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शुक्रवार, 27 मई 2011

....... मेरे मरने के बाद - लोहिया



डा. राम मनोहर लोहिया की जन्मशती के मौके पर अखबारों में प्रकाशित एक लेख का शीर्षक है - ”मुझे याद करेंगे लोग मेरे मरने के बाद“। मरने के बाद मनुष्य की अच्छाइयों को याद करने की प्राचीन भारतीय परम्परा है। इसलिये स्वाभाविक ही लोहिया ने ऐसी आशा की होगी। महाभारत युद्ध की विनाश लीला का सेनापति भीष्म ने भी मरने के ठीक पहले शरशैया पर लेटे अपनी ‘प्रतिज्ञा’ के दुष्परिणामों और यहां तक कि उस प्रतिज्ञा को न तोड़ पाने की अपनी विवशता पर अफसोस जाहिर किया था। लोहिया आज जिन्दा होते तो यह मानने के अनेक कारण हैं कि वे भीष्म की तरह विवेकहीन प्रतिज्ञा से बंधे रहने की गलती नहीं दोहराते और वे खुलकर अपने शिष्यों के कारनामों के विरूद्ध खड़े हो जाते। उन्होंने केरल में अपनी सोशलिस्ट पार्टी की सरकार द्वारा गोली चलाये जाने का विरोध किया और सरकार से इस्तीफा की मांग की थी।

 
लोहिया अपने को ‘कुजात गांधीवादी’ कहते थे और गांधी जी के शिष्यों को ‘मठवादी’ कह कर निंदा करते थे। पर लोहिया की विडंबना यह रही कि उन्होंने व्यावहारिक राजनीति में गांधी जी के साधन और साध्य की शुद्धता के सिद्धान्त से हमेशा परहेज किया। लोहिया ने आजादी के बाद फैल रही आर्थिक विषमता के प्रश्न को लेकर बहुत ही जोरदार तर्कपूर्ण तरीके से आम आदमी की वास्तविक आमदनी ‘तीन आने’ का कठोर सत्य उजागर किया, किन्तु आर्थिक विषमता को पाटने के जिस कार्यक्रम पर अमल किया, उसका समाजवाद से दूर-दूर का भी रिश्ता नहीं था। कहते हैं, नरक जाने का रास्ता नेक इरादे से खोदे गये थे। एक जमाने में कांग्रेस का विकल्प बनने का सशक्त दावेदार समाजवादी आन्दोलन का आज कहीं अता-पता नहीं है। नाम के समाजवादी भी आज कोई समाजवादी नहीं रह गये। लोहिया जन्मशती के मौके पर मूल्यांकन जरूरी है कि ऐसा क्यों हुआ?

 
राजनीति में विचार और आचार का मेल कठिन होता है। लेकिन राजनीति के मदारी कठिन से कठिन बेमेल कामों को सहज भाव से अंजाम देते हैं। लोहिया भारतीय संस्कृति और सभ्यता के पक्के समर्थक थे, किन्तु वे कट्टर रूढ़िविरोधी प्रतिमाभंजक भी थे। वे राजनीति के चमकते सितारों का प्रतिमाभंजन कठोरता से करते थे। उनके तर्कों के तीक्ष्ण वाण राजनीति के बड़े से बड़े स्थापित सूरमाओं को विचलित करते थे। लोहिया ने एक तरफ जाति तोड़ो अभियान चलाया तो दूसरी तरफ ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ के नारे के साथ जातियों की संख्या के आधार पर आरक्षण और सत्ता में भागीदारी का राजनीतिक दावा प्रस्तुत किया। इस नारे का व्यावहारिक परिणाम, या यों कहें कि लाजिमी नतीजा यह हुआ कि गरीबी-अमीरी का संघर्ष पृष्ठभूमि में ओझल हो गया और जातीय एवं साम्प्रदायिक अस्मिता का टकराव भारतीय राजनीति का मुख्य एजेंडा बन गया।

 
यद्यपि जाति, धर्म और लिंग का भेदभाव संविधान विरूद्ध है, किन्तु लोहिया ने जाति आधारित पिछड़ावाद को क्रान्तिकारी घोषित किया। बाद के दिनों में जातिवाद और सम्प्रदायवाद लोकतांत्रिक चुनाव के अचूक हथकंडे बने। एक ने कहा: ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’ तो दूसरे ने कहा: ‘गर्व से कहो हम चमार हैं’। ‘जाति तोड़ो’ का सामाजिक आन्दोलन ‘जाति समीकरण’ के राजनीतिक प्रपंच में तब्दील हो गया। समाजवादी आंदोलन के जिन नेताओं ने अपने नामों से जाति सूचक पदवी हटा ली थी, उनके शिष्यों ने मतदाताओं के मध्य अपनी जातीय पहचान बनाने के लिये फिर से जाति सूचक पदवी (टाइटल) धारण कर ली। मुलायम सिंह ‘मुलायम सिंह यादव’ हो गये। उसी प्रकार लालू प्रसाद ‘लालू प्रसाद यादव’ हो गये। अपने विचारों और आचारों के परस्पर विरोधी मिश्रण के ऐसे ही अद्भूत प्रतिनिधि थे लोहिया। यहां यह निष्कर्ष निकालना अनुचित होगा कि ऐसी ही उनकी मंशा थी, प्रत्युत ऐसे नारों का यही हस्र होना था। बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खायें?

