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सोमवार, 4 अप्रैल 2011

लोकतंत्र का आयात-निर्यात नहीं हो सकता - लीबिया के घरेलू संकट का अमरीकी इलाज नहीं चलेगा

लोकतंत्र का आयात-निर्यात नहीं हो सकता



लीबिया के घरेलू संकट का अमरीकी इलाज नहीं चलेगा


संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद लीबिया को उड़ान क्षेत्र वर्जित क्षेत्र घोषित किया तो लीबिया सरकार ने इसका स्वागत करते हुए तुरन्त युद्ध स्थगन की घोषणा की। इसके कोई भी संकेत नहीं हैं कि लीबिया ने उड़ान-वर्जन घोषणा का उल्लंघन किया। फिर भी सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव का बहाना बनाकर प्रथम दिन ही अमरीकी-ब्रिटिश-फ्रांसीसी धुरी के लड़ाकू विमानों ने ढ़ाई सौ से ज्यादा हमले किये, बम बरसाये और मिसायलें दागीं। युद्धक विमानों द्वारा नागरिक ठिकानों पर हमले किये गये, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गये और हजारों के घायल होने की खबर है। यह लीबिया पर खुल्लम-खुल्ला आक्रमण है। स्पष्ट है कि राष्ट्र संघ के ‘नो फ्लाई जोन’ के प्रस्ताव की मूल भावना का अमरीकी-ब्रिटिश-फ्रांसीसी धुरी ने उल्लंघन करके लीबियायी तेल क्षेत्र को कब्जाने की नीयत से लीबिया पर नंगा साम्राज्यवादी आक्रमण किया है। अरब लीग समेत भारत एवं अन्य देशों ने इस आक्रमण की निन्दा की है और बात-चीत के माध्यम से संकट के समाधान का रास्ता निकालने की अपील की है। भारत की संसद ने भी युद्ध बंदी की अपील की है और लीबिया के घरेलू मामले में विदेशी हस्तक्षेप पर विरोध जताया है।

यह भी ज्ञातव्य है कि लीबिया को उड़ान वर्जित क्षेत्र घोषित करने के प्रस्ताव को सुरक्षा परिषद में भारत, चीन, रूस, जर्मनी और ब्राजील ने समर्थन नहीं किया था, क्योंकि पाश्चात्य देश आक्रमण की योजना पहले ही बना चुके थे। किसी देश के घरेलू मामले में विदेशी हस्तक्षेप करना उस देश की सार्वभौमिक प्रभुसत्ता पर हमला है।

पिछले हफ्ते साउदी अरब के शाह ने अपने देश में जन-प्रदर्शनों को इस्लाम विरूद्ध घोषित कर जुलूस निकालने पर और सभा करने पर पाबंदी लगायी है। भला जनता के हक के लिये प्रदर्शन करना धर्म विरूद्ध कैसे हो सकता है। कोई आश्चर्य नहीं कि जो शासक अपने देश में लोकतंत्र की हत्या करते हैं, वे लीबिया में लोकतंत्र की बहाली के नाम पर विदेशी सैनिक आक्रमण का समर्थन करते हैं। पिछले सप्ताह ही बहरीन में जन प्रतिरोध को कुचलने के लिए साउदी अरब ने अपनी सेना भेजी है। साउदी अरब की सेना ने बहरीन में प्रदर्शनकारियों को टैंकों से रौंदा है और हेलिकाप्टरों से कहर बरसाये हैं। इस पर अमरीका सहित पश्चिमी राष्ट्राध्यक्षों ने चुप्पी साधी है। उन्हें वहां लोकतंत्र का हनन दिखाई नहीं पड़ता। अरब मुल्कों में शासकों द्वारा जनता को प्रताड़ित किया जाता है और शिया समुदाय को शिकार बनाया जा रहा है।

इराक में सद्दाम हुसैन के बहुप्रचारित विनाशक हथियारों का आज तक अता-पता नहीं चला, जिसके बहाने पर उस आक्रमण किया गया था। अफगानिस्तान में ओसामा बिन लादिन पकड़ा नहीं गया। इसल में दोनों ही आक्रमणों का उद्देश्य तेल भंडारों पर कब्जा करना था, सो पूरा हुआ। लीबिया अकेले यूरोपीय देशों को 20 प्रतिशत तेल की आपूर्ति करता है। इसलिये लीबिया पर आक्रमण भी लीबियाई तेल भंडारों को हथियाना होगा।

