुश्किल होता जा रहा है।
अगस्त 2009 में, एक पूर्व मिलिटेंट और एक गर्भवती महिला को पुलिस ने दिनदहाड़े मुख्य बाजार में जान से मार दिया था। तहलका समाचार पत्रिका ने पुलिस द्वारा नृशंसतापूर्ण हत्या के रूप में इसका पर्दाफाश किया। इम्फाल और अन्य इलाकों में लम्बा कफ्र्यू चलता रहा। बाद में छात्रों की हड़तालें चलती रही है। विद्रोही ग्रुप रिमोट कंट्रोल के जरिये अभियानों और आंदोलनों को दिशा दे रहे हैं, चला रहे हैं। जनता शांति और सामान्य जीवन चाहती है।
मणिपुर की जनता उस सशस्त्र बल विशेष शक्ति कानून को वापस लेने की मांग भी कर ही है जो सेना को उस राज्य में जो भी कार्रवाई करे उसकी जिम्मेदारी से छूट प्रदान करता है। इस प्रकार स्थिति अत्यंत जटिल है। केन्द्र और राज्य का नेतृत्व हर समुचित कदम उठाने के लिए लगातार सम्पर्क में है।
अमरीका की तरफ झुकाव
अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में, सरकार भारत को वर्तमान समय के सर्वाधिक शक्तिशाली, साम्राज्यवादी आक्रामक अमरीका के साथ रणनीतिक भागीदारी में शामिल करने की कोशिश कर रही है। यहां तक कि वह इस्राइल के साथ भी गिरोहबंद होने की कोशिश कर रही है। साथ ही विकासशील विश्व में भारत की श्रेष्ठ स्थिति का तकाजा है कि वह चीन, रूस, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका आदि के साथ संबंध विकसित करे। हमें, वामपंथियों को इस दुविधा को खत्म करना होगा और भारत को साम्राज्यवादी अमरीका और उनके प्रतिनिधि इस्राइल के साथ किसी रणनीतिक भागीदारी से बाहर लाना है। हम इस दिशा में कोशिश कर रहे हैं।
चाहे वह विश्व व्यापार संगठन की दोहा दौर की वार्ता के मामले में हो या जलवायु परिवर्तन की वार्ताएं हों, सरकार अपने राष्ट्रीय हितों की कीमत पर अमरीका की हां में हां मिलाने और उसके दवाब के सामने झुकने की लगातार कोशिश कर रही है। कोपेनहेगन में ऐसा करते हुए उसने स्वयं को विकासशील राष्ट्रों के समूह की कतारों से अलग कर लिया है। हमें इसका विरोध करना होगा।
पर यह समझना अतिशयोक्तिपूर्ण होगा कि अमरीका एवं इस्राइल के साथ विभिन्न समझौतों और सौदों के फलस्वरूप भारत की सम्प्रभुता का आत्मसमर्पण किया जा रहा है या उस पर कम्प्रोमाइज किया जा रहा है। भारत की जनता इसकी कभी भी इजाजत नहीं देगी। पर सरकार जिस नीति पर चल रही है वह हानिकारक और कई क्षेत्रों में निर्भरता की दिशा में ले आती है। साम्राज्यवाद-विरोधी, गुटनिरपेक्षता और स्वतंत्रता एवं प्रगति के लिए संघर्ष करने वाले तमाम लोगों के साथ एकजुटता की अपनी परम्पराओं पर आधारित रहते हुए हमें सरकार की इन समझौता करने वाली नीतियों का दृढ़तापूर्वक विरोध करना चाहिए।
अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट मीटिंग
हाल में कम्युनिस्ट और मजदूर पार्टियों की ग्यारहवीं अंतर्राष्ट्रीय मीटिंग दिल्ली में हुई जिसकी मेजबानी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और माकपा ने संयुक्त रूप से की। इस अंतर्राष्ट्रीय मीटिंग ने उस आर्थिक संकट का विश्लेषण किया जो अमरीका से शुरू हुआ और फिर उसने पूरे विश्व पर असर डाला। इस संकट ने पूंजीवाद में अंतर्निहित उन अंतर्विरोधों को और गरीबी, भूख, भुखमरी, बेरोजगारी और विश्व के पर्यावरण की भी समस्याओं का समाधान करने में पूंजीवाद की असमर्थता का पर्दाफाश किया। इससे पता चला कि केवल समाजवाद ही इन समस्याओं का समाधान कर सकता है और मानवता एवं पृथ्वी, जिस पर हम सब बसते हैं, को बचा सकता है।
