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सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण के समर्थन में एकजुट हों!

अभी हाल में एक छात्रा के साथ दिल्ली में घटी हृदयविदारक घटना से उपजे गुस्से से दिल्ली की सड़कों पर एक आन्दोलन ने जन्म लिया था, जो केवल एक मुद्दे पर - बालिकाओं और महिलाओं की सुरक्षा और उनके साथ घटने वाली वारदातों के अभियुक्तों के लिए सजा तक सीमित रह गया। न्यायमूर्ति वर्मा की अध्यक्षता में केन्द्र सरकार ने एक समिति बना दी, जिसकी अनुशंसाओं पर एक आर्डीनेंश जारी कर दिया गया और सम्भवतः संसद के बजट सत्र में इसे स्थाई कानून का जामा बनाने के लिए बिल भी पेश कर दिया जायेगा। लेकिन इस आन्दोलन के दौरान उपजे तमाम प्रश्न अभी तक जिन्दा जरूर हैं, पर उन पर बहस धीरे-धीरे मंद पड़ती जा रही है। कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए बराबरी का संघर्ष होजरी के कारखाने में काम करने वाली क्लारा ज़ेटकिन ने शुरू किया था और उन्हीं के संघर्षों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैलाव देने के लिए हर साल 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं की एकजुटता दिवस रूप में शुरू हुआ था। देश की आजादी के समय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के साथ भेदभाव का मुद्दा जोर पकड़ रहा था। 1948 में इसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकारों पर घोषणापत्र जारी किया था, जिसमें अन्य तरह के भेदभाव साथ-साथ लैंगिक भेदभाव भी शामिल था। सत्तर के दशक में महिलाओं के लिए समानता का मुद्दा एक बार फिर उभरा और उसके बाद महिला वर्ष, महिला दशक, महिला सशक्तीकरण आदि तमाम आन्दोलन और नारे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उभरे।
इन्हीं आन्दोलनों की कोख से देश में महिलाओं के लिए संसद एवं विधायिकाओं में आरक्षण का मुद्दा पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में उभरा था। देश की नारियां अभी तक अपने लिए एक तिहाई आरक्षण के लिए संघर्ष कर रहीं हैं परन्तु कामरेड गीता मुखर्जी जैसी महिला नेत्रियों के निधन के साथ यह आन्दोलन धीरे-धीरे अपनी धार खोता चला गया है।
8 मार्च यानी महिलाओं का अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता दिवस एक बार फिर आने वाला है। बेहतर होगा अगर पूरे देश की महिलायें इस साल 8 मार्च से इस आन्दोलन को फिर से धार दें और एक बार फिर कोशिश करें कि महिला सशक्तीकरण के लिए 2014 के आम चुनावों के पूर्व या तो महिला आरक्षण कानून पास हो या फिर 2014 के चुनावों में महिलाओं के लिए यह एक मुद्दा हो - महिला आरक्षण का विरोध करने वालों के खिलाफ 2014 में महिलायें एकजुट हो और उन्हें सबक सिखायें।
इस मुद्दे पर महिला-विरोधी ताकतों ने अपने निहित स्वार्थो के चलते तमाम तरीकों से शंकायें और भ्रान्तियां पैदा करने के प्रयास किया था। सन 1996 के अंतिम दिनों में इस आन्दोलन की दिवंगत पुरोधा कामरेड गीता मुखर्जी ने एक पैम्पलेट अंग्रेजी में लिखा था जिसमें उन्होंने आरक्षण के मार्ग में अवरोधों को स्पष्ट करते हुए शंकाओं और भ्रान्तियों के श्रोत और कारणों को स्पष्ट किया था। हम उस पैम्पलेट का हिन्दी भावानुवाद मुद्दे पर आज की युवा पीढ़ी को शिक्षित करने की जरूरत को महसूस करते हुए प्रकाशित कर रहे हैं। पाठकों से हमारा निवेदन है कि वे इसके अध्ययन के समय तिथियों आदि के बारे में भ्रमित न हों क्यांेकि इसे लगभग 17 साल पहले लिखा गया है। इस आलेख को अद्यतन करते हुए पाठन का अनुरोध किया जाता है।
साथ ही हम इसी अंक में कामरेड हरबंस सिंह का 10 साल पहले लिखा गया आलेख ”सती से सशक्तीकरण तक का लम्बा सफर“ भी महिलाओं की युवा पीढ़ी को शिक्षित करने के उद्देश्य से प्रकाशित कर रहे हैं। हमें आशा है कि हमारे पाठक इन लेखों से लाभान्वित होंगे और महिला आन्दोलन को नए शिखर की ओर ले चलने के लिए महिला आन्दोलन का अंग बनेंगे।
ये दोनों पुराने लेख उन पुरोधाओं द्वारा लिखे गये हैं, जोकि महिला आन्दोलन से क्रमशः प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े रहे हैं और उनके लेखन अधिकारिक होने के कारण हम नये लेख के स्थान पर इन्हें यथावत् प्रकाशित करने को प्राथमिकता दे रहे हैं।

- कार्यकारी सम्पादक

वर्तमान संसद के प्रथम सत्र में संयुक्त मोर्चा सरकार ने संविधान संशोधन (81वां) संशोधन विधेयक 1996 प्रस्तुत किया। यह वह विधेयक है जिसके जरिये लोक सभा और विधान सभाओं में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने का प्रस्ताव है। लगभग सभी राजनीतिक दलों द्वारा अपने चुनाव घोषणा पत्रों में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण के वायदों के चलते इस विधेयक का पास होना लगभग तय माना जा रहा था।
राज्य सभा में महिला सदस्यों ने प्रधान मंत्री पर इस विधेयक को उसी दिवस पास करवाने के लिए दवाब डाला और प्रधान मंत्री इसके लिए राजी हो गये।
लेकिन जब लोक सभा में विधेयक पर चर्चा शुरू हुई और प्रधान मंत्री वहां पहुंचे यह पाया गया कि स्थितियां वैसी आसान नहीं थीं जैसाकि सोचा गया था। वामपंथी दलों की ओर से, भाकपा से मेरे द्वारा, माकपा से का. सोम नाथ चटर्जी, आरएसपी से का. प्रमाथेश मुखर्जी और फारवर्ड ब्लाक से का. चित्त बसु ने विधेयक को तुरन्त पास करने की मांग की और इन पार्टियों में कोई विरोध के स्वर नहीं थे। परन्तु अन्य दलों के तमाम वक्ताओं ने तमाम ऐसे बिन्दुओं को उठाया जिससे यह स्पष्ट था कि इस पर कोई एकमत नहीं है।
