नागार्जुन को ध्यान में रखते हुए उनसे संबंधित ढेर सारी बातें सामने आने के लिए होड़ मचाने लगती हैं। वे ऐसी बातें हैं, जो उनके बाद की पीढ़ी से लेकर आज तक के लेखकों में दुर्लभ हैं। नागार्जुन जिस दौर में साहित्य जगत में कलम लेकर आये, उस दौर में जीवन में किसी ऐतिहासिक उपलब्धि के लिए पहले त्याग करना अनिवार्य समझा जाता था। निराला ने एक गीत में लिखा है ‘जला है जीवन यह आतप में दीर्घ काल’। नागार्जुन के जीवन पर यह कथा पूरी तरह घटित होता है।
सन 1951 या 52 में जब बिहार राष्ट्र भाषा परिषद का गठन किया गया था तभी नागार्जुन के सामने एक प्रस्ताव रखा गया था कि यदि वे स्वीकार करें, तो परिषद में विद्यापीठ कायम करके उस पर उनको बिठाया जा सकता है। इस पर नागार्जुन ने अपने मित्रों से बात करते हुए कहा कि यह तो सरकारी नौकरी होगी, यदि मैं इसे स्वीकार कर लूंगा, तो सरकार के प्रति व्यंग्य कौन लिखेगा। स्पष्ट है कि नागार्जुन अपने रचानात्मक संस्कार को छोड़ने को तैयार नहीं थे। अतः उन्होंने विद्यापति पीठ का प्रस्ताव नामंजूर कर दिया।
1957 या 58 में उन्हें हिमालय प्रेस से प्रकाशित पत्रिका ‘बालक’ का सम्पादक बनाया गया। उन्हांेने स्वीकार भी कर लिया। ‘बालक’ में चारित्रिक परिवर्तन कर दिया उन्होंने। अंधविष्वास वासी लोक कथाओं के बदले वह बालोपयोगी एवं वैज्ञानिक कथाएं छापने लगे। लेकिन इस पद पर वे मात्र तीन महीने रह सके, बोले- इस तरह मुष्किल है। एक दिन उठकर निकले, वे फिर उधर नहीं गए।
एक और प्रसंग याद आता है। सन 1967 में बिहार में भयानक अकाल पड़ा था। अकाल के दौर में ही चौथा आम चुनाव हुआ, तो बिहार में कांग्रेस हार गयी और संविद सरकार बनी जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल थी। कम्युनिस्ट नेता इन्द्रदीप सिंह राजस्व के साथ ही अकाल राहत मंत्री भी थे। उन दिनों नागार्जुन हिन्दी साहित्य सम्मेलन भवन में ठहरे थे। मैं कुछ दिनों के लिए पटना आया था और सम्मेलन भवन में ठहरा था। तभी एक दिन बाबा ने बताया- अरे भाई आज हरिनंदन ठाकुर आए थे, अभी वे राहत कार्यों के सचिव हैं। कह रहे थे कि आप एक काम कर दीजिए, अकाल के इलाकों में घूमिये और आकल पर राहत की स्थिति के बारे में मेरे पास एक रिपोर्ट भेज दीजिए। आप जैसे रहते हैं, जहां रहते हैं, वैसे ही वहां रहिए, किसी कार्यालय में जमकर बैठने की जरूरत नहीं है। स्थिति को देखकर आपका लेखक जो अनुभव करता है वही आप लिख दीजिएगा, सरकार आपको मानदेय देगी और घूमने का प्रबंध भी कर देगी। इतना बोलते हुए उन्हांेने कहा- मैंने सोचने का समय लिया है, अब तुम बताओ क्या करना चाहिए! मैंने कहा- एक तो यह बदली हुई सरकार है, दूसरे यह राहत कार्य विभाग एक कम्युनिस्ट के हाथ में है, तीसरे, आप सरकार को आलोचनात्मक रिपोर्ट भी दे सकते हैं, चौथे, यह नौकरी तो है नहीं; अतः इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेने से कोई हर्ज तो नहीं है। वे बोले- ठीक कहते हो तुम। उन्होंने काम स्वीकार कर लिया, लेकिन यह काम भी दो-तीन महीनों से ज्यादा नहीं कर सके। बोले- अरे सब कुछ के बावजूद यह तो हो ही गया है कि मैं बिहार में बंध गया हूं, कलकत्ता? इलाहाबाद, दिल्ली कहीं भी नहीं जा पा रहा हूं। अतः उन्होंने इस आशय का पत्र सरकार को भेज दिया और निकल पड़े यात्रा पर।