 
राजनीति की तात्कालिक आवश्यकताएं अनेक अवसरवाद को जन्म देती हैं और फिर उस अवसरवाद का औचित्य ठहराने के लिए सिद्धांत और तर्क ढूंढ़ लिये जाते हैं। ऐसा ही एक नारा था ‘गैर-कांग्रेसवाद’। सत्ता में कांग्रेसी एकाधिकार तोड़ने के लिए लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद का मोर्चा खोला। उन्होंने सरकार को बराबर उलटने-पलटने की प्रक्रिया को ‘जिन्दा लोकतंत्र’ बताया और सत्ता पर कब्जा करने के लिए टूटो, जुड़ो और ताबे की रोटी को उलटने-पलटने की व्यूह-रचना विकसित की। पर उनके जीते जी उन्हीं की देखरेख में इस सिद्धान्त पर बिहार में बनी पहली गैर-कांग्रेसी सरकार की हवा निकाल दी उनके ही परम शिष्य बी.पी.मंडल ने। ताबे की रोटी को उलटने-पलटने की लोहियावादी तकनीक अजमाते हुए बी. पी. मंडल बिहार के मुख्यमंत्री बन गये। बिहार की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार को तोड़ दिया लोहिया के ही शिष्यों ने, और वह भी कांग्रेस की सहायता से। ऐसा कर लोहिया के शिष्यों ने बिहार में फिर से कांग्रेस राज की वापसी का मार्ग प्रशस्त किया।

 
सर्वविदित है कि यही बी. पी. मंडल बाद में पिछड़ावाद के पुरोधा बने। इनके नाम पर मंडलवाद का झंडा लहराया जो लोहियावाद से भी ज्यादा तेजी से लोकप्रिय हुआ। फिर भी मंडलवादियों के प्रेरणाश्रोत लोहिया ही बने रहे।

 
गैर-कांग्रेसवाद के लोहियावादी पुरोधाओं में मंडल अकेले नहीं रहे, जिन्होंने सत्ता के लिये कांग्रेसी बैशाखी को थामने में कभी संकोच नहीं किया और कांग्रेस को स्थायित्व प्रदान किया। ख्यात लोहियावादी मुलायम सिंह और चर्चित जेपी आन्दोलन के वीर बांकुड़ा लालू प्रसाद ने भी कांग्रेस की बैशाखी से कभी संकोच नहीं किया। परमाणु के मुद्दे पर जब वामपक्ष ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व की कांग्रेस नीत संप्रग-एक सरकार से समर्थन वापस लिया तो समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह ने कांग्रेस सरकार को संजीवनी बूटी प्रदान किया। यही नहीं 1.76 लाख करोड़ के 2-जी घोटाले की जांच कर रही लोक लेखा समिति में मतदान के समय सपा और बसपा कांग्रेस सरकार के संकटमोचक की भूमिका में सामने आये।

 
लोहिया समानता और सादगी के प्रतीक और भ्रष्टाचार के प्रखड़ विरोधी थे, किन्तु उनके आधुनिक शिष्य चारा घोटाला और आय से अधिक अप्रत्याशित धन-सम्पदा रखने के अभियुक्त हैं। अपने शिष्यों के कारनामों को देखकर लोहिया की आत्मा निश्चय ही विचलित होती होगी।

 
देश में आज भी अनेक व्यक्ति और व्यक्तियों के समूह हैं, जो दूसरों को अशुद्ध और अपने को विशुद्ध लोहियावादी होने का दावा करते हैं। उन सबों को वैसा करने का बराबर का हक है। पर प्रश्न यह है कि यदि आज लोहिया जिन्दा होते तो क्या वे अपने आधुनिक शिष्यों की पंक्ति में खड़ा होना पसन्द करते?

 
गतिशील उत्पादक शक्तियां

 
लोहिया ने अनेक पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं। उनमें एक है ‘इकोनॉमिक्स आफ्टर मार्क्स’ (मार्क्स से आगे का अर्थशास्त्र)। मार्क्सवादी वर्ग दृष्टिकोण की चर्चा करते हुए लोहिया कहते हैं: ‘गतिहीन वर्ग जाति है और गतिशील जाति वर्ग है।’ उनका यह जुमला भी उनके गंभीर अंतर्द्वन्द्व को प्रकट करता है। यह जुमला मुर्गी से अंडा कि अंडा से मुर्गी जैसी पहेली है। यद्यपि लोहिया अपने इस कथन में गति कि सत्यता स्वीकारते हैं, किन्तु साथ ही गति के स्वाभाविक फलाफल को नकारते हैं। इस जुमले के दोनों विशेषण ‘गतिहीन’ और ‘गतिशील’ आकर्षक किन्त अर्थहीन और मिसफिट आभूषण मात्र हैं।

 
समाजशास्त्री हमें बताते हैं कि गति के अभाव में विकास प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ती है। विकास प्रक्रिया में गति अंतर्निहित होती है और उसी प्रकार उसका प्रतिफल परिवर्तन भी। वर्ग और वर्ग दृष्टिकोण औद्योगिक क्रान्ति के बाद पैदा हुआ कारक है। उसके पहले जातियां जन्म ले चुकी थीं। सामंती युग में जातियां अस्तित्व में आयीं। सामंती युग के पहले वर्गों का उदय ही नहीं हुआ था तो उसका जाति में संक्रमण कैसे संभव हुआ होगा? अगर यह मान भी लिया जाये कि लोहिया का यहां मतलब आदिम श्रम विभाजन से है, जिसका जातीय रूपांतरण सामंती समाज में हुआ तो यह मानना और भी ज्यादा तार्किक होगा कि सामंती युग की ‘गतिशील जातियां’ ही औद्योगिक युग का आधुनिक मजदूर है। जाहिर है, ऐसी अवधारण हमें अंधगली में धकेलती है।

 
मानव विकास की प्रक्रिया किसी भी अवस्था में गतिहीन नहीं होती है। समाज विकास निरंतर गतिशील प्रक्रिया है, जो हमेशा इतिहास के एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु की तरफ बढ़कर परिवर्तन और फिर परिवर्तन को जन्म देती है। समाज विकास में कभी भी गतिहीन अवस्था नहीं आती। इसलिये ‘गतिहीन वर्ग’ और ‘गतिशील जाति’ की अवधारणा गुमराह करने वाली भ्रामक मुहावरेबाजी से ज्यादा कुछ भी नहीं है।

 
मार्क्स ने मजदूर वर्ग को सामाजिक प्रगति का वाहक बताया और वर्ग विहीन, शोषण विहीन और शासन विहीन समाज का खाका तैयार किया, जबकि लोहिया मजदूर वर्ग को ‘गतिहीन’ वर्ग बता कर उसे जाति की जड़ता में डूबने का दोषी मानते हैं और जातियों को गतिशील बनाकर जातिविहीन समाज निर्माण का खाका बुनते हैं। 1980 के बाद के तीन दशकों में हमने देश की ‘गतिशील जातियों’ का जलवा देखा है। क्या इससे लोहिया का सपना पूरा होता दिखता है? लोहिया की जन्मशती के मौके पर इसका मूल्यांकन जरूरी है।

 
इन वर्षों के व्यावहारिक जीवन में हमने देशा है कि यथास्थितिवाद की शासक पार्टियां - कांग्रेस और भाजपा ने जातीय राजनीति का प्रबंधन (उनके शब्दों में सोशल इंजीनियरिंग) ज्यादा सक्षम तरीके से किया और इसी अवधि में बिहार, उत्तर प्रदेश, हिमाचल, मध्य प्रदेश, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान समेत केन्द्र में भी भाजपा सरकार बनाने में कामयाब हुई। इस कवायद में लोहियावादी सोशलिस्ट भी जहां-तहां तांक-झांक करते और कभी इधर तो कभी उधर कंधा लगाते देखे गये। गरीबों की खुशहाली का संघर्ष संप्रदायवाद और जातिवाद की मधांधता में डूब गया। गतिशील जाति और संप्रदाय ने पूंजीवादी सत्ता को स्थायित्व प्रदान किया। पूंजीवाद सामंती पारंपरिक सामाजिक विभाजन को सहलाकर अपना आधार मजबूत करता है और बदले में कुछ रियायतें भी पेश करता है। देश में जब मंडल-कमंडल युद्ध चल रहा था तो उसी अवधि में वैश्वीकरण की नई आर्थिक नीतियों का घोड़ा सरपट दौड़ रहा था।

 
यहां नस्लभेद का जातिभेद के साथ घालमेल करना गलत होगा। नस्ल का सम्बंध रक्त से होता है, जबकि जाति का सम्बंध आदिम श्रम विभाजन अर्थात कर्म से जो कालक्रम में जन्मजात हो गया। एक रक्त का जन समूह एक जगह पला-बढ़ा और इससे रक्त आधारित नस्लीय जनसमूह का निर्माण हुआ। कालक्रम में पलायन और प्रव्रजन से नस्लों का भी मिश्रण और समन्वय हुआ। खलीफा, सरदार, राजा, बादशाह, किंग, सम्राट आदि रक्त आधारित कबीलाई प्रभुत्व व्यवस्था की प्रारंभिक अभिव्यक्तियां हैं।

 
औद्यौगिक क्रान्ति के बाद जो नया पूंजीवादी बाजार बना, उसमें रक्त सम्बंधों पर आधारित पुराना नस्लीय विभाजन और जन्मजात जातियों के अस्तित्व अर्थहीन होते चले गये। पूंजीवादी अर्थतंत्र में जाति आधारित कार्यकलाप सिकुड़े और उनकी सामाजिक भूमिका शादी-विवाह और पर्व-त्यौहारों तक सीमित हो गयी।

 
पूंजीवाद माल उत्पादन और व्यापार का मकसद मुनाफा कमाना होता है। लाभ लिप्ता की पूर्ति के लिये इंसानी शोषण प्रणाली का दूसरा नाम पूंजीवादी निजाम है। लोगों ने प्रत्यक्ष देखा कि एक ही रक्त समूह का शोषक अपने ही रक्त समूह के लोगों का शोषण बेहिचक कर रहा है। इसलिये पूंजीवाद में स्वार्थ का सीधा टकराव शोषितों और शोषकों के बीच हो गया। एक तरफ सभी नस्लों व जातियों का विशाल शोषित जनसमूह का नया वर्ग मजदूरों और किसानों के रूप में प्रकट हुआ, वहीं दूसरी तरफ जमींदार और पूंजीपति के रूप में नया अत्यंत अल्पमत शोषक वर्ग चिन्हित हुआ।

 
क्रान्ति का अर्थ होता है व्यवस्था परिवर्तन इसलिये औद्योगिक क्रान्ति के बाद जो नई पूंजीवादी व्यवस्था उभरी उसने पुराने सामंती सम्बंधों को उलट-पुलट कर रख दिया। कार्ल मार्क्स बताते हैं आर्थिक परिवर्तन की गति तेज होती है, किन्तु आर्थिक प्रगति के मुकाबले सामाजिक रिश्तों में परिवर्तन की गति मंद होती है। फिर परिवर्तन के बाद भी नये समाज में पुराने सामाजिक सम्बंधों के अवशेष विद्यमान होते हैं।

 
उत्पादन शक्तियों और उत्पादन सम्बंधों में निरन्तर हो रहे बदलाव का विशद विश्लेषण करते हुए मार्क्स इस नतीजे पर पहुंचे कि वैज्ञानिक तकनीकी अनुसंधान के चलते उत्पादन शक्तियों का विकास तेज गति से होता है, किन्तु इसके मुकाबले उत्पादन सम्बंधों में परिवर्तन की विकास गति धीमी होती है। इसके चलते उत्पादन शक्तियों और उत्पादन सम्बंधों में स्वाभाविक विरोधाभाष होता है। इस तरह उत्पादन शक्तियों में परिवर्तन की गति तीव्रतम होती है, वहीं उत्पादन सम्बंधों में परिवर्तन की गति मंदतर और सामाजिक सम्बंधों में परिवर्तन की गति मंदतम होती है क्योंकि सामाजिक परिवर्तन का सम्बंध इंसान की आदतों, रीति-रिवाजों और स्वभाव के साथ जुड़ा होता है जो आसानी से पीछा नहीं छोड़ते। उत्पादन शक्तियों और उत्पादन सम्बंधों का विरोधाभाष तथा उनका सामाजिक सम्बंधों में टकराव सामाजिक विकास के इतिहास के हर मंजिल पर भली प्रकार से देखा जा सकता है। ये टकराव अनेक सामाजिक विरोधाभाषों को जन्म देते हैं। नये आर्थिक टकरावों के परिणाम तीक्ष्ण, निर्णायक और अग्रगामी होते हैं, जबकि पुराने सामंती सामाजिक विरोधाभाषों के परिणाम शिथिल, गौण और प्रतिगामी होते हैं। इसलिये मार्क्स मानव इतिहास को वर्ग संघर्षों का इतिहास बताते हैं और वे मानवता की नियति पूंजीवाद में नहीं, बल्कि पूंजीवाद के विनाश में देखते हैं। मार्क्स पूंजीवाद से आगे बढ़कर समानता पर आधारित शोषणविहीन, शासन रहित समाज का नया नक्शा पेश करते हैं।

