अभी साल भर भी नहीं हुआ है जब मीडिया भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल के लिए स्वयंभू सिविल सोसाइटी द्वारा चलाये गये आन्दोलन को चौबीसों घंटे दिखा रहा था या छाप रहा था। हमने तब भी मीडिया की भूमिका पर सवाल खड़े किये थे। इस आन्दोलन के समय जनता के मध्य गुस्सा था भ्रष्टाचार के खिलाफ और महंगाई के खिलाफ। उस गुस्से का इज़हार जनता को इस चुनाव में करना चाहिए था। यह इज़हार हुआ कि नहीं इसकी हकीकत तो 6 जून को ही पता चलेगी परन्तु मीडिया ने इन चुनावों से मुद्दों के अपहरण में जो भूमिका अदा की है, उसकी पड़ताल भी होनी ही चाहिए। सभी समाचार पत्रों एवं समाचार चैनलों पर केवल उन चार पार्टियों का प्रचार होता रहा जिन्होंने भ्रष्टाचार से कमाये गये अकूत पैसे में से कुछ सिक्के मीडिया को भी दे दिये थे। केवल इन्हीं दलों के प्रवक्ताओं को बुला-बुलाकर उन मुद्दों पर बहस की गयी जो मुद्दे चुनावों में होने ही नहीं चाहिए थे।
प्रदेश में वामपंथी दल अपने सहयोगी जनता दल (सेक्यूलर) के साथ लगभग सौ से अधिक सीटों पर चुनाव मैदान में थे। समाचार पत्रों ने इन दलों के प्रत्याशियों के प्रचार को प्रमुखता से छापने की तो बात ही न कीजिए, ‘अन्य’ और ‘संक्षेप’ में भी इन प्रत्याशियों के चुनाव प्रचार को छापने की जहमत नहीं उठाई। समाचार चैनलों ने परिचर्चाओं में भाकपा नेताओं में से किसी को भी बुलाने की जहमत नहीं की।
प्रदेश के चारों प्रमुख राजनीतिक दल मुद्दों से दूर भागते रहे। ”तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार“ से चुनावी राजनीति का सफर शुरू करने वाली बसपा ”ब्राम्हण शंख बजायेगा, हाथी बढ़ता जायेगा“ और ”चढ़ गुंडों की छाती पर मुहर लगाओ हाथी पर“ के बरास्ते इस चुनाव में ”चढ़ विपक्ष की छाती पर, मुहर लगाओ हाथी पर“ आ गयी। भाजपा ने राम मंदिर बनाने का मुद्दा फिर चुनाव घोषणापत्र में शामिल कर लिया। समाजवादी पार्टी का पूरा चुनाव अभियान मुसलमानों को 18 प्रतिशत आरक्षण के इर्द गिर्द घूमता रहा। कांग्रेस सोनिया, राहुल और प्रियंका रोड शो करते रहे, सलमान खुर्शीद और बेनी बाबू मुसलमानों के आरक्षण का राग छेड़ते रहे। बहुत दिनों के बाद वामपंथी पार्टियों के उम्मीदवार बड़ी संख्या में चुनाव मैदान में थे। उन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में जनता के मुद्दों को उठाया।
पिछले चुनावों की तुलना में जनता ज्यादा तादात में मतदान केंद्रों तक गयी, यह अच्छी बात है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इन बढ़े मतदान प्रतिशत की हकीकत क्या है। जनता ने चुनाव सुधारों के नाम पर ”राईट टू रिजेक्ट“ की हवा ही निकाल दी। बहुत कम मात्रा में चुनाव आयोग के इस हथियार का इस्तेमाल जनता ने किया। यह दोनों बातें लोकतंत्र के मजबूत होने का संकेत हैं।
- प्रदीप तिवारी
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