भाजपा के वक्ताओं में से जहां सुषमा स्वराज ने बिल का समर्थन करते हुए उसी दिवस उसे पास करने की मांग की तो उमा भारती ने अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं के लिए आरक्षण का मामला उठाया। कांग्रेस की गिरजा व्यास ने जहां विधेयक का समर्थन किया तो नागालैण्ड से इस पार्टी के सांसद ने चाहा कि इस विधेयक के प्राविधानों को नागालैण्ड विधान सभा पर न लागू किया जाये क्योंकि उनकी राय में साक्षरता की दर बहुत अधिक होने के बावजूद राज्य की महिलायें राजनीति में आने की इच्छुक नहीं हैं। समता पार्टी के नितीश कुमार ने इसी विधेयक में पिछड़ी जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षण के प्राविधान करने की मांग आक्रामक तरीके से उठाई। इसलिए यह साफ हो गया कि विधेयक उस दिन पास नहीं हो सकेगा और प्रधानमंत्री ने प्रस्ताव किया कि विधेयक को संयुक्त प्रवर समिति को सिपुर्द कर दिया जाये।
संयुक्त प्रवर समितियां लोक सभा और राज्य सभा दोनों के सदस्यों से बनती हैं और जन भावना और समिति के सदस्यों की भावना पर विचार कर अपनी राय संसद के दोनों सदनों को देती हैं। रिपोर्ट में समिति की राय, सिफारिश और संशोधन शामिल होते हैं। सामान्यतः संयुक्त प्रवर समितियां अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप देने में महीनों का समय लेती हैं। जहां तक इस संयुक्त प्रवर समिति का सवाल है, मैंने इसके कार्य को समयबद्ध तरीके से समाप्त होने की बात उठाई और लोक सभाध्यक्ष इसके लिए राजी हो गये तथा उन्होंने घोषणा की कि समिति द्वारा संसद में अगले सत्र के प्रथम सप्ताह के अंतिम दिवस तक रिपोर्ट को पेश कर दिया जायेगा।
इस विधेयक को पेश करने की सम्भावनाओं और वास्तव में विधेयक को पेश करने से पूरे देश की महिलाओं में जबरदस्त उत्साह का संचार हुआ था। संसद शुरू होने के दिन सात महिला संगठनों - नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वीमेन, आल इंडिया डेमोक्रेटिक वीमेन्स एसोसिएशन, महिला दक्षता समिति, सेन्टर फॉर वीमेन्स डेवलपमेन्ट स्टडीज, आल इंडिया वीमेन्स कांफ्रेंस, यंग वीमेन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन तथा ज्वांइट वीमेन्स प्रोग्राम ने संसद के बाहर एक बड़ी रैली की जिसमें  पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाम, पूर्वोत्तर राज्यों और दिल्ली की हजारों महिलायें प्ले कार्डो और बैनरों के साथ शामिल हुयीं।
विधेयक पेश होने के बाद विधेयक को तुरन्त पास करने की मांग करते हुए ज्ञापनों पर लाखों हस्ताक्षर इकट्ठा होने लगे। न केवल संगठित महिला आन्दोलन बल्कि असंगठित महिलाओं ने भी अभूतपूर्व तरीके से प्रतिक्रिया दी। उदाहरण के लिए संयुक्त प्रवर समिति की अध्यक्षा के नाते मुझे खून से लिखे ऐसे हजारों पोस्टकार्ड मिले जिसमें विधेयक को उसी सत्र यानी जिस सत्र में उसे पेश किया गया था, उसी सत्र में पास करने की मांग की गयी थी।
एक पुरानी महिला कार्यकर्ता होने के नाते मैंने तमाम तरह के शक्तिशाली आन्दोलन देखे थे परन्तु मुझे कहना ही चाहिए कि मैंने अपने जीवन में कभी भी समाज के तमाम तबकों की महिलाओं द्वारा रक्त से लिखे गये इतने अधिक पोस्ट कार्ड नहीं देखे थे। मैं इसे इस उद्देश्य से लिख रहीं हूं जिससे आगामी बजट सत्र के पहले अपना दिमाग बनाते समय सभी सांसद इस मुद्दे पर विशेषकर महिलाओं में विद्यमान परिस्थितियों को दिमाग में रखें।
महिला आरक्षण नई मांग नहीं है !
इस तथ्य को नोट किया जाना चाहिए कि हालांकि पिछले चुनाव (1996 चुनाव) के पहले लगभग सभी राजनैतिक दलों ने अपने चुनाव घोषणापत्रों में महिलाओं के लिए आरक्षण का वायदा किया था, परन्तु महिलाओं के लिए आरक्षण के प्रश्न पर विचार बहुत पहले ही शुरू हो चुका था।
भारतीय महिला फेडरेशन (एनएफआईडब्लू) की महाराष्ट्र राज्य कार्यकारिणी एवं परिषद ने सितम्बर 1991 में अपने नागपुर सत्र में एक प्रस्ताव पास करते हुए सभी निर्वाचित सदनों - पंचायतों, नगर पालिकों, विधान सभाओं और संसद में महिलाओं के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण की मांग की थी।
जो लोग यह सोचते हैं कि महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण उन्हें एक ऐसी सहूलियत देना होगा जिसके वे योग्य नहीं हैं, उन्हें यह जानना चाहिए कि अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष (1975) की पूर्व बेला पर डा. फूलरेणू गुहा की अध्यक्षता में गठित स्टेट्स ऑफ वीमेन कमीशन के सामने उपरोक्त वर्णित सभी महिला संगठनों ने महिलाओं के लिए आरक्षण के खिलाफ अपना विचार रखा था। उन्होंने सोचा था कि राजनीतिक दल और अधिक महिला उम्मीदवारों को चुनाव में खड़ा करेंगे और संसद में महिलाओं की संख्या में इजाफा होगा।
परन्तु कठिन वास्तविकताओं के चलते उन्हें अपनी राय में बदलाव लाना पड़ा। यह पाया गया कि 1977-80 के मध्य लोक सभा में महिलायें केवल 3.4 प्रतिशत थीं और आजादी के पचास सालों में कभी भी यह संख्या 10 प्रतिशत के भी आस-पास नहीं पहुंच सकी जैसाकि नीचे की तालिका से स्पष्ट होता है।
इसलिए आबादी के आधे हिस्से यानी महिलाओं के साथ न्याय करने के लिए सीटों का आरक्षण ही एकमात्र तरीका है।
जो लोग ऐसा सोचते हैं कि लोक सभा और विधान सभाओं की एक तिहाई सीटों के लिए योग्य महिला उम्मीदवारों की निहायत कमी होगी, उन्हें यह याद दिलाने की जरूरत है कि आजादी के बाद पहले चुनाव में लोक सभा में केवल 22 महिला सांसद थीं जोकि कुल संख्या का केवल 4.4 प्रतिशत है। क्या आजादी की लड़ाई में योग्य महिलाओं की कमी थी? हर व्यक्ति यह स्वीकार करेगा कि आजादी की लड़ाई में कई उत्कृष्ट महिला नेत्रियों ने हिस्सा लिया था। इसके बावजूद राजनीतिक दलों ने उन्हें उम्मीदवार बनाना जरूरी नहीं समझा। इसलिए आरक्षण के प्रश्न को तो कभी पहले उठाया जाना चाहिए था। यदि इसे समय पर कर दिया गया होता और आज की परिस्थितियां बहुत ही बदली हुयी होतीं तो सम्भव है कि आरक्षण की आज जरूरत नहीं होती और समानता के लिए महिलाओं की आवाज बहुत ही प्रभावी होती।
पूर्व की गल्तियों को सुधारने की जरूरत
सन 1857 के शुरूआती क्षणों से वर्ष 1947 में ब्रिटिश शासकों से सत्ता हस्तांतरण तक चली आजादी की लड़ाई में महिलाओं ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। स्वतंत्र भारत के संविधान में महिलाओं के लिए पुरूषों के साथ समानता और लिंग सहित किसी भी आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित कर महिलाओं के इसी महती योगदान को मान्यता दी गयी थी।
वैसे हजारों साल पुराने रीति रिवाजों के कारण अधिकतर महिलायें शिक्षा और सम्पत्ति एवं उत्तराधिकार से वंचित रखी गयीं और उन्हें घर की चहरदीवारों के अंदर के कामकाज करने के लिए कैद रखा गया। परिवार और समाज में उनके स्तर को ऊंचा बनाने के लिए कुछ कानून पास तो जरूर किये गये परन्तु वास्तविकता में वे कागजों पर बने रहे।
सरकार और राजनीतिक दलों दोनों ने महिलाओं की समस्या को सामाजिक समानता कायम करने के बजाय समाज-कल्याण के नजरिये से देखा और तमाम महिला संगठनों से अपनी गतिविधियों को समाज कल्याण तक ही सीमित रखा।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वर्ष 1975 को अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष और उसके बाद में दस वर्ष सन 1976 से 1985 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दशक घोषित करने के फलस्वरूप महिला कल्याण की अवधारणा को महिला विकास के दृष्टिकोण में बदल दिया। अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष और महिला दशक की केन्द्रीय विषयवस्तु थी - ”समानता-विकास-शान्ति“।
सन 1948 में मानवाधिकारों पर भूमण्डलीय घोषणा-पत्र में संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्वयं को नस्ल, रंग, लिंग, भाषा, क्षेत्र, राजनैतिक और अन्य विचारों, राष्ट्रीय या सामाजिक उत्पत्ति, सम्पत्ति, जन्म और अन्य आधारों पर विभेद के खिलाफ घोषित किया था। वैसे सदस्य राष्ट्रों ने उपरोक्त आधारों पर भेदभाव जारी रखा। इनमें से महिलाओं के खिलाफ भेदभाव धर्म, इतिहास और संस्कृति को आधार बना कर सबसे अधिक और सम्भवतः वैश्विक फैलाव लिए रहा। संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा ने अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष और अंतर्राष्ट्रीय महिला दशक की घोषणा को पूर्व में की गयी गल्तियों को सुधारने के लिए की जा रही अंतर्राष्ट्रीय शुरूआत बताया था।
पिछले दो दशकों के दौरान सन 1975 में मेक्सिको, 1980 में कोपेनहागन, 1985 में नैरोबी और 1995 में बीजिंग में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलनों में लिये गये निर्णयों के जरिये ये प्रयास जारी रहे। हर सम्मेलन के दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य राष्ट्रों के प्रतिनिधियों के साथ-साथ हजारों गैर सरकारी प्रतिनिधियों का विश्व फोरम और उसके पहले तैयारियों के सिलसिले में सभी महाद्वीपों में अनगिनत राष्ट्रीय और क्षेत्रीय विचार गोष्ठियों और बहसों से करोड़ों-करोड़ महिलाओं को अपनी वास्तविक स्थिति के आकलन और अपने अधिकारों को समझने में जहां मदद मिली वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा महिला दशक के घोषित उद्देश्यों को समर्पित तमाम महिला संगठनों और ग्रुपों ने जन्म लिया।
18 दिसम्बर 1979 को संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा ने महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के तमाम तरीकों की समाप्ति पर एक अंतर्राष्ट्रीय परम्परा (कन्वेंशन)  (International Convention for Elimination of All Forms of Discrimination against Women - CEDAW)  अंगीकृत किया जिसे भारत सहित संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य राष्ट्रों के बहुमत ने स्वीकार कर लिया है। यह परम्परा भी इसे पृष्ठांकित करने वाले सभी राष्ट्रों पर अन्य सभी अंतर्राष्ट्रीय परम्पराओं और संधियों जैसे ही बाध्य अंतर्राष्ट्रीय कानून के सदृश है।
सन 1985 में नैरोबी सम्मेलन द्वारा ”वर्ष 2000 तक महिलाओं के विकास के लिए रणनीति की ओर आगे बढ़ने“ की घोषणा अंगीकृत करने के फलस्वरूप प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने महिलाओं के लिए सापेक्ष योजना की घोषणा द्वारा महिला विकास हेतु नीतिगत दिशा तय करते हुए एक नए प्रशासकीय ढ़ांचे को स्थापित किया।
नैरोबी सम्मेलन के एक दशक के बाद सितम्बर 1995 में सम्पन्न बीजिंग सम्मेलन का उद्देश्य आगे बढ़ने की रणनीति के वैश्विक स्तर पर परिणामों का मूल्यांकन करने और नैरोबी तथा सन 1979 में अंगीकृत संयुक्त राष्ट्र संघ परम्परा द्वारा घोषित लक्ष्यों के रास्ते में आ रहे अवरोधों को हटाने में वर्तमान शताब्दी के बाकी वर्षो (1996-2000) का किस प्रकार उपयोग किया जाये इसका निर्धारण करना था।
बीजिंग में पहले से अधिक जागरूक, संगठित और एकताबद्ध महिला प्रतिनिधि इस बात पर दवाब बनाने में सफल रहे कि महिलाओं को हर स्तर पर अपने से संबंधित सभी मसलों पर निर्णय की प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार होना चाहिए चाहे वह मामला उनकी जिन्दगी से जुड़ा राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय मामला हो, पारिवारिक जीवन हो, उनके बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा का मामला हो, उनके स्वयं के निकायों का मामला हो, प्रजनन में उनकी भूमिका और कामुकता का मसला हो।