 
इसके विपरीत लोहिया मानव इतिहास को जातियों की लड़ाइयों की संज्ञा देते हैं। लोहिया यहीं नहीं रूकते, वे पूंजीवाद और साम्यवाद को पश्चिमी औद्योगिक सभ्यता की जुड़वां संतान बताकर निंदा तो करते हैं किन्तु पूंजीवाद के विकल्प के रूप में जो कुछ उन्होंने परोसा, वह उनका ख्याली पुलाव साबित हुआ। लोहिया आजीवन फ्रांस और जर्मनी के मध्ययुगीन कल्पनावादी समाजवादियों की पांत में ही भटकते रहे और अपने समाजवादी कार्यक्रम को गांधी जी की विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था के साथ घालमेल करते रहे।

 
मार्क्स ने अपने पूर्ववर्ती और समकालीन कल्पनावादी समाजवादियों की अवधारणाओं के खोखलेपन की आलोचना की और उससे अलग हटकर वैज्ञानिक समाजवाद की स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत की। उन्होंने सभी तरह के विरोधाभाषों पर काबू पाने के लिए पूंजीवादी उत्पादन शक्तियों पर सामाजिक स्वामित्व कायम करने का सुझाव दिया। किन्तु इस प्रश्न से लोहिया हमेशा बचते रहे और आजीवन गोल-मटोल बातें करते रहे।

 
अलबत्ता यह विवाद का विषय बना रहा कि उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व का क्या रूप होगा। अक्टूबर क्रांति के बाद सोवियत यूनियन में उत्पादन के तमाम साधनों का राष्ट्रीयकरण किया गया। यह समझा गया कि राष्ट्रीयकरण अर्थात सरकारी स्वामित्व उत्पादन के साधनों के सामाजिक स्वामित्व की दिशा में उठाया गया पहला कदम है। चूंकि राज्य सत्ता सर्वहारा वर्ग के हाथ में है, इसलिये सरकारी स्वामित्व को विकासक्रम में सामाजिक स्वामित्व में परिवर्तित किया जा सकेगा। समाजवादी विकास प्रक्रिया की उच्च अवस्था में धीरे-धीरे राज्य का अस्तित्व सूखता जायेगा और अंततः सरकारी स्वामित्व भी सामाजिक स्वामित्व में रूपांतरित हो जायेगा। समाजवाद के सोवियत प्रयोग में यह अपेक्षा पूरी नहीं हुई। समाजवाद एक व्यवस्था है, एक प्रणाली है, जिस पर चल कर साम्यवादी अवस्था हासिल की जाती है। समाजवाद के सोवियत मॉडल टूटने का यह अर्थ नहीं है कि समाजवाद असफल हो गया। पूंजीवाद संकट पैदा करता है, समाधान नहीं। समाधान समाजवाद में है, नये सिरे से दुनियां में समाजवादी प्रयोग का चिंतन चल रहा है।

 
लोहिया के आधुनिक शिष्य अपने कृत्यों को महिमामंडित करने के लिये लोहिया का नाम जपते हैं, किन्तु वास्तविकता में अपने कर्मो से वे लोहिया के उत्तराधिकारी नहीं रह गये हैं। वे लोहिया के विचारों और आदर्शों से काफी दूर विपरीत दिशा में भटक गये हैं, जहां से उनकी वापसी अब मुमकिन नहीं दिखती है। जिस प्रकार हाल के दिनों में श्रमिक वर्ग और उनके ट्रेड यूनियन इकट्ठे होकर संयुक्त कार्रवाई कर रहे हैं, उसी प्रकार कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट के बीच ईमानदान सह-चिंतन की आवश्यकता है।

 
दलित चेतना से वर्ग चेतना

 
दलित चेतना की चर्चा किये बगैर यह परिचर्चा पूरी नहीं होगी। डा. अम्बेडकर का राजनीतिक चिंतन भी जाति व्यवस्था से उत्पन्न परिस्थितियों से प्रभावित था। 1920 के दशक में ही वे दलितों के लिये पृथक मतदान की मांग करने लगे थे, जिसे उन्होंने 1932 में पूना पैक्ट के बाद वापस ले लिया। जेएनयू के प्राध्यापक और दलित चिंतक डा. तुलसी राम लिखते हैं: ”डा. अम्बेडकर 1920 और 30 के दशक में जाति व्यवस्था के विरूद्ध उग्ररूप धारण किये हुए थे। वाद में उन्होंने ‘सत्ता में भागीदारी’ के माध्यम से दलित मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने की कोशिश की। कांसीराम ने सत्ता में भागीदारी को ‘सत्ता पर कब्जा’ में बदल दिया। इस उद्देश्य से उन्होंने नारा दिया - ‘अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करो’।“

 
इस नारे के तहत विभिन्न दलित एंव पिछड़ी जातियों के अलग-अलग सम्मेलन होने लगे। इस प्रकार सत्ता पर कब्जा करने के लिये जातीय समीकरण का नया दौर आरंभ हुआ। मंडल कमीशन लागू होने के बाद इस जातीय ध्रुवीकरण का बेहद उग्र रूप सामने आया। इससे उत्तर प्रदेश में बसपा को और बिहार में लालू प्रसाद की पार्टी को बहुत फायदा हुआ। मायावती ने 1993 में पिछड़ा-दलित गठबंधन और 2007 में दलित-ब्राम्हण एकता समीकरण के सहारे उत्तर प्रदेश विधान सभा में प्रचंड बहुमत प्राप्त किया। इसी तरह बिहार में लालू ने मुस्लिम-यादव समीकरण के सहारे वर्षों राज किया।

 
इन परिघटनाओं पर दलित चिंतक डा. तुलसी राम सवाल उठाते हैं: ”जातीय ध्रुवीकरण के आधार पर चुनाव जीतकर सत्ताधारी तो बना जा सकता है, किन्तु जाति उन्मूलन की विचारधारा को मूर्तरूप नहीं दिया जा सकता है।“ डा. तुलसी राम यहीं नहीं रूकते हैं। वे और आगे बढ़कर लिखते हैं कि ”बुद्ध से लेकर अम्बेडकर तक ने जातिविहीन समाज में ही दलित मुक्ति की कल्पना की थी, किन्तु आज का भारतीय जनतंण पूर्णरूपेण जातीय, क्षेत्रीय और साम्प्रदायिक जनतंत्र में बदल चुका है। ऐसा जनतंत्र राष्ट्रीय एकता के लिए वास्तविक खतरा है।“ डा. तुलसी राम अपने आलेख का समापन डा. अम्बेडकर की प्रसिद्ध उक्ति से करते हैं: ”जातिविहीन समाज की स्थापना के बिना स्वराज प्राप्ति का कोई महत्व नहीं है।“

 
पर जातिविहीन समाज की स्थापना कैसे हो? इस प्रश्न का उत्तर चर्चित दलित लेखक चन्द्रभान प्रसाद निम्न प्रकार से देते हैं: ”भारत को अगर जाति विहीन समाज बनाना है तो लाखों दलितों को पूंजीपति बनकर गैरदलितों को नौकरी पर रखना होगा। लाखों दलितों को प्रतिवर्ष गैर दलित साले-सालियां, सढुआइन एंव गैर दलित सास-ससुर बनाने चाहिये। इसी प्रक्रिया से जाति व्यवस्था टूटेगी, दलित-गैर दलित का भेद समाप्त होगा, समाज में भाईचारा बढ़ेगा तथा भारत एक सुपर पावर के रूप में दुनियां में अपनी पहचान बनायेगा। यही होगा डा. अम्बेडकर के सपनों का भारत।“ (राष्ट्रीय सहारा, 14 अप्रैल 2011)

 
कैसे लाखों दलित पूंजीपति बनेंगे और किस प्रकार लाखों दलित प्रतिवर्ष गैर दलितों को साले-सालियां, सढुआइन और सास-ससुर बनायेंगे? डा. अम्बेडकर के जन्मदिन के मौके पर लिखे अपने आलेख में चन्द्र भान प्रसाद इस प्रश्न के उत्तर में अमरीका का उदाहरण देते हैं, जहां उनकी राय में ”अश्वेत पूंजीवाद का उदय“ हुआ है। प्रसाद सूचित करते हैं कि ”ओबामा को राष्ट्रपति बनने के समय अमरीका में अश्वेतों के पास करीब दस लाख श्वेत साले, पांच लाख श्वेत सालियां एवं सरहज घूम रहीं थीं।“ (राष्ट्रीय सहारा, 14 अप्रैल 2011)

 
अमरीका के अश्वेतों के पास कितने श्वेत साले-सालियां हैं, इससे भारत को कोई लेना देना नहीं है। हां, अमरीका में सफेद पूंजीवाद है या काला, इस पर बहस हो सकती है, किन्तु यह निर्विवाद है कि अमरीका में जो कुछ है वह निःसंदेह नंगा पूंजीवाद है। प्रसाद अपने आलेख में इसका कोई संकेत नहीं देते हैं कि भारत में ‘दलित पूंजीवाद’ कायम करने की उनकी क्या योजना है? और यह भी वे कैसे गैर दलितों को साले-सालियां, सढुआइन और सास-ससुर बनायेंगे?

