फ़ॉलोअर
शुक्रवार, 30 मार्च 2018
at 5:04 pm | 0 comments |
रामराज्य और समाजवाद
उत्तर प्रदेश के
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा बजट भाषण पर चर्चा के दौरान विधान परिषद् में
“समाजवाद” को लेकर दिए गये वक्तव्य ने एक नई बहस को जन्म देदिया है. हो सकता है कि
बड़बोले श्री आदित्यनाथ ने यह बातें समाजवादी पार्टी के नाम में विहित समाजवाद को
लक्षित कर कही हों, लेकिन उन्होंने इसे व्यापक फलक देते हुये जो कुछ कहा वह
आश्चर्य में डालने वाला है. उन्होंने कहाकि प्रदेश की जनता अब तय कर चुकी है कि
उन्हें समाजवाद नहीं रामराज्य चाहिये. उन्होंने न केवल समाजवाद को धोखा कहा बल्कि
उसे समाप्तवाद तक कह डाला. उन्होंने समाजवाद की तुलना जर्मनी के नाजीवाद और इटली
के फासीवाद तक से कर डाली.
विपक्षी सदस्यों द्वारा यह
याद दिलाने पर कि समाजवाद शब्द संविधान की प्रस्तावना में दर्ज है, और
मुख्यमंत्रीजी उसे धोखा बता रहे हैं; वे भागते नजर आये. उन्होंने विपक्ष से
प्रतिप्रश्न किया कि संविधान में समाजवाद शब्द कब जोड़ा गया? उनका आशय इसे इंदिरा
सरकार से जोड़ कर खारिज करना था जिनके कि कार्यकाल में संसद ने इसे संविधान में
जोड़ा.
अब यह तो समय ही बतायेगा कि
प्रदेश की जनता क्या तय कर चुकी है और आगे क्या तय करेगी. लोकतंत्र में समय समय पर
सरकारों के क्रियाकलापों और कार्यप्रणाली के अनुसार जनता अपना मत और मंतव्य बदलती
रहती है, यह योगी आदित्यनाथ से ज्यादा कौन जानता है. जिस गोरखपुर की लोकसभा सीट पर
दशकों से योगीमठ का कब्ज़ा था उसे मतदाताओं ने एक पल में उनसे छीन लिया.
वस्तुतः रामराज्य एक कल्पना
है जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं. यह एक मिथक है; हमारे मनीषियों और
कवियों की सुशासन के बारे में एक सुखद परिकल्पना है. यह अभी तक के इतिहास के किसी
दौर में न तो अस्तित्व में था, और न ही इसके अस्तित्व के कहीं कोई प्रमाण ही मिलते हैं. लेकिन राम के आख्यान के लोकप्रिय
होने के बाद शासक और शासक तबके रामराज्य का नाम लेकर जन- मानस को भरमाते रहे हैं. योगी
जैसे शासकों के लिये ये पूंजीवाद की विकृतियों को ढांपने की कवायद मात्र है.
लेकिन समाजवाद गत चार
शताब्दियों के राजनैतिक चिंतकों के अब तक की शासन व्यवस्थाओं के अध्ययन के उपरांत
अधिरूपित की गयी समाज व्यवस्था है जिसको मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के विचारों ने
गढ़ा, और जो आज से सौ वर्ष पहले रूस की समाजवादी क्रांति के बाद अस्तित्व में आई.
यद्यपि अनेक बाह्य और आतंरिक कारणों से लगभग सात दशकों तक अस्तित्व में रहने के
बाद रूस की यह समाजवादी व्यवस्था ढह गयी लेकिन इसकी विशाल उपलब्धियां आज भी
पूंजीवादी व्यवस्था को मुहं चिड़ा रही हैं. क्यूबा और वियतनाम जैसे देश आज भी इस
व्यवस्था के जरिये अपने नागरिकों के जीवन को समुन्नत बना रहे हैं तो लैटिन अमेरिका
एवं अफरीकी महाद्वीप के कई देश तमाम
दबावों के बावजूद इस दिशा में बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं.
भारत में आधुनिक समाजवाद का
स्वरूप हमारी आजादी के आन्दोलन और विश्व सर्वहारा के क्रांतिकारी आन्दोलन के साथ
मजबूती से जुड़ा है. वह किसी की दया या कृपा पर निर्भर नहीं है. कार्ल मार्क्स,
एंगेल्स और लेनिन भारत की दुर्दशा और उसके भविष्य को बहुत बारीकी से देख रहे थे.
कार्ल मार्क्स ने भारत को ‘महान और दिलचस्प’ देश कहने के साथ ही “ हमारी भाषाओं और
धर्मों का उद्गम” कहा. मार्क्स और एंगेल्स ने सिध्द किया कि जैसे ही विश्व
सर्वहारा का क्रांतिकारी संघर्ष प्रबल होगा और भारत तथा अन्य पराधीन देशों की जनता
स्वाधीनता के लिये सचेत और संगठित होकर संघर्ष करने लगेगी “इस महान और दिलचस्प देश
की मुक्ति और पुनरुत्थान और समूची औपनिवेशिक प्रणाली का पतन अपरिहार्य हो जायेगा.”
मार्क्स और एंगेल्स ने सन
1853 में ही लिखा था, “ भारत के लोग उन नये तत्वों से, जिन्हें ब्रिटिश
पूंजीपतियों ने उनके बीच बिखेरा है ( रेल, तार, पानी के जहाज आदि ) तब तक कोई लाभ
नहीं उठा सकेंगे, जब तक खुद ब्रिटेन में औद्योगिक सर्वहारा आज के शासक वर्ग की जगह
न ले ले या जब तक भारतीय लोग स्वयं इतने मजबूत न होजायें कि अंग्रेजों के जुए को
पूरी तरह उतार फेंकें. कुछ भी हो, हम पूरी तरह आश्वस्त रह सकते हैं कि भविष्य में,
कुछ कम या ज्यादा लंबे अर्से के बाद इस महान और दिलचस्प देश का पुनरुत्थान होगा.”
अंग्रेजी हुकूमत द्वारा की
जारही भारत की लूट पर पर मार्क्स की पैनी नजर थी. उन्होंने 1881 में लिखा था कि
“जो माल भारतीय प्रति वर्ष मुफ्त इग्लेंड भेजने को मजबूर होते हैं, उनकी कीमत ही
भारत के छह करोड़ औद्योगिक और खेतिहर कामगारों की कुल आमदनी से अधिक है. यह
क्षोभजनक बात है. वहां एक के बाद एक भुखमरी के साल आते हैं और भुखमरी का आकार भी
इतना बड़ा होता है कि यूरोप में आज तक उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता.”
भारत के प्रथम स्वतंत्रता
संग्राम पर भी मार्क्स और एंगेल्स अपनी सतर्क नजरें गढ़ाए हुए थे और उन्होंने उसे
राष्ट्रीय विद्रोह माना था. उन्होंने लिखा कि उन्नीसवीं सदी के मध्य में भारत का
यह विद्रोह “ ब्रिटिश आधिपत्य के खिलाफ महान एशियायी राष्ट्रों के सर्वव्यापी
असंतोष की एक महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है.”
मार्क्स एंगेल्स की इस समझ
को आगे बढाते हुये लेनिन ने 1908 में लिखा कि “भारत में ब्रिटिश शासन पध्दति के
नाम पर जो लूटमार और हिसायें की जारही हैं उनका कोई अंत नहीं.” उन्होंने 1912 में
पुनः लिखा कि “ इग्लेंड देश ( भारत ) के उद्योग का गला घोंट रहा है.” 1913 में
लेनिन ने लिखा कि ब्रिटिश पूंजी भारत तथा अन्य उपनिवेशों को “ बहुत निर्दयता के
साथ और जमींदाराना ढंग से गुलाम बनाती और लूटती है.” आगे यह भी लिखा कि भारत की
“लगभग 30 करोड़ आबादी ब्रिटिश नौकरशाही द्वारा लूटे जाने और सताये जाने के लिये छोड़
दी गयी है.” लेनिन उस दौर के राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के उभार में जनवादी
तत्वों के उदय को भली प्रकार देख रहे थे. उन्होंने बाल गंगाधर तिलक को “भारतीय
जनवादी” कहा.
परतंत्र भारत की ब्रिटिश
शासकों द्वारा की जारही निर्मम लूट के विरुध्द संघर्ष में ही भारत में समाजवाद की वैचारिक
नींव पड़ी.
19 वीं सदी के अंतिम दशक
में स्वामी विवेकानंद ने भी भारत के जनवादी समाजवादी स्वरुप का अनुमान लगा लिया
था. उन्होंने भविष्यवाणी की कि “भावी महापरिवर्तन, जिसे एक ऐसे नये युग का
सूत्रपात करना है जिसमें सत्ता शूद्रों ( श्रम जीवियों ) के हाथ में होगी, संभवतः
रूस से ही शुरू होगा.”
बीसवीं सदी के पहले दशक में
ही भारत के प्रवासी स्वतंत्रता सेनानी अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी मंचों से सहायता
लेने का प्रयास करने लगे थे. वे दूसरे सोशलिस्ट इंटरनेशनल के अधिवेशनों में भाग
लेने लगे थे. इनमें दादाभाई नौरोजी, मैडम कामा, एस. आर. राना, बी. बी. एस. अय्यर
और श्यामजी कृष्ण वर्मा प्रमुख हैं. उन्होंने उन मंचों पर भारत की परिस्थिति पर
प्रस्ताव पेश किये और भाषण दिये. मैडम कामा ने पहली बार स्टुटगार्ड अधिवेशन में
तिरंगा झंडा फहराया और कहा कि आदर्श सामाजिक व्यवस्था का तकाजा है कि कहीं की भी
जनता गुलाम न रहे. भारत की जनता जागेगी और हमारे रूसी साथियों द्वारा दिखाये
रास्ते पर चलेगी, जिन्हें हम अपना बहुत ही बन्धुत्वपूर्ण अभिवादन भेजते हैं.
बाल गंगाधर तिलक की
गिरफ्तारी पर 1908 में बंबई के मजदूरों द्वारा की गयी पहली राजनैतिक हड़ताल पर
टिप्पणी करते हुये लेनिन ने लिखा कि “जनता का भारत अपने बुध्दिजीवियों और
राजनेताओं के रक्षार्थ खड़ा होरहा है.” उन्होंने भविष्यवाणी की कि “ भारत में भी सर्वहारा
सजग राजनीतिक जन- संघर्ष के स्तर पर जा पहुंचा है. इन परिस्थितियों में भारत में
अंग्रेजी- रूसी ढंग की शासन व्यवस्था के दिन बस गिने चुने रह गये हैं.”
1917 में भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस के अधिवेशन में एनीबीसेंट ने कहा कि “रूसी क्रांति तथा यूरोप और एशिया
में रूसी जनतंत्र के संभावित उदय ने भारत में पहले से विद्यमान परिस्थितियों को
पूर्णतया बदल दिया है.” अक्टूबर क्रांति के बाद 1918 में बाल गंगाधर तिलक ने लिखा
कि “अभिजातों की जमीनों के किसानों को बांटे जाने के परिणामस्वरूप सेना और जनता
में लेनिन का प्रभाव बढ़ गया है.” 1920 में लाला लाजपत राय ने कहा कि “पूंजीवादी और
साम्राज्यवादी सत्य की अपेक्षा समाजवादी, वोलशेविक सत्य कहीं ज्यादा श्रेष्ठ,
विश्वसनीय और मानवीय है. 1919 में बोल्शेविज्म का अर्थ स्पष्ट करते हुए तत्कालीन
विद्वान विपिनचंद पाल ने लिखा कि इसका अर्थ है कि “धनिकों और तथाकथित उच्च वर्गों
की ओर से उत्पीडन को नकारते हुये सभी लोगों को आजादी और सुख से रहने का अधिकार.”
उन्होंने यह भी कहा कि “ बोल्शेविक सभी प्रकार के आर्थिक और पूंजीवादी शोषण तथा
सट्टेबाजी के खिलाफ हैं और वे सामाजिक असमानता का विरोध करते हैं. कवीन्द्र
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 1918 में क्रांतिकारी रूस की तुलना “उस भोर के तारे” से की
जो “नवयुग के प्रभात का संदेश लेकर आता है.”
भारत की अस्थाई सरकार जो
काबुल में स्थापित हुयी थी के राष्ट्रपति राजा महेन्द्रप्रताप और प्रधानमंत्री
बरकतुल्लाह खान के नेतृत्व में प्रवासी भारतीय क्रांतिकारियों का एक प्रतिनिधिमंडल
लेनिन से मिला था जिनसे लेनिन ने कहा कि “हम मुसलमानों और गैर मुसलमानों की घनिष्ठ
एकता का स्वागत करते हैं. हमारी कामना है कि यह एकता पूरब के समस्त मेहनतकशों को
एक सूत्र में पिरोये.”
शहीदे आज़म भगत सिंह और उनके
साथियों को ‘क्रांतिकारी’ या ‘क्रांतिकारी
आतंकवादी’ कहा जाता है. लेकिन वे भारत में समाजवाद/ साम्यवाद के अधिष्ठाता कहे जा
सकते हैं. अपने मित्र सुखदेव को उन्होंने लिखा था- “तुम और मैं तो जिन्दा नहीं
रहेंगे लेकिन हमारी जनता जिन्दा रहेगी. मार्क्सवाद लेनिनवाद के ध्येय और साम्यवाद
की विजय निश्चित है.”
दिल्ली के सेशन जज के सामने
दिये वक्तव्य में उन्होंने कहा- “क्रांति से हमारा अभिप्राय यह है कि प्रत्यक्ष
अन्याय पर आधारित वर्त्तमान व्यवस्था बदलनी चाहिये. वास्तविक उत्पादनकर्ता या
मजदूर को समाज का अत्यावश्यक हिस्सा बनाने के स्थान पर, शोषक उनकी मेहनत के फल छीन
लेते हैं और उन्हें उनके सामान्य अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है. एक तरफ तो है
किसान जो सबके लिये अनाज उगाता है, अपने परिवार के साथ भूखा मरता है, बुनकर जो
विश्व बाज़ार को कपड़ा सप्लाई करता है, अपने बच्चों का तन ढकने को पर्याप्त कपड़ा
नहीं प्राप्त कर सकता, राज, लोहार, और बढई जो शानदार महल तैयार करते हैं, खुद
गन्दी बस्तियों में जीते और मरते हैं; और दूसरी तरफ हैं समाज के परजीवी, पूंजीवादी
शोषक जो अपनी सनक पर ही लाखों की रकम उड़ा देते हैं. ये भयानक असमानतायें और जबरन
थोपी गयी विकृतियां विप्लव की तरफ ले जारही हैं. ये हालात ज्यादा दिन नहीं चल सकते
और यह स्पष्ट होगया है कि वर्त्तमान समाज व्यवस्था ज्वालामुखी के किनारे खड़ी जश्न
मना रही है....... इस सभ्यता की पूरी इमारत अगर वक्त रहते बचायी नहीं गयी तो लड़खड़ा
कर ढह जायेगी. इसलिए एक मूलभूत परिवर्तन आवश्यक है. और जो इस बात को समझते हैं,
उनका कर्तव्य है कि समाजवादी आधार पर समाज का पुनर्गठन किया जाये.
डा. भीमराव अंबेडकर को
आमतौर पर जातिवाद विरोधी, आरक्षण के पुरोधा और संविधान निर्माता के रूप में जाना
जाता है, लेकिन उनके मन मस्तिष्क में भी समाजवाद की साफ़ तस्वीर थी. उन्होने
संविधान सभा में कहा था कि 26 जनवरी 1950
को हम एक विरोधाभासी स्थिति में प्रवेश करने जारहे हैं, जहां राजनीति में तो हमने
नागरिकों को समानता दे दी है. परन्तु सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में ऐतिहासिक कारणों
से हम समानता से दूर रहे हैं. अतः हमें शीघ्र- अतिशीघ्र राजनीतिक एवं सामाजिक-
आथिक जीवन में इस विरोधाभास को खत्म करना होगा. वरना जो लोग इस असमानता से
उत्पीड़ित हैं, वे इस सभा द्वारा इतने परिश्रम से बनाये हुये राजनैतिक लोकतंत्र के
भवन को ध्वस्त कर देंगे. अपने पत्र ‘मूकनायक’ में डा. अंबेडकर ने 1920 में लिखा था कि भारत की आजादी के साथ सभी
वर्गों को धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर बराबरी की गारंटी होनी
चाहिए और हर व्यक्ति को अपनी प्रगति के लिये अनुकूल स्थितियां भी हासिल हों.
संविधान के प्रारूप की
व्याख्यात्मक टिपण्णी में भी इस बात पर बल दिया गया है कि देश के तीव्र विकास के
लिये स्टेट सोशलिज्म वांछित है,........ निजी क्षेत्र कृषि में कोई सम्रध्दी नहीं
ला सकते. 6 करोड़ अछूतों को जो भूमिहीन मजदूर हैं, उनके जीवन में खुशी चकबंदी और
हदबंदी कानूनों से नहीं आ सकती, केवल सरकारी खेती इसका समाधान है.
डा. अंबेडकर प्रत्येक
नागरिक की मूल आवश्यकताओं की आपूर्ति किसी भी लोकतंत्र का प्रथम कर्तव्य मानते थे.
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में वांछित आर्थिक प्रणाली के बारे में उनके
विचार “ स्टेट एंड माइनारिटीज” नामक पुस्तिका में स्पष्टरूपेण वर्णित हैं. वे
साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के खुले विरोधी थे. उनकी सोच में कार्ल मार्क्स और गौतम
बुध्द के विचारों का अभूतपूर्व समन्वय है. उन्होंने “प्रिवीपर्स” की समाप्ति ,
बैंकों, बीमा कंपनियों और कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण की बात बहुत पहले उठाई थी.
वे समाजवाद और सार्वजनिक क्षेत्र के पक्षधर थे.
आजादी के आन्दोलन की इन
तमाम धाराओं को अपना आदर्श मानते हुए हमने स्वतन्त्र भारत में मिश्रित
अर्थव्यवस्था की नीति अपनाई जिसका लक्ष्य उत्तरोत्तर सार्वजनिक उद्योग और सामूहिक
खेती की व्यवस्था को मजबूत करते हुये समाजवाद की ओर बढ़ना था. इसी क्रम में राजाओं
के प्रिवीपर्स खत्म किये गये और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया. संविधान की
प्रस्तावना में समाजवाद के उद्देश्य को समाहित किया गया. इन सारी उपलब्धियों पर
पलट वार हमें भूमंडलीकरण, आर्थिक नव उदार की व्यवस्था के रूप में देखने को मिला.
लेकिन इसके तहत असमानता- और गरीबी- अमीरी के बीच चौड़ी होती खाई ने समाजवाद की
प्रासंगिकता को पुनर्स्थापित कर दिया है, जिस पर पर्दा डालने की कोशिश में
रामराज्य का शिगूफा छोड़ा गया है.
डा. गिरीश
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
मेरी ब्लॉग सूची
-
CPI Condemns Attack on Kanhaiya Kumar - *The National Secretariat of the Communist Party of India issued the following statement to the Press:* The National Secretariat of Communist Party of I...6 वर्ष पहले
-
No to NEP, Employment for All By C. Adhikesavan - *NEW DELHI:* The students and youth March to Parliament on November 22 has broken the myth of some of the critiques that the Left Parties and their mass or...8 वर्ष पहले
-
रेल किराये में बढोत्तरी आम जनता पर हमला.: भाकपा - लखनऊ- 8 सितंबर, 2016 – भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने रेल मंत्रालय द्वारा कुछ ट्रेनों के किराये को बुकिंग के आधार पर बढाते चले जाने के कदम ...8 वर्ष पहले
Side Feed
Hindi Font Converter
Are you searching for a tool to convert Kruti Font to Mangal Unicode?
Go to the link :
https://sites.google.com/site/technicalhindi/home/converters
Go to the link :
https://sites.google.com/site/technicalhindi/home/converters
लोकप्रिय पोस्ट
-
Communist Party of India condemns the views expressed by Mr. Bhupinder Hooda Chief Minister of Haryana opposing sagothra marriages and marri...
-
On 12th June, Hindu published the following item : KOLKATA: The Communist movement in India “is at a crossroads” and needs “a restructuring ...
-
http://blog.mp3hava.com today published the following : On July - 2 - 2010 13 Political Parties against of current governme...
-
CPI General Secretary Com. Survaram Sudhakar Reddy's open letter to Mr Narendra Modi, Prime MinisterNew Delhi 29 th May 2015 To, Shri Narendra Modi Hon’ble Prime Minister Government of India ...
-
CPI today demaded withdrawal of recent decision to double the gas prices and asked the government to fix the rate in Indian rupees rathe...
-
Hyderabad Tuesday, Jun 15 2010 IST Communist Party of India (CPI) General Secretary A B Bardhan today said his party would fight for land t...
-
The following is the text of the political resolution for the 22 nd Party Congress, adopted by the national council of the CPI at its sess...
-
The Central Secretariat of the Communist Party of India has issued following statement to the press today: When the Government is conte...
-
The three days session of the National Council of the Communist Party of India (CPI) concluded here on September 7, 2012. BKMU lead...
-
New Delhi, July 9 : Communist Party of India (CPI) leader D. Raja on Tuesday launched a scathing attack on the Bharatiya Janata Party (B...
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें