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शुक्रवार, 25 जून 2010
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पेट्रोल, डीजेल, मिट्टी के तेल और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोतरी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करो - भाकपा
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CPI UP APPEALS YOU TO DONATE FOR ORGANISING UNORGANISED WORKING CLASS
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नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा-5
आइजनहावर, कैनेडी, निक्सन, जिमी कार्टर, जानसन, फोर्ड, रीगन, बड़े बुश औरछोटे बुश, बिल क्लिंटन और अब ओबामा-भूलचूक लेनी-देनी भी मान ली जाए तोअमेरिका के 10 राष्ट्रपतियों की अनिद्रा की एक वजह लगातार एक ही मुल्कबना रहा - क्यूबा।1991 में जब सोवियत संघ बिखरा और यूरोप की समाजवादी व्यवस्थाएँ भी एक केबाद एक ढहती चली गईं तो यह सिर्फ पूँजीवादियों को ही नहीं वामपंथियों कोभी लगने लगा था कि अब क्यूबा नहीं बचेगा। फिर जब फिदेल कास्त्रो कीबीमारी और फिर मौत की अफवाह फैलाई गई तब भी यही लगा था कि फिदेल के मरनेके बाद कौन होगा जो इतनी समझदारी और कूटनीति से काम लेते हुए क्यूबा कोअमेरिकी आॅक्टोपस से बचाये रख सके।लेकिन क्यूबा बना रहा। न केवल बना रहा बल्कि अपने चुने हुए रास्ते परमजबूत कदमों के साथ आगे बढ़ता रहा।फिदेल कास्त्रो को मारने और क्यूबा की आजादी खत्म करने की कितनी कोशिशेंअमेरिका की तरफ से हुई हैं, इसकी गिनती लगाते-लगाते ही गिनती बढ़ जाती है।सन 2006 में यू0के0 में चैनल 4 ने एक डाॅक्युमेंट्री प्रसारित की थीजिसका शीर्षक था-कास्त्रो को मारने के 638 रास्ते (638 वेज टु किलकास्त्रो)। फिल्म में फिदेल कास्त्रो को मारने के अमेरिकी प्रयासों का एकलेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया था जिसमें सी.आई.ए. की मदद से फिदेल कोसिगार में बम लगाकर उड़ाने से लेकर जहर का इंजेक्शन देने तक के सारेकायराना हथकंडे अपनाए गए थे। तकरीबन 40 बरस तक फिदेल कास्त्रो के सुरक्षाप्रभारी और क्यूबा की गुप्तचर संस्था के प्रमुख रहे फेबियन एस्कालांतेबताते हैं कि ’लाल शैतान’ को खत्म करने के लिए अमेरिका, सी0आई0ए0 औरक्यूबा के भगोड़े व गद्दारों ने हर मुमकिन कोशिश की। फिल्म के निर्देशकडाॅलन कैन्नेल और निर्माता पीटर मूर ने अमेरिका में ऐशो-आराम की जिंदगीबिता रहे ऐसे बहुत से लोगों से मुलाकात की, जिन पर फिदेल की हत्या कीकोशिशों का इल्जाम है। उनमें से एक सी0आई0ए0 का रिटायर्ड अधिकारी फेलिक्सरोड्रिगुएज भी था जो 1961 में क्यूबा पर अमेरिकी हमले के वक्त क्यूबा केविरोधियों का प्रशिक्षक था और जो 1967 में चे ग्वेवारा के कत्ल के वक्तबोलीविया में भी मौजूद था। यहाँ तक कि अमेरिकी जासूसी एजेंसियों कीनाकामियों से परेशान होकर अमेरिकी हुक्मरानों ने फिदेल को मारने के लिएमाफिया की भी मदद ली थी।कुछ बरसों पहले 80 पार कर चुके फिदेल कास्त्रो भाषण देते हुए हवाना मेंचक्कर खाकर गिर गए थे। उनकी पैर की हड्डी भी इससे टूट गई थी। बस, फिरक्या था। अमेरिकी अफवाह तंत्र पूरी तरह सक्रिय होकर फिदेल की मृत्यु कीअफवाहें फैलाने लगा। लेकिन फिदेल ने फिर दुनिया के सामने आकर सब अफवाहोंको ध्वस्त कर दिया। जब फिदेल के डाॅक्टर से किसी पत्रकार ने पूछा कि क्याउनकी जिंदगी का यह आखिरी वक्त है तो डाॅक्टर ने कहा कि फिदेल 140 बरस कीउम्र तक स्वस्थ रह सकते हैं।लेकिन फिदेल ने क्यूबा की जिम्मेदारियों को सँभालने में सक्षम लोगों कीपहचान कर रखी थी। सन् 2004 से ही धीरे-धीरे फिदेल ने अपनी सार्वजनिकउपस्थिति को कम करना शुरू कर दिया था। फिर 2006 में फिदेल ने अपनीजिम्मेदारियाँ अस्थायी तौर पर राउल कास्त्रो को सौंपीं। चूँकि राउलकास्त्रो फिदेल के छोटे भाई भी हैं इसलिए सारी दुनिया में पूँजीवादीमीडिया को फिर दुष्प्रचार का एक बहाना मिला कि कम्युनिस्ट भी परिवारवादसे बाहर नहीं निकल पाए हैं। लेकिन ये बात कम लोग जानते हैं कि राउलकास्त्रो फिदेल के भाई होने की वजह से नहीं बल्कि अपनी अन्य योग्यताओं कीवजह से क्यूबा के इंकलाब के मजबूत पहरेदार चुने गए हैं। सिएरा मास्त्राके पहाड़ों पर 1956 में जिस सशस्त्र अभियान में चे और फिदेल अपने 80 अन्यसाथियों के साथ ग्रान्मा जहाज में मैक्सिको से क्यूबा आए थे, राउल उसअभियान का बेहद महत्त्वपूर्ण हिस्सा थे। बटिस्टा की फौजों से चंद महीनोंके भीतर हुई सैकड़ों मुठभेड़ों में फिदेल, चे, राउल और उनके 10 अन्यसाथियों को छोड़ बाकी सभी मारे गए थे। यह भी कम लोग जानते हैं कि फिदेल केकम्युनिस्ट बनने से भी पहले से राउल कम्युनिस्ट बन चुके थे। न सिर्फ जंगके मैदान में एक फौज के प्रमुख की तरह बल्कि सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिकचुनौतियों का भी राउल कास्त्रो ने मुकाबला किया है। मंदी के संकटपूर्ण ौरमें खेती की उत्पादकता बढ़ाने के लिए आज क्यूबा के जिस शहरी खेती केप्रयोग की दुनिया भर में प्रशंसा होती है, वह दरअसल राउल कास्त्रो की हीकल्पनाशीलता का नतीजा है।बेशक पूरी दुनिया में फिदेल एक जीवित किंवदंती हैं इसलिए क्यूबा से बाहरकी दुनिया में हर क्यूबाई उपलब्धि चे और फिदेल के खाते में ही जाती है।लेकिन इसका मतलब यह भी है कि फिदेल ने अपना इतना विस्तार कर लिया है किवहाँ अनेक अनुभवी व नये लोग तैयार हैं। राउल कास्त्रो सिर्फ फिदेल के भाईहोने का नाम ही नहीं, बल्कि इंकलाब की जिम्मेदारी सँभालने के लिए तैयारलोगों में से एक नाम है।
इंकलाब का बढ़ता दायरा
आज सोवियत संघ को विघटित हुए करीब दो दशक पूरे हो रहे हैं। ऐसी कोई बड़ीताकत दुनिया में नहीं है जो अमेरिका को क्यूबा पर हमला करने से रोक सके।क्यूबा से कई गुना बड़े देश इराक और अफगानिस्तान को अमेरिका ने सारीदुनिया के विरोध के बावजूद ध्वस्त कर दिया। चीन में कहने के लिएकम्युनिस्ट शासन है लेकिन बाकी दुनिया के कम्युनिस्ट ही उसे कम्युनिज्मके रास्ते से भटका हुआ कहते हैं। उत्तरी कोरिया ने अपनी सुरक्षा के लिएपरमाणु शक्ति संपन्न बनने का रास्ता अपनाया है। फिर अब अमेरिका को कौन सीताकत क्यूबा को नेस्तनाबूद करने से रोकती है? वह ताकत क्यूबा कीक्रान्तिकारी जनता की ताकत है जिसे पूरी दुनिया की मेहनतकश और इंसाफ पसंदजनता अपना हिस्सा समझती है और अपनी ताकत का एक अंश सौंपती है।पिछले बीस बरसों से वे लगातार चुनौतियों से जूझ रहे हैं अनेक मोर्चों परबिजली की कमी की समस्याएँ, रोजगार में कमी, उत्पादन और व्यापार में कमीऔर बाहरी दुनिया के दबाव अपनी जगह बदस्तूर कायम हैं ही, फिर भी, इतने कमसंसाधनों और इतनी ज्यादा मुसीबतों के बावजूद क्यूबा ने शिक्षा,स्वास्थ्य, सुरक्षा और जन पक्षधर जरूरी चीजों को अपने नागरिकों के लिएअनुपलब्ध नहीं होने दिया। अप्रैल 2010 में क्यूबा के लाखों युवाओं कोसंबोधित करते हुए राउल कास्त्रो ने कहा कि ’इतनी मुश्किलों में से उबरनेकी ताकत सिर्फ सामूहिक प्रयासों और मनुष्यता को बचाने की प्रतिबद्धता सेही आती है, और वह ताकत समाजवाद की ताकत है।’ ये सच है कि कई मायनों मेंक्यूबा की जनता आज सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है। लेकिन वे जानते हैंकि इसका सामना करने और हालातों को अपने पक्ष में मोड़ लेने के अलावा दूसराकोई विकल्प नहीं है। सर्वग्रासी पूँजीवाद अपने जबड़े फैलाए क्यूबा केइंकलाब को निगलने के लिए 50 वर्षों से ताक में है। चे ने 1961 में लिखाथा कि गलतियाँ तो होती हैं लेकिन ऐसी गलतियाँ न हों जो त्रासदी बन जाएँ।क्यूबाई जनता जानती है कि समाजवाद के बाहर जाने की गलती त्रासदियाँलाएगी।आज सिर्फ क्यूबा में ही नहीं, सारी दुनिया में हर उस शख्स के भीतर कीआवाज फिदेल और क्यूबा के लोगों और क्यूबा की आजादी के साथ है जिसके भीतरअन्याय के खिलाफ जरा भी बेचैनी है। आज चे, फिदेल और क्यूबा सिर्फ एक देशतक महदूद नाम नहीं हैं बल्कि वे पूरी दुनिया के और खासतौर पर पूरे दक्षिणअमेरिका के साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के प्रतीक हैं। अमेरिका जानता हैकि फिदेल और क्यूबा पर किसी भी तरह का हमला अमेरिका के खिलाफ एक ऐसेविश्वव्यापी जबर्दस्त आंदोलन की वजह बन सकता है जिसकी लहरों से टकराकरसाम्राज्यवाद-पूँजीवाद की नाव तिनके की तरह डूब जाएगी।क्यूबा की प्रेरणा, जोश और फिदेल की अनुभवी सलाहों के मार्गदर्शन में आजलैटिन अमेरिका के अनेक देशों में अमेरिकी साम्राज्यवाद और सरमायादारी केखिलाफ आंदोलन मजबूत हुए हैं और वेनेजुएला और बोलीविया में तो परेशानहालजनता ने इन शक्तियों को सत्ता भी सौंपी है। अपनी ताकत को बूँद-बूँदसहेजते हुए पूरी सतर्कता के साथ ये आगे बढ़ रहे हैं। क्यूबा ने उनकी ताकतको बढ़ाया है और वेनेजुएला के राष्ट्रपति चावेज और बोलीवियाई राष्ट्रपतिइवो मोरालेस के उभरने से क्यूबा को भी बल मिला है। अमेरिकी चक्रव्यूह सेअन्य देशों को भी निजात दिलाने के लिए वेनेजुएला की पहल पर लैटिन अमेरिकीदेशों को एकजुट करके ’बोलीवेरियन आल्टरनेटिव फाॅर दि अमेरिकाज’ (एएलबीए)और बैंक आॅफ द साउथ के दो क्षेत्रीय प्रयास किए हैं जिनसे निश्चित हीपूँजीवाद के बनाए भीषण मंदी के दलदल में फँसे देशों को कुछ सहारा भीमिलेगा और साथ ही समाजवादी विकल्प में उनका विश्वास बढ़ेगा। अब तक इनप्रयासों में हाॅण्डुरास, निकारागुआ, डाॅमिनिका, इक्वेडोर, एवं कुछ अन्यदेश जुड़ चुके हैं। यह देश मिलकर अमेरिका की दादागीरी को कड़ी व निर्णायकचुनौती दे सकते हैं। नये दौर में ऐसी ही रणनीतियाँ तलाशनी होंगी।
-विनीत तिवारीमोबाइल : 09893192740
(क्रमश:)
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नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा -1
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नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा -2
गया जब उन्हें समझ आया कि क्यूबा की क्रांति सिर्फ एक देश के शासकों काउलटफेर नहीं, बल्कि वह एक नये समाज की तैयारी है और पूँजीवाद के बुनियादीतर्क शोषण के ही खिलाफ है, और इसीलिए उस क्रान्ति को समाजवाद के भीतर हीअपनी जगह मिलनी थी।बटिस्टा सरकार के दौरान जो हालात क्यूबा में थे, उनके प्रति एक ज़बर्दस्तगुस्सा क्यूबा की जनता के भीतर उबल रहा था। फिदेल कास्त्रो के पहले भीबटिस्टा के तख्तापलट की कुछ नाकाम कोशिशें हो चुकी थीं। विद्रोही शहीदहुए थे और बटिस्टा और भी ज्यादा निरंकुश। खुद अमेरिका द्वारा माने गयेआँकड़े के मुताबिक बटिस्टा ने महज सात वर्षों के दौरान 20 हजार से ज्यादाक्यूबाई लोगों का कत्लेआम करवाया था। इन सबके खिलाफ फिदेल के भीतर भीगहरी तड़प थी। जब फिदेल ने 26 जुलाई 1953 को मोंकाडा बैरक पर हमला बोल करबटिस्टा के खिलाफ विद्रोह की पहली कोशिश की थी तो उसके पीछे यही तड़प थी।अगस्त 1953 में फिदेल की गिरफ्तारी हुई और उसी वर्ष उन्होंने वह तकरीर कीजो दुनिया भर में ’इतिहास मुझे सही साबित करेगा’ के शीर्षक से जानी जातीहै। उन्हें 15 वर्ष की सजा सुनायी गई थी लेकिन दुनिया भर में उनके प्रतिउमड़े समर्थन की वजह से उन्हें 1955 में ही छोड़ना पड़ा। 1955 में ही फिदेलको क्यूबा में कानूनी लड़ाई के सारे रास्ते बन्द दिखने पर क्यूबा छोड़मैक्सिको जाना पड़ा जहाँ फिदेल पहली दफा चे ग्वेवारा से मिले। जुलाई 1955से 1 जनवरी 1959 तक क्यूबा की कामयाब क्रान्ति के दौरान फिदेल ने राउलकास्त्रो, चे और बाकी साथियों के साथ अनेक छापामार लड़ाइयाँ लड़ीं, अनेकसाथियों को गँवाया लेकिन क्यूबा की जनता और जमीन को शोषण से आजाद करानेका ख्वाब एक पल भी नजरों से ओझल नहीं होने दिया।
-विनीत तिवारीमोबाइल : 09893192740
(क्रमश:)
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नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा-3
1 जनवरी 1959 को क्यूबा में बटिस्टा के शोषण को हमेशा के लिए समाप्त करनेके बाद अप्रैल, 1959 में फिदेल एसोसिएशन आॅफ न्यूजपेपर एडिटर्स केआमंत्रण पर अमेरिका गये जहाँ उन्होंने एक रेडियो इंटरव्यू में कहा कि’मैं जानता हूँ कि दुनिया सोचती है कि हम कम्युनिस्ट हैं पर मैंनेबिल्कुल साफ तौर पर यह कहा है कि हम कम्युनिस्ट नहीं हैं।’ उसी प्रवास केदौरान फिदेल की साढ़े तीन घंटे की मुलाकात अमेरिकी उप राष्ट्रपति निक्सनके साथ भी हुई जिसके अंत में निक्सन का निष्कर्ष यह था कि ’या तोकम्युनिज्म के बारे में फिदेल की समझ अविश्वसनीय रूप से बचकानी है या फिरवे ऐसा कम्युनिस्ट अनुशासन की वजह से प्रकट कर रहे हैं।’ लेकिन फिदेल नेमई में क्यूबा में अपने भाषण में फिर दोहरायाः ’न तो हमारी क्रान्तिपूँजीवादी है, न ये कम्युनिस्ट है, हमारा मकसद इंसानियत को रूढ़ियों से,बेड़ियों से मुक्त कराना और बगैर किसी को आतंकित किए या जबर्दस्ती किए,अर्थव्यवस्था को मुक्त कराना है।’बहरहाल न कैनेडी के ये उच्च विचार क्यूबा के बारे में कायम रह सके और नफिदेल को ही इतिहास ने अपने इस बयान पर कायम रहने दिया। जनवरी 1959 सेअक्टूबर आते-आते जिस दिशा में क्यूबा की क्रान्तिकारी सरकार बढ़ रही थी,उससे उनका रास्ता समाजवाद की मंजिल की ओर जाता दिखने लगा था। मई में भूमिकी मालिकी पर अंकुश लगाने वाला कानून लागू कर दिया गया था, समुंदर केकिनारों पर निजी स्वामित्व पहले ही छीन लिया गया था। अक्टूबर में चे कोक्यूबा के उद्योग एवं कृषि सुधार संबंधी विभाग का प्रमुख बना दिया गया थाऔर नवंबर में चे को क्यूबा के राष्ट्रीय बैंक के डाइरेक्टर की जिम्मेदारीभी दे दी गई थी। बटिस्टा सरकार के दौरान क्यूबा के रिश्ते बाकी दुनिया केतरक्की पसंद मुल्को के साथ कटे हुए थे, वे भी 1960 में बहाल कर लिए गए।सोवियत संघ और चीन के साथ करार किए गए तेल, बिजली और शक्कर का साराअमेरिकी व्यवसाय जो बटिस्टा के जमाने से क्यूबा में फल-फूल रहा था, सरकारने अपने कब्जे में लेकर राष्ट्रीयकृत कर दिया। जुएखाने बंद कर दिए गए।पूरा क्यूबाई समाज मानो कायाकल्प के एक नये दौर में था।यह कायाकल्प अमेरिकी हुक्मरानों और अमेरिकी कंपनियों के सीनों पर साँप कीतरह दौड़ा रहा था। आखिर 1960 की ही अगस्त में आइजनहाॅवर ने क्यूबा पर सख्तआर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। क्यूबा को भी इसका अंदाजा तो था ही इसलिए उसनेमुश्किल वक्त के लिए दोस्तों की पहचान करके रखी थी। रूस और चीन ने क्यूबाके साथ व्यापारिक समझौते किए और एक-दूसरे को पँूजीवाद की जद से बाहर रखनेमें मदद की।उधर अमेरिका में आइजनहाॅवर के बाद कैनेडी नये राष्ट्रपति बने थेजिन्होंने पहले आइजनहाॅवर की नीतियों की आलोचना और क्यूबाई क्रान्ति कीप्रशंसा की थी। उनके पदभार ग्रहण करने के तीन महीनों के भीतर ही क्रान्तिको खत्म करने का सीआईए प्रायोजित हमला किया गया जिसे बे आॅफ पिग्स केआक्रमण के नाम से जाना जाता है। चे, फिदेल और क्यूबाई क्रान्ति की प्रहरीजनता की वजह से ये हमला नाकाम रहा। सारी दुनिया में अमेरिका की इस नाकामषड्यंत्र की पोल खुलने से, बदनामी हुई। तब कैनेडी ने बयान जारी किया कियह हमला सरकार की जानकारी के बगैर और क्यूबा के ही अमेरिका में रह रहेअसंतुष्ट नागरिकों का किया हुआ है, जिसकी हम पर कोई जिम्मेदारी नहीं है।
कम्युनिस्ट कहलाना हमारे लिए गौरव की बात हैः फिदेल (1965)
उधर, दूसरी तरफ फिदेल को भी 1961 में बे आॅफ पिग्स के हमले के बाद यह समझमें आने लगा था कि अमेरिका क्यूबा को शांति से नहीं रहने देगा। पहले जोफिदेल अपने आपको कम्युनिज्म से दूर और तटस्थ बता रहे थे, दो साल बाद एकमई 1961 को फिदेल ने अपनी जनता को संबोधित करते हुए कहा कि ’हमारी शासनव्यवस्था समाजवादी शासन व्यवस्था है और मिस्टर कैनेडी को कोई हक नहीं किवे हमें बताएँ कि हमें कौन सी व्यवस्था अपनानी चाहिए, हम सोचते हैं किखुद अमेरिका के लोग भी किसी दिन अपनी इस पूँजीवादी व्यवस्था से थकजाएँगे।’1961 की दिसंबर को उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि ’मैं हमेशामाक्र्सवादी-लेनिनवादी रहा हूँ और हमेशा रहूँगा।’तब तक भी फिदेल और चे वक्त की नब्ज को पहचान रहे थे। चे ने इस दौरानसोवियत संघ, चीन, उत्तरी कोरिया, चेकोस्लावाकिया और अन्य देशों कीयात्राएँ कीं। चे को अमेरिका की ओर से इतनी जल्द शांति की उम्मीद नहीं थीइसलिए क्यूबा की क्रान्ति को बचाये रखने के लिए उसे बाहर से समर्थनदिलाना बहुत जरूरी था। क्यूबा तक आने वाली जरूरी सामग्रियों के जहाजरास्ते में ही उड़ा दिए जाते थे और क्यूबा पर अमेरिका के हवाई हमले कभीतेल संयंत्र उड़ा देते थे तो कभी क्यूबा के सैनिक ठिकानों पर बमबारी करतेथे। बेहद हंगामाखेज रहे कुछ ही महीनों में इन्हीं परिस्थितियों के भीतरअक्टूबर 1962 में सोवियत संघ द्वारा आत्मरक्षा के लिए दी गई एक परमाणुमिसाइल का खुलासा होने से अमेरिका ने क्यूबा पर अपनी फौजें तैनात कर दीं।उस वक्त बनीं परिस्थितियों ने विश्व को नाभिकीय युद्ध के मुहाने पर लाखड़ा किया था। आखिरकार सोवियत संघ व अमेरिका के बीच यह समझौता हुआ कि अगरअमेरिका कभी क्यूबा पर हमला न करने का वादा करे तो सोवियत संघ क्यूबा सेअपनी मिसाइलें हटा लेगा।अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम और परिस्थितियों के भीतर अपना कार्यभार तय करतेहुए अंततः 3 अक्टूबर 1965 को फिदेल ने साफ तौर पर पार्टी का नया नामकरणकरते हुए उसे क्यूबन कम्युनिस्ट पार्टी का नया नाम दिया और कहा किकम्युनिस्ट कहलाना हमारे लिए फ़ख्ऱ और गौरव की बात है।
