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शुक्रवार, 25 जून 2010
at 9:01 pm | 0 comments | कुमार प्रशांत
प्रधानमंत्री के दस दिन
भोपाल गैस कांड एक ऐसी कहानी है जिसमें हम एक पतनशील समाज की सारी कुरूपताएं एक साथ देख सकते हैं। इसमें एक व्यापारिक कंपनी की अमानवीयता और गोरी चमड़ी की अहंमन्यता, चालबाज राजनीतिकों की बेशर्म कारगुजारियां, अमेरिकी घुड़की से सहमे भारतीय सत्ता-वर्ग की चरित्र, न्याय की तरफ से आंखे मूंदे, लकीर की फकीर बनी हमारी न्याय व्यवस्था और सामाजिक स्तर पर हमारी पतनशीलता के अविश्वसनीय नमूने मिलेंगे। इसमें सामान्य लोगों की असहायता और उनके असामान्य जीवट की कहानी भी मिलेगी।लेकिन अभी इन सबमें जाने का न तो वक्त है और न मनःस्थिति है। अभी तो एक ही बात है जिसकी तरफ हम सबका ध्यान जाना चाहिए और वह यह कि सात जून को भोपाल की स्थानीय अदालत ने भोपाल गैस कांड के आठ आरोपियों को जिस तरह जमानत दे दी, उसका आधार क्या है, और उसके बाद से आज तक इसके पीछे की कहानियां जिस शक्ल में बाहर आ रही है उनका जवाब किसके पास है। सबसे संवेदनशील सवाल यह बनाया जा रहा है कि यूनियन कार्बाइड के प्रमुख वारेन एंडरसन को देश से निकल भागने की गली कैसे मिली और किसके इशारे पर? इस सवाल की लाश पर सत्ता के गिद्ध तुरंत उतर आए और बगैर यह विवेक रखे कि इसमें कहीं हम भी शरीक हैं, एक दूसरे पर तोहमत लगाने का खेल शुरू हो गया। सत्तालोलुपता कितनी संवेदनहीन और राष्ट्रहित-घाती हो सकती है, इसे देखना और पचाना बहुत तकलीफदेह है।कांग्रेसियों की सबसे बड़ी कोशिश यह चल रही है कि भोपाल कांड का ठीकरा कहीं गांधी परिवार के सिर न फूटे। इसलिए वे यह बात बार-बार दोहरा रहे हैं कि एंडरसन के भारत से बाहर जाने की कोई जानकारी तब केप्रधानमंत्री राजीव गांधी को नहीं थी। अगर यह सच है तब कोई भी यह पूछेगा कि क्या राजीव गांधी प्रधानमंत्री बनने लायक थे? कैलेंडर देखें तो तीन दिसंबर 1984 को जहरीली मिक गैस का तांडव हुआ और हजारों लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह दम तोड़ गए। भोपाल शहर किसी भयावह आतंक से घिर गया।अगले दिन चार दिसंबर को एंडरसन समेत कंपनी से जुड़े आठ लोगों की गिरफ्तारी हुई। दो हजार डॉलर के मामूली से मुचलके पर एंडरसन की उसी दिन रिहाई भी हो गई। इन दो तारीखों के बीच देश में ही नहीं सारी दुनिया में इस हादसे की खबर बिजली की तरह दौड़ गई। तो क्या देश के प्रधानमंत्री को उस घटना का पता नहीं चला और वे उसकी भयावहता का अनुमान नहीं कर सके? और क्या वे यह नहीं समझ सके कि देश के प्रधामंत्री के नाते उनका दायित्व बनता है कि इस हादसे के जिम्मेवार लोगों पर निगाह रखी जाए? उस वक्त के गृहमंत्री और उद्योग मंत्री की तो यह पक्की जिम्मेदारी थी कि उनकी नींद हराम हो जाती और वे अपने प्रधानमंत्री के साथ बैठ कर यह सुनिश्चित करते कि अपराध और अपराधियों के बारे में अभी हमें क्या रुख लेना है? हम जानना चाहते हैं कि क्या ऐसी कोई कार्रवाई हुई? हुई तो कब और क्या? इसका जवाब देने के बजाय मनीष तिवारी जैसों की बेसिर-पैर की बकवास हमें सुनाई जा रही है जो परिवार और पार्टी का भला करने के जगह उसका बुरा ही कर रही है। चार दिसंबर को एंडरसन की रिहाई हुई और आठ दिसंबर को वे दिल्ली होते हुए और राष्ट्रपति आदि से मिलते हुए, भारत को उसकी औकात बताते हुए अमेरिका चले गए।चार से आठ दिसंबर के बीच के पांच दिनों में भोपाल की सबसे बुरी स्थिति थी- जैसी न कभी देखी, न सुनी। क्या तब भी राजीव गांधी को पता नहीं चला कि इस मामले में कहां क्या हो रहा है? तब मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस की ही सरकार थी और उनके खास विश्वसनीय अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री की गद्दी पर विराजमान थे। क्या प्रधानमंत्री- मुख्यमंत्री ने इस भयानक हादसे के बारे में एक बार फोन पर बात करने की जरुरत भी नहीं समझी?कांग्रेस की तरफ से पहली हास्यास्पद कोशिश राजीव गांधी को इस मामले से अलग करने की हुई। फिर दूसरा दांव यह चला गया कि ठीकरा किसी और के सिर फोड़ा जाए। सबको लगा कि ऐसा सिर सिर्फ अर्जुन सिंह का है। लगना ठीक भी था, क्योंकि उनकी मानसिक-शारीरिक हालत अच्छी नहीं है, इसलिए उनका सिर भी अच्छी हालत में नहीं होगा, उनकी राजनीतिक संभावनाएं भी समाप्त हो चुकी हैं। इसलिए उन्हें निशाना बना कर बात को कहीं और मोड़ने की कोशिशें सफल होंगी। कांग्रेस के कई लोगों को लगा कि परिवार की नजर में चढ़ने का यही मौका। लेकिन राजीव गांधी के तत्कालीन सचिव पीसी अलेक्जेंडर के सीधे बयान और भोपाल के शासन-प्रशासन से जुड़े बड़ेआधिकारियों के बयानों से ऐसी तस्वीर बनी कि लगा कि अर्जुन सिंह को फंसाने की कोशिश ज्यादा की गई तो कहीं भी वे भड़क कर कुछ बयान न दे बैठें। इसलिए फिर बात व्यक्तियों से हटा कर व्यवस्था की तरफ लाई गई और कहा गया कि हमारी प्रशासकीय और न्याय व्यवस्था ऐसी सुस्त है कि जल्दी कोई निर्णय संभव नहीं हो पाता है।गरज यह कि सारा दोष तो लोकतंत्र का है जो गति से काम नहीं करता है। लेकिन भाई लोगों, तीन दिसंबर को हादसा हुआ और चार दिसंबर को गिरफ्तारी हो गई, राजनीतिक हस्तक्षेप से उसी दिन एंडरसन की रिहाई भी हो गई और आठ दिसंबर को वे, राजकीय विमान से भारत की राजधानी होते हुए, सबको हाय-हैलो कहते हुए अमेरिका चले गए, तो इससे अधिक तेजी क्या होती है? सवाल है कि यह तेजी कैसे आई? जवाब देते हैं 1984 के अर्जुन सिंह, और वह भी हादसे के बाद, यूनियन कार्बाइड के कारखाने को पार्श्व में लेते हुए, सिर पर कारखाने वालों का लोहे का टोप पहने हुए। वे कहते हैं कि हमें किसी को परेशान नहीं करना है... किसी को नाहक मुसीबत में नहीं डालना है... इसलिए हमने जमानत का फैसला लिया और एंडरसन से यह वादा भी लिया है कि जब सारे अपराध तय हो जाएंगे तब वे मुकदमे में सहयोग करने उपस्थित हो जाएंगे।गौर करें हम कि यह बात विपक्ष नहीं कह रहा है, तब के कंाग्रेसी मुख्यमंत्री और राजीव गांधी के खासमखास अर्जुन सिंह कह रहे हैं। मतलब कि एंडरसन को रिहा करने का फैसला खासे विचार-विमर्श के बाद हुआ था। किनके बीच विचार-विमर्श हुआ? एक तो अर्जुन सिंह थे, और दूसरे, पीसी अलेक्जंेडर की आंखों देखी के मुताबिक राजीव गांधी थे। अलेक्जेंडर कहते हैं कि भोपाल कांड पर विचार-विमर्श करने आए वरिष्ठ मंत्रियों के चले जाने के बाद, जब वे प्रधानमंत्री से विदा होकर चले, तब प्रधानमंत्री के साथ सिर्फ अर्जुन सिंह बैठे थे। मतलब विचार-विमर्श वहां हुआ और सबसे ऊपरी स्तर पर हुआ, और फिर कहीं जाकर, बकौल तब के जिला कलेक्टर मोती सिंह, राज्य के मुख्य सचिव ब्रह्मस्वरूप ने उन्हें और पुलिस अधीक्षक को बुला कर एंडरसन को रिहा करने का आदेश दिया।हैरानी इस बात की है कि भोपाल जैसे कांड के बाद कोई मुख्यमंत्री किस अधिकार से यह तय करता है कि उसे किसी अपराधी को परेशान नहीं करना है और उसे रिहा कर देना है? पहला काम पुलिस का है और दूसरा काम न्यायालय का है। क्या मुख्यमंत्री को किसी भी परिस्थिति में इन दोनों के काम खुद करने की इजाजत संविधान देता है?