फ़ॉलोअर
सोमवार, 13 अप्रैल 2015
at 10:45 am | 0 comments |
हाशिमपुरा का इंसाफ?
आजादी के बाद के सबसे बड़े जघन्य सामूहिक नरसंहार के मुज़रिमों को दिल्ली की अदालत ने सबूतों के अभाव में बरी कर दिया। इस न्यायिक निर्णय ने एक बार फिर तमाम सवालात खड़े कर दिये हैं, जिन पर गौर किया जाना जरूरी है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस बर्बर नरसंहार को धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की सरकार की मशीनरी ने अंजाम दिया था।
इस सामूहिक नरसंहार 1984 में विहिप ने कथित राम जन्मभूमि को मुक्त कराने का आन्दोलन शुरू किया और 1986 में फैजाबाद की एक अदालत ने हिन्दूओं को अयोध्या के विवादित परिसर में पूजा करने की अनुमति दे दी। उस अदालत के विवेक पर चर्चा से हम मूल मुद्दे से भटक सकते हैं। लेकिन यह सच है कि इस निर्णय के बाद देश में साम्प्रदायिक तनाव पैदा होना शुरू हुआ। कट्टरपंथियों ने पूरे देश के माहौल को भड़काने की हर सम्भव कोशिश की और केन्द्र एवं राज्य की तत्कालीन सरकारें मूक दर्शक बनी रहीं। मेरठ में 1987 में भड़के साम्प्रदायिक दंगों की पृष्ठभूमि में यही परिस्थितियां थीं।
बवाल की शुरूआत 14 अप्रैल को हुई जब नशे में धुत एक दरोगा ने एक पटाखा दगने के बाद गोलियां बरसानी शुरू कर दीं जिसमें अल्पसंख्यक समुदाय के दो लोगों को मौत हो गयी। इस तरह इस दंगे की शुरूआत ही सरकारी मशीनरी ने की। उसी दिन भड़के माहौल में अजान के समय लाउडस्पीकर पर फिल्मी गाने बजाने के विवाद में हाशिमपुरा में दो समुदाय के लोगों में भिड़न्त हो गई जिसमें 12 लोग मारे गये। एक महीने बाद हापुड़ रोड पर बम फूटे, एक दुकान को लूटा गया और उसके मालिक की हत्या कर दी गई। 19 मई को सुभाषनगर में छत पर खड़े तीन लोगों को गोली मार कर हत्या कर दी गई। इस घटना के बाद शहर में कफर््यू लगा दिया गया। इस घटना में आरएसएस से सम्बद्ध एक कौशिक परिवार के एक युवक की भी मौत हुई जिसका एक रिश्तेदार उस समय मेरठ में ही सेना में उच्च पद पर तैनात था। सेना में कार्यरत इसी कौशिक अधिकारी ने सेना के कुछ अन्य अधिकारियों और पीएसी के साथ मिल कर 22 मई 1987 को हाशिमपुरा के घर-घर में जाकर तलाशी ली और 48 हट्टे-कट्टे मुसलमानों को उठा लिया गया। उन्हें पीएसी के एक ट्रक में भर कर ले जाकर छलनी कर दिया गया और उनकी लाशों को गाजियाबाद के मुरादनगर के पास गंगा नहर में फेक दिया गया। इस नरसंहार में आधा दर्जन लोग मरने से बच गये और इस बर्बर कहानी का सच जनता के सामने आ सका।
उस समय गाजियाबाद के एसएसपी विभूति नारायण राय ने मामले में हस्तक्षेप करते हुए दो एफआईआर दर्ज कराईं और मामले की विवेचना स्वयं शुरू कर दी। लेकिन केन्द्र एवं राज्य की तत्कालीन कांग्रेसी सरकारें नहीं चाहती थीं कि दोषियों को दंडित किया जाये। 22/23 मई 1987 की रात में मेरठ सर्किट हाउस में राज्य के तमाम प्रशासनिक एवं पुलिस उच्चाधिकारी मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के साथ मौजूद थे। लेकिन उसमें कोई भी सरकारी मशीनरियों - सेना एवं पीएसी के द्वारा किये गये बर्बर सामूहिक बर्बर हत्याकांड के मुज़रिमों को सज़ा दिलाने का इच्छुक नहीं था। विभूति नारायण राय के हाथ से मामले की विवेचना छीन कर विवेचनाको लटकाये रखने के लिए मामले को सीबी-सीआईडी के हवाले कर दिया गया।
