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सोमवार, 13 अप्रैल 2015
at 10:54 am | 0 comments | जया मेहता
भागो-भागो, विकास आया, पहले से तेज आया
वित्त मंत्री द्वारा हर वर्ष बजट पेष करना सरकार और मीडिया के लिए एक वार्षिकोत्सव जैसा होता है। बजट के आँकड़ों और घोषणाओं के साथ-साथ सेंसेक्स का उतार-चढ़ाव नाटकीय ढंग से दिखाया जाता है। राजनेताओं से उनके रुख को जाना जाता है। कॉर्पोरेट घरानों की नुमाइंदगी करने वाले लोग और अर्थषास्त्री स्टूडियो में आकर अपना विषेषज्ञ विष्लेषण देते हैं। मीडिया रिपोर्टर बीच-बीच में आम लोगों से बजट पर उनकी प्रतिक्रिया जानना चाहते हैं। गृहणियों व महिलाओं से और रास्ते चलते युवाओं से भी कुछ सवाल पूछे जाते हैं। ज़ाहिर है कि सरकार और सरकार के हिमायती बजट की तारीफ़ करते हैं और विपक्षी दलों के लोग और सरकार विरोधी सोच से प्रभावित लोग बजट को और कुछ नहीं, बस गलतियों का पुलिंदा भर मानते हैं।
इस बार भी सरकार का कहना है कि मोदी का (माफ़ कीजिए, अरुण जेटली का) वर्ष 2015-16 का बजट बजट देष की अर्थ व्यवस्था का कायाकल्प कर देगा। वहीं काँग्रेस सरकार में वित्तमंत्री रहे चिदाम्बरम का कहना है कि न तो सरकार ने इस बजट में राजकोषीय और वित्तीय संतुलन पर ध्यान दिया है और न ही पुनर्वितरण संबंधी कोई कदम उठाये हैं कि जिनसे ग़रीब तबक़ों को कुछ तो हासिल हो।
इस सारे उत्सव को देखकर कोई अगर यह सोचे कि बजट देष की आर्थिक नीति की दिषा तय करता है तो ये उसका भोलापन ही कहा जाएगा। बजट केवल सरकार द्वारा चुनी गई आर्थिक नीति पर मुहर लगाता है। वो तय तो पहले ही की जा चुकी होती है। मोदी सरकार का ‘मेक इन इंडिया’ का आह्वान, बीमा और ज़मीन अधिग्रहण के अध्यादेष और ऐसे तमाम आदेष स्पष्ट संकेत देते हैं कि सरकार की प्रतिबद्धता देषी और विदेषी पूँजी के मुनाफ़े के रास्ते को आसान और सुविधाजनक बनाना है। अरुण जेटली के शब्दों में कहें तो, ‘कुछ तो फूल खिलाए हमने, और कुछ फूल खिलाने हैं।’ देष की ग़रीब जनता की बढ़ती हुई बदहाली से सरकार का कोई ख़ास सरोकार नहीं है।
वर्ष 1991 से हिंदुस्तान में नई आर्थिक नीति अपनाने के बाद से प्रत्येक वर्ष के बजट का केन्द्र बिंदु वित्तीय घाटे को सीमा में बाँधे रखने का रहता है। राजग-1 के कार्यकाल के दौरान वित्तमंत्री यषवंत सिन्हा ने ‘राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन’ संबंधी विधेयक पेष किया था जिसे 2003 में बाकायदा कानून बना दिया गया। उक्त विधेयक का मकसद राजकोषीय अनुषासन को संस्थागत रूप देना था। इस कानून में कुछ समयबद्ध लक्ष्य तय किये गए। एक लक्ष्य था 2008 तक राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 3 प्रतिषत तक ले आना और दूसरा लक्ष्य था राजस्व घाटे को शून्य पर ले आना।
बहरहाल 2007-8 में वैष्विक वित्तीय संकट से मंदी का खतरा सारी दुनिया पर मंडराया। तब दुनियाभर के देषों ने ‘कीन्सियन’ नसीहत के अनुसार राजकोषीय घाटे से अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने का नुस्खा अपनाया। हिंदुस्तान में भी मंदी का ख़तरा सामने देख 2003 में बनाये गए क़ानून के सारे लक्ष्य भुला दिए गए और 2008-9 और 2009-10 में राजकोषीय घाटा जीडीपी के 5.9 और 6.5 प्रतिषत के स्तर तक पहुँच गया।