-विनीत तिवारीमोबाइल : 09893192740
(क्रमश:)
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नये मनुष्य, नये समाज के निर्माण की कार्यशाला: क्यूबा-4
क्यूबा की क्रान्ति न रूस जैसी थी न चीन जैसी। वहाँ क्रान्तिकारीकम्युनिस्ट पार्टियाँ पहले से क्रान्ति के लिए प्रयासरत थीं और उन्होंनेनिर्णायक क्षणों में विवेक सम्मत निर्णय लेकर इतिहास गढ़ा। उनसे अलग,क्यूबा में जो क्रान्ति हुई, उसे क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी का भीसमर्थन या अनुमोदन हासिल नहीं था। उस वक्त क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टीफिदेल के गुरिल्ला युद्ध का समर्थन नहीं करती थी बल्कि बटिस्टा सरकार केऊपर दबाव डालकर ही कुछ हक अधिकार हासिल करने में यकीन करती थी। लेकिनवक्त के साथ न केवल फिदेल ने क्यूबाई इंकलाब को सिर्फ एक देश के इंकलाबसे बाहर निकालकर उसे एक अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की अहम तारीखबनाया बल्कि अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट बिरादरी ने भी क्यूबा के इंकलाबको साम्राज्यवाद से बचाये रखने में हर मुमकिन भूमिका निभाई।चे ग्वेवारा का प्रसिद्ध लेख ’क्यूबाः एक्सेप्शनल केस?’ क्यूबा कीक्रान्ति की अन्य खासियतों पर और समाजवाद की प्रक्रियाओं पर विलक्षणरोशनी डालता है।करिष्मा दर करिश्मा जनता की ताकत से1961 की 1 जनवरी को 1 लाख हाई स्कूल पास लोगों के साथ पूरे मुल्क कोसाक्षर बनाने का अभियान शुरू किया गया और ठीक एक साल पूरा होने के 8 दिनपहले ही क्यूबा को पूर्ण साक्षर करने का करिश्मा कर दिखाया। दिसंबर 22,1961 को क्यूबा निरक्षरता रहित क्षेत्र घोषित कर दिया गया। ऐसे करिश्मेक्यूबा ने अनेक क्षेत्रों में दिखाए और अभी भी जारी हैं। इंकलाब केतत्काल बाद जमीन पर से विदेशी कब्जे खत्म किए गए और बड़े किसानों वकंपनियों से जमीनें लेकर छोटे किसानों व खेतिहर मजदूरों को बाँटी गईं।इंकलाब के बाद के करीब बीस-पच्चीस वर्षों तक क्यूबा ने तरक्की की अनेकछलाँगें भरीं। बेशक सोवियत संघ व अन्य समाजवादी देशों के साथ सामरिक-व्यापारिक संबंधों की इसमें अहम भूमिका रही। गन्ने की एक फसल वाली खेतीसे शक्कर बनाकर क्यूबा ने सोवियत संघ से शक्कर के बदले पेट्रोल और अन्यआवश्यक वस्तुएँ हासिल कीं। उद्योगों का ही नहीं खेती का भी राष्ट्रीयकरणकरके खेतों में काम करने वाले मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा, छुट्टियाँ,मुफ्त शिक्षा, इलाज की सुविधाएँ और बच्चों के लिए झूलाघर खोले गए।क्रान्ति के महज 7 वर्षों के भीतर क्यूबा की 80 फीसदी कृषि भूमि पर सरकारका स्वामित्व था। निजी स्वामित्व वाले जो छोटे किसान थे, उनके भी सरकारने जगह-जगह कोआॅपरेटिव बनाए और उन्हें प्रोत्साहित किया। सबके लिए भोजन,रोजगार, शिक्षा और सबके लिए मुफ्त इलाज की सुविधा ने क्यूबा को मानवविकास के किसी भी पैमाने से अनेक विकसित देशों से आगे लाकर खड़ा कर दियाथा।
मुश्किल दौर का मुकाबला क्रान्ति के औजारों से
सोवियत संघ के विघटन से निश्चित ही क्यूबा की अर्थव्यवस्था पर बहुतप्रतिकूल असर पड़ा। भीषण मंदी ने क्यूबा को अपनी चपेट में ले लिया। सोवियतसंघ केवल क्यूबा की कृषि उपज का खरीददार ही नहीं था बल्कि क्यूबा की ईंधनऔर रासायनिक खाद की जरूरतों का भी बड़ा हिस्सा वहीं से ही पूरा होता था।सोवियत संघ के ढहने से क्यूबा में रासायनिक खाद और कीटनाशकों की उपलब्धता80 फीसदी तक गिर गई और उत्पादन में 50 फीसदी से ज्यादा गिरावट आई। क्यूबाके प्रति व्यक्ति प्रोटीन और कैलोरी खपत में 30 फीसदी कमी दर्ज की गई।लेकिन क्यूबा इन सभी समस्याओं से बगैर किसी बाहरी मदद के जिस तेजी से फिरसँभला, वह क्यूबाई करिश्मों की गिनती को ही बढ़ाता है। अपने दक्ष वप्रतिबद्ध वैज्ञानिकों और लोगों के प्रति ईमानदार, दृढ़ राजनैतिकइच्छाशक्ति ने 1995 के मध्य तक अपनी कृषि को पूरी तरह बदल कर नये हालातोंके अनुकूल ढाल लिया। रासायनिक खाद के बदले जैविक खाद से खेती की जानेलगी। एक फसल के बदले विविधतापूर्ण फसल चक्र अपनाए गए। आज क्यूबा सारीदुनिया में जैविक खेती और जमीन का सही तरह से इस्तेमाल करने वाले देशोंमें सबसे आगे है।यही स्थिति ऊर्जा के क्षेत्र में भी हुई। सोवियत संघ से पेट्रोलियम कीआपूर्ति बंद हो जाने के बाद क्यूबा के वैज्ञानिकों व इंजीनीयरों ने बड़ेपैमाने पर सौर ऊर्जा और पनबिजली के संयंत्रों पर काम किया। कम बिजली खपतवाले रेफ्रीजरेटर, हीटर, बल्ब इत्यादि बनाए गए और आज क्यूबा वैकल्पिक वप्रकृति हितैषी ऊर्जा उत्पादन में भी दुनिया की अग्रिम पंक्ति में है।पश्चिमी यूरोप में प्रत्येक 330 लोगों की देखभाल के लिए एक डाॅक्टर है;अमेरिका में प्रत्येक 417 लोगों की देखभाल के लिए एक डाक्टर है, जबकिक्यूबा में प्रत्येक 155 लोगों की देखभाल के लिए एक डाॅक्टर है। क्यूबाजैसा छोटा सा देश 70 हजार से ज्यादा डाक्टर्स को प्रशिक्षित कर रहा है औरउन्हें दुनिया के हर हिस्से में मानवता की मदद के लिए भेज रहा है जबकिउससे कई गुना बड़ा अमेरिका करीब 64 से 68 हजार डाक्टरों का ही प्रशिक्षणकर पा रहा है।
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(क्रमश:)
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भाकपा के प्रदेशव्यापी आन्दोलन के कारण अस्पतालों के निजीकरण से पीछे हटी सरकार
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य सचिव डॉ. गिरीश ने कहा कि राज्य सरकार द्वारा अस्पतालों के निजीकरण, विद्युत वितरण व्यवस्था को विदेशी एवं निजी कम्पनियों को सौंपने शिक्षा के व्यवसायीकरण, उपजाऊ भूमि के अधिग्रहण को बढ़ावा देने एवं महंगाई को काबू करने में राज्य सरकार के स्तर से की जाने वाली कार्यवाही में उदासीनता बरतने जैसे ज्वलंत सवालों पर 1 जून से ही आन्दोलन चलाने का बिगुल फूंक दिया था। 1 जून को ही उन चारों जिलों में जहां अस्पतालों का निजीकरण किया जाना है भाकपा ने विरोध प्रदर्शन करते हुए राज्यपाल महोदय के नाम ज्ञापन जिलाधिकारियों को सौंपे थे। अन्य जिलों में भी उपर्युक्त सभी सवालों पर धरना, प्रदर्शनों, सभाओं, नुक्कड़ सभाओं तथा पद यात्राओं का सिलसिला जारी है जो 30 जून तक जारी रहेगा।
भाकपा राज्य सचिव ने अस्पतालों के निजीकरण के फैसले को रद्द करने पर गहरा संतोष जताया क्योंकि इन अस्पतालों के निजीकरण से गरीब जनता इलाज के अभाव में तड़प कर रह जाती और निजी अस्पतालों को जनता की और निरंकुश लूट का मौका मिलता।
लेकिन भाकपा ने राज्य ऊर्जा निगम के शनैः शनैः निजीकरण पर घोर आपत्ति दर्ज करायी है। डॉ. गिरीशने इस बात पर भी अफसोस जताया कि इसके लिये स्वयंः सरकार एवं उसके मंत्री जिम्मेदार रहे हैं। क्या वजह है कि एक साल के भीतर हरदुआगंज एवं परीक्षा में निर्माणधीन परियोजनाओं की चिमनियां ध्वस्त हो गई? क्या इसके लिये भारी भ्रष्टाचार और निर्माण कार्य की फ्रैंचाइजी निजी हाथों को सौंपने के सरकार के फैसले पर नहीं जाती? उन्होंने आरोप लगाया कि आगरा की विद्युत वितरण व्यवस्था निजी कंपनी ‘टोरंट’ को सौंपने के बाद वहां की विद्युत व्यवस्था तहस-नहस हो गयी है और सरकार वहां रामराज्य आने के थोथे दावे कर रही है।
भाकपा इन सभी सवालों पर आपना आन्दोलन जारी रखेगी और उसको और मजबूत बनाने पर विचार भी किया जायेगा, डॉ. गिरीश ने कहा है।
at 9:18 pm | 0 comments | प्रो. जे.के. सिंह
गोडसे और कसाव
मौत के घाट उतार दो उसको
उसने हत्या की है
नृशंस हत्या-आदमी की,
एक नहीं सैकड़ों
निर्दोष लोगों की
जान ली है उसने
जिन्हें वह जानता भी नहीं था
न थी उनसे उसकी कोई अदावत ही
कुछ लेना-देना भी नहीं था
उसका उनसे।
फिर भी बेरहमी से मार डाला उसने
सैकड़ों निर्दोष लोगों को
उसे फांसी दे दे
मौत के घाट उतार दो उसको।
लेकिन मैं सोच रहा हूं,
शायद
बेवजह ही सोच रहा हूं
और मेरा सोचना
शायद गलत भी हो
बेहद गलत।
शायद सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
के खिलाफ भी हो
मेरा सोचना
और मुझे कोई सजा भी सुना दें
वे लोग
लेकिन
सोच को रोक कौन सकता है?
शायद मैं भी नहीं।
इसलिए जो सोच है
उसे आप सब से कह देना चाहता हूं
उसकी सजा जो भी मिलेगी/देखूंगा!
हालांकि मैं चाहता हूँ
कि उस नर पिशाच को
हर हाल फांसी दे दी जाय।
उसने किया ही है
ऐसा अपराध,
देश-धर्म-प्राकृतिक न्याय, इन्सान
और इन्सानियत के खिलाफ
खुल्लम खुल्ला जूर्म किया है
उसने,
उसे फांसी दे दी जाय।
लेकिन क्या वह मरेगा
इस तरह सिर्फ फांसी देने से
(यही सोच रहा हूँ)
ऐसे ही एक फांसी दी गयी थी
गांधी के हत्यारे, गोडसे को
तो क्या वह मरा?
क्या गांधी की हत्या की मंशा वाले
और गांधी की हत्या पर मिठाई बाँट कर खाने वाले
गोडसे-से खतम हो गये।
नहीं!
अभी कुछ दिनों पूर्व गुजरात में
नराधम गोडसे ही तो दिखा था,
हाँ! उसे फांसी दे दी जाय
बल्कि फांसी से गर कोई बड़ी सजा हो
वह दी जाय।
लेकिन/इससे
न गोडसे खतम होगा
न कसाब ही मरेगा
क्येांकि ये कोई हांड-मांस वाले आदमी नहीं है,
ये प्रायोजित अभियान हैं
और हैं संस्थागत जेहाद के विकृत संस्करण
ये देश-धर्म-इन्सान और इन्सानियत के खिलाफ
नफरत की कोख से पैदा हुए हैं,
और एक ही पाठ पढ़े हैं
दूसरे धर्म और कौम के लोग दुश्मन होते हैं
उन्हें मिटा देना चाहिए
स्वधर्म की रक्षा के लिए।
एक से शिक्षण शिविर से सीखा है
उन्होंने लाठियां भाजना
छूरा, भाला, गंड़ासा
यहां तक कि
बम और बन्दूकें चलाना
आदमी और आदमीयत को
मारकर मिटा देने के लिए।
इन्हें खतम करने के लिए
बंद करना होगा
उन शाखा शिविरों को
जो रोज-ब-रोज बना रहे हैं
आदमी की जेहनियत को
आदमी के खिलाफ
- प्रो. जे.के. सिंह
at 9:16 pm | 0 comments |
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at 9:16 pm | 0 comments |
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at 9:12 pm | 0 comments |
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at 9:10 pm | 0 comments |
बंद्योपाध्याय आयोग की सिफारिशें लागू कराने हेतु आर-पार की लड़ाई
at 9:08 pm | 0 comments | शकील सिद्दीकी
पुस्तक समीक्षा - समय ने जिसे मुहाजिर बना दिया
बादशाह हुसैन रिजवी
प्रकाशक- सुनील साहित्य सदन, नई दिल्ली।
तेज होते औद्योगिकरण ने बाजार को विस्तार दिया है। फैलता हुआ बाजार उद्योगों के लिए संजीवनी साबित हो रहा है। बाजार के साथ टेक्नालॉजी के विसमयकारी विकास ने जीवन में बहुत कुछ बदल दिया है। हमारे आस-पास की दुनिया में बहुत सारी चीजें गायब हो रही हैं कई नई चीजों का प्रवेश हो रहा है। गतिशील भूमंडलीकरण के कारण यह परिवर्तन इतनी तेजी से घटित हो रहा है कि उसके प्रति सहज स्वीकार का भाव उसी अनुपात में नहीं बन पा रहा है। जबकि यह बहाव आमतौर पर जीवन की ऊपरी सतह पर ही घटित हो रहा है। बादशाह हुसैन रिजवी का पहला उपन्यास “मैं मुहाजिर नहीं हूं“ परिवर्तन की इस प्रक्रिया और इसकी परिणितयों का एक बिल्कुल अलग स्तर पर घटित होने का अनुभव देता है। हालांकि इसके शीर्षक से तो यह अनुमान निकलता है कि पाकिस्तान में कुछ दशकों पूर्व तेज हुआ मुहाजिर-गैर-मुहाजिर विवाद इसकी विषय वस्तु का आधार होगा। इस बहाने उपन्सास में इस विवाद की कुछ जीवन्त उत्तेजक छवियां होगी और उस वेदना के गहरे बिम्ब, जो वहां मुहाजिर कहे जाने वाले लोग बर्दाश्त करते आये हैं। जबकि “मैं मुहाजिर नहीं हूं“ एक ऐसे शख्स की त्रासद कथा है जो रहने वाला तो सिद्धार्थनगर के प्रसिद्ध कस्बा हल्लौर का है, परन्तु परिस्थितियों ने जिसे पाकिस्तानी बना दिया है। दरअसल शम्सुल हसन रिजवी रेलवे में मुलाजमत के कारण सन् 47 में उस इलाके में सेवारत थे जो विभाजन के बाद पाकिस्तान का हिस्सा बन गया। नौकरी छोड़कर हिन्दुस्तान आने की रिस्क वह नहीं ले सके। फलस्वरूप हिजरत करके पाकिस्तान न जाने के बावजूद वह मुहाजिर बन गये। वक्त के मारे ऐसे व्यक्ति के जीवन में स्मृमियों का क्या महत्व होता है, बताने की जरूरत नहीं। अतः कथानक का ताना बाना स्मृति, स्वपन और यर्थाथ के साथ ही अवचेतन में पड़ी बहुत सी चीजों, विश्वास और शंकाओं के बीच दिलचस्प संघर्ष से बुना हुआ है। कारणवश तरल भावुकता, धनी संवेदनात्मक अनुभूतियां तथा वृतांत की जीवन्तता के कई-कई क्षणों से पाठक रूबरू होता है।