सीबी-सीआईडी ने शुरूआत से ही सबूतों को जुटाने की कोई ईमानदार कोशिश नहीं की। नरसंहार में प्रयुक्त असलहों को सीज़ नहीं किया गया, घटनास्थल से खोके और गोलियां बरामद ही नहीं किये गये, उनकी बैलेस्टिक और फोरेंसिक जांच का सवाल ही नहीं उठता। घटना में प्रयुक्त हथियारों को लगातार प्रयोग में लाया जाता रहा। 19 में से 16 पुलिस वाले अब भी नौकरी में हैं। सेना के जिन अधिकारियों ने इस हत्याकांड में व्यक्तिगत तौर पर भाग लिया था, उन्हें अभियुक्त तक नहीं बनाया गया। सीबी-सीआईडी ने अलबत्ता एक रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को अवश्य प्रेषित की कि सेना सहयोग नहीं कर रही है परन्तु प्रधानमंत्री कार्यालय ने मामले में हस्तक्षेप करने की रूचि नहीं दिखाई। अभियुक्तों को मुकदमें के दौरान प्रोन्नति भी दी जाती रही।
9 सालों के बाद सन 1996 में न्यायालय में 19 अभियुक्तों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया गया। कोर्ट ने 1996 से 2000 तक 23 बार अभियुक्तों के खिलाफ वारंट जारी किये परन्तु किसी भी अभियुक्त को गिरफ्तार नहीं किया गया। 2000 में अभियुक्तों ने आत्मसमर्पण किया। 2002 में एक याचिका की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने मुकदमे को गाजियाबाद की अदालत से तीस हजारी सत्र न्यायालय, दिल्ली स्थानांतरित कर दिया परन्तु 2002 से 2005 तक तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार ने मुकदमें की पैरवी के लिए सरकारी वकील की नियुक्ति नहीं की। 2006 में अभियुक्तां के खिलाफ आरोप तय किये गये और मुकदमें की सुनवाई शुरू की गई। सिस्टम के मुताबिक सत्र न्यायालयों में आरोप तय होने के बाद दिन-प्रति-दिन आधार पर साक्ष्यों को रिकार्ड किया जाता है। दोनों पक्षों से साक्ष्य आने के बाद बहस को सुनने के बाद 15 दिन के अन्दर न्यायालय निर्णय सुना देता है। परन्तु इस मुकदमें में 2006 से 2015 तक सत्ता में रही अल्पसंख्यकों की खैरख्वाह मायावती और मुलायम सिंह की सरकारों ने मुकदमें में साक्ष्यों को प्रस्तुत करने की कोई कोशिश नहीं की और धीरे-धीरे समय बिताया जाता रहा।
ठीक इसी समय हाशिमपुरा से सटे मलियाना में भी कत्ल-ए-आम किया गया था लेकिन यह मामला पूरी तरह दबा दिया गया।
आश्चर्य की बात है कि न्यायालय भी कछुए की गति से इस मामले का ट्रायल करता रहा और उसने सामूहिक नरसंहार होने के तथ्य को सिद्ध मानने के बावजूद अभियुक्तों को संदेह का लाभ दे दिया। सवाल उठता है कि अगर सामूहिक नरसंहार हुआ था तो उसे किसने अंजाम दिया था? इसकी पड़ताल न्यायालय को भी करनी चाहिए थी। अगर अभियोजन न्यायालय में इस अभियोग को सिद्ध नहीं कर सकता था क्योंकि विवेचना करने वाली एजेंसी ने साक्ष्य एकत्रित करने की कोशिश नहीं की थी तो फिर न्यायालय ने उनके खिलाफ टिप्पणी (न्यायिक शब्दावली में स्ट्रिक्चर) पास करते हुए उनके खिलाफ कार्यवाही के निर्देश सरकार को क्यों नहीं दिये?
उल्लेख आवश्यक है कि अफगुरू के मामले में सर्वांच्च न्यायालय का फैसला कहता है कि सबूत परिस्थितिजन्य है। “अधिकतर साजिषों की तरह, आपराधिक साजिष के समकक्ष सबूत नहीं है और न हो सकते हैं।“ लेकिन न्यायालय ने आगे कहा - ”हमला, जिसका नतीजा भारी नुकसान रहा और जिसने संपूर्ण राष्ट्र को हिला कर रख दिया और समाज की सामूहिक चेतना केवल तभी संतुष्ट हो सकती है, अगर अपराधी को फाँसी की सजा दी जाये।“ क्या हाशिमपुरा काण्ड इसी श्रेणी में नहीं आता?
