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शुक्रवार, 25 जून 2010

नगर-निकायों के चुनावों का अराजनैतिककरण

मायावती सरकार ने हाल ही में एक ऐसा कार्य किया है जिससे यह एक बार फिर साबित हुआ कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का लोकतंत्र पर और लोकतांत्रिक परम्पराओं पर कोई विश्वास एवम् आस्था नहीं है। मायावती सरकार ने गुपचुप तरीके से नगर निकायों के चुनावों में राजनीतिक दलों की भागीदारी को एक तरह से प्रतिबंधित कर दिया है।पिछले दशक की शुरूआत में ससंद ने 74वें संविधान संशोधन द्वारा सत्ता का विकेन्द्रीकरण करते हुए विकास योजनाओं एवम् गरीबी उन्मूलन तथा समाज-कल्याण का कार्य पंचायतों तथा नगर निकायों को सौंपने का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। फलतः पंचायतें और नगर-निकाय किसी राज्य सरकार के मोहताज़ नहीं रह गये बल्कि वे अब संवैधानिक संस्थायें बन चुके हैं।तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य निर्वाचन आयोग (पंचायती राज एवं नगर निकाय) का गठन कर दिया था जिसने राजनीतिक दलों के पंजीकरण एवम् निर्वाचन प्रतीक (आरक्षण एवम् आबंटन) आदेश 1998 जारी किया और नए ढांचे में नगर निकायों के चुनावों में राजनीतिक दलों की सहभागिता की रूपरेखा तैयार की। तब से ये चुनाव राजनीतिक दलों के चिन्ह पर हो रहे थे।शहरों में जनाधार न होने के कारण नगर निकायों के पिछले निर्वाचन में बसपा ने भाग नहीं लिया था और चुनाव परिणामों के आने पर निर्दलीय निर्वाचित तमाम प्रत्याशियों को बसपाई घोषित कर दिया था।मायावती सन् 2012 में होने वाले विधानसभा चुनावों के प्रति बहुत सशंकित हैं। डुमरियागंज विधान सभा उपचुनाव के बाद उन्होंने घोषणा कर दी कि अगले विधान-सभा आम चुनावों तक बसपा किसी उप चुनाव में भाग नहीं लेगी क्योंकि उन्हें आशंका है कि उपचुनावों में पराजय आम चुनावों के परिणामों पर प्रतिकूल असर डाल सकती है।बसपा का शहरों में जनाधार सीमित है और बसपा अधिकतर नगर निकायों में चुनाव जीतने की स्थिति में नहीं है। इस वर्ष के अन्त में होने वाले इन चुनावों के परिणामों का असर 2012 के विधानसभा चुनावों के माहौल पर पड़ सकता है। इसीलिए मायावती ने गुपचुप तरीके से इन चुनावों में राजनीतिक दलों की सहभागिता को ही समाप्त करने का फैसला कर लिया।इस तरह के किसी दूरगामी बदलाव की स्थिति में लोकतांत्रिक परम्परा यह रही है कि बदलाव की पूर्व सूचना व्यापक रूप से प्रचारित की जाती जिसमें गजट की प्रति सरकार द्वारा राजनीतिक दलों के कार्यालयों को भेजा जाना शामिल है। अचानक 10 जून 2010 को समाचार-पत्रों से आम जनता को ज्ञात होता है कि प्रदेश सरकार नगर-निकायों के निर्वाचन की नई नियमावली बना रही है जिस पर आपत्तियों की अंतिम तिथि 11 जून है। इसी नई नियमावली द्वारा सरकार पार्टी चिन्ह पर निकाय-चुनाव न करवाने तथा सरकार द्वारा नामित सदस्यों की संख्या बढ़ाने जा रही है। आनन-फानन में भाकपा सहित राजनीतिक दलों ने सरकार को अपनी आपत्तियां प्रेषित कीं। वास्तव में सरकार कौन-सी नियमावली बना रही है और उसमें क्या-क्या है, यह ज्ञात न होने के कारण तथ्यों पर आपत्तियां प्रस्तुत करना किसी के लिए संभव नहीं था। भाकपा ने अपनी आपत्ति में उक्त दोनों प्रविधानों को अलोकतांत्रिक तथा अपनाई गई प्रक्रिया को संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल तथा लोकतांत्रिक परम्पराओं के खिलाफ होने के कारण अस्वीकार्य बताया। मंत्रिमंडल ने 18 जून को अपनी बैठक में प्राप्त आठों आपत्तियों कोे गुणदोष पर विचार किए बगैर निरस्त करते हुए प्रस्तावित नियमावली की स्वीकृत कर दिया। आज तक किसी को नहीं मालूम कि इस नियमावली में और क्या-क्या लिख दिया गया है।ज्ञातव्य हो कि देश के 4 राज्यों को छोड़कर सारे राज्यों में नगर-निकायों के चुनाव राजनीतिक दलों के चुनाव-चिन्ह पर लड़े जाते हैं। मायावती सरकार का यह रवैया घोर अलोकतांत्रिक है, संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। हमें व्यापक माहौल बना कर इसके खिलाफ संघर्ष करना होगा। अच्छा तो यह होगा कि त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव भी राजनैतिक दलों के चिन्ह पर आयोजित किये जायें।
- प्रदीप तिवारी

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