 
इस संदर्भ में अपने देश में घटित हाल की कतिपय घटनाओं पर विहंगम दृष्टि डालना प्रासंगिक होगा।

 
  • दक्षिण का ब्राम्हण-विरोधी आन्दोलन किस प्रकार दलित बनाम थेवर-बनियार में बदल गया? और यह भी कि यहां ब्राम्हण उद्योगपति बने तथा दलित-पिछड़े उनके कर्मचारी?
  • पश्चिम भारत का गैर-ब्राम्हण आन्दोलन क्यों दलित बनाम मराठा का रूप ले चुका है? इधर शिवसेना और आरपीआई के चुनावी तालमेल का ताजा समाचार भी प्राप्त हुआ है।
  • बिहार अगड़ा-पिछड़ा झगड़ा अब क्यों पिछड़ा बनाम अति पिछड़ा और दलित बनाम महा दलित के झगड़े में बदल चुका है। यद्यपि लालू और राम विलास पासवान ने दलितों और पिछड़ों का पुराना समीकरण बनाने में अपनी सम्पूर्ण ताकत झोंक दी फिर भी वे इस नये समीकरण के सामने बुरी तरह पिट गये।
  • उत्तर प्रदेश में 1993 की सम्पूर्ण शूद्र एकता (दलित पिछड़ा मिलन) आज क्यों शूद्र बनाम अतिशूद्र शत्रुता (मुलायम बनाम मायावती) में परिणत हो गयी? और यह भी कि मनुवाद विरोधी दलित नेताओं का मनुवादी ब्राम्हणों से कैसी भली दोस्ती चल रही है। क्या यहां मगध शूद्र सम्राट महानंद द्वारा नियुक्त ब्राम्हण मंत्री कात्यायन और वररूचि का इतिहास दोहराया जा रहा है?
  • क्यों राजस्थान में लड़ाकू गुर्जर आदिवासी बनना चाहते हैं और क्यों गैरद्विज बलशाली भूस्वामी जाट पिछड़ा वर्ग में नाम लिखाने को बेताब हैं?

 
इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने का समय चन्द्रभान प्रसाद को नहीं है क्योंकि पूंजीवाद की विविधता का गुणगान करने के लिये उन्हें अक्सरहां अमरीका में व्यस्त रहना पड़ता है। वे क्यों भारत की विविधताओं में माथा खपायें? उनकी राय में पूंजीवाद का अमरीकी मॉडल ही भारत के लिये आदर्श है। उनके लिये यह समझना कठिन है कि पूंजीवाद किसी का भला नहीं करता। न तो दलितों का, न ही पिछड़ों का, न ही अगड़ों का और न आम आदमी का भला पूंजीवाद में है, चाहे वह ‘दलित पूंजीवाद’ ही क्यों न हो। पूंजीवाद का मकसद मुनाफा कमाना होता, जिसका श्रोत इंसान द्वारा इंसान का शोषण है। दलित पूंजीपति दलितों को भी नहीं बख्सता। दलित मुक्ति का मुद्दा आम आदमी की मुक्ति के साथ जुड़ा है। पूंजीवादी फ्रेमवर्क में दलित मुक्ति तलाशना मरूभूमि में पानी तलाशने का भ्रम पालना है। जातीय ध्रुवीकरण और उसके बनते-बिगड़ते समीकरणों से जो बात साफ तौर पर परिलक्षित होती है, वह यह कि रोजी-रोटी का प्रश्न हल करने में मौकापरस्त तात्कालिक गठबंधन पूरी तरह नाकाम है। इसलिये आगे आने वाले दिनों में भारतीय लोकतंत्र का निर्णायक एजेंडा रोटी-कपड़ा-मकान होगा। जाहिर है, उपर्युक्त घटनाओं में जाति बोध से वर्ग बोध की ओर जनचेतना अभिमुख हो रही है।

 
लोकतंत्र का प्रश्न

 
भारतीय संविधान में राज्य के तीन स्तम्भ हैं - लोकतंत्र, समाजवाद और संप्रदाय निरपेक्षता। अर्थात देश को चलाने के लिये एक ऐसी सरकार हो, जिसे देश की जनता चुने, वह सरकार समाजवादी हो जो समाज में सुख-चैन स्थापित करे और वह सरकार संप्रदाय निरपेक्ष हो अर्थात किसी संप्रदाय विशेष की तरफदारी किये बगैर सभी जन सम्प्रदायों के प्रति समभाव का बर्ताव करे।

 
देश की जनता ने पूंजीवादी, उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी शोषण एवं दमन के खिलाफ लड़कर आजादी हासिल की थी। इसलिये यह स्वाभाविक ही था कि भारतीय संविधान का मूल चरित्र गैर-पूंजीवादी बनाया गया। देश की संपदा कुछेक व्यक्तियों के हाथों में सिमटने पर पाबंदी लगाने का प्रावधान संविधान के एक अनुच्छेद में किया गया। इस प्रावधान को मजबूती और स्पष्टता प्रदान करने के लिये बयालिसवें संशोधन के माध्यम से समाजवाद को संविधान का महत्वपूर्ण स्तम्भ घोषित किया गया।

 
भारतीय संविधान की विशेषता है कि सरकार को जनहित में क्या करना है, उसकी सूची राज्य के लिये निदेशक सिद्धान्तों के अध्याय में दी गयी है। इस अध्याय में राज्य के लिये स्पष्ट संवैधानिक निदेश है कि वह जनता की खुशहाली मुकम्मिल करने के लिए सबको रोजगार, जीने लायक आमदनी, आवास, स्वास्थ्य, चिकित्सा, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा आदि प्रदान करेगा और बेरोजगार, अपंग, वृद्ध एंव अशक्त होने की स्थिति में सामाजिक सहायता का उपाय करे।

 
पर संविधान का कमजोर पक्ष यह है कि अनुच्छेद 37 में निदेशक सिद्धान्तों में वर्णित बातों का नागरिक अधिकार के रूप में न्यायालय में कानूनी दावा करने से मना कर दिया गया है। इसी अनुच्छेद का फायदा उठा कर शासक वर्ग ने जनता को संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर रखा है। अब समय आ गया है कि अनुच्छेद 37 को विलोपित किया जाये और संविधान के निदेशक सिद्धांतों का कार्यान्वयन सरकार के लिए बाध्यकारी बनाया जाये।

 
आजाद भारत में विकास की जो योजना बनायी गयी वह गैर-पूंजीवादी योजना नहीं थी। उसे मिश्रित अर्थव्यवस्था का नाम दिया गया। देश के पूंजीपतियों के दवाब में निजी पूंजी की भूमिका निर्धारित कर दी गयी। शुरू में मूल उद्योगों में पूंजीपति निजी पूंजी लगाने को उत्सुक नहीं थे, क्योंकि गेस्टेशन पीरियड लम्बा होने के कमारण रिटर्न देर से मिलता था। इसलिए सरकार ने मूल उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में रखकर पूंजीवादी विकास पथ का इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया और उपभोक्ता वस्तुओं को निजी पूंजीपतियों के हवाले कर दिया।

 
आजादी के दूसरे और तीसरे दशक तक आते-आते पूंजीवाद की विफलता उजागर हुई। सरकार जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने में नाकाम रही। जनता का आक्रोश उबल पड़ा। साठ के दशक में आठ राज्यों से कांग्रेसी राज का खात्मा, सत्तर के दशक में आपातकाल की घोषणा, केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार और 1980 में कांग्रेस की वापसी आदि इतिहास की बातें हैं।

 
पूंजीवाद और लोकतंत्र एक राह के सहयात्री नहीं हो सकते। पूंजीवाद जमींदार और पूंजीपतियों का अत्यंत अल्पमत लोगों का शासन होता है। पूंजीवाद में शोषितों-पीड़ितों का विशाल बहुमत शासित होता है।

 
इसके विपरीत लोकतंत्र बहुमत लोगों का शासन होता है। इसलिए सच्चा लोकतंत्र का भय हमेशा पूंजीपतियों को सताता है। भयातुर पूंजीपति छल, बल और धन का इस्तेमाल करके शोषितों-पीड़ितों के समुदाय को एक वर्ग के रूप में संगठित होने से रोकता है और उन्हें अपने पीछे चलने को विवश करता है। देश की वर्तमान संसद में साढ़े तीन सौ करोड़पति चुने गये, जबकि देश में 77 प्रतिशत गरीब लोग बसते हैं। ऐसा धनवानों के अजमाये तिकड़मों के चलने संभव होता है।

 
1980 और 90 के दशक में जातियों एवं सम्प्रदायों की उग्र गोलबंदी देखी जाती है। इस अवधि में जातियों और संप्रदायों की अस्मिता के हिंसक टकराव होते हैं, जनता की आर्थिक खुशहाली का एजेन्डा पृष्ठभूमि में ओझल हो जाता है और मंदिर-मस्जिद और मंडल-कमंडल के छलावरण में नग्न पूंजीवाद की नव उदारवादी नीति बेधड़क आगे बढ़ती है। जातियों, सम्प्रदायों और क्षेत्रों में विभाजित मतदाताओं ने मतदान करते समय अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि जाति सरदारों, धर्माधिकारियों और क्षेत्र के फैसलों का अनुशरण किया। यह सच्चा लोकतंत्र नहीं है। पूंजीवादी शक्तियां जातीयता, सम्प्रदायिकता और क्षेत्रीयता को हवा देकर संसद पर हावी हैं। इसी तरह संविधान को समाजवादी आदर्शों की बलि देकर प्रारम्भ हुआ है नग्न पूंजीवाद का वैश्वीकृत युग। नग्न पूंजीवाद भारतीय लोकतंत्र और संविधान में स्थापित मूल्यों का निषेध है। अगर इस प्रक्रिया को रोका नहीं गया तो दलित चिंतक डा. तुलसी राम की चेतावनी बिल्कुल सामयिक है कि इससे देश की राष्ट्रीय एकता को वास्तविक खतरा है।

 
- सत्य नारायण ठाकुर
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