रही लोकतंत्र की बात, सो अरब मुल्कों में कहीं लोकतंत्र नहीं है, उसी प्रकार लीबिया में भी नहीं। कर्नल मैमर गद्दाफी को समझने के लिए लीबिया का इतिहास-भूगोल भी समझना उपयोगी है। वर्ष 1969 में ब्रिटिश-फ्रांसीसी कठपुतली बादशाह किंग इदरीश को हटाकर कर्नल गद्दाफी ने सत्ता संभाली को राजशाही को समाप्त कर लीबियन अरब रिपब्लिक की स्थापना की। नई सरकार का नारा था: ”आजादी, समाजवाद और एकता“।

मिस्र, लीबिया, ट्यूनीशिया, अलजीरिया और मोरक्को भूमध्य सागर के किनारे फैले उत्तरी अफ्रीकी देश हैं, जो स्वेज नहर की मार्फत अरब सागर से अटलांटिक महासागर तक जुड़े हैं। इस क्षेत्र में इन दिनों लोकतंत्र की बयान बह रही है। इसी क्षेत्र में हजारों वर्षों की प्राचीन सभ्यता फली-फूली थी, जिसके अवशेष मिस्र के पिरामिडों में आज भी देखे जा सकते हैं। तारीख और अंकों की ईजाद इन्हीं लोगों ने की थी। प्राचीनतम ग्रीक भाषा में यूरोप, एशिया और लीबिया की भौगोलिक चर्चा है। ‘लीबिया’ शब्द का अर्थ है ‘आजाद’। प्राचीन मिस्र में यह शब्द लड़ाकू बर्बर जनजाति के लिए प्रयुक्त होता था। लीबिया अर्थात बर्बर जनजाति का मुकाबला मिस्री फराहों से हुआ करता था। कालक्रम में दोनों मिल गये। कोई दो सौ वर्षों तक ईसापूर्व 945 से 730 तक मिस्र पर लीबिया वंश का शासन था।

ईसापूर्व दूसरी सदी में रोमनों ने लीबिया को गुलाम बनाया और बाद के सात सौ वर्षों (146 ई.पू. से 670 ई.) तक रोमनों ने यहां शासन किया। रोमन साम्राज्य के अधीन त्रिपोलितानिया और साइरेनायका की गिनती धनी प्रांतों में की जाने लगी। अलेक्जेंड्रिया और इसके कई बंदरगाह व्यापारिक नगर के रूप में विकसित और प्रसिद्ध हुए। इसी दौर में यहां ईसाई और यहूदी धर्म का प्रसार हुआ और प्रशासनिक मामलों में इस क्षेत्र को लीबिया पुकारा जाने लगा।

इस्लाम के उदय के बाद 647 ई. में लीबिया पर अरबों ने आक्रमण किया। 800 ई. तक यह बगदाद के कब्जे में रहा। बगदाद के खलिफाओं के कमजोर पड़ने के बाद इब्राहिम अधलाब ने लीबिया को स्वतंत्र घोषित किया। फिर 1050-52 ई. में इस पर बानू हिलाल ने कब्जा किया। हिलाल वंश का राज कोई 500 वर्षों तक रहा। बाद में इसे तुर्क आटोमान साम्राज्य ने कब्जाया। ढ़ाई सौ वर्षों तक लीबिया आटोमन साम्राज्य का अंग रहा। फिर 1911 ई. में इटली ने इस पर आक्रमण कर उपनिवेश बनाया। तानाशाह मुसोलिनी ने इसे इटली का प्रांत घोषित किया। द्वितीय विश्व युद्ध में मुसोलिनी के पराभव के बाद लीबिया पर फ्रांस और ब्रिट्रेन ने संयुक्त रूप से कब्जा किया। विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद सोवियत यूनियन की पहल पर मित्र राष्ट्रों की सहमति से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा लीबिया को 24 सितम्बर 1951 को स्वतंत्र राज्य घोषित किया गया और पुराने बादशाह इदरीश को बुलाकर गद्दी पर बैठाया गया।