असल में नागार्जुन वैकल्पिक सांस्कृतिक चेतना के वाहक थे, वैकल्पिक मूल्यों के प्रतीक थे, वे इस चेतना और प्रतीकत्व को छोड़ने को किसी भी कीमत पर तैयार नहीं थे। यही तो नागार्जुन के लेखकीय यक्तित्व का आकर्षण था। नये लेखक उनसे अक्सर मिलते रहते थे, वे चाहे जहां रहे। वे उनसे साहित्य के बारे में बातंे करते थे, साहित्य रचना के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते थे। मैं उनसे पहली बार 1953 में मिला जब मैं भागलपुर में इंटर प्रथम वर्ष का छात्र था। वे एआईएसएफ (आल इंडिया स्टुडेंट्स फेडरेशन) के भागलपुर जिला सम्मेलन के अवसर पर आयोजित कवि सम्मेलन में भाग लेने आए थे। सन् 52 में उनका उन्यास ‘बलचनमा’ छपा था, जिसकी बड़ी चर्चा हो रही थी। मैंने यह उपन्यास खरीदकर कुछ दिन पहले ही पढ़ा था। बेचन जी उस समय एमए प्रथम वर्ष में पढ़ रहे थे, लेकिन साहित्य के बारे में उनकी जानकारी और समझ बहुत अच्छी थी। वे कहते थे कि ‘बलचनमा’ में प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाया है। मैं एआईएमएफ का सदस्य नहीं था, लेकिन कवि सम्मेलन में उपस्थित हुआ। बेचन जी संचालन कर रहे थे। मुझसे पूछा- कविता सुनाईगा। मुझे हिम्मत नहीं हुई। लेकिन उसी मंच पर नागार्जुन से उन्होंने मुझे मिलाया। नागार्जुन भगवान पुस्तकालय में ठहरे थे, वही बेचन जी भी रहते थे, क्योंकि उस समय उनके पिता श्री उग्र मोहन झा पुस्तकाध्यक्ष थे। मैं दूसरे दिन प्रातः बाबा से मिलने भगवान पुस्तकालय पहंुचा। उन्होंने पूछा- क्या लिखते हो? मैं कहा- अभी तो शुरूआत है, कोशिश कर रहा हूं कि लिख पाऊं। वे खुश हुए सुनकर। बोले- देखो, जो भी लिखो लेकिन भाषा को रगड़ मारो, ओढ़ना-बिछोना बना लो, उसे लेकर सड़क पर चलो, जीवन की भाषा ही जीवंत भाषा होती है। उनकी इस बात का मुझ पर गहरा असर पड़ा। उस दिन तक मैं संस्कृतनिष्ठ भाषा लिखता था और समझता भी यही था कि संस्कृतनिष्ठ भाषा अच्छी होती है। स्कूल में मैंने संस्कृत पढ़ी थी, इसलिए संस्कृत शब्दों के लिए मुझे भटकना नहीं पड़ता था। लेकिन दूसरे ही दिन से जो कुछ भी लिखता, उसे संस्कृत के तत्सम शब्दों से मुक्त रखने की कोशिश करने लगा। इस काम में कुछ समय लगा। उस समय हमारे गृह नगर गोड्डा (झारखंड) से कुछ तरुण लेखक एक पत्रिका ‘नव जागरण’ नाम से निकालते थे। उनमें मैं भी शामिल था। उसका दूसरा अंक मैंने उन्हें दिया। पटना लौटकर उन्होंने एक पोस्ट कार्ड पर मुझे पत्र लिखा- ‘आठ-दस तरूणों का सचेत गिरोह क्या नहीं कर सकता है? उन्होंने हमें उत्साहित किया। वह पत्र पत्रिका के अगले अंक के मुखपृष्ठ पर हमने छाप दिया। वहीं अंतिम अंक हो गया; क्योंकि गोड्डा में कांग्रेसी लोग हल्ला करने लगे कि ये लड़के कम्युनिस्ट हो रहे हैं। उनमें कोई कम्युनिस्ट नहीं था, लेकिन वहां के कांग्रेसियों को किसी आसन्न संकट का अहसास हुआ। इसके प्रभाव से ही पत्रिका बंद हो गई। लेकिन मेरा संपर्क नागार्जन से न केवल बना रहा, बल्कि लगातार गहरा होता गया। वे बराबर हमें चिट्ठियां लिखते रहे, अफसोस है कि वे चिट्ठियां आज उपलब्ध नहीं है।
मैं पटना आया 1957 में, एमए (हिन्दी) पढ़ने। वे उन दिनों पटना में मछुआ टोली में रहते थे। वहीं रहकर उन्होंने ‘वरुण के बेटे’ उपन्यास लिखा था। मैं खोजते-खोजते उनके आवास पर पहुंच गया। उनके आवास पर ‘मधुकर गंगाधर’ से परिचय हुआ। वे उस साल एमए करके निकल गए थे और अजन्ता प्रेस से प्रकाशित पत्रिका में काम कर रहे थे। अक्सर शाम हो हम लोग अजन्ता प्रेस में मिलते थे। बाबा तो केन्द्र में रहते ही थे। एक दिन उनके साथ अशोक राजपथ पर चले जा रह थे, शाम का समय था, बी.एन. कालेज के सामने उन दिनों भारत कॉफी हाउस था। उन्होंने कहा- चलो तुमको कॉफी पिलाए। मैंने कहा- मैं तो चाय-कॉफी कुछ नहीं पीता। यह सुन कर वे बोले-अरे, लेखन के रास्ते पर चले हो, तो कॉफी नहीं पीओगे, तो कॉफी हाउस नहीं जाओगे, तो आधुनिकाओं का सौरभ कैसे पाओगे। मैं गौर से उनको देखने लगा-बलचनमा और वरूण के बेटे को लेखक ऐसा कह रहा था! खैर उनका अनुगमन करते हुए कॉफी हाउस में दाखिल हुआ और उनके साथ कॉफी के साथ ही उनके यक्तित्व का नया स्वाद लिया।
बात 1958 की है। होली के अवसर पर बाल शिक्षा समिति, हिन्दुस्तारनी प्रेस यानी रामदहिन मिश्र के प्रतिष्ठान में कवि-सम्मेलन था। बाबा भी आमंत्रित थे। पटना के तमाम कवि-लेखक वहां मौजूद थे। नागार्जुन की बारी आयी, तो माईक पर खड़े होकर उन्होंने कहा- मैंने सुना था कि इस कवि-सम्मेलन में शिक्षा मंत्री भी रहेंगे, तो मैंने उनके लिए यह खास टुकड़ा लिखा, वे नहीं है, तब भी मैं सुना रहा हूं। यह टुकड़ा उनके कोई मुसाहिब पहुंचा ही देंगे। उन दिनों कुमार गंगानंद सिंह बिहार के शिक्षा मंत्री थे। तो बाबा ने कविता सुनाई-
अभी-अभी उस दिन मिनिस्टर जी आए थे,
बत्तीसी दिखलाइ थी, वायदे दुहराये थे,
भाखा लटपटायी थी, नैन शरमाये थे,
छपा हुआ भाषण भी नैन से सटाये थे।
इसके बाद श्री मथुरा प्रसाद दीक्षित खड़े हो गए और कहने लगे- यह तो एकदम व्यक्तिगत आक्षेप है, इसे वापस लीजिए। बाबा ने इस पर कहा- ठीक है, अंतिम पंक्ति को संशोधन करके ऐसा कर देता हूं- ‘छपा हुआ भाषण भी पढ़ नहीं पाये थे’। इसके बाद स्थिति शांत हुई।
इसी प्रसंग में एक बात और याद आ रही है। नागार्जुन ने राजनैतिक व्यक्तित्वों पर जितना लिखा है, उतना किसी दूसरे किसी कवि ने नहीं लिखा। पंडित नेहरू, जयप्रकाश, इन्दिरा गांधी आदि पर अनेक कविताएं अनेक मनोदशाओं में लिखी हैं। पंडित नेहरू के निधन के बाद उन्होंने एक लंबी कविता लिखी, जिसकी पहली पंक्ति हैं- ‘तुम रह जाते दस साल और। इस कविता को लेकर काफी विवाद हुआ था। यहां मुझे वह प्रसंग याद आ रहा है, जो बाबा ने खुद बताया था। दिल्ली में एक दिन बाबा पहुंच गए राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त के यहां। उन्होंने उन्हें कई कविताएं सुनायी, जिनमें पंडित नेहरु पर लिखी उपर्युक्त कविता भी थी। इसके अलावा जयप्रकाश नारायण, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई आदि पर लिखी कविताएं थी। कहने की जरूरत नहीं कि सभी उपर्युक्त व्यक्तित्वों के खिलाफ व्यंग्यात्मक ढंग से लिखी गयी थी। चुपचाप कविताएं सुन लेने के बाद गुप्त जी ने अपना गुप्त गुस्सा जाहिर करते हुए कहा- ‘मैं तुम्हें जब चलता हुआ देखता हूं तो लगता है कि विष का मटका डोलता हुआ चला जा रहा है।’ बाबा ने मुझे बताया कि मुझे भी गुस्सा आ गया और मैंने कहा- ‘मैं तो यह समझता हूं कि इस जनतंत्र के युग में जो मेरी इन कविताओं को बर्दाष्त नहीं कर सकता उसे मैं राष्ट्रकवि नहीं मानता’। यह कहकर बाबा उठे और चल दिये।
एक बार मैं और बाबा इलाहाबाद में साथ-साथ परिमल प्रकाशन के स्वामी शिवकुमार सहाय के यहां ठहरे थे। एक दिन बाबा ने पूछा- पंत जी से कभी मिले हो। मैंने कहा- नहीं। फिर वे बोले- अरे चलो तुम्हें मिलाता हूं उनसे। एक दिन संध्या समय हम लोग पंत जी के मम्फोर्ड गंज के आवास पर पहुंचे! छोटा-सा मकान, लेकिन लताओं और वृक्षों से घिरा हुआ। पंत जी हम लोगों को अंदर ले गए, बैठक में बिठाया। बाबा ने मेरा परिचय देते हुए कहा-छायावादी काव्य की भाषा पर काम करके पीएचडी हासिल की है इन्होंने, कविताओं के साथ आलोचना भी लिखते हैं, आंदोलन भी करते हैं, कई बार जेल हो आये हैं। पंत जी बाबा की बात सुन रहे थे और मैं देख रहा था कि उनके चेहरे पर भाव आ-जा रहे थे। उन्होंने अत्यंत मर्मस्पर्शी स्वर में पूछा- ‘जेल में तो बड़ा कष्ट हुआ होगा।’ मैंने कहा- ‘आंदोलनकारी साथियों के झुंड में शामिल होकर जेल जाना तो किसी त्यौहार की तरह आनंददायी होता है।’ पंत जी भीतर गये और नमकीन लेकर आये। एक बाबा को दी और एक मुझे। मुझे लगा जैसे मेरे जेल-कष्ट को पंत जी कुछ कम करने की कोशिश कर रहे हैं। फिर कुछ देर गपशप करते हुए चाय पीकर हम लोग पंत जी को प्रणाम कर विदा हुए। पंत जी अपने अहाते के गेट तक आये। लौटते हुए रास्ते में बाबा ने बताया- अमृत राय से इनकी बड़ी दोस्ती है, जब बाजार या कहीं जाना होता है, तो अमृत को फोन करते हैं और वे गाड़ी लेकर आ जाते हैं।
दूसरे दिन शाम को बाबा के साथ इलाहाबाद कॉफी हाउस पहुंचे। वहां बहुत से लेखक मिले, जिन्हें मैं जानता था, लेकिन पहचानता नहीं था। वहां नरेश मेहता थे, विजय नारायण साही थे, डा. रघुवंश, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लक्ष्मीकांत वर्मा, मार्केण्डेय आदि थे। अनेक नये लोग भी थे, गिरिधर राठी आदि। कविता की चर्चा चली तो नरेश मेहता ने कहा- आध्ुानिक हिन्दी कविता में अकेले नागार्जुन हैं, जिनकी कविताओं को पढ़कर उनके देश-काल का पता चलता है। इस पर साही जी ने बाबा की राजनैतिक कविताओं का जिक्र करते हुए उनकी राजनैतिक अस्थिरता की बात कही। इस पर बाबा ने कहा- देखो, साही, तुम सोशलिस्ट हो और मैं कम्युनिस्ट; फिर भी डा. लोहिया मेरी कविताओं की फोटो कापी कर बंटवाते हैं, तुम्हारे पास ऐसी कोई कविता है जिसे डा. लोहिया आम लोगों में बंटवाने की बात सोचें?
बाबा पटना में रह रहे थे। मैं अक्सर गर्मी-छुट्टी और पूजा छुट्टी में पटना आता था अपने शोध कार्य के लिए। बात सन् 64 की है। मैंने बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के तत्कालीन प्रधानमंत्री को पत्र लिखा कि मैं पटना आ रहा हूं, सम्मेलन भवन में मेरे ठहरने का प्रबंध कर दीजिए। सम्मेलन से तो कोई जवाब नहीं मिला लेकिन बाबा का एक कार्ड मिला- तुम्हारा पत्र सम्मेलन की मेज पर देखा, मेरा कहना है कि इस बार तुम मेरे साथ ठहरो, मैं अकेला हूं। मैं खुश हुआ और छुट्टी होते ही पटना आ गया। बाबा का आवास उन दिनों पटना टेªनिंग स्कूल की बगल में एक खपरैल के मकान में था। मुझे सुविधा भी हुई, राष्ट्रभाषा परिषद का भवन वहां से नजदीक पड़ता था। मैं सुबह नाश्ता करके निकलता था और शाम पांच बजे के बाद लौटता था। एक दिन बातचीत करते हुए बाबा ने कहा- बगल के मकान में राज्य सरकार के एक खुफिया अधिकारी रहते हैं। कह रहे थे, आपकी बहुत-सी कविताएं खुफिया विभाग की फाईल में हैं। बाबा ने कहा- रखे रहिए, संग्रह निकालना होगा, तो आपकी फाईल से ही ले लेंगे।
एक दिन रात के भोजन के बाद बाबा ने कहा- चलो गंगा किनारे कुछ देर टहलेंगे। गंगा-तट वहां से बहुत करीब था। तो हम लोग निकले। चांदनी रात थी। गंगा की धारा चांदनी में चमक रही थी। गंगा किनारे बहुत से मंदिर और मठ हैं। एक मठ के आगे लंबा-चौड़ा सहन बना हुआ था, सीमंेट से। टहलने का विचार छोड़कर हम लोग उस सहन के किनारे बैठ गये। गंगा की धारा उसे धक्का मारते हुए बह रही थी। हम लोग देर तक बैटे गपशप करते रहे। इतने में एक आदमी वहां पहुंचा और जोर-जोर से बोलने लगा- यह क्या कर दिया, आप लोगों ने, चप्पल पहने यहां चले आए, छिःछिः, अपवित्र कर दिया मंदिर को। इस पर बाबा ने भी उसी स्वर में कहा- मंदिर में क्या होता है सो हमें भी मालूम है, उन कुकृत्यों से मंदिर अपवित्र नहीं होता है और हम मंदिर के आंगन में चप्पल पहने चले आए तो अपवित्र हो गया? इतना सुनते ही वह आदमी- अरे बाप रे, यह कैसा-कैसा आदमी यहां चला आया- यह कहते हुए भीतर की ओर दौड़कर गया। मुझे लगा कि वह अपने लोगों को बुलाने गया है। मैंने कहा- बाबा, अब जल्दी से खिसकिये यहां से। और हम लोग तेजी से निकल गए और बगल में ही एक मोड़ था, उससे मुड़कर ओझल हो गये। मठवाले निकले होंगे, तो हमें वहां न पाकर झुझलाकर रह गए होंगे।
एक बार बाबा इलाहाबाद से पटना आने वाले थे, उन्होंने पहले पत्र लिख दिया था। उन दिनों मैं विधायक क्लब में रह रहा था। मैं स्टेशन गया उनको ले आने। गाड़ी आयी, मैं उनके इंतजार में खड़ा रहा, लेकिन वे कहीं दिखाई नहीं पड़े। नहीं आये, यह समझ कर मैं लौट आया। थोड़ी देर बाद देखा कि वे आ रहे हैं पैदल ही अपना झोला कंधे से लटकाये और कंधे पर भी कोई सामान था। मैंने देखा और दौड़ कर उनके पास गया। कंधे पर का सामान ले लिया, देखा वह तो फटा हुआ था, रस चू रहा था। मैंने कहा- बाबा मैं तो स्टेशन गया था। बोले- चलो, पहले