अब चिदांबरम कह रहे हैं कि 2008-9 और 2009-10 में जो खर्चीली राजकोषीय नीतियाँ अपनायी गईं, वे ही महँगाई का और इस तरह काँग्रेस नेतश्त्व वाली संप्रग सरकार के चुनाव हारने का कारण बनीं। दरअसल राजकोषीय घाटे का महँगाई या भुगतान संतुलन के संकट के साथ सीधा संबंध स्थापित करना सही नहीं है। लेकिन नवउदारवाद के साँचे में बार-बार यही दुहाई देकर तीसरी दुनिया की राजकोषीय स्वतंत्रता पर यह अंकुष लगाया जा रहा है कि अगर किसी देष को उसकी जनता के लिए कुछ कल्याणकारी काम शुरू करने के लिए खर्च करना की ज़रूरत है तो भी वह देष इस पर खर्च न कर सके। वस्तुतः यह मेट्रोपोलिटन वित्तीय पूँजी का तीसरी दुनिया के व योरप के कमज़ोर अर्थव्यवस्था वाले मुल्कों की आर्थिक संप्रभुता पर सीधा हमला है। जब भी कोई देष व्यापार या कर्ज के संकट में होता है तो उसे मदद करने वाले अंतरराष्ट्रीय समझौतों की ये शर्त होती है कि वह पहले अपने देष में ख़र्च कम करे या तथाकथित ‘ऑस्टेरिटी मेजर्स’ अपनाये जैसा अभी ग्रीस में हुआ। इसका सीधा आषय है कि अगर आप अपने राजकोषीय घाटे को अपने देष की जनता की ज़रूरत के मुताबिक कम या ज़्यादा करना चाहते हैं तो ये अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी को चुनौती देना है। और ये काम न तो संप्रग के बस का था और न ही राजग के बस का है। इसलिए राजकोषीय घाटे को पटरी पर लाना, जैसा कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी चाहती है, हमारी सरकारों की मजबूरी है। बस यही हमारे वित्तमंत्रियों की योग्यता का पैमाना है। अरुण जेटली की उपलब्धि यह है कि वे पिछले साल के 4.1 प्रतिषत के राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने में समर्थ हैं। उनका वादा है कि इस वर्ष का राजकोषीय घाटा 3.9 प्रतिषत रहेगा और अगले तीन सालों में यह कम होकर 3 प्रतिषत हो जाएगा।
पिछले साल के 4.1 प्रतिषत के लक्ष्य को कायम करने के लिए जो कवायद की गई उसे नज़रंदाज़ नहीं करना चाहिए। पिछले वर्ष के बजट में जो अनुमानित आय करों से और सार्वजनिक क्षेत्र के विनिवेष से बतायी गई, वो वास्तविकता से कहीं ज़्यादा थी। असल में आय अनुमान से काफ़ी कम हुई और राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए ये ज़रूरी था कि ख़र्च को काफ़ी कम किया जाए। यहाँ ये जानना ज़रूरी है कि कुछ ख़र्चों को कम करने का अख़्तियार वित्तमंत्री के वष में भी नहीं होता मसलन ब्याज भुगतान या रक्षा बजट। ये करने ही होते हैं। जो कम किया जा सकता है, वो सामाजिक क्षेत्र पर होने वाला व्यय ही है।
पिछले वर्ष के 4.1 प्रतिषत के लक्ष्य को पूरा करने के लिए मंत्रालयों के केन्द्रीय योजना के बजट समर्थन में 20 से 50 प्रतिषत तक की कमी की गई। इनमें स्वास्थ्य मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय और आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय प्रमुख हैं। इस वर्ष के बजट में ये किस्सा दोहराया जाएगा कि नहीं, ये तो अगले ही साल पता चलेगा लेकिन 3.9 प्रतिषत का लक्ष्य तय करते समय अरुण जेटली ने इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि आय और व्यय, दोनों ही दृष्टियों से कॉर्पोरेट सेक्टर और अमीर तबक़े को फायदा हासिल हो। टैक्स से होने वाली आमदनी बढ़ाने के लिए उन्होंने सर्विस टैक्स बढ़ा दिया जिससे रुपये 23383 करोड़ का राजस्व मिलेगा। इसका अपेक्षाकृत अधिक भार ग़रीब तबक़े पर पड़ेगा। दूसरी तरफ़ कॉर्पोरेट टैक्स की दर 30 प्रतिषत से कम करके 25 प्रतिषत कर दी गई है और संपत्तिकर हटा दिया गया है। इससे राजस्व की आमदनी में रुपये 8315 करोड़ की कमी आएगी।
जहाँ तक व्यय का सवाल है, उसमें इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण के लिए भारी वश्द्धि की गई है। इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण का अर्थ कोई गाँव व ग़रीबों के लिए सुविधाजनक जीवन स्थितियों का निर्माण नहीं, बल्कि एक्सप्रेस हाइवे, आधुनिक एयरपोर्ट, आधुनिक सूचना-संचार सुविधाएँ और कॉर्पोरेट सेक्टर के लिए अन्य सुविधाएँ बढ़ाना ही है। मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने कोषिष की थी कि देष के इस इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास पब्लिक प्राइवेट पार्टनरषिप के तहत हो। मनमोहन-मोंटेक मॉडल से प्राइवेट और कॉर्पोरेट सेक्टर के लिए बनी जगह में मुनाफ़े की आस में तमाम कंपनियाँ इस क्षेत्र में दाख़िल हो गईं जिन्हें सार्वजनिक बैंकों से सस्ती दरों पर भारी-भरकम कर्ज मुहैया कराया गया। नतीजा ये है कि अब बैंकों के पास नॉन परफॉर्मिंग असेट्स का अंबार लग गया है। जेटली जी ने इस मुष्किल का समाधान ये निकाला कि उन्होंने कॉर्पोरेट को रियायत देते हुए कहा कि कोई बात नहीं। अगर पब्लिक प्राइवेट पार्टनरषिप भी आपको रास नहीं आ रही तो पब्लिक सेक्टर ही आपके लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित कर देगा।
कॉर्पोरेट सेक्टर को ये सुविधाएँ मुहैया कराने के लिए जिन मदों में बजट में कटौती की गई है, वे हैं आईसीडीएस (आँगनवाड़ी और आषा), सर्वषिक्षा अभियान, कृषि, एससी-एसटी सबप्लान, पेयजल, पंचायती राज, आदि वे सभी मदें जो ग़रीबों की ज़िंदगी को थोड़ी राहत पहुँचाती हैं। तर्क ये है कि चूँकि राज्यों को आबंटित किया जाने वाला कोष बढ़ा दिया गया है इसलिए केन्द्र की इस कटौती की भरपाई राज्य सरकारों द्वारा की जाएगी।
अंत में मनरेगा का उल्लेख करना ज़रूरी है। बजट में मनरेगा को 34000 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 34600 करोड़ रुपये कोष आवंटित किया गया है। ये ज़रूरत के सामने कितना अपर्याप्त है इसका अंदाज़ा एक इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि मनरेगा में ऐसे बहुत से मामले हैं जहाँ लोगों से काम करवा लिया गया लेकिन पैसे न होने से भुगतान नहीं किया गया। इसका जो आंषिक भुगतान राज्य सरकारों ने अपने कोष से कर दिया था, अभी उसका ही केन्द्र सरकार को 6000 करोड़ रुपया देना बाकी है। और फिर अब तो मनरेगा पर खर्च की कोई सीमा नहीं बाँधी जा सकती क्योंकि अब यह लोगों का संवैधानिक अधिकार है कि अगर वे काम माँगें तो उन्हें काम देना सरकार की जिम्मेदारी होगी। संक्षेप में इस बजट का विष्लेषण यही है कि मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह देष को जिस दिषा में ले जा रहे थे, मोदी और जेटली हमें उसी दिषा में और तेज रफ्तार के साथ धकका देने के लिए कमर कसे हैं।
- जया मेहता
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हाशिमपुरा का इंसाफ?