यहां एक अन्य मुकदमें का उल्लेख जरूरी होगा। एक बार एक मुख्य न्यायिक दण्डाधिकारी के यहां एक बड़ी खाद्य मिल के मालिक के खिलाफ खाद्य अपमिश्रण कानून का एक मुकदमा चल रहा था जिसमें अरहर की दाल में 98 प्रतिशत खेसारी दाल पाई गई थी। कानून के मुताबिक सैम्पल की टेस्ट रिपोर्ट आने के बाद उसकी प्रति अभियुक्त को मुकदमा चलाने के पहले भेजना जरूरी होता है और अगर ऐसा न किया जाये तो अभियुक्त को सज़ा नहीं दी जा सकती। इस मामले में अदालत में अभियुक्त को रिपोर्ट भेजने का प्रमाण दाखिल नहीं किया गया था। उसी वक्त उन्नाव जनपद में खेसारी दाल खाने से सैकड़ों लोगों को पैरालिसिस हो जाने की चर्चा आम थी। मजिस्ट्रेट ने कानून के उक्त प्रावधान का पालन का प्रमाण न होने के बावजूद अभियुक्त को कैद एवं जुर्माने दोनों की सजा देते हुए ऐसा करने का कारण स्पष्ट करते हुए अपने निर्णय में उल्लेख किया कि उनके न्यायालय में इस प्रकार के जितने भी मामले आये उसमें कानून के इस प्रावधान का पालन करने का प्रमाण लगा हुआ है जो यह इंगित करता है कि इस बड़े आदमी ने अपने पैसे और प्रभुत्व का प्रयोग करते हुए इस प्रमाण को गायब करवा दिया है। मजिस्ट्रेट ने इस दाल को खाने वालों को हो सकने वाले स्वास्थ्य नुकसानों की चर्चा करते हुए कहा कि जो-जो फुटकर दुकानदार इस मिल से अरहर की दाल ले जाकर बेचता और अगर उसके वहां सैम्पल लिया जाता तो उसे सजा हो जाती जबकि अपमिश्रण का कार्य उनकी कोई भूमिका नहीं होती।
वर्तमान मामले में भी न्यायालय को इस बात की नोटिस लेनी चाहिए थी कि विवेचना उसी विभाग द्वारा की जा रही थी जिसने इस बर्बर सामूहिक हत्याकाण्ड को अंजाम दिया था। पीएसी में उस दिन ड्यूटी पर कौन-कौन आये थे, इसके रिकार्ड को न्यायालय न्याय मुहैया कराने के लिए तलब कर सकती थी। न्याय हित में अन्य आवश्यक साक्ष्य भी प्रस्तुत किये जाने के निर्देश दिये जा सकते थे।
इस मामले में ज्ञान प्रकाश सहित 6 आयोग राज्य सरकारों ने गठित किये परन्तु किसी की भी रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं की गई।
मामले में तमाम सवालात उठ रहे हैं और आगे आने वाले वक्त में उठेंगे। परन्तु इस पूरे प्रकरण ने अंततः धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र में इस दौरान राज्य में सत्तासीन रही तमाम सरकारों के साथ-साथ कार्यपालिका के चेहरे से भी धर्मनिरपेक्षता की नकाब को उतार कर फेंक दिया है।
- प्रदीप तिवारी
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
मेरी ब्लॉग सूची
-
CUT IN PETROL-DIESEL PRICES TOO LATE, TOO LITTLE: CPI - *The National Secretariat of the Communist Party of India condemns the negligibly small cut in the price of petrol and diesel:* The National Secretariat of...6 वर्ष पहले
-
No to NEP, Employment for All By C. Adhikesavan - *NEW DELHI:* The students and youth March to Parliament on November 22 has broken the myth of some of the critiques that the Left Parties and their mass or...8 वर्ष पहले
-
रेल किराये में बढोत्तरी आम जनता पर हमला.: भाकपा - लखनऊ- 8 सितंबर, 2016 – भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने रेल मंत्रालय द्वारा कुछ ट्रेनों के किराये को बुकिंग के आधार पर बढाते चले जाने के कदम ...8 वर्ष पहले
Side Feed
Hindi Font Converter
Are you searching for a tool to convert Kruti Font to Mangal Unicode?
Go to the link :
https://sites.google.com/site/technicalhindi/home/converters
Go to the link :
https://sites.google.com/site/technicalhindi/home/converters
लोकप्रिय पोस्ट
-
अखनूर बस हादसे के लिये उत्तर प्रदेश सरकार पूरी तरह जिम्मेदार: डा॰ गिरीश भाकपा नेता ने म्रतकों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की , घायलों क...
-
Political horse-trading continued in anticipation of the special session of parliament to consider the confidence vote on July 21 followed b...
-
REVERSE DEREGULATION OF FUEL PRICES The Congress led UPA II Government has totally failed to contain inflation and to cont...
-
The demand to divide Uttar Pradesh into separate states has been raised off and on for the last two decades. But the bitter truth r...
-
लखनऊ 3 सितम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एवं अन्य वामपंथी दलों द्वारा खाद्य सुरक्षा, महंगाई तथा भ्रष्टाचार के सवाल पर 12 सितम्बर को उत्तर...
-
The Hindu today published the following item : The Left parties will stage protests against fuel price hike during Prime Minister Manmohan S...
-
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की अखिल भारतीय पार्टी कांग्रेस सामान्यतः हर तीसरे साल की जाती है। पार्टी कांग्रेस भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का ...
-
प्रकाशनार्थ नागरिकता कानून के खिलाफ आंदोलन को कुचलने की उत्तर प्रदेश और केन्द्र सरकार की दमनकारी कार्यवाहियों की वामपंथी दलों ने निंदा ...
-
“यदि सरकार ने कोरोना से जंग के लिये नीतियां तय करने से पहले महामारीविदों और अन्य विशेषज्ञों से राय ली होती तो स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती...
-
साम्राज्यवाद का दुःस्वप्नः क्यूबा और फिदेल आइजनहावर, कैनेडी, निक्सन, जिमी कार्टर, जानसन, फोर्ड, रीगन, बड़े बुश औरछोटे बुश, बिल क्लिंटन और अब ...
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें