भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

About The Author

Communist Party of India, U.P. State Council

Get The Latest News

Sign up to receive latest news

फ़ॉलोअर

शनिवार, 8 जून 2013

सूचना आयोग का राजनीति दलों के बारे में फैसला

कानून के जानकारों के लिए केन्द्र सूचना आयोग ने सूचना के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत सभी राजनीतिक दलों को सार्वजनिक अधिकरण घोषित करने का फैसला आश्चर्यचकित करने वाला है। आयोग ने अपने फैसले के जो भी आधार गिनाये हैं, उनका स्वयं का कोई कानूनी आधार नहीं है। निश्चित रूप से फैसले के खिलाफ न्यायपालिका में कई अपीलें प्रस्तुत की जायेंगी और कानून के विभिन्न पहलूओं पर विचार-विमर्श होगा, मीडिया खुद इस मुद्दे का ट्रायल शुरू कर पूरे देश में एक जन उभार पैदा करने की कोशिश करेगा। इन सबके परिणामों से इतर लोकतंत्र के वर्तमान हालातों में कुछ मुद्दे हैं, जिन पर गंभीरता से चिन्तन की जरूरत है।
वैसे केन्द्रीय सूचना आयोग की दलीलें तकनीकी और खोखली हैं। आयकर में छूट, पार्टी कार्यालयों के निर्माण के लिए भूमि का आबंटन, वोटर लिस्टों का दिया जाना उन्हें केन्द्र सरकार द्वारा फंडेड संगठन की श्रेणी में नहीं लाता है। जन प्रतिनिधित्व कानून कंे प्रभावी क्रियान्वयन के लिए लोकतंत्र में राजनीतिक तंत्र के प्रभावी रूप से कार्यशील होने के लिए उक्त सुविधायें सरकार द्वारा राजनीतिक दलों को दिया जाना लाजमी है। इसी देश में ऐसी तमाम कंपनियां और संगठन हैं, जिन्हें सरकार तमाम सुविधायें मुहैया कराती है। परन्तु वे सूचना के अधिकार कानून के बाहर हैं। केन्द्रीय सूचना आयोग ने हास्यास्पद रूप से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को नई दिल्ली में 78 करोड़ की भूमि निःशुल्क दिये जाने की बात की है। ज्ञात होना चाहिए कि 4 दशक पहले कोटला रोड पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को अजय भवन के निर्माण के लिए जो भूमि का छोटा सा टुकड़ा दिया गया था, उसकी कीमत चन्द लाख रूपये थी। उस वक्त वह जगह वीरान थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सरकार को भूमि की कीमत अदा करना चाहती थी परन्तु तत्कालीन सरकार ने कीमत लेने से मना कर दिया था।
राजनीतिक दल भारतीय लोकतंत्र की रक्त-मज्जा हैं। राजनीतिक दलों से स्वस्थ लोकतंत्र में अपेक्षा होती है कि वे लोकतंत्र को होने वाले तमाम बाहरी संक्रमणों (बीमारियों) से रक्षा करने की ताकत (एंटी बॉडीज) पैदा करें  परन्तु आज का कटु सत्य यह है कि हमारे वर्तमान पूंजीवादी राजनीतिक तंत्र ने भ्रष्टाचार रूपी एक ऐसी ताकत यानी एंटी बॉडीज का निर्माण कर दिया है जो भारतीय लोकतंत्र को ही चट किये जा रहा है। लाजिमी है कि एक जागरूक लोकतंत्र की जागरूक जनता में इस पूरी व्यवस्था के खिलाफ एक गुस्सा हो। यह गुस्सा जायज है और हम इसके खिलाफ कुछ भी कहने नहीं जा रहे हैं।