आजादी के बाद के सबसे बड़े जघन्य सामूहिक नरसंहार के मुज़रिमों को दिल्ली की अदालत ने सबूतों के अभाव में बरी कर दिया। इस न्यायिक निर्णय ने एक बार फिर तमाम सवालात खड़े कर दिये हैं, जिन पर गौर किया जाना जरूरी है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस बर्बर नरसंहार को धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की सरकार की मशीनरी ने अंजाम दिया था।
इस सामूहिक नरसंहार 1984 में विहिप ने कथित राम जन्मभूमि को मुक्त कराने का आन्दोलन शुरू किया और 1986 में फैजाबाद की एक अदालत ने हिन्दूओं को अयोध्या के विवादित परिसर में पूजा करने की अनुमति दे दी। उस अदालत के विवेक पर चर्चा से हम मूल मुद्दे से भटक सकते हैं। लेकिन यह सच है कि इस निर्णय के बाद देश में साम्प्रदायिक तनाव पैदा होना शुरू हुआ। कट्टरपंथियों ने पूरे देश के माहौल को भड़काने की हर सम्भव कोशिश की और केन्द्र एवं राज्य की तत्कालीन सरकारें मूक दर्शक बनी रहीं। मेरठ में 1987 में भड़के साम्प्रदायिक दंगों की पृष्ठभूमि में यही परिस्थितियां थीं।
बवाल की शुरूआत 14 अप्रैल को हुई जब नशे में धुत एक दरोगा ने एक पटाखा दगने के बाद गोलियां बरसानी शुरू कर दीं जिसमें अल्पसंख्यक समुदाय के दो लोगों को मौत हो गयी। इस तरह इस दंगे की शुरूआत ही सरकारी मशीनरी ने की। उसी दिन भड़के माहौल में अजान के समय लाउडस्पीकर पर फिल्मी गाने बजाने के विवाद में हाशिमपुरा में दो समुदाय के लोगों में भिड़न्त हो गई जिसमें 12 लोग मारे गये। एक महीने बाद हापुड़ रोड पर बम फूटे, एक दुकान को लूटा गया और उसके मालिक की हत्या कर दी गई। 19 मई को सुभाषनगर में छत पर खड़े तीन लोगों को गोली मार कर हत्या कर दी गई। इस घटना के बाद शहर में कफर््यू लगा दिया गया। इस घटना में आरएसएस से सम्बद्ध एक कौशिक परिवार के एक युवक की भी मौत हुई जिसका एक रिश्तेदार उस समय मेरठ में ही सेना में उच्च पद पर तैनात था। सेना में कार्यरत इसी कौशिक अधिकारी ने सेना के कुछ अन्य अधिकारियों और पीएसी के साथ मिल कर 22 मई 1987 को हाशिमपुरा के घर-घर में जाकर तलाशी ली और 48 हट्टे-कट्टे मुसलमानों को उठा लिया गया। उन्हें पीएसी के एक ट्रक में भर कर ले जाकर छलनी कर दिया गया और उनकी लाशों को गाजियाबाद के मुरादनगर के पास गंगा नहर में फेक दिया गया। इस नरसंहार में आधा दर्जन लोग मरने से बच गये और इस बर्बर कहानी का सच जनता के सामने आ सका।
उस समय गाजियाबाद के एसएसपी विभूति नारायण राय ने मामले में हस्तक्षेप करते हुए दो एफआईआर दर्ज कराईं और मामले की विवेचना स्वयं शुरू कर दी। लेकिन केन्द्र एवं राज्य की तत्कालीन कांग्रेसी सरकारें नहीं चाहती थीं कि दोषियों को दंडित किया जाये। 22/23 मई 1987 की रात में मेरठ सर्किट हाउस में राज्य के तमाम प्रशासनिक एवं पुलिस उच्चाधिकारी मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के साथ मौजूद थे। लेकिन उसमें कोई भी सरकारी मशीनरियों - सेना एवं पीएसी के द्वारा किये गये बर्बर सामूहिक बर्बर हत्याकांड के मुज़रिमों को सज़ा दिलाने का इच्छुक नहीं था। विभूति नारायण राय के हाथ से मामले की विवेचना छीन कर विवेचनाको लटकाये रखने के लिए मामले को सीबी-सीआईडी के हवाले कर दिया गया।