सन 1975 में लक्ष्य कल्याण से विकास तक पहंुचा तो सन 1995 में बीजिंग में लक्ष्य और आगे बढ़ कर ”महिला सशक्तीकरण“ के नारे तक जा पहुंचा।
बीजिंग में भारत सरकार के प्रतिनिधियों ने पंचायतों और नगर पालिकाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण कर देने की बात को बता कर खूब प्रशंसा लूटी। बीजिंग में अंगीकृत सिफारिशों में लोक सभा और विधान सभाओं में ऐसे आरक्षण की बात शामिल की गयी। भारत सरकार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस प्रस्ताव को लागू करने के लिए वचनबद्ध है।
दूसरी ओर पूरे विश्व के अन्य हिस्सों की महिलाओं की भांति ही तमाम अवरोधों और परेशानियों के बावजूद भारत की महिलाओं ने पिछले पचास वर्षो में शिक्षा, कार्य अनुभवों और गरीबी एवं अशिक्षा के गम्भीर दुःखद स्थितियों से अपने परिवार और अपने बच्चों की रक्षा के लिए और स्वयं अपने जीवन एवं आजीविका (लिवलीहुड) की रक्षा के संघर्षो में भागीदारी द्वारा एक लम्बा सफर तय किया है। कई राज्यों के पिछले चुनावों ने यह दिखा दिया है कि महिलायें एक महत्वपूर्ण वोट बैंक हैं जिन्हें राजनीतिक दल उपेक्षित नहीं कर सकते।
इससे स्पष्ट है कि क्यों राजनीतिक दल आकस्मात जग गये और महिलाओं की राजनीति में सहभागिता की आवश्यकता पर जोर देने लगे तथा क्यों सभी राजनीतिक दल सन 1996 के चुनावों के अपने घोषणापत्रों में महिलाओं के लिए लोक सभा और विधान सभाओं में एक तिहाई आरक्षण का वायदा करने लगे।
इससे यह कारण भी स्पष्ट होता है कि संविधान (81वां) संशोधन विधेयक ने पूरे भारत में क्यों महिलाओं के मध्य उत्तेजना उत्पन्न कर दी।
मूल बिल और संयुक्त प्रवर समिति की रिपोर्ट
आइये देखते हैं संसद में पेश मूल विधेयक क्या था, किन संशोधनों को संयुक्त प्रवर समिति ने स्वीकार किया और किन्हें रद्द कर दिया और संयुक्त प्रवर समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में क्या सिफारिशें की गयीं थीं।
भारत सरकार द्वारा संसद में रखे गये मूल विधेयक में निम्न प्राविधान थे:
(1) लोक सभा एवं विधान सभाओं में महिलाओं के लिए कुल सीटों में से एक तिहाई से कम नहीं आरक्षित की जायेंगी जिनमें से अनुसूचित जाति एवं जनजाति की महिलाओं के लिए उसी अनुपात में आरक्षित होंगी जिस अनुपात में संविधान में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए आरक्षण उपलब्ध है।
(2) जिन राज्यों में लोक सभा की तीन से कम सीटें हैं, वहां आरक्षण नहीं होगा।
मूल बिल में राज्य सभा और विधान परिषदों का जिक्र नहीं था। इसमें केन्द्र शासित राज्यों का भी जिक्र नहीं था।
संयुक्त प्रवर समिति ने अपने सदस्यों द्वारा प्रस्तुत तमाम संशोधनों को स्वीकार किया।
विधेयक में शामिल किये गये संशोधन इस प्रकार थे:
(1) ”एक तिहाई से कम नहीं“ को ”यथासम्भव एक तिहाई के निकट“ से संशेाधित किया जाये। कारण यह कि ”एक तिहाई से कम नहीं“ का अर्थ एक तिहाई से अधिक निकाला जा सकता है जोकि मूल विधेयक का उद्देश्य नहीं था।
(2) जिन राज्यों में तीन से कम संसदीय क्षेत्र हैं, उनमें आरक्षण न देने के मुद्दे पर समिति ने महसूस किया कि यह प्राविधान भेदभावपूर्ण होगा। इसलिए समिति ने सुझाव दिया कि पन्द्रह वर्षो की कुल अवधि यानी तीन आम चुनावों को एक साथ रखा जाये। ऐसे राज्यों में आरक्षण का निर्धारण करते समय जहां दो संसदीय सीटें हैं वहां पहले चुनाव में एक सीट आरक्षित और दूसरी अनारक्षित रखी जाये, दूसरे चुनाव में पहली सीट अनारक्षित और दूसरी आरक्षित रखी जाये और तीसरे चुनाव में दोनों सीटे अनारक्षित कर दी जायें। जिन राज्यों में एक ही सीट है, इसी सिद्धान्त को लागू करते हुए तीन चुनावों में केवल एक बार सीट को आरक्षित रखा जाये। इस प्रकार एक तिहाई आरक्षण का सिद्धान्त लागू किया जा सकता है।
समिति ने एक संशोधन स्वीकार किया कि केन्द्र शासित क्षेत्र दिल्ली में आरक्षण रहना चाहिए। संबंधित कानूनों में आवश्यक संशोधन किया जाये जिससे इसे पांडीचेरी में भी लागू किया जा सके।
आरक्षित क्षेत्रों का निर्धारण कैसे होगा, इस पर संयुक्त प्रवर समिति ने कोई सिफारिश नहीं की और इस कार्य को सरकार और चुनाव आयोग द्वारा नियत करने के लिए छोड़ दिया।
जिन संशोधनों को समिति द्वारा स्वीकार नहीं किया गया, वे थे - अन्य पिछड़ी जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षण। इस संशोधन को इन सदस्यों द्वारा अलग-अलग पेश किया गया था - समता पार्टी के नितीश कुमार, जनता दल के राम कृपाल यादव तथा डीएमके के पी.एन. सिवा। समिति ने यह स्पष्ट कर दिया कि संविधान में किसी भी स्तर पर अन्य पिछड़े दलों के लिए किसी भी निर्वाचित सदन में आरक्षण का प्राविधान न होने के कारण इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। वैसे समिति ने अपनी सिफारिशों में यह सिफारिश की थी कि सरकार इस मुद्दे पर उचित समय पर विचार करे जिससे अगर इस तरह का संविधान संशोधन किसी भी समय संसद द्वारा पारित किया जाये तो अन्य पिछड़ी जातियों की महिलाओं को भी आरक्षण का लाभ मिल सके।
समिति ने कुछ और सिफारिशे भी की थीं जैसे राज्य सभा और विधान परिषदों में भी महिलाओं के आरक्षण करने के लिए सरकार किसी रास्ते को निकालने का प्रयास करे।
समिति ने विधेयक को बिना देरी किये पारित करने की बहुत स्पष्ट सिफारिश की थी। समिति की रिपोर्ट लोक सभा में 9 दिसम्बर 1996 को रख दी गयी थी जिससे सरकार और संसद दोनों को रिपोर्ट पर विचार करने और एजेन्डे में विधेयक को पास करने के लिए शामिल करने को 15 दिनों का पूरा समय था। संसद 20 दिसम्बर को स्थगित की गयी।
दुर्भाग्य से संसद के पुरूष सदस्यों के भयंकर दवाब के कारण 20 दिसम्बर तक सरकार ने कुछ नहीं किया और उसके कारण पूरा मुद्दा अभी तक लटका पड़ा है।
आपत्तियां हैं क्या?
आइये, अब विधेयक को पास न होने देने के लिए दिए जा रहे तर्को के गुण-दोषों की छानबीन करते हैं।
पहला, अन्य पिछड़ी जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षण का मुद्दा लेते हैं। स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जो इस बात की मांग कर रहे हैं, उनमें से किसी ने अन्य पिछड़ी जातियों के पुरूषों और महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग अब तक क्यों नहीं की और संविधान में आवश्यक संशोधन के लिए कोई निजी बिल पेश क्यों नहीं किया गया? मंडल आयोग की रिपोर्ट को पूरे देश में नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के लिए अंगीकृत करते समय ऐसा क्यों नहीं किया गया था? पंचायतों में विभिन्न स्तरों पर आरक्षण की व्यवस्था करने वाले संविधान संशोधन विधेयक पर विचार के समय अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं के लिए भी आरक्षण के लिए कोई संशोधन क्यों नहीं प्रस्तावित किया गया था? इन तथ्यों से यह शंका पैदा होती है कि पुरूष सांसद अपनी सीटों के महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाने के भय से इस विधेयक को पास होने से रोकने के लिए यह दलीलें दे रहे हैं और यह शंका अन्यायोचित भी नहीं है।
अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं के साथ सद्भावना रखने के लिए इस विधेयक के इसी रूप में पास हो जाने पर अन्य पिछड़ी जातियों के प्रभाव वाले क्षेत्रों में अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं को खड़ा किया जा सकता है। इसके लिए तैयारी क्यों न की जाये?
दूसरे, कुछ लोग कहते हैं कि महिलाओं को सुरक्षा और अधिकार देने वाले तमाम कानून बने हैं। उन कानूनों को लागू करने के लिए पहले संघर्ष करना चाहिए और उसके पहले महिलायें संसद और विधान मंडलों में क्यों जाना चाहती हैं? स्पष्ट रूप से महिलायें पर्याप्त संख्या में संसद और विधान मंडलों में इसलिए जाना चाहती है जिससे कागजों पर बने उन कानूनों को लागू करने के लिए जोरदार आवाज उठाने का मौका पा सकें।
तीसरे, कुछ लोग कहते हैं कि पंचायतों में आरक्षण दूसरी बात थी क्योंकि पंचायतें उनके घरों के पास हैं परन्तु संसद और विधान मंडलों में जाने के लिए उन्हें अपने घरों से दूर रहना होगा जिससे परेशानियां पैदा होंगी। बहुत खूब! पूरे देश में महिलाओं की कुल संख्या और संसद एवं विधान सभाओं में जाने वाली महिलाओं की कुल संख्या से तुलना कीजिए - क्या यह अत्यंत सूक्ष्म नहीं होगी? क्या यह सत्य नहीं है कि अपने रोजगार के लिए घरों से दूर जाने वाली महिलाओं की तादाद इस संख्या से कहीं बहुत ज्यादा है।
चौथे, कुछ लोगों का कहना है कि महिलायें अभी इस लायक नहीं बनी हैं कि वे इतनी बड़ी संख्या में सांसद के कर्तव्य निभा सकें। इस कारण संसद और विधान मंडलों में एक तिहाई संख्या में महिलाओं के आगमन से लोक सभा और विधान सभाओं का कार्य निष्पादन की गुणवत्ता घट जायेगी। माफ कीजिएगा, वर्तमान लोक सभा में 7 प्रतिशत ही महिला सदस्य हैं, 93 प्रतिशत पुरूष सदस्यों वाली वर्तमान लोक सभा के कार्य निष्पादन का क्या स्तर है?
लोक सभा के अन्दर से अथवा टेलीविजन के माध्यम से लोक सभा की कार्यवाही देखने वालों से उनकी राय पूछिये - जवाब ऐसा मिलेगा कि कोई भी लज्जित हो जाये। दूसरी ओर, इन सदनों में एक तिहाई महिलाओं की उपस्थिति से सम्भव है कि लोगों के व्यवहार और कार्य निष्पादन में व्यापक सुधार आ जाये।
पांचवे, समाचार पत्रों में लेखों द्वारा तथा ज्ञापनों द्वारा खड़ा किया गया एक सवाल है कि हर चुनाव के बाद चक्रानुक्रम से चाहे वह लाटों में किया जाये या किसी और तरह से निर्वाचित सदस्यों में अपने क्षेत्रों की देख-रेख के लिए जरूरी जोश नहीं होगा क्योंकि अगली बार उस क्षेत्र से चुनाव लड़ने का अवसर उसे नहीं होगा। इसे सुलझाने के लिए कुछ लोगों ने यह सुझाव दिया कि तीन क्षेत्रों को एक में मिला दिया जाये और उसमें से तीन सदस्य चुने जायें। इनमें से एक को अवश्य ही महिला होना चाहिए। प्रत्याशियों में से सबसे अधिक मत पाने वाले दो पुरूष उम्मीदवार और महिला उम्मीदवारों में से सबसे अधिक मत पाने वाली उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित किया जाये।
विभिन्न दृष्टिकोणों से यह एक अजनबी मुद्दा है। पहला, निर्वाचित होने वाले सदस्य का दायित्व है कि वह अपने क्षेत्र की देख-रेख करे। यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि दूसरी बार निर्वाचित होने के लिए क्षेत्र की देख-रेख की जाये। किसी क्षेत्र पर किसी भी व्यक्ति का स्थाई एकाधिकार नहीं होना चाहिए।
वैसे, अगर कोई भी पुरूष अथवा महिला अपने क्षेत्र की गम्भीरता से देख-रेख करता है तो उससे उसके कार्य क्षेत्र के आस-पड़ोस में ऐसी इज्जत बनती है कि वह किसी भी हैसियत में देश की सेवा बेहतर तरीके से कर सके। लोक सभा क्षेत्रों का इलाका इतना बड़ा होता है कि किसी भी व्यक्ति के लिए तीन क्षेत्रों में अपना प्रचार करना और देख-रेख का कार्य करना सम्भव नहीं है।
इसलिए ऐसे बेहूदे विचारों को रखने से बेहतर होगा कि निर्वाचित प्रतिनिधियों को चुनावों में प्राप्त विजय, चाहे वह एक बार ही क्यों न हो, द्वारा प्राप्त जन-विश्वास के साथ न्याय करने के लिए प्रेरित किया जाये। इसके इलावा उम्मीदवारों के परिवर्तन द्वारा इस प्रकार के विशिष्ट कार्य में ज्यादा लोगों को प्रशिक्षित करने का मौका पा सकते हैं, जो उनमें समर्पण भी भावना पैदा करेगा जो उन्हें विभिन्न आबंटित क्षेत्रों में जन-नेता बना सकता है।
और अंत में, आरक्षण के बारे में विभिन्न क्षेत्रों के लोगों द्वारा सामान्यतः उठाया जाने वाला सवाल - यदि इतना अधिक आरक्षण जैसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के लिए, महिलाओं के लिए तथा उसके बाद अन्य पिछड़ी जातियों के लिए, यदि अन्तोगत्वा एक अन्य संविधान संशोधन द्वारा ऐसा किया जाता है) तब इन श्रेणियों के अलावा लोगों के लिए विधान सदनों में पहुंचने के बहुत कम अवसर बचेंगे। इस प्रश्न से एक प्रतिप्रश्न उठता है। आजादी के 50 सालों बाद भी लोगों के इतने बड़े तबके के मध्य पिछड़ापन क्यों व्याप्त है? क्या यह उचित है?