मुहर्रम उपन्यास के केन्द्र में हैं। शम्सुल हसन लम्बे अन्तराल के बाद अपनी बीमार बहन को देखने हल्लौर आये हुए हैं। ऐसे में यादों का ताजा हो उठना तथा जिये हुए को एक बार फिर से जी लेने की इच्छा का किसी गहरी बेचैनी की तरह कुलबुलाना एक दम स्वाभाविक है। मुहर्रम की स्मृतियां उन्हें सम्मोहक अतीत की ओर ले जाती हैं, कस्बे की पुरानी पहचानों तक जाने की अकुलाहट देती हैं, वर्तमान की कड़वी सच्चाइयों से दो चार करती हैं तथा भविष्य की आशंकाओं से व्याकुल। इस प्रक्रिया में मुहर्रम तथा ग्रामीण जीवन के कई प्रसंग अपनी समूची धड़कनों के साथ सजीव हो उठते हैं। एक सांस्कृतिक प्रक्रिया भाषा और साहित्य भी जिसके प्रभाव से बचे नहीं रह सके, जिसकी सीमाएं धर्मजाति भूगोल के पार जाती हैं, कैसे कई इलाको-व्यक्तियों के जीवन का संचालक तत्व बना हुआ है, कैसे एक समुचे क्षेत्र के अर्थशास्त्र की वह केन्द्रीय धुरी है, शत्रुताओं से लेकर मित्रताओं तक, वैवाहिक सम्बन्धों से लेकर शिथिल पड़ रहे पारिवारिक रिश्तों के पुनर्जीवन तक, पुराने मूल्यों से लेकर अपनी शिनाख्त को बचाये रखने के संघर्ष तक किस बारीकी से उसके तार जुड़े हुए हैं, ग़म मनाने के दस दिनों का प्रभावपूर्ण बयान इन सबको समेटते हुए हमारे समय के जरूरी विमर्शों से भी टकराता है। छोटे-छोटे विवरण बड़े यथार्थ के उद्घाटन में प्रामणिक साक्ष्य की भूमिका निबाहते हैं। बहुत से पाठकों के लिए वे क्षण गहरे कष्ट से गुजरने जैसे हो सकते हैं, जब वो मर्सिया नोहा जैसे शोक गीतों को टेप-डेक, वी.सी.डी. के तेज वाल्यूम की चपेट में आता देखते हैं और पाते हैं कि अरब के पैसे व आपसी प्रतिस्पर्द्धा ने आस्था और विश्वास का भी व्यवसायीकरण कर दिया है।इस क्रम में उपन्यासकार हल्लौर कस्बे एवम् मुहर्रम से जुड़े कई विस्मृत पक्षों को भी उद्घाटित करता चलता है। जैसे प्रेमचंद के “प्रेम पच्चीसी“ का प्रथम प्रकाशन इसी कस्बे के प्रेस से हुआ था, या शोक प्रकट करने की वो गायन शैलियां, जैसे दाहा-झर्रा इत्यादि अथवा कुछ खास रस्मे-रिवायतें जिनका प्रचलन कम होता जा रहा है या तो विलुप्त सी हो गई हैं। वह पुस्तकालय भी जो कभी कस्बे की शान हुआ करता था। हां जीवन का साझापन अब भी बचा हुआ है। बावजूद इसके यह उपन्यास की सीमा नहीं है, वह उन खतरों की ओर संकेत करता है कि कैसे विश्वास और आस्थाएं कर्मकाण्ड और आडम्बर का रूप ग्रहण कर रही हैं, परम्पराएं रूढ़ियां बन गई हैं जो अन्ततः कुण्ठित युवा पीढ़ी के लिए भटकाव का कारण बनती है। इस सजगता के चलते ही उपन्यासकार भारतीय मुसलमानों में व्याप्त खास तरह के आत्मघाती नस्ली जातिवादी काम्पलेक्स पर चोट करने का जोखिम उठाता है। स्मृतियों का समकालीन यथार्थ से टकराव उस ताप से विचलित करता है, कोपेनहेगन के विराट सम्मेलन के बाद भी जिसमें फिलहालन कमी आने की संभावना नहीं है। अमरीका का खलनायकी चेहरा यहां आकार लेता दिखता है। मजबूती से गठा हुआ कथ्य भाषा की सादगी के बावजूद पाठक को आरंभ से अंत तक बांधे रखने में समर्थ है।
- शकील सिद्दीकी
at 9:06 pm | 0 comments | विश्वजीत सेन
माओवादियों के वकील, कुछ तो बोलें
- विश्वजीत सेन
at 9:05 pm | 0 comments |
दादरी के किसानों द्वारा मुआवजा वापस करने की अवधि बढ़ाने की भाकपा द्वारा मांग
at 9:03 pm | 0 comments | डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारे सैकड़ों भोपाल
- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
at 9:01 pm | 0 comments | कुमार प्रशांत
प्रधानमंत्री के दस दिन
- कुमार प्रशांत
at 9:00 pm | 0 comments | सत्य नारायण ठाकुर
दफन हो गया इंसाफ: सर्वोच्च न्यायालय सर्वांगीण परख करे
- सत्य नारायण ठाकुर
at 9:00 pm | 0 comments | सत्य नारायण ठाकुर
दफन हो गया इंसाफ: सर्वोच्च न्यायालय सर्वांगीण परख करे
- सत्य नारायण ठाकुर
at 8:56 pm | 0 comments | आर.एस. यादव
अमरीका के दोहरे मापदंड
- आर.एस. यादव
at 8:53 pm | 0 comments | फिडेल कास्ट्रो रूज
साम्राज्य एवं युद्व
- फिडेल कास्ट्रो रूज
at 8:52 pm | 0 comments |
दूसरे देशों में अमरीका की बढ़ती दखलंदाजी
at 8:50 pm | 0 comments | सत्य नारायण ठाकुर
देश की जरूरत है एक कृषि - आधारित वैकल्पिक आर्थिक नीति
- सत्य नारायण ठाकुर
at 8:49 pm | 0 comments | डा. गिरीश मिश्र
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