सीबी-सीआईडी ने शुरूआत से ही सबूतों को जुटाने की कोई ईमानदार कोशिश नहीं की। नरसंहार में प्रयुक्त असलहों को सीज़ नहीं किया गया, घटनास्थल से खोके और गोलियां बरामद ही नहीं किये गये, उनकी बैलेस्टिक और फोरेंसिक जांच का सवाल ही नहीं उठता। घटना में प्रयुक्त हथियारों को लगातार प्रयोग में लाया जाता रहा। 19 में से 16 पुलिस वाले अब भी नौकरी में हैं। सेना के जिन अधिकारियों ने इस हत्याकांड में व्यक्तिगत तौर पर भाग लिया था, उन्हें अभियुक्त तक नहीं बनाया गया। सीबी-सीआईडी ने अलबत्ता एक रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को अवश्य प्रेषित की कि सेना सहयोग नहीं कर रही है परन्तु प्रधानमंत्री कार्यालय ने मामले में हस्तक्षेप करने की रूचि नहीं दिखाई। अभियुक्तों को मुकदमें के दौरान प्रोन्नति भी दी जाती रही।
9 सालों के बाद सन 1996 में न्यायालय में 19 अभियुक्तों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया गया। कोर्ट ने 1996 से 2000 तक 23 बार अभियुक्तों के खिलाफ वारंट जारी किये परन्तु किसी भी अभियुक्त को गिरफ्तार नहीं किया गया। 2000 में अभियुक्तों ने आत्मसमर्पण किया। 2002 में एक याचिका की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने मुकदमे को गाजियाबाद की अदालत से तीस हजारी सत्र न्यायालय, दिल्ली स्थानांतरित कर दिया परन्तु 2002 से 2005 तक तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार ने मुकदमें की पैरवी के लिए सरकारी वकील की नियुक्ति नहीं की। 2006 में अभियुक्तां के खिलाफ आरोप तय किये गये और मुकदमें की सुनवाई शुरू की गई। सिस्टम के मुताबिक सत्र न्यायालयों में आरोप तय होने के बाद दिन-प्रति-दिन आधार पर साक्ष्यों को रिकार्ड किया जाता है। दोनों पक्षों से साक्ष्य आने के बाद बहस को सुनने के बाद 15 दिन के अन्दर न्यायालय निर्णय सुना देता है। परन्तु इस मुकदमें में 2006 से 2015 तक सत्ता में रही अल्पसंख्यकों की खैरख्वाह मायावती और मुलायम सिंह की सरकारों ने मुकदमें में साक्ष्यों को प्रस्तुत करने की कोई कोशिश नहीं की और धीरे-धीरे समय बिताया जाता रहा।
ठीक इसी समय हाशिमपुरा से सटे मलियाना में भी कत्ल-ए-आम किया गया था लेकिन यह मामला पूरी तरह दबा दिया गया।
आश्चर्य की बात है कि न्यायालय भी कछुए की गति से इस मामले का ट्रायल करता रहा और उसने सामूहिक नरसंहार होने के तथ्य को सिद्ध मानने के बावजूद अभियुक्तों को संदेह का लाभ दे दिया। सवाल उठता है कि अगर सामूहिक नरसंहार हुआ था तो उसे किसने अंजाम दिया था? इसकी पड़ताल न्यायालय को भी करनी चाहिए थी। अगर अभियोजन न्यायालय में इस अभियोग को सिद्ध नहीं कर सकता था क्योंकि विवेचना करने वाली एजेंसी ने साक्ष्य एकत्रित करने की कोशिश नहीं की थी तो फिर न्यायालय ने उनके खिलाफ टिप्पणी (न्यायिक शब्दावली में स्ट्रिक्चर) पास करते हुए उनके खिलाफ कार्यवाही के निर्देश सरकार को क्यों नहीं दिये?
