भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

बिना शीर्षक के कुछ बातें

उत्तर प्रदेश के चुनाव चल रहे हैं। जब तक यह अंक सुधी पाठकों तक पहुंचेगा चुनाव खत्म हो चुके होंगे और जनता परिणामों का इंतजार कर रही होगी। फिर शुरू होगा परिणामों की समीक्षा का एक दौर और सरकार बनाने के लिए सम्भवतः जोड़-तोड़ का खेल। फिर आम जनता के बीच शायद एक लम्बी खामोशी? हमें इस खामोशी को तोड़ना होगा।
अभी साल भर भी नहीं हुआ है जब मीडिया भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल के लिए स्वयंभू सिविल सोसाइटी द्वारा चलाये गये आन्दोलन को चौबीसों घंटे दिखा रहा था या छाप रहा था। हमने तब भी मीडिया की भूमिका पर सवाल खड़े किये थे। इस आन्दोलन के समय जनता के मध्य गुस्सा था भ्रष्टाचार के खिलाफ और महंगाई के खिलाफ। उस गुस्से का इज़हार जनता को इस चुनाव में करना चाहिए था। यह इज़हार हुआ कि नहीं इसकी हकीकत तो 6 जून को ही पता चलेगी परन्तु मीडिया ने इन चुनावों से मुद्दों के अपहरण में जो भूमिका अदा की है, उसकी पड़ताल भी होनी ही चाहिए। सभी समाचार पत्रों एवं समाचार चैनलों पर केवल उन चार पार्टियों का प्रचार होता रहा जिन्होंने भ्रष्टाचार से कमाये गये अकूत पैसे में से कुछ सिक्के मीडिया को भी दे दिये थे। केवल इन्हीं दलों के प्रवक्ताओं को बुला-बुलाकर उन मुद्दों पर बहस की गयी जो मुद्दे चुनावों में होने ही नहीं चाहिए थे।
प्रदेश में वामपंथी दल अपने सहयोगी जनता दल (सेक्यूलर) के साथ लगभग सौ से अधिक सीटों पर चुनाव मैदान में थे। समाचार पत्रों ने इन दलों के प्रत्याशियों के प्रचार को प्रमुखता से छापने की तो बात ही न कीजिए, ‘अन्य’ और ‘संक्षेप’ में भी इन प्रत्याशियों के चुनाव प्रचार को छापने की जहमत नहीं उठाई। समाचार चैनलों ने परिचर्चाओं में भाकपा नेताओं में से किसी को भी बुलाने की जहमत नहीं की।
प्रदेश के चारों प्रमुख राजनीतिक दल मुद्दों से दूर भागते रहे। ”तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार“ से चुनावी राजनीति का सफर शुरू करने वाली बसपा ”ब्राम्हण शंख बजायेगा, हाथी बढ़ता जायेगा“ और ”चढ़ गुंडों की छाती पर मुहर लगाओ हाथी पर“ के बरास्ते इस चुनाव में ”चढ़ विपक्ष की छाती पर, मुहर लगाओ हाथी पर“ आ गयी। भाजपा ने राम मंदिर बनाने का मुद्दा फिर चुनाव घोषणापत्र में शामिल कर लिया। समाजवादी पार्टी का पूरा चुनाव अभियान मुसलमानों को 18 प्रतिशत आरक्षण के इर्द गिर्द घूमता रहा। कांग्रेस सोनिया, राहुल और प्रियंका रोड शो करते रहे, सलमान खुर्शीद और बेनी बाबू मुसलमानों के आरक्षण का राग छेड़ते रहे। बहुत दिनों के बाद वामपंथी पार्टियों के उम्मीदवार बड़ी संख्या में चुनाव मैदान में थे। उन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में जनता के मुद्दों को उठाया।
पिछले चुनावों की तुलना में जनता ज्यादा तादात में मतदान केंद्रों तक गयी, यह अच्छी बात है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इन बढ़े मतदान प्रतिशत की हकीकत क्या है। जनता ने चुनाव सुधारों के नाम पर ”राईट टू रिजेक्ट“ की हवा ही निकाल दी। बहुत कम मात्रा में चुनाव आयोग के इस हथियार का इस्तेमाल जनता ने किया। यह दोनों बातें लोकतंत्र के मजबूत होने का संकेत हैं।
- प्रदीप तिवारी
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हमे जरूरत है चुनाव सुधारों की

उम्मीदवाद को अस्वीकार करने (राईट टु रिजेक्ट) का चुनाव आयोग द्वारा जो सुझााव दिया गया है उस पर विचार करते हुए उसका संदर्भ महत्वपूर्ण हो जाता है। उनका सुझाव असल में कुछ अस्पष्ट सा है। उसके निहितार्थ स्पष्ट नहीं है। किसी चुनाव क्षेत्र में निर्वाचन आयोग जनता से क्या अपेक्षा करता है- वह क,ख,ग या सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार कर दे? यदि मतदाताओं का कुछ प्रतिशत हिस्सा अस्वीकार करने के लिए कहे तो उस प्रतिशत को 50 से अधिक होना चाहिए। उसके बाद भी, मान लें यदि 49 प्रतिशत ने अस्वीकार करने के अपने विकल्प का प्रयोग नहीं किया तो यह एक मुद्दा बन जाता है जिस पर भी ध्यान देने की जरूरत है।
इसमें एक खतरा यह भी है कि चुनाव के बहिष्कार की बात भी बन सकती है। इससे लोकतंत्र को मजबूत करने के लक्ष्य के बजाय, एक विपरीत नतीजा निकल सकता है जो एक अराजकता की दिशा में ले जा सकता है। चुनाव आयोग द्वारा एक तदर्थ किस्म का सुझाव है।
इसके बजाय, समय आ गया है कि देश व्यापक चुनाव सुधारों पर विचार करे। वर्तमान “फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट” (जिसे सबसे अधिक मत पड़े उसे जीता हुआ मानने) का तरीका संतृप्ति के स्तर पर पहुंच गया है। यह हमारे जैसे लोकतंत्र में एक हद से आगे सफल नहीं हो सकता। एक संभव तरीका समानुपाती प्रतिनिधित्व की प्रणाली का हो सकता है। इस संबंध में हम अन्य देशों से भी सीख सकते हैं और सबसे बड़े लोकतंत्र में दूसरों से सीखने में कोई हानि नहीं।
“फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट” की प्रणाली अब वास्तविकता को नहीं प्रतिबिंबित करती। उदाहरणार्थ, हाल के पंजाब में विधानसभा के चुनाव को लें जहां भारी मतदान हुआ। रिर्पोट थी कि 70 प्रतिशत के लगभग मतदान हुआ। पर काफी संभावना है कि ऐसे उम्मीदवार भी जीतेंगे जिन्हें लगभग 20 प्रतिशत मत ही मिले होंगे। यह हमारी व्यवस्था में एक अंतर्निहित कमजोरी है जिसे समानुपाती प्रतिनिधित्व की प्रणाली दूर कर सकती है। सभी पार्टियों को समान अवसर मिलना चाहिए। यह तब ही संभव है जब सरकार सभी पार्टियों के चुनाव के खर्च अपने ऊपर लेने के लिए राजी हो। जब एनडीए सत्ता में थी तो इन्द्रजीत सेन गुप्ता के नेतृत्व में इस मुद्दे पर विचार करने के लिए एक समिति बनी थी, डा. मनमोहन सिंह भी उस समिति में थे। समिति ने स्टेट फंडिंग (चुनाव का खर्च सरकार करे) की सिफारिश की थी। चुनाव आयोग स्वयं इस संबंध में कोई फैसले नहीं ले सकता है। वह एक स्वतंत्र निकाय है पर उसे भी अपनी शक्तियां संविधान से मिली हैं।
भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है। चुनाव ही इसके अकेले स्रोत नहीं है। यह मौजूदा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था पर निर्भर करता है, जब तक उसे न बदला जाये, भ्रष्टाचार जारी रहेगा।
- डी. राजा
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