भोपाल की स्थानीय अदालत का हमें आभारी होना चाहिए कि उसने अपने एक ही फैसले से हमारे राजनेताओं का वह चेहरा उजागर कर दिया है जो खौफनाक भी है और अपराधग्रस्त भी। व्यवस्था की खामियों का सवाल जो उठाते हैं वे इस चालाकी में हैं कि शास्त्रीय बहस में उलझा कर मामले को दफना दिया जाए। लेकिन इस सवाल का जवाब क्या है कि यह जो भी व्यवस्था है, अच्छी या बुरी, आपकी ही बनाई हुई है। बुरी है तो इसे अच्छा बनाने के लिए और अच्छी है तो इसे और भी अच्छा बनाने के लिए हम आपको भोपाल और दिल्ली भेजते हैं। भोपाल कांड के बाद से आज तक वहां आठ सरकारें बन चुकी हैं। किसी ने किसी दूसरी से अलग किसी नजरिए से इस मामले पर विचार क्यों नहीं किया? सारे राजनेताओं के पास क्या एक-सा ही चश्मा होता है जिससे सत्ता की कुर्सी के अलावा दूसरा कुछ दिखाई नहीं देता है? और फिर यह भी कि जब आपके हित में होता है तब यही व्यवस्था तेजी से काम करने लगती है, और जब आपके हित में नहीं होता है तब मरे बैल सी बन जाती है जिसे जितना भी हुलकारो टस से मस नहीं होती।आप देखिए कि दिसंबर 1984 में हुई दुर्घटना के लिए मात्र दो माह में, फरवरी 1985 में भारत सरकार अमेरिकी अदालत में यूनियन कार्बाइड के खिलाफ 3.3 अरब डॉलर के हर्जाने का दावा करती है। इसे असामान्य तेजी से काम करना कहते हैं। लेकिन इसके बाद क्या? ऐसा लगता है जैसे यह सारी कसरत सिर्फ इसलिए थी कि कैसे भी गेंद एक बार अपने पाले में कर ली जाए, फिर खेल भी हमारा और नियम भी हमारे। फरवरी 85 से फरवरी 89 यानी पूरे चार साल तक मामले को लटका कर रखा गया, ताकि इसकी जान निकल जाए। इस बीच भोपाल की अदालत एंडरसन को अदालत में हाजिर होने का समन-दर-समन भेजती रही, लेकिन कोई जवाब नहीं आया। कोई पता करे कि क्या इस बीच में कभी अर्जुन सिंह ने अपने खास दोस्त, एंडरसन को खत लिखा कि दोस्त, अदालत में हाजिर हो जाओ, क्योंकि यही अपना समझौता था? चार साल पर्दे के पीछे जो भी नाटक चला हो, हमें फरवरी 1989 में अचानक बताया गया कि यूनियन कार्बाइड और भारत सरकार के बीच अदालत के बाहर समझौता हो गया है और भोपाल के लोगों को चार करोड़ सत्तर लाख डॉलर का मुआवजा मिलेगा। किसी ने नहीं बताया कि यह समझौता 3.3 अरब डॉलर की मांग से गिर कर चार करोड़ सत्तर लाख डॉलर कैसे हो गया?यहीं पर अदालतों और सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका की गहरी जांच जरूरी है। अब हमारे पूर्व मुख्यन्यायाधीश जेएस वर्मा अखबार में लिख रहे हैं कि तब के मुख्य न्यायाधीश अहमदी की पीठ ने मामले को समझने में और संविधान की व्याख्या में भी चूक की। माननीय वर्मा साहब को इतने वर्षों बाद इसका इल्म हुआ। उस रोज मरे और तब से रोज ही मारे जाते भोपाल के लोगों की तरफ अपनी जिम्मेवारी का उन्हें कभी एहसास नहीं हुआ? न्याय की देवी आंखों पर पट्टी बांधे रहती है, यह बहुत पुराना प्रतीक हो गया। नया प्रतीक तो यही है, और यही हो सकता है कि वह आंख-कान-मुंह खोल कर ही नहीं, बल्कि संवेदना से लबालब भरी अचल नहीं, चल देवी है जो किसी के पुकारने, चीखने या दम तोड़ने का इंतजार नहीं करती, अपनी जिम्मेवारी मान कर दौड़ पड़ती है। अपने संवैधानिक दायरे में सक्रिय न्यायपालिका ही वर्तमान चुनौतियों का मुकाबला कर सकती है।पता नहीं मनमोहन सिंह के लोग दस दिनों में क्या करेंगे। लेकिन अगर कुछ करने लायक है तो सिर्फ इतना कि यह तय किया जाए कि उस दिन के हादसे के लिए कौन जिम्मेवार था, और उसके बाद की सारी विफलता का जिम्मेवार कौन है। मुआवजे की रकम और उसकी अदायगी, उसमें हो रही लूट आदि का सवाल उठाने का यह वक्त नहीं है। पहले जिम्मेवारी तय हो जाए तो इन सारे सवालों के जवाब उसके ही पेट से बाहर आएंगे।
- कुमार प्रशांत
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