उल्लेख आवश्यक है कि अफगुरू के मामले में सर्वांच्च न्यायालय का फैसला कहता है कि सबूत परिस्थितिजन्य है। “अधिकतर साजिषों की तरह, आपराधिक साजिष के समकक्ष सबूत नहीं है और न हो सकते हैं।“ लेकिन न्यायालय ने आगे कहा - ”हमला, जिसका नतीजा भारी नुकसान रहा और जिसने संपूर्ण राष्ट्र को हिला कर रख दिया और समाज की सामूहिक चेतना केवल तभी संतुष्ट हो सकती है, अगर अपराधी को फाँसी की सजा दी जाये।“ क्या हाशिमपुरा काण्ड इसी श्रेणी में नहीं आता?
यहां एक अन्य मुकदमें का उल्लेख जरूरी होगा। एक बार एक मुख्य न्यायिक दण्डाधिकारी के यहां एक बड़ी खाद्य मिल के मालिक के खिलाफ खाद्य अपमिश्रण कानून का एक मुकदमा चल रहा था जिसमें अरहर की दाल में 98 प्रतिशत खेसारी दाल पाई गई थी। कानून के मुताबिक सैम्पल की टेस्ट रिपोर्ट आने के बाद उसकी प्रति अभियुक्त को मुकदमा चलाने के पहले भेजना जरूरी होता है और अगर ऐसा न किया जाये तो अभियुक्त को सज़ा नहीं दी जा सकती। इस मामले में अदालत में अभियुक्त को रिपोर्ट भेजने का प्रमाण दाखिल नहीं किया गया था। उसी वक्त उन्नाव जनपद में खेसारी दाल खाने से सैकड़ों लोगों को पैरालिसिस हो जाने की चर्चा आम थी। मजिस्ट्रेट ने कानून के उक्त प्रावधान का पालन का प्रमाण न होने के बावजूद अभियुक्त को कैद एवं जुर्माने दोनों की सजा देते हुए ऐसा करने का कारण स्पष्ट करते हुए अपने निर्णय में उल्लेख किया कि उनके न्यायालय में इस प्रकार के जितने भी मामले आये उसमें कानून के इस प्रावधान का पालन करने का प्रमाण लगा हुआ है जो यह इंगित करता है कि इस बड़े आदमी ने अपने पैसे और प्रभुत्व का प्रयोग करते हुए इस प्रमाण को गायब करवा दिया है। मजिस्ट्रेट ने इस दाल को खाने वालों को हो सकने वाले स्वास्थ्य नुकसानों की चर्चा करते हुए कहा कि जो-जो फुटकर दुकानदार इस मिल से अरहर की दाल ले जाकर बेचता और अगर उसके वहां सैम्पल लिया जाता तो उसे सजा हो जाती जबकि अपमिश्रण का कार्य उनकी कोई भूमिका नहीं होती।
वर्तमान मामले में भी न्यायालय को इस बात की नोटिस लेनी चाहिए थी कि विवेचना उसी विभाग द्वारा की जा रही थी जिसने इस बर्बर सामूहिक हत्याकाण्ड को अंजाम दिया था। पीएसी में उस दिन ड्यूटी पर कौन-कौन आये थे, इसके रिकार्ड को न्यायालय न्याय मुहैया कराने के लिए तलब कर सकती थी। न्याय हित में अन्य आवश्यक साक्ष्य भी प्रस्तुत किये जाने के निर्देश दिये जा सकते थे।
इस मामले में ज्ञान प्रकाश सहित 6 आयोग राज्य सरकारों ने गठित किये परन्तु किसी की भी रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं की गई।
मामले में तमाम सवालात उठ रहे हैं और आगे आने वाले वक्त में उठेंगे। परन्तु इस पूरे प्रकरण ने अंततः धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र में इस दौरान राज्य में सत्तासीन रही तमाम सरकारों के साथ-साथ कार्यपालिका के चेहरे से भी धर्मनिरपेक्षता की नकाब को उतार कर फेंक दिया है।
- प्रदीप तिवारी
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