हमने अपने देश के वर्तमान आर्थिक एवं राजनीतिक संकट और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एवं वामपंथ के सामने दरपेश चुनौतियों का विश्लेषण किया है, पर इस स्थिति में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और वामपंथ एक गंभीर स्थिति में हैं। पार्टी के परम्परागत आधारों का क्षरण हो रहा है। आक्रामक स्थिति अपनाने और पहलकदमी को हाथ में लेने की स्थिति में होने के बजाय वह बचाव की मुद्रा में है और उसे अपने वर्तमान आधारों को बचाना मुश्किल हो रहा है। वस्तुगत स्थिति जनता के उभार के लिए अत्यंत अनुकूल है। पर आत्मपरक कारक बहुत पीछे चल रहा है।
मुख्य कर्तव्य - जनसंघर्ष चलाओं, खासकर ग्रामीण इलाकों में
राष्ट्रीय राजनीति में वामपंथ की स्थिति मुख्यतः तीन राज्यों-पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा- में उसकी अत्यंत मजबूत स्थिति के कारण थी। कुछ अन्य राज्यों में उसके प्रभाव के केवल चंद ही इलाके थे। जहां तक हिन्दी भाषी क्षेत्रों की बात है, काफी समय से वामपंथ की स्थिति कमजोर चल रही है और जाति एवं क्षेत्रीय कारकों ने, जिनसे कुछ अन्य ताकतें उभर कर सामने आयी, वामपंथ को नुकसान पहुंचाया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को जिसकी पहले के समय में इन अधिकांश राज्यों में अच्छी स्थिति थी - यह नुकसान उठाना पड़ा। इसके अलावा, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य वामपंथी पार्टियों के नेतृत्व में चलने वाले जनसंगठनों के प्रभाव को उसी हद तक राजनीतिक प्रभाव के रूप में नहीं बदला जा सका। नेशनल फ्रंट और युनाइटेड फ्रंट की अवधि में और खासतौर पर यूपीए-1 सरकार के दौरान पार्टी और वामपंथ का कुल मिलाकर राष्ट्रीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण दखल था। हम उस अनुकूल अवसर की जनता पर खासकर गांवों की जनता पर असर डालने वाले मुद्दों पर जबर्दस्त जन आंदोलन और संघर्ष चलाने के लिए और इस तरह अपने राजनीतिक कार्य और पार्टी आधार को विस्तारित करने एवं मजबूत बनाने के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकें। संसदीय कार्यकलाप और सहयोगी पार्टियों एवं समूहों के बीच वार्ताओं एवं समझौतों पर अधिक ध्यान दिया गया और अधिक समय लगाया गया। पार्टी के नेतृत्व में स्वाधीनता से ठीक बाद जिस तरह के महान किसान आंदोलन चलाये गये थे, उनके संघर्षशील जोश और तौरतरीकों की परम्परा को कायम नहीं रखा गया। यहां तक कि संसद के बाहर और अंदर के कामकाज के बीच तालमेल और संयोजन के रिवाज का भी उचित रूप से पालन नहीं किया गया। इस विचलन को दूर करना होगा।
हमारी 65 प्रतिशत आबादी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है और गांवों में रहती है। इस किसान समुदाय के बीच कामकाज हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। उनके जनसंगठनों (अखिल भारतीय किसान सभा, भारतीय खेत मजदूर यूनियन) का निर्माण किये बगैर और उनके जन आंदोलनों एवं संघर्षों को चलाये बगैर कोई बदलाव नहीं हो सकता न ही पार्टी बढ़ सकती है। इसकी उपेक्षा करने से पार्टी को भारी नुकसान पहुंचेगा।
संघर्षों के मुख्य मुद्दे
कृषि में चला आ रहा चिरकालिक संकट-जो सूखे और बाढ़ से और भी बढ़ गया है- जारी है; एक तरफ कृषि में निवेश की कीमतों में वृद्धि और कृषि उत्पादों के लिए लाभकारी मूल्यों का न मिलना और दूसरी ओर खाद्य पदार्थों की कीमतों में लगातार वृद्धि होने से किसानों के बीच और नाराजगी बढ़ रही है। यहां तक छुटपुट आंदोलन हो रहे हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम किसान जनसमुदाय को कार्रवाइयों में उतारें और उन्हें सड़कों पर आंदोलन के लिए लायें।