इसके अलावा उदाहरणार्थ, महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण ही लेते हैं। संयुक्त प्रवर समिति ने सिफारिश की कि पन्द्रह वर्षो तक आरक्षण रहने के बाद, इसका पूनर्मूल्यांकन किया जाये और उस वक्त जैसी भी परिस्थितियां हो, आरक्षण को समाप्त कर दिया जाये या जारी रखा जाये।
सामाजिक न्याय और समानता सुनिश्चित करो!
इसलिए, अगर सामाजिक न्याय और समानता के लिए पूरा समाज संघर्ष करता है, और लगातार प्रयासों से पिछड़े तबकों को आगे लाया जा सकता है, आरक्षण के प्रश्न को हमेशा के लिए समाप्त किया जा सकता है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मामले में पचास वर्षो के बाद संविधान में पूनर्मूल्यांकन का प्राविधान है। यह पचास साल पूरे हो रहे हैं, क्या हम ईमानदारी से उनके पिछड़ेपन के उन्मूलन का दावा कर सकते हैं? यदि नहीं तो क्यों? इसलिए इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए सामाजिक न्याय हेतु वृृहद प्रभावी संघर्ष की जरूरत है जिससे एक वक्त सभी नागरिकों के मध्य मोटा-मोटी समानता स्थापित हो सके। यही एकमात्र सबके लिए बराबर अवसर मुहैया करा सकने का रास्ता है।
फरवरी 1997 में संसद का बजट सत्र शुरू हो रहा है, पूरे देश की महिलायें और महिला संगठन बेसब्री से देखेंगी कि आरक्षण विधेयक पर क्या होता है? इस बीच वे चुप नहीं बैठेंगी। वे अपने को संगठित करेंगी, वे विधान सभाओं और लोक सभा के सभी वर्तमान सदस्यों से सम्पर्क कर उनसे पूछेंगी कि क्या वे विधेयक का समर्थन करने जा रहें हैं? वे सरकार पर विधेयक को एजेन्डे में शामिल करने के लिए दवाब बनायेंगी। यदि वे पाती हैं कि सरकार लोक सभा और राज्य सभा में विधेयक प्रस्तुत करती है और वह इसलिए पास नहीं होता क्योंकि कुल सदस्य संख्या के आधे सांसद अनुपस्थित हो जाते हैं अथवा उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई सदस्य वोट नहीं देते तो ऐसी स्थिति के लिए जिम्मेदार सांसदों को स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अगले चुनावों में वे खड़े होते हैं तो महिलायें उन्हें वोट नहीं देंगी।
हम ऐसे सदस्यों से अनुरोध करते हैं कि वे गंभीरता से देखे कि क्या यह बेहतर होगा कि उनकी कुछ सीटें महिलाओं को चली जायें न कि अगले चुनाव में वे बुरी तरह पराजित हों। हमें आशा करनी चाहिए कि अच्छी समझदारी व्याप्त होगी।
- स्व. का. गीता मुखर्जी
(अनुवाद: प्रदीप तिवारी)
लोक सभा में महिला सदस्य
लोक सभा  वर्ष कुल संख्या महिला सांसद प्रतिशत
पहली 1951   499    22      4.4
दूसरी 1957   500    27      5.4
तीसरी 1962   503    34      6.7
चौथी 1967   523    31      5.9
पांचवी 1971   521    22      4.2
छठी 1977   544    19      3.4
सातवीं 1980   544    28      5.1
आठवी 1985   544    44      8.1
नवी 1990   529    28      5.3
दसवी 1991   509    36      7.1
गयारहवी 1996   537    34      6.3
बारहवीं 1998   543    43          7.9
तेरहवीं 1999   543   49  9.0
चौदहवीं 2004   543    45  8.3
पन्द्रहवीं 2009   543 61   11.2
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सती से सशक्तीकरण तक का लम्बा सफर

इस समय महिलाओं के सशक्तीकरण का वैष्विक संघर्ष सारे संसार में एक समान प्रबलता के साथ लड़ा जा रहा है। परन्तु दो सौ साल पहले भारत और यूरोप की महिलाओं ने अपना सफर अलग-अलग मार्गो से शुरू किया था।
यूरोप में महिला आन्दोलन की शुरूआत
यूरोप की महिलाओं ने सबसे पहले आधुनिक उद्योगों के संसार में प्रवेश किया। क्लारा जे़टकिन का जन्म बर्लिन में सन 1857 में हुआ और उन्होंने पोशाक बनाने वाली एक फैक्ट्री में 18 वर्ष की आयु में नौकरी शुरू की। उन्होंने फैक्ट्री के अन्दर महिलाओं और पुरूषों के मध्य समानता का मुद्दा उठाया। उन्होंने सभी महिला मजदूरों को ट्रेड यूनियन में शामिल करने के लिए प्रेरित किया। एक हड़ताल में भाग लेने के लिए क्लारा को उनके पति ओसिप सहित जर्मनी से निकाल दिया गया। दोनों पेरिस चले गये। फ्रांस की पुलिस ने भी उनका पीछा किया। भूख से क्लारा के पति ओसिप और उनके बच्चे मर गये। क्लारा बर्लिन वापस चली आयीं। क्लारा ने सन 1890 में लिब्नेख्त के साथ जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया।
कोपेनहागन में सन 1907 में क्लारा जे़टकिन ने समाजवादी महिलाओं का पहला अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया। सन 1910 में ‘काम के घंटे आठ’ की मांग कर रही अमरीका की फैक्ट्रियों में काम कर रही महिलाओं पर गोली चलाई गयी जिसमें 8 महिला मजदूरों की मृत्यु हो गयी। क्लारा ने सन 1910 में समाजवादी महिलाओं के दूसरे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें 8 मार्च को महिलाओं की अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया गया। उसके बाद से हर साल 8 मार्च को सारे संसार में रैलियां, प्रदर्शन, सभायें और तमाम आयोजन होते हैं और उनमें:
  • पूरे संसार की महिलाओं के साथ एकजुटता प्रदर्शित की जाती है;
  • संसार में शान्ति की स्थापना और युद्ध के अन्त की मांग की जाती है;
  • लैंगिक समानता की मांग करते हुए उनके लिए अनवरत संघर्ष का प्रण किया जाता है; और
  • तीन ‘के’ के अंत की मांग की जाती है।
आखिर क्या हैं यह तीन ‘के’
जर्मन भाषा में चर्च, शिशु और रसोई के शब्द ‘के’ अक्षर से शुरू होते हैं। चर्च की अगुआई में जर्मनी के सामन्ती समाज में कहा जाता था कि महिलायें केवल खाना बनाने वाली के रूप में, मां के रूप में और पादरियों की सेविका के रूप में ही अच्छी दिखाई देती हैं। क्लारा जे़टकिन ने सभी महिलाओं से इसी तीन ‘के’ के खिलाफ विद्रोह करने का आह्वान किया।
