भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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रविवार, 19 जून 2011

हमारा झंडा

शेर है चलते हैं दर्राते हुए

बादलों की तरह मंडलाते हुए

जिन्दगी की रागनी गाते हुए

लाल झंडा है हमारे हाथ में



हां ये सच है भूक से हैरान हैं

पर ये मत समझो कि हम बेजान हैं

इस बुरी हालत में भी तूफान हैं

लाल झंडा है हमारे हाथ में



हम वो हैं जो बेरूखी करते नहीं

हम वो हैं जो मौत से डरते नहीं

हम वो हैं जो मरके भी मरते नहीं

लाल झंडा है हमारे हाथ में



चैन से महलों में हम रहते नहीं

ऐश की गंगा में हम बहते नहीं

भेद दुश्मन से कभी कहते नहीं

लाल झंडा है हमारे हाथ में



जानते है एक लश्कर आएगा

तोप दिखलाकर हमें धमकाएगा

पर ये झंडा यूं ही लहरायेगा

लाल झंडा है हमारे हाथ में



कब भला धमकी से घबराते हैं हम

दिल में जो होता है, कह जाते हैं हम

आसमां हिलता है जब गाते हैं हम

लाल झंडा है हमारे हाथ में



लाख लश्कर आऐं कब हिलते हैं हम

आंधियों में जग की खुलते हैं हम

मौत से हंसकर गले मिलते हैं हम

लाल झंडा है हमारे हाथ में
- मजाज
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धरती

यह धरती है उस किसान की

जो बैलों के कंधों पर

बरसात धाम में,

जुआ भाग्य का रख देता है,

खून चाटती हुई वायु में,

पैनी कुर्सी खेत के भीतर,

दूर कलेजे तक ले जाकर,

जोत डालता है मिट्टी को,

पांस डाल कर,

और बीच फिर बो देता है

नये वर्ष में नयी फसल के

ढेर अन्न का लग जाता है।

यह धरती है उस किसान की।



नहीं कृष्ण की,

नहीं राम की,

नहीं भीम की, सहदेव, नकुल की

नहीं पार्थ की,

नहीं राव की, नहीं रंक की,

नहीं तेग, तलवार, धर्म की

नहीं किसी की, नहीं किसी की

धरती है केवल किसान की।



सूर्योदय, सूर्यास्त असंख्यों

सोना ही सोना बरसा कर

मोल नहीं ले पाए इसको;

भीषण बादल

आसमान में गरज गरज कर

धरती को न कभी हर पाये,

प्रलय सिंधु में डूब-डूब कर

उभर-उभर आयी है ऊपर।

भूचालों-भूकम्पों से यह मिट न सकी है।



यह धरती है उस किसान की,

जो मिट्टी का पूर्ण पारखी,

जो मिट्टी के संग साथ ही,

तप कर,

गल कर,

मर कर,

खपा रहा है जीवन अपना,

देख रहा है मिट्टी में सोने का सपना,

मिट्टी की महिमा गाता है,

मिट्टी के ही अंतस्तल में,

अपने तन की खाद मिला कर,

मिट्टी को जीवित रखता है;

खुद जीता है।

यह धरती है उस किसान की!
 
- केदारनाथ अग्रवाल
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