आज खेत मजदूर भी नरेगा, बीपीएल राशन कार्ड जैसे मुद्दों पर आंदोलित है। न्यूनतम वेतन और नियमित भुगतान की मांगे, बढ़ती महंगाई के संदर्भ में दोनों बीपीएल तथा एपीएल के लिए सब्सिडी पर खाद्य पदार्थ की मांगे और जमीन एवं बटाईदार अधिकारों के लिए संघर्ष उन्हें झकझोर रहे हैं। बिहार में, भूमि सुधारों पर बंद्योपाध्याय आयोग की रिपोर्ट एजेंडे पर है। इस प्रकार एक नये भूमि संघर्ष की तैयारी की जानी है और यह संघर्ष शुरू किया जाना है।
संगठित एवं असंगठित दोनों तरह के मजदूर रोजगार छिनने, बेरोजगार, अपने टेªड यूनियन अधिकारों पर हमलों, निजीकरण, महंगाई आदि के विरुद्ध प्रतिरोध कर रहे हैं।
नयी व्यापक एकता - जिसमें इटक-भामस से लेकर एटक-सीटू और अन्य वामपंथी नेतृत्व वाले टेªेड यूनियन केन्द्र शामिल हो रहे हैं - मजदूरों को कार्रवाई में उतार रही है।
बैंक कर्मचारी अपने मुद्दों के संबंध में बारम्बार एकताबद्ध कार्रवाइयों पर उतरे हैं।
नये तबके - उदाहरणार्थ कामकाजी महिलाएं - अपनी मांगों को बुलंद करने के लिए सामने आये हैं।
संगठित टेªड यूनियनों का कर्तव्य है कि वे अपने वर्गीय भाइयों को खासकर गांवों के मजदूरों को संघर्ष के लिए आगे बढ़ने में मदद करें और उनकी अगुवाई करें।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और जनसंगठनों का लक्ष्य होना चाहिए कि वे विभिन्न छुटछुट, कार्यक्षेत्रीय एवं स्थानीय कार्रवाइयों को जनता पर प्रभाव डालने वाले जैसे कि खाद्य, जमीन, रोजगार और लोकतांत्रिक अधिकारों के मुद्दों पर बड़े जनआंदोलनों के रूप में समन्वित करें।
इन राजनीतिक एवं जन कार्यों को चलाने के लिए पार्टी संगठन को तदनुकूल चुस्त-दुरुस्त करना होगा।
इसके लिए आवश्यक है कि पार्टी को जमीनी स्तर पर क्रियाशील बनाया जाये, जिसका अर्थ है कि पार्टी शाखाएं काम करें। शाखा सचिवों को इस उद्देश्य के लिए प्रशिक्षित एंव शिक्षित करना होगा। केवल इस तरीके से और सही राजनीतिक नारों के साथ हम जनता के साथ अपने नजदीकी संबंध जोड़ सकते हैं। यह आवश्यक है कि पार्टी को ”सुधारने, क्रियाशील बनाने एवं पार्टी का कायाकल्प करने“ के दिशानिर्देश को याद किया जाये। यह एक सतत अभियान है और पार्टी नेतृत्व को इस पर निगरानी रखनी होगी।
नागरिक एवं राजनीतिक जीवन में महिलाओं की हिस्सेदारी को बढ़ाने के लिए स्थानीय निकायों में 50 प्रतिशत आरक्षण के लिए कानून पारित किये जा रहे हैं। विधानसभाओं एंव संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग भी पूरी होने के करीब पहुंचने वाली है। यदि पार्टी अभी से महिला कार्यकर्ताओं को पार्टी और सार्वजनिक जीवन में लाना शुरू नहीं करती है तो उसे आगामी दिनों में कठिनाइयों को सामना करना पड़ेगा। यह महिलाओं को महज इन निर्वाचित संस्थाओं में लाने की बात नहीं है। यह सामाजिक रूपांतरण लाने के लिए भी आवश्यक है।
आदिवासियों, दलितों, मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर ध्यान केन्द्रित करने के बार-बार किये गये फैसलों पर अमल किया जाना है।
पार्टी का निर्माण करना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है। इसके स्वतंत्र कार्यकलाप का अर्थ है कि उसे मुद्दे तैयार करने में, आंदोलन की पहल करने और अपना अनुसरण करने वालों को लामबंद करने में उसे पहल करनी है, पर इसका अर्थ पार्टी को इसके वामपंथी, धर्मनिरेपक्ष एवं लोकतांत्रिक सहयोगियों से अलग-थलक करना नहीं है। वर्तमान गंभीर स्थिति का तकाजा है कि वाम एकता अधिक एवं बेहतर हो और संभावित लोकतांत्रिक सहयोगियों को अपने नजदीक लाया जाये, न कि उनसे दूर हुआ जाये। पर निश्चय लाया जाये, न कि उनके दूर हुआ जाये। पर निश्चय ही इस प्रक्रिया में अपनी पहचान, अपनी विचारधारा, अपने मूल्यों की हमेशा रक्षा की जानी चाहिए। केवल तभी हम हालत में बदलाव ला सकते हैं और वर्तमान स्थिति पर पार पा सकते हैं।