पहुंच लें तब बतायेंगे। जाहिर है वे बहुत थक गए थे। उस दिन ‘पटना बंद’ का आह्वान कुछ दलों ने किया था। सवारियां बंद थी, अतः बाबा को स्टेशन से पैदल आना पड़ा था। क्लब पहुंचकर पहले पानी पिया, कुछ देर में मिजाज ठंडा हुआ, फिर चाय पी तो बोले- अरे भाई, टेªन में भीड़ इतनी थी कि मैं प्लेटफार्म पर उतर नहीं पाया और गाड़ी खुल गयी। वह तो समझो कि किसी ने जंजीर खींचकर गाड़ी रोक दी, तो मैं वहां प्लेटफार्म से थोड़ा आगे जाकर उतर पाया, नहीं तो पटना सिटी से पहले क्या उतर पाता। वहां पर उतरने में तरबूज गिर गया और फट गया। मैंने सोचा कि बच्चों को इलाहाबादी तरबूज खिलायें, इसलिये लेता आया। फटे हुए तरबूज को गमछे में बांधा और कंधे पर उठाया। इतने में वहां पर टीटी आ गया और कहने लगा- बिना टिकट हैं, बाबा, इसलिए प्लेटफार्म पर नहीं उतरकर यहां उतर गये। खीझ से मैंने कहा- आपको मुझे देखकर ऐसा लगता है कि मैं बिना टिकट हूं? यह कहते हुए टिकट दिखाया, तो वह ‘माफ कीजिए, कहकर चला गया। ‘बंद’ के कारण रिक्शा नहीं मिला। लेकिन कहने लगे- कोई बात नहीं, आखिर मैं तरबूज ले ही आया। यह कहते हुए वे हंसने लगे। पटना में रहने पर कॉफी हाउस जरूर जाते थे। यह 1978 कर बात है। शाम को कॉफी हाउस जाने लगे तो मुझसे पूछा- चलोगे? उस दिन शाम को एक जरूरी काम था, इसलिए मैंने कहा- बाबा आज तो नहीं जा सकूंगा। ठीक है, ठीक है, कोई बात नहीं। कॉफी हाउस तो अक्सर वे लोग जाते हैं जिनको समय और पैसा जरूरत से ज्यादा है, मैं तो जाता हूं इसलिए कि बहुत से लोगों से भेंट हो जाती है। बाबा कई दिनों तक ठहरे। एक दिन मैंने कहा- बाबा ‘उत्तर शती’ के लिए कोई कविता दीजिए न! बोले- कोर्ठ ताजा कविता दूंगा यहीं लिखकर। एक दिन सुबह-सुबह बाबा ने कहा देखो जी कविता तैयार है, पहले तुम सुन लो। मैंने कहा- हां, हां, जरुर सुनाइए। और वे सुनाने लगे-
‘किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है,
कौन है बुझा-बुझा, कौन यहां पस्त है,
कौन है खिला-खिला कौन यहां मस्त है’।
कुछ ऐसी ही पंक्तियों से कविता शुरू हुई थी। कविता की गति-यति नृत्य की धुन पर बन गयी थी, इसलिए सुनाते हुए वे खड़ा होकर नृत्य करने लगे। अद्भुत दृश्य था वह। वे सुना रहे थे और नृत्य कर रहे थे, उसी समय भीतर से मेरा पुत्र भास्कर वहां आ गया। बाबा ने उसे थोड़ा झिड़कते हुए कहा- उधर जाओ! वह चला गया और दिन भर वहां नहीं आया। जब शाम को बाबा कॉफी हाउस चले गए तो वह बाहर वाले कमरे में आया और बोला - बाबूजी कविता सुनिए-
किसकी है जनवरी किसका अगस्त है
कौन है बुझा-बुझा कौन यहां मस्त है
मैं हूं बुझा-बुझा मैं यहां पस्त हूं
बाबा हैं खिले-खिले बाबा यहां मस्त हैं।
मैं सुनकर चकित हो गया। सात-आठ का लड़का, उसने सुबह की डांट पर इतनी अच्छी प्रतिक्रिया व्यक्त की। बाबा लौटे तो मैंने धीरे से उन्हें यह प्रतिक्रिया बतायी। सुनकर बोले- वाह, यह तो कमाल है। भास्कर को पुकारते रहे, वह नहीं आया। अगली सुबह उन्होंने भास्कर को बुलाया, तो वह आया। बाबा उसे लेकर विधायक कैंटीन चले गए और वहां उसे रसगुल्ला खिलाकर लाए। अब दोनों खुश थे।
मैं डायरी नहीं लिखता, लिखता रहता तो बाबा के संस्मरणों की मोटी किताब हो जाती। यों मैंने अन्यत्र भी उनके बारे में संस्मरण लिखे हैं। अंत करते-करते दो प्रसंगों की चर्चा और करना चाहता हूं।
बाबा मेरे यहां ठहरे हुए थे। यह 1989 की बात रही होगी। एक दिन सुबह ही आ गए भागवत झा आजाद। यह कहना प्रासंगिक होगा कि आजाद जी मेरे नजदीकी रिश्तेदार हैं, इसलिए अक्सर आते थे। उस दिन आए तो बड़े आदर से बाबा से मिले और बोले- आज चलिए मेरे साथ, दिन भर वहीं रहियेगा, आपको मैं पहुंचा दूंगा। बाबा उनके साथ चले गये। वे फिर शाम को पहुंचा गये। मैंने उनके जाने के बाद पूछा- बाबा, क्या-क्या हुआ वहां दिन भर। इस पर बोले- अरे, खाना-पीना हुआ और उन्होंने लंबी कविता लिखी है, बल्कि पूरी पुस्तक ही है, सुनाया उन्होंने और पूछा- कैसी है बाबा? तो मैंने (बाबा) कहा- ‘अरे अब बुढापे का दिन है, नाती पोता खेलाइये।’ यह भी उनकी कविताओं पर बाबा की बेबाक टिप्पणी।
बाबा को राजभाषा विभाग की ओर से राजेन्द्र शिखर-सम्मान देने की घोषणा की गयी।
उस समय मुख्यमंत्री लालू प्रसाद थे। बाबा समारोह में उपस्थित हुए और राशि सहित सम्मान ग्रहण किया। लाल प्रसाद ने समारोह के समय ही किसी को भेजकर बाजार से च्यवनप्राश मंगाया और बाबा को दिया यह कहते हुए कि च्यवपप्राश खाइए और ढेर दिनों तक स्वस्थ रहिये। दूसरे दिन एक अखबार का प्रतिनिधि पहुंचा भेंटवार्ता लेने। ढेर सारी बातों के साथ बाबा ने कह दिया, अरे, लालू तो शत्रुघ्न सिन्हा से भी ज्यादा नाटकिया है। इसी शीर्षक से वह भेंट वार्ता छपी थी। यह काम बाबा से ही संभव था। उत्तर प्रदेश सरकार का सम्मान स्वयं इंदिरा गांधी के हाथों से लेते समय बाबा ने कह दिया था- मैंने आपके खिलाफ बहुत-सी कविताएं लिखी है।
बैजनाथ मिश्र, यात्री नागार्जुन का ऐतिहासिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक यात्रा का अंत 5 नवंबर 1998 को लहरिया सरय के पंडा सराय स्थित किराये के आवास में हो गया। मैं अंत्येष्टी में शामिल हुआ। मैं, अरूण कमल और मनोज मेहता साथ पहुंचे पंडा सराय। हृषिकेश सुलभ, मदन कश्यप और अनिल विभाकर भी पटना से पहुंच चुके थे; रांची से रवि भूषण भी आये थे। राज्य सरकार ने राजकीय सम्मान के साथ अत्यंष्टि कराने का फैसला किया था। अंतः दरभंगा के जिलाधीश ज्योतिभ्रमर तुबिद और पुलिस अधीक्षक शोभा अहोतकर तथा अन्य अनेक अधिकारी मौजूद थे। हम लोगों के पहुंचते ही पंडासराय से बाबा के जन्मग्राम तरौनी के लिए शव-यात्रा निकल पड़ी। गांव के घर के बिना घेरे वाले आंगन में बाबा को रखा गया थोड़ी ही देर में गांव के लोग जमा हो गए और गांव से अंत्येष्टी स्थल के लिए यात्रा शुरू हुई; और डेढ़ वर्ष पहले फरवरी में जहां उनकी पत्नी अपराजिता देवी की अंतिम क्रिया हुई थी, उसी जगह के लिए लोग बाबा को कंधे पर ले चले। मुझे कंधा लगाने का सुअवसर मिला। स्थल पर एक शामियाना सरकार ने लगवाया था। कुर्सियां भी लगी थी। पुलिस के बंदूकधारी जवान भी खड़े थे। राज्य सरकार के चार मंत्री उपस्थित थे। शिवानंद तिवारी भी थे। मैथिली के अनेक लेखक उपस्थित थे। अखबारों के प्रतिनिधि और दूरदर्शन वाले भी थे। एक उल्लेखनीय बात यह थी कि खेत मजदूर महिलाएं बड़ी संख्या में मौजूद थी। वहां आम तौर से महिलाएं शव यात्रा में नहीं जाती हैं। लेकिन बाबा के प्रति प्रेम के कारण ये रिवाज तोड़ा दिया गया। ऐसा लग रहा था बलाचनमा के परिवार के लोग अंतिम प्रणाम करने आए थे।
दूरदर्शन वाले मेरे पास आये और पूछा आप क्या सोच रहे हैं? मैंने कहा- मैं यह सोच रहा हूं कि यह यात्री युवावस्था में विवाह के बाद घर छोड़कर निकल गया था और बारह वर्ष तक बाहर ही घूमता रहा, इस यात्री ने घर छोड़ते समय मैंथिली में लिखा था-
मां मिथिले, ई अंतिम प्रणाम
अहिबातक पातिल फोडि-फोडि
जा रहल छी हम आन ठाम
मां मिथिले ई अंतिम प्रणाम।
उस ‘युग-युग धावित यात्री’ की अंतिम क्रिया गांव में हो रही है। लेकिन उसके पहले जीवन में भी साबित हुआ कि कविता का अंतिम प्रणाम सार्थक नहीं हो सका। हिन्दी में एक कविता में उन्होनंे लिखा-
याद आता है तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल,
याद आता है अपना वह तैरानी ग्राम।
कविता लंबी है। सबसे अधिक मुझे यह कविता याद आ रही है, जो उन्होंने बहुत दिनों के बाद गांव लौटने की आंतरिक अनुभूति को व्यक्त करते हुए लिखी-
बहुत दिनों के बाद अबको देखी मैंने
पकी-सुनहली फसलों की मुस्कान
बहुत दिनों के बाद,
बहुत दिनों के बाद अबकी मैंने छू पाया
गंवई पगडंडी की चंदनवर्णी धूल
बहुत दिनों के बाद,
बहुत दिनों के बाद अबकी मैनं जी भर सूंघे
मौलसिरी के ताजे टटके फूल
बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद अबकी मैंने जी भर गन्ने चूसे,
ताल-मखाने खाये
बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद अबकी मैं जी भर सुन पाया
धान कूटती किशोरियों की कोकिल कंठी तान
बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद अबकी मैंने जी भर भोगे
रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्ष सब साथ-साथ
इस भू पर बहुत दिनों के बाद
दूर दर्शन वालो ने इसके बाद पूछा- बाबा सबदिन सत्ता के खिलाफ लड़ते रहे, अभी सत्ता उनको बंदूकों की सलामी देने आया है इसे आप किस तरह देख रहे हैं? मैंने कहा- बाबा तो सचमुच जीवन भर सत्ता के खिलाफ लड़ते रहे और लड़ते-लड़ते उन्होंने जो हैसियत हासिल की है वह बहुत बड़ी और ऐतिहासिक है। इसलिए उन्हें सलामी देकर सत्ता अपनी लोकप्रियता बढ़ाना चाहती है।
तमाम उपस्थित लोग बड़े खुश हुए मेरा उत्तर सुनकर। लेकिन इसके कुछ देर बाद राज्य सरकार के चार मंत्री उठकर चले गए। अभी अंत्येष्टि बाकी थी और इस तरह बीच में ही मंत्रियों का चला जाना राजकीय सम्मान में कमी करना था। अखबारों में इसकी चर्चा हुई।
- खगेन्द्र ठाकुर