अक्टूबर क्रान्ति के बाद का. क्लारा जे़टकिन का सम्मान करने के लिए का. लेनिन ने उन्हें पेत्रोग्राद सोवियत में निर्वाचित करवाया। सन 1921 में क्लारा ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ की कार्यकारिणी के लिए निर्वाचित हुयीं।
सन 1933 में अपने जीवन के अंतिम क्षण तक सारे संसार के महिला आन्दोलन की प्रथम नायिका, पहली महिला शहीद और अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की पहली महिला नेत्री बनी रहीं।
भारत में महिला आन्दोलन की शुरूआत
यूरोप के विपरीत भारत में महिलाओं ने आधुनिक विचार और कार्यवाहियों के मार्ग पर चलना समाज सुधार आन्दोलन के जरिये शुरू किया।
महिलाओं के साथ सबसे अधिक पशुवत व्यवहार बंगाल में किया जाता था। जवान हिन्दू लड़कियों को उनके पति के शव के साथ बांध कर जला दिया जाता था। सती प्रथा के खिलाफ राजा राम मोहन राय (सन 1772-1833) ने अपनी जोरदार आवाज उठाई। ईष्वर चन्द्र विद्यासागर (सन 1820-1891) ने महिलाओं के लिए पहला आधुनिक विद्यालय खोला। उन्होंने विधवा विवाह के लिए कानून बनाने की मांग की और अपने पुत्र की शादी एक विधवा से की। इसी तरह मोहन गोविन्द रानाडे (सन 1842-1901), ज्योतिबा फूले (सन 1827-1890), विरसा लिंगम (सन 1848-1956), नारायण गुरू (सन 1855-1925), डा. भीमराव अम्बेडकर (सन 1890-1956) और पेरियार (सन 1879-1973) ने महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष किये। यह पहली धारा थी जिसके जरिये भारतीय महिलाओं ने पढ़ना-लिखना, घरों से बाहर निकलना, नौकरियां करना और समान नागरिक के रूप में अपने अधिकारों के लिए जागरूक होना शुरू किया।
स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भागीदारी
महिला जागरण की दूसरी धारा स्वतंत्रता संग्राम के जरिये शुरू हुई। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई धारायें शामिल थीं। स्वतंत्रता संग्राम की हर धारा ने कुछ न कुछ उत्कृष्ट महिला नायिकाओं को पैदा किया। सन 1857 के गदर ने महान कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान के शब्दों में ‘तलवार लिए हुए घोडे पर बैठी हुई’ नायिका रानी लक्ष्मी बाई को पैदा किया।
सन 1885 में कांग्रेस की स्थापना के साथ अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लोकतांत्रिक आन्दोलन का एक नया अध्याय शुरू हुआ। सन 1916 में जब महात्मा गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभाली तो जनांदोलनों के द्वार महिलाओं के लिए खुल गये। गांधी जी जानते थे कि अंग्रेजी राज को तभी समाप्त किया जा सकेगा जब उनके अनोखे सत्याग्रह में सड़कांे पर करोड़ों लोग जुट जायेंगे। गांधी जी ने लाखों महिलाओं को अपने घरों से निकल कर जेल जाने के लिए प्रेरित किया। एक बार जेल पहुंच कर महिलाओं ने न केवल सामंती बाधाओं को पार कर लिया बल्कि गांधी जी द्वारा स्वयं निर्धारित सीमाओं को भी लांघ गयीं। गांधी जी ने हमेशा भारतीय महिलाओं के लिए सीता और सावित्री को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। सन 1925 में कांग्रेस की अध्यक्षा निर्वाचित होने वाली सरोजिनी नायडू ने घोषणा कि - ”भारतीय महिलाओं के लिए सीता और सावित्री कभी आदर्श नहीं हो सकती। हमें सभी लक्ष्मण रेखाओं को तोड़कर पुरूषांे के बराबर बनना होगा।“
शिक्षित विद्यार्थियों के नेतृत्व में राष्ट्रीय क्रान्तिकारियों की धारा ने हाथ में बन्दूक लिए हुए कई उत्कृष्ट महिला संग्रामियों को पैदा किया। प्रीति लता और कल्पना दत्त इस धारा की प्रसिद्ध नायिकायें हैं।
सन 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। मार्क्सवाद और समाजवादी विचारों से लैस होकर महिलाओं ने विद्यार्थियों, मजदूर संघों और तिभागा, तेलंगाना, पुन्नप्रा व व्यलार सरीखे क्रान्तिकारी किसान संघर्षो का नेतृत्व करना शुरू कर दिया। मणिकुंतला सेन, रेमी चक्रवर्ती, कमला मुखर्जी, कनक मुखर्जी, इला रीड, अनिला देवी, लतिका सेन, बेलालाहिणी, गीता मलिक, नजीमुन्निसां अहमद, सुप्रिया आचार्य, गोदावरी पुरूलेकर, संतोष गुप्ता, प्रभा दासगुप्ता, सकीना बेगम, सुरजीत कौर, हाजरा बेगम और इला मित्रा आदि इस धारा की प्रसिद्ध नायिकायें में से कुछ नाम हैं।
संगठन के स्वरूप
क्षेत्रीय आन्दोलनों के फलस्वरूप उत्पन्न समस्याओं से निपटने के लिए स्वयं स्फूर्त ढ़ंग से महिलाओं ने जिला एवं राज्य स्तरीय संगठनों को खड़ा किया।
  1. घरों से बाहर निकलने का फैसला करने वाली महिलाओं के खिलाफ सामंती एवं पुनर्जागरण की ताकतों द्वारा चालू की गयी गुंडागर्दी से निपटने के लिए शुरूआती दौर में ही महिलाओं ने स्वःरक्षा दस्तों की आवष्यक महसूस की।
  2. महिलाओं ने विशिष्ट चिकित्सा परामर्श और सहायता की आवष्यकता महसूस कर चिकित्सा सहायता कमेटियों का गठन किया। महिलाओं ने इसी आवष्यकता के मद्देनजर चिकित्सा शिक्षा लेना शुरू किया।
  3. महिलाओं ने धर्म एवं राज्य द्वारा प्रदत्त अधिकारों की जानकारी की आवष्यकता महसूस की और इसके लिए कानूनी सहायता कमेटियों का गठन किया।
इन स्थानीय संगठनों से होते हुए महिलाओं ने सन 1927 में पहले अखिल भारतीय संगठन ”आल इंडिया वीमेन कांफ्रेंस“ (एआईडब्लूसी) का गठन किया। यह संगठन किसी राजनीतिक दल से सम्बद्ध नहीं था और सन 1953 तक अकेले भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधित्व करता रहा।
सन 1953 में वीमेन इंटरनेशनल डेमोक्रेटिक फेडरेशन (डब्लूआईडीएफ) की स्थापना हुई। डब्लूआईडीएफ का. क्लारा जे़टकिन द्वारा स्थापित ”इंटरनेशनल कांफ्रेंस आफ सोशलिस्ट वीमेन“ की उत्तराधिकारी संगठन था। डब्लूआईडीएफ से सम्बद्धता के प्रष्न पर एआईडब्लूसी में विभाजन हो गया और सन 1954 में ”नेशनल फेडरेशन आफ इंडियन वीमेन“ (एनएफआईडब्लू) की स्थापना हुई। अपनी स्थापना के समय से ही एनएफआईडब्लू महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए पूरे विष्व में संघर्षरत महिलाओं के साथ एकजुटता हेतु प्रतिबद्ध है।
भारत में महिला आन्दोलन के विभिन्न दौर और दृष्टिकोण
1 - सुधार एवं कल्याण का दृष्टिकोण :
भारत में महिला आन्दोलन की शुरूआत ही हिन्दू समाज सुधार आन्दोलन से हुई। समाज सुधार आन्दोलन की जरूरत अभी तक समाप्त नहीं हुई है। सुधार के पहले क्षण से ही सुधार का विरोध यानी पुनर्जागरण की ताकतों का जन्म हो गया।
समय के साथ पुनर्जागरण की ताकतों को पीछे हटना पड़ा परन्तु दुर्भाग्य से पिछले दस सालों से इन्हीं पुनर्जागरण की ताकतों का भारत में केन्द्रीय सत्ता पर कब्जा हो गया है। इसीलिए समाज सुधार के आन्दोलन को ढीला नहीं छोड़ा जा सकता है। पिछले तीन दशकों के दौरान जातिवादी ताकतों ने ताकतवर राजनीतिक दलों का गठन कर लिया। पुनर्जागरण और जातिवादी दोनों ताकतें महिलाओं के सशक्तीकरण के खिलाफ हैं। दहेज, बलात्कार, महिलाओं के खिलाफ शारीरिक हिंसा, बालिकाओं की भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराईयां उफान पर हैं। इन बुराईयों का उन्मूलन केवल कानून बना कर नहीं किया जा सकता। पितृसत्तात्मक विचारों के दिमागी नजरिये को ध्वस्त किये बगैर महिला आन्दोलन इन बुराईयों को रोक नहीं सकता।
मुसलमान सम्प्रदाय में सुधार आन्दोलन की शुरूआत एक सकारात्मक पहल है। ईरान की शिरीन इबादी को नोबल पुरस्कार एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। एक वकील, एक न्यायाधीश, एक विष्वविद्यालय शिक्षक रही शिरीन इबादी ने महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए कई बार जेल यात्रा की। नोबल पुरस्कार प्राप्त करते हुए शिरीन ने दृढ़ता के साथ घोषणा की - ”मेरा संघर्ष इस्लाम के खिलाफ नहीं बल्कि पुरूषों को अति के खिलाफ है।“
पिछले वर्ष वदोदरा में मुसलमान बुद्धिजीवियों के एक सम्मेलन ने हिम्मत के साथ घोषणा की - ”मुसलमान स्वयं अपने कट्टरवाद से छुटकारा पाये बिना हिन्दू कट्टरवादी ताकतों से संघर्ष नहीं कर सकते। मुसलमानों को समय के साथ स्वयं में सुधार करना चाहिए।“
स्पष्ट है कि महिलाओं को अपने सशक्तीकरण के लिए संघर्ष के दौरान सुधार और कल्याण के दृष्टिकोण को साथ लेकर चलना होगा।
2 - विकास में सहभागिता का अधिकार :
पुरूष प्रधान समाज द्वारा यह घोषणा की गयी थी कि महिलायें केवल अध्यापक और नर्सिंग के कामों के ही योग्य हैं और अन्य कामों के लिए वे अयोग्य हैं।
स्वतंत्रता के बाद जब विकास की प्रक्रिया देश में शुरू हुई तो महिलाओं ने सभी प्रकार के काम - पुलिस और सेना में, नागरिक प्रशासन और न्यायालयों में, चिकित्सा एवं संचार में, सामाजिक गतिविधियों और खेलकूद में सहभागी होना शुरू किया। उन्होंने सभी क्षेत्रों में दखल दिया और यह साबित कर दिया कि योग्यता, क्षमता, साहस, प्रतिबद्धता और समर्पण में वे पुरूषों से किंचित मात्र भी कम नहीं हैं।
महिलायें अब सामाजिक आर्थिक सभी क्षेत्रों में दखल बना रहीं हैं। वे हर विभाग में महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग कर रहीं हैं। जिसके फलस्वरूप जातिवादी राजनैतिक संगठनों ने महिला आन्दोलन में जाति के आधार पर दरार डालने के प्रयास करने शुरू कर दिये हैं। महिलाओं को और अधिक दृढ़ता के साथ जातिवाद के खिलाफ संघर्ष करना होगा। स्वतंत्रता एवं समानता के लिए महिलाओं के संघर्ष में जातिवाद उनका सबसे बड़ा दुष्मन है।
3 - सशक्तीकरण :
महिलाओं ने अपने सफर की शुरूआत सभी जगहों पर अलग-अलग मार्गो से शुरू की जो इतिहास ने उनके लिए खोला परन्तु अब अपने अनुभवों और संघर्षो से एक समान रास्ते पर आ गयीं है जो उनके सशक्तीकरण की ओर जाता है।
महिलाओं ने अपने पूरे संघर्ष में सामन्ती और धार्मिक ताकतों के प्रतिरोध को झेला है। परन्तु अब पूंजीवाद कथित ”वैज्ञानिक“ सत्यों के द्वारा उनके मार्ग पर प्रतिरोध के लिए आ गया है। उदाहरण स्वरूप:
  • विज्ञान बताता है कि एक स्वस्थ बच्चे के लिए एक ऐसी मां की जरूरत होती है जो गृहणी हो।
  • काम करने वाली महिला एक स्वस्थ बच्चे का जन्म नहीं दे सकती।
  • जन्म के बाद यदि बच्चे की देखरेख मां नहीं करती है तो बच्चा असामान्य, अपराधी और बुद्धिहीन हो जाता है।
  • काम करने वाली महिलायें पुरूषों को नैतिकता से डिगाती हैं। समाज में नैतिकता के हित में जरूरी है कि महिलायें घरों पर ही रहें।
सन 1895 में एंगेल्स की मृत्यु के बाद मातृसत्तात्मक सत्ता का मानव समाज के विकास की नीव के रूप में रक्षा नहीं की और मानव विज्ञान के क्षेत्र में पुरूष प्रधानता के कारण यह साबित करने की कोशिश की गयी कि मानव समाज का जन्म पितृसत्तात्मक था। अब यूरोप और अमरीका में महिला मानववैज्ञानिकों ने इस प्रतिपादन को ललकारना शुरू किया है।
इस प्रकार इन चारों तर्को के पीछे केवल एक उद्देष्य छिपा हुआ है - महिलाओं के सशक्तीकरण को रोकना।
सभी महिला संगठनों को ध्यान रखना होगा कि उनका संघर्ष पुरूषों या धर्मो से नहीं है बल्कि पितृसत्तात्मक विचारों के खिलाफ है।
- का. हरबंस सिंह
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