लखनऊ 25 मार्च। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश राज्य परिषद प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव कामरेड (डा.) कमला प्रसाद के आकस्मिक निधन पर उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करती है। कामरेड कमला प्रसाद का निधन आज सुबह दिल्ली के एम्स में हो गया। वे रक्त कैंसर से पीड़ित थे जिसका पता चन्द दिनों पहले ही हुआ था। उनके निधन का समाचार मिलते ही भाकपा के राज्य कार्यालय पर उनके सम्मान में पार्टी ध्वज को झुका दिया गया।
भाकपा की उत्तर प्रदेश राज्य परिषद की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति में भाकपा के राज्य कोषाध्यक्ष एवं ”पार्टी जीवन“ के सम्पादक प्रदीप तिवारी ने कहा कि उनके निधन से प्रगतिशील लेखक आन्दोलन के साथ ही साथ मजदूर-किसान आन्दोलन को जो क्षति हुई है, उसकी भरपाई निकट भविष्य में सम्भव नहीं दिखाई देती।
प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव कामरेड कमला प्रसाद का जन्म 14 फरवरी 1938 को मध्य प्रदेश के सतना जिले में धौरहरा नामक गांव में एक गरीब किसान के घर में हुआ था। उनका बचपन काफी मुश्किल हालातों में गुजरा। उसका जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा था कि ”हर दूसरे-तीसरे साल अकाल प़डता। किसानों की हालत बहुत ख़राब रहती। जीना मुश्किल होता। ग़रीबी, बेचैनी, कर्ज का दबाव - ये ऐसे प्रश्न थे जिन पर रात-रात भर चिंताएं और बातचीत चलती। कैसे पटेगा? क्या होगा? यही प्रश्न घूम-घूमकर सामने आ जाते। खूब गुस्सा आता था कि ऐसा क्यों है? दिमाग में बचपन से ही प्रश्नो के जो बीज प़डे उन्होंने मुझे मार्क्सवादी चिंतन अपनाने में ब़डी मदद की।“ इन्हीं जीवन स्थितियों में उनकी मुलाकात विख्यात साहित्यकार हरिशंकर परसाई से हुई और वे प्रगतिशील लेखन आन्दोलन से जुड़ गये।
उन्होंने रीवा विश्वविद्यालय के पहले प्राध्यापक फिर हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष की हैसियत से शिक्षण को रचनात्मक स्वरूप दिया और ‘अंतर्भारती’ जैसे बहुकला केन्द्र की नींव रखी। उन्होंने उस दौरान बहुमूल्य अकादमिक भूमिका का निर्वाह कर नयी पीढ़ी का सशक्त मार्गदर्शन किया। कमला प्रसाद एम.ए., पी.एच.डी. व सागर विश्वविद्यालय से डी. लिट. थे। दो दिन पहले ही 23 मार्च को उन्हें प्रमोद वर्मा आलोचना सम्मान से सम्मानित करने का निर्णय लिया गया था। उन्हें इसके पूर्व म. प्र. साहित्य अकादमी का नंद दुलारे वाजपेयी पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका था। डा. कमला प्रसाद आधुनिक हिन्दी की प्रगतिशील परंपरा के महत्वपूर्ण और सुप्रसिद्ध आलोचक थें जिनकी साहित्यिक उपस्थिति पूरे हिंदी क्षेत्र में जानी-पहचानी जाती है। उन्होंने आलोचना के अलावा साहित्य के जिन तीन प्रमुख क्षेत्रों - अकादमिक दक्षता, संपादन और संगठनात्मक कौशल में जिस तरह अपना योगदान दिया है वह विशेष रूप उल्लेखनीय और उनके व्यक्तित्व का असाधारण पहलू है। उनके कुशल संयोजन एवं संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘प्रगतिशील वसुधा’ भारतीय मनीषा के लिए एक ज़रूरी पत्रिका के रूप में सिद्ध हुई है। इन सारे और बहुकोणीय क्षेत्रों में सतत् संलग्न रहने के अलावा रचनात्मक लेखन कार्यों में भी वे निरंतर सक्रिय रहे। वे मध्य प्रदेश कला परिषद के निदेशक भी रहे थे और केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष भी। दर्जनों सरकारी-गैर सरकारी कमेटियों, विश्वविद्यालयों की कार्य परिषदों की सदस्यता के साथ देश भर में फैले लेखक समुदाय को उन्होंने एक बार फिर एकताबद्व किया था। वे गैर हिन्दी भाषी लेखकों के भी प्रिय थे और उनके सम्बंध पाकिस्तान, मारीशस, बंगलादेश जैसे अन्यान्य देशों के लेखकों से उनके सम्बंध थे। उन्होंने ‘रचना और आलोचना की द्वंद्वात्मकता’ जैसी सैद्धान्तिक पुस्तक लिखी जिसमें आधुनिक हिन्दी कविता के संदर्भ में रचना और आलोचना के द्वंद्वात्मक सम्बंधों को पहली बार वस्तुपरक ढंग से ब्यौरेवार विचार किया गया।