राष्ट्र, राष्ट्रीयता और लोकतंत्र के आधुनिक अर्थ में अरब और अफ्रीकी देशों के शासको के चरित्र को नहीं समझा जा सकता है। इन देशों के शासकों और शासन तंत्र में आज भी पुराने कबिलाई तत्व और व्यवहार मौजूद हैं, जो आधुनिक राष्ट्र और राष्ट्रीयता तथा लोकतंत्र के मार्ग में बाधक हैं। इसीलिए इन देशों में सेना की बड़ी भूमिका है। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन देशों में फौज की बड़ी भूमिका राष्ट्र और राष्ट्रीयता के निर्माण में भी है।

लीबिया में ही कोई 15 कबिलाई समुदाय हैं और उनके अपने प्रभाव क्षेत्र भी हैं। कद्दाफी टाईटल भी एक कबिला विशेष की पहचान है। मौमर गद्दाफी की विशेषता है कि इसने लीबिया को लोकतंत्र घोषित किया और अरब राष्ट्रीयता का जोरदार प्रचार किया। इराक के सद्दाम हुसैन की तर्ज पर गद्दाफी ने कट्टर इस्लाम से अलग हटकर क्रांति और समाजवाद का नारा बुलन्द किया था। गद्दाफी ने महिलाओं की भर्ती फौज में की और महिला फौज की सुरक्षा टुकड़ी का निर्माण किया।

अन्य अरब देशों की तरह लीबिया में भी शासन की बुनियाद फौज रही है। पाकिस्तान से लेकर इरान, इराक, साउदी अरब, मिस्र, सूडान आदि तमाम देशों में सरकारों का स्थायित्व फौजों पर निर्भर है। लोकतांत्रिक बयार भी इन देशों की फौजों की सहमति से बहती है और मिटती है। इसे हमने पिछले दशकों में अपने पड़ोसी पाकिस्तान और बंगलादेश में भी देखा है। जाहिर है, फौजी शासन की सीमाएं होती हैं। फौजी शासन जनता की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकता। कोई दो हजार वर्षों के क्रूर आक्रमणों और विदेशी गुलामी से मुक्त लीबिया का आजाद मिजाज अवाम निश्चय ही किसी विदेशी प्रभुत्व को बर्दाश्त नहीं करेगा और न ही स्वीकार करेगा किसी स्वदेशी तानाशाह को भी।

शांति का नोबल पुरस्कार प्राप्त अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने लीबिया पर आक्रमण को अंजाम दिया है। इराक और अफगानिस्तान के बाद यह तीसरा देश है जहां के जनगण विदेशी आक्रमण की मुसीबतों के शिकार बनाये गये हैं। सोवियत यूनियन के ढहने के बाद विश्व जनमत भी मुखर नहीं प्रतीत होता है। लोगों को अभी भी याद है कि किस प्रकार स्वेज नहर संकट के समय सोवियत चेतावनी के सामने इसी अमरीकी-ब्रिटिश-फ्रांसीसी धुरी के हमलावर विमान छः घंटे के अंदर वापस अपने बिलों में समा गये थे।

शांति के हित में सर्वथा उचित होगा कि लीबिया में विदेशी हस्तक्षेप तुरन्त बंद किया जाये। लीबिया के घरेलू मसलों का हल लीबिया की जनता पर छोड़ना चाहिये। अगर इराक और अफगानिस्तान में विदेशी हस्तक्षेप समाधान साबित नहीं हुआ तो यह विदेशी हस्तक्षेप निश्चित ही लीबिया में भी नाकाम साबित होगा।

इस क्षेत्र में विशाल तेल भंडार पर कब्जा करने की साम्राज्यवादी वैश्विक लिप्ता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। साम्राज्यवादी ताकतें इराक की तरह लीबिया में भी कबिनाई विरोधाभाष को भड़काकर लीबिया को तोड़ने में लगी हैं। लोकतंत्र आयात-निर्यात की वस्तु नहीं है। लोकतंत्र में देश की जनता अपनी सरकार की किस्मत स्वयं तय करती है। लीबिया में भी बाहर से विदेशी कठपुतली सरकार बनाने की कवायद निश्चय ही नाकाम होगी।
 
- सत्य नारायण ठाकुर
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