देखते-देखते चार साल बीत गए। सारी तकनीक, पूंजी और सूझ झोंक देने के बाद भी दुनिया एक मंदी से निकल नहीं सकी और दूसरी दस्तक दे रही है। 2008 में पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों और राजनीतिज्ञों में मंदी के कारण कार्ल मार्क्स की अमर कृति ‘पूंजी’ में इंटरेस्ट पैदा हो गया था। इन सबने ‘पूंजी’ को खूब पढ़ा। मार्क्स ने पूंजीवाद के संकटों में इस मंदी का न केवल जिक्र किया बल्कि उसके कारणों पर भी प्रकाश डाला है। लेकिन उन्होंने इन संकटों से निकलने का एकमात्र जो रास्ता बताया है, वह पूंजीवाद को रास कैसे आ सकता है। मार्क्स ने इन संकटों के जो कारण बताये, उन कारणों को समाप्त करना भी पूंजीवाद को रास नहीं आ सकता। परिणाम सामने है। पूरा विश्व डबल डिप के भंवर में फंसने की ओर अग्रसर है।
स्पेन की हकीकत सबको मालूम थी। यूरोजोन की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था स्पेन भी दरक रही है। वहां रियर स्टेल का बुलबुला फूट गया है। कर्ज देने वाले बैंक डूब रहे हैं। तमाम बड़े शहर स्पेन सरकार कर बोझा बन गये हैं। इन शहरों का खर्चा चलाने तक का पैसा सरकार के पास नहीं है। नए हवाई अड्डे, शापिंग काम्पलेक्स और बीस लाख के करीब मकान खाली पड़े हैं। यूरोपीय केन्द्रीय बैंक से स्पेन के बैंकों को जो आर्थिक मदद मिली थी, वह भी गले में फांस बन गई है। अगर स्पेन अपने बैंकों को उबारने का प्रयास करता है तो खुद डूब जाएगा क्योंकि देश पर 807 अरब यूरो का कर्जा है, जो उसके जीडीपी का 74 प्रतिशत है। युवाओं में 52 प्रतिशत की बेरोजगारी दर वाला स्पेन बीते सप्ताह मंदी में चला गया है।
जी-20 की कोशिशें, नेताओं की कवायद, बैंकों का सस्ता कर्ज कुछ भी काम नहीं आया। यूरोप में डबल डिप यानी दोहरी मंदी के प्रमाण चीखने लगे हैं। एक मंदी ने चार साल में जितना मारा है, उसका दुबारा आना कितना मारक होगा? ब्रिटेन 1975 के बाद पहली बार दोहरी मंदी में गया है। स्पेन की ग्रोथ में लगातार दूसरी गिरावट हुई है। ग्रीस की ग्रोथ करीब 4.4 प्रतिशत घटेगी। जर्मनी और फ्रांस में भी गिरावट तय है। यूरोपीय आयोग ने दो टूक कहा कि संप्रभु कर्ज, कमजोर वित्तीय बाजार और उत्पादन में कमी का दुष्चक्र टूट नहीं पा रहा है। मंदी लगातार जटिल और लंबी होती चली जा रही है। वर्ष 2008 की शुरूआत में सरकारों ने बाजार में पैसा झोंका, ताकि मांग पैदा हो सके। लेकिन अब यह भी मुमकिन नहीं है।
इस मंदी का इस बार भारत पर कितना प्रभाव होगा, कहा नहीं जा सकता परन्तु इतना निश्चित है कि भारत का भी इस बार बचना लगभग असंभव सा दिख रहा है। ऐसी परिस्थितियों में हमें अपने वैचारिक संघर्ष को बड़ी तेजी से धार देनी होगी। वैचारिक संघर्ष के लिए श्रम के साथ-साथ पैसा भी चाहिए और इसकी व्यवस्था भी हमें खुद ही करनी होगी।
- प्रदीप तिवारी