ऐसे माहौल में अगर जनता राजनीतिक दलों की आमदनी के श्रोतों तथा खर्चों के बारे में जानना चाहती है, तो उसमें कुछ भी बुरा नहीं है। कुछ व्यक्ति विशेष ऐसा करते हुए, केन्द्रीय सूचना आयोग तक पहुंच गये तो इसका दोष उन्हें भी नहीं दिया जा सकता। हमारे विचार से उनकी इच्छा इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं थी। सरकार, राजनैतिक दलों और भारतीय संसद का यह उत्तरदायित्व बनता है कि वे इस जन भावना का आदर करते हुए इस बारे में एक प्रायोगिक एवं लागू किये जा सकने वाली संहिता के बारे में गंभीर मंथन करें। इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। स्वैच्छिक संगठन (वालेंटरी अर्गनाईजेशन) होने के बावजूद उन्हें अपनी आमदनी एवं खर्चों को पारदर्शी बनाना चाहिए। ‘जन लोकपाल आन्दोलन’ के गर्भ से हाल ही में पैदा हुई आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल का यह दावा कि उनकी पार्टी ने एक रूपया चंदा देने वाले तक का नाम वेब साइट पर डाल दिया है, एक लफ्फाजी है, एक गैर जिम्मेदाराना बयान है, जिस पर चर्चा नहीं की जानी चाहिए। पूरे हिन्दुस्तान में फैले संजाल वाली किसी भी पार्टी के लिए ऐसा कर पाना बिलकुल असम्भव है। इसकी कामना भी लोगों को नहीं करनी चाहिए।
जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के अंतर्गत अगर राजनीतिक दल फार्म 24 पर बीस हजार रूपये से ज्यादा का धन जमा करने वालों के नाम निर्धारित अवधि में भारत निर्वाचन आयोग को प्रस्तुत नहीं करते हैं तो आय कर अधिनियम के अंतर्गत उन्हें अपनी आमदनी पर आयकर से मिलने वाली छूट नहीं मिलेगी। थोड़े दिनों पहले वित्तमंत्री ने इस सीमा को समाप्त कर सभी चंदा देने वालों का नाम इसमें घोषित करने की बात की थी और कहा था कि चुनाव आयोग की संस्तुति पर ही ऐसा किया जा सकता है। चुनाव आयोग ने जवाब दिया था कि यह कार्यपालिका का कार्य है। परन्तु इसे घटा कर हजार-दो हजार करना हास्यास्पद ही कहा जायेगा। इस सम्बंध में भारत निर्वाचन आयोग द्वारा 15 जुलाई 1998 और 5 जुलाई 2004 को सरकार को भेजे गये सुक्षाव स्पष्ट हैं। आयोग ने राजनीतिक दलों के लिए अपने खातों का अंकेक्षण अनिवार्य करने तथा उससे जनता को सुलभ कराने के बावत कानून बनाये जाने की जरूरत रेखांकित की थी। इस पर राजनीतिक दलों में बहस हो सकती है।
सन 2009 में आयकर अधिनियम में धारा 80 जीजीबी और 80 जीजीसी जोड़ कर कंपनियों एवं व्यक्तियों द्वारा राजनीतिक दलों को दिये जाने वाले चन्दे पर आयकर माफ कर दिया गया था। यह कानून जनता के अधिसंख्यक लोगों को मालूम नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह इस बारे में जनता की जागरूकता के लिए विज्ञापन जारी करे। निश्चित रूप से आयकर से छूट प्राप्त करने के लिए चन्दा देने वाले लोग रसीद को आयकर विभाग में प्रस्तुत करेंगे और आयकर विभाग के केन्द्रीय प्रॉसेसिंग सेन्टर को स्वतः इसका पूरा डाटा मिल जायेगा।
परन्तु लोकतंत्र को और अधिक मजबूत करने के लिए राजनीतिक दलों को अपनी बैठकों में हुई बहस की जानकारी को गोपनीय रखने की अनुमति दी जानी चाहिए। बैठक के बाद हर राजनैतिक दल बैठक के फैसलों को प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से सार्वजनिक करता है। सामान्य व्यक्तियों को राजनीतिक दलों के अंदरूनी मसलों में नाक घुसेड़ने की आदत नहीं है। परन्तु सूचना आयोग ने जो करने की कोशिश की है, वह निश्चित रूप से राजनीतिक तंत्र में दलों में तोड़-फोड़ करने के लिए दूसरे सक्षम दलों को और सक्षम करने जैसा है। एक स्वस्थ लोकतंत्र में इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। ऐसा उचित नहीं होगा। केन्द्रीय सूचना आयोग को अपने फैसले पर स्वयं पुनर्विचार करना चाहिए।
- प्रदीप तिवारी
»»  read more
Share |

लोकप्रिय पोस्